लिंग पुराण : सोम ( चन्द्रमा )-की स्थिति एवं गतिका निरूपण, चन्द्रकलाओंके हास तथा वृद्धिका वर्णन | Linga Purana: Description of the position and movement of Soma (Moon), description of waxing and waning of moon phases

लिंग पुराण [ पूर्वभाग ] छप्पनवाँ अध्याय

सोम ( चन्द्रमा )-की स्थिति एवं गति का निरूपण, चन्द्रकलाओं के हास तथा वृद्धि का वर्णन

सूत उवाच 

वीथ्याश्रयाणि चरति नक्षत्राणि निशाकरः।
त्रिचक्रोभयतोश्वश्च विज्ञेयस्तस्थ वे रथ:॥ ९

शतारैश्च त्रिभिश्चक्रैर्युक्त: शुक्लैहयोत्तमै: । 
दशभिस्त्वकशर्दिव्यैरसड्रैस्तैमनोजबै: ॥ २

रथेनानेन देवैश्च पितृभिश्चैव गच्छति। 
सोमो हाम्बुमयैगोंभि: शुक्लैः शुक्लगभस्तिमान्‌॥ ३

सूतजी बोले--चन्द्रमा वीथियोंमें स्थित नक्षत्रों चलता है। उसके रथको तीन पहियोंवाला तथा दोलों ओर घोड़ोंसे युक्त जानना चाहिये। यह सौ अरों (तीलियों)-वाले तीन पहियोंसे युक्त है एवं श्वेतवर्णवाले, उत्तम, पुष्ट, दिव्य जुएसे बिना नथे हुए और मनके समान वेगवाले दस घोड़ोंसे समन्वित है। श्वेत किरणोंवाले चन्द्रमा श्वेत रंगके अम्बुमय दस घोड़ोंसहित देवताओं तथा पितरोंके साथ इस रथसे चलते हैं॥ १--३॥ 

क्रमते शुक्लपक्षादौ भास्करात्परमास्थित:।
आपूर्यते परस्यान्तः सततं दिवसक्रमात्‌॥ ४

देवैः पीत॑ क्षये सोममाप्याययति नित्यशः। 
पीत॑ पञ्चदशाहं तु रश्मिनेकेन भास्कर:॥ ५

आपूरयन्‌ सुषुम्नेन भागं भागमनुक्रमात्‌। 
इत्येषा सूर्यवीयेण चन्द्रस्थाप्यायिता तनु:॥ ६

स पोर्णमास्यां दृश्येत शुक्ल: सम्पूर्णमण्डल: । 
एवमाप्यायितं सोम॑ शुक्लपक्षे दिनक्रमात्‌॥ ७

सूर्यसे दूरस्थित यह शुक्लपक्षके आदिसे क्रमशः: बढ़ता है। दिनके क्रमसे यह निरन्तर शुक्लपक्षसे अन्ततक वृद्धिको प्राप्त होता है। सूर्य इस चन्द्रमाको विकसित करता है। देवतागण [कृष्णपक्षमें] इसको पीते हैं। देवताओंके द्वारा यह पन्द्रह दिनतक पीया जाता है। सूर्य [अपनी] सुषुम्ना नामक एक किरणके द्वारा क्रश: इसके एक-एक भागको पूर्ण करते हैं। इन सूर्यके तेजसे चन्द्रमाका शरीर विकसित होता है। ये पूर्णिमा तिथिको पूर्णमण्डलवाले होकर श्वेतवर्णके दिखायी पड़ते हैं। इस शुक्लपक्षमें दिनके क्रमसे चन्द्रमा बढ़ते रहते हैं॥४--७॥

ततो द्वितीयाप्रभति बहुलस्य चतुर्दशीम्‌। 
पिब्न्त्यम्बुमयं देवा मधु सोम्यं सुधामृतम्‌॥ ८

सम्भूत॑ त्वर्धभासेन हामृतं सूर्यतेजसा। 
पानार्थममृतं॑ सोम॑ पौर्णमास्यामुपासते। ९

एकरात्रिं सुरा: सर्वे पितृभिस्त्वृषिभि: सह। 
सोमस्य कृष्णपक्षादौ भास्कराभिमुखस्य च॥ १०

प्रक्षीयन्ते परस्यान्त: पीयमाना: कला: क्रमात्‌। 
त्रयस्त्रिशच्छताश्चेव त्रयस्त्रिंशत्तथेव च॥ ११

त्रयस्त्रिंशत्सहस्त्राणि देवा: सोमं पिबन्ति वै। 
एवं दिनक्रमात्पीते विबुधेस्तु निशाकरे॥ १२

पीत्वार्धमासं गच्छन्ति अमावास्यां सुरोत्तमा:।
पितरश्चोपतिष्ठन्ति अमावास्यां निशाकरम्‌॥ १३

ततः पञ्चदशे भागे किञ्चिच्छिष्टे कलात्मके । 
अपराह्न पितृगणा जघन्यं पर्युपासते ॥ १४

पिबन्ति द्विकलं कालं शिष्टा तस्य कला तु या। 
निःसृतं तदमावास्यां गभस्तिभ्यः स्वधामृतम् ॥ १५

मासतृप्तिमवाप्याग्रयां पीत्वा गच्छन्ति तेऽमृतम् । 
पितृभिः पीयमानस्य पञ्चदश्यां कला तु या ॥ १६

यावत्तु क्षीयते तस्य भागः पञ्चदशस्तु सः । 
अमावास्यां ततस्तस्या अन्तरा पूर्यते पुनः ॥ १७

वृद्धिक्षयौ वै पक्षादौ षोडश्यां शशिनः स्मृतौ । 
एवं सूर्यनिमित्तैषा पक्षवृद्धिर्निशाकरे ॥ १८ 

तत्पश्चात्‌ कृष्णपक्षकी द्वितीयासे प्रारम्भ करके चतुर्दशी तिथितक देवतालोग चन्द्रमाके जलमय मधुर सुधामृतका पान करते हैं। वह अमृत सूर्यके तेजसे आधे महीनेतक चन्द्रमामें भरा रहता है। उस अमृतको पीनेके लिये पूर्णिमा तिथिको पूरी रात सभी देवता पितरों तथा ऋषियोंके साथ चन्द्रमाके पास स्थित रहते हैं। कृष्णपक्षके आदिसे सूर्याभिमुख चन्द्रमाकी पी जाती हुई कलाएँ क्रमश: क्षीण होती जाती हैं। वसु (८), रुद्र (११), आदित्य (१२) तथा अश्विनीद्रय (२)-ये तैंतीस देवता एवं इनके पुत्र-पौत्ररूप तैंतीस सौ तथा तैंतीस हजार देवता चन्द्रमाका पान करते हैं। इस प्रकार दिनके क्रमसे देवताओंके द्वारा चन्द्रमाका पान किये जानेप आधे महीनेतक पान करके वे श्रेष्ठ देवता अमावास्या तिथिको चले जाते हैं, उसके बाद उसी अमावास्या तिथिको पितृगण चन्द्रमाके पास स्थित होते हैं और शुक्लपक्षकी प्रतिपदातक बचे हुए अमृतका पान करते हैं। अन्तिम कलाके रूपमें पन्द्रहवें भागके शेष रहनेपर अपराहनमें पितृगण चन्द्रमाके पास आ जाते हैं और उसको जो कला बची रहती है, उसका पान दो कलावाले समय (दो घड़ी)-तक करते हैं। अमावास्या तिथिको किरणोंसे निकले हुए स्वधामृतको पीते हैं। इस प्रकार अमृत पीकर महीनेभरकी तृप्ति प्राप्त करके वे चले जाते हैं। प्रत्येक पक्षके आरम्भमें सोलहवें दिन चन्द्रमाकी वृद्धि तथा क्षयका होना बताया गया है। इस प्रकार पक्षमें चन्द्रमामें होनेवाली यह वृद्धि सूर्यके कारण होती है॥ ८--१८॥

॥ इति श्रीलिङ्गमहापुराणे पूर्वभागे सोमवर्णनं नाम षट्पञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५६ ॥

॥ इस प्रकार श्रीलिङ्गमहापुराणके अन्तर्गत पूर्वभागमें 'सोमवर्णन' नामक छप्पनवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ५६ ॥

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