लिंग पुराण : विभिन्न कल्पों में त्रिदेवों का परस्पर प्राकट्य तथा ब्रह्मा द्वारा महेश्वर की नामाष्टक स्तुति का वर्णन | Linga Purana: Description of the mutual appearance of the Trinity in different Kalpas and the nameless praise of Maheshwar by Brahma

लिंग पुराण [ पूर्वभाग ] इकतालीसवाँ अध्याय

विभिन्न कल्पों में त्रिदेवों का परस्पर प्राकट्य तथा ब्रह्मा द्वारा महेश्वर की नामाष्टक स्तुति का वर्णन

इन्द्र उवाच

पुनः ससर्ज भगवान् प्रभ्रष्टाः पूर्ववत्प्रजाः । 
सहस्त्रयुगपर्यन्ते प्रभाते तु पितामहः ॥ १

एवं परार्धे विप्रेन्द्र द्विगुणे तु तथा गते। 
तदा धराम्भसि व्याप्ता ह्यापो वहाँ समीरणे ॥ २

वह्निः समीरणश्चैव व्योम्नि तन्मात्रसंयुतः । 
इन्द्रियाणि दर्शकं च तन्मात्राणि द्विजोत्तम । ३

अहङ्कारमनुप्राप्य प्रलीनास्तत्क्षणादहो। 
अभिमानस्तदा तत्र महान्तं व्याप्य वै क्षणात् ॥ ४

महानपि तथा व्यक्तं प्राप्य लीनोऽभवद् द्विज।
अव्यक्तं स्वगुणैः सार्धं प्रलीनमभवद्भवे ॥ ५

इन्द्र बोले- तत्पश्चात् एक हजार चतुर्युगीके व्यतीत हो जानेपर प्रभात वेलामें भगवान् ब्रह्माने नष्ट हुई प्रजाओंका पुनः पूर्ववत् सृजन किया। हे विप्रेन्द्र ! इस प्रकार ब्रह्माके परार्धका दूना समय बीत जानेपर पृथ्वी जलमें, जल अग्निमें, अग्नि वायुमें और वायु आकाशमें अपनी-अपनी तन्मात्रासहित व्याप्त हो गये। हे द्विजश्रेष्ठ दसों इन्द्रियाँ, मन तथा तन्मात्राएँ अहंकारको प्राप्तकर तत्क्षण उसीमें विलीन हो गयीं। अहंकार उस महत्‌को व्याप्त करके एवं महत् भी अव्यक्तको व्याप्त करके उसी क्षण उनमें विलीन हो गया। है द्विज। अव्यक्त भी अपने गुणोंके साथ महेश्वरमें समाहित हो गया। इसके अनन्तर उन्हीं परम पुरुष शिवसे पूर्वकी भाँति सृष्टि होने लगी ॥ १-५॥

ततः सृष्टिरभूत्तस्मात्पूर्ववत्पुरुषाच्छिवात् । 
अथ सृष्टास्तदा तस्य मनसा तेन मानसाः ॥ ६

न व्यवर्धन्त लोकेऽस्मिन् प्रजाः कमलयोनिना।
वृद्धयर्थं भगवान् ब्रह्मा पुत्रैर्वे मानसैः सह ॥ ७

दुश्चरं विचचारेशं समुद्दिश्य तपः स्वयम्। 
तुष्टस्तु तपसा तस्य भवो ज्ञात्वा स वाञ्छितम् ॥ ८

ललाटमध्यं निर्भिद्य ब्रह्मणः पुरुषस्य तु। 
पुत्रस्नेहमिति प्रोच्य स्त्रीपुंरूपोऽभवत्तदा ॥ ९

एतदनन्तर पद्मयोनि ब्रह्माजीने अपने मनसे मानस पुत्रोंका सृजन किया। इस लोकमें जब प्रजाओंकी वृद्धि न हो सकी, तब प्रजा-वृद्धिके लिये स्वयं भगवान् ब्रह्मा अपने मानस पुत्रोंके साथ महेश्वरके निमित्त कठोर तप करने लगे। तब उनकी तपस्यासे प्रसन्न होकर वे महेश्वर शिव उनकी कामना समझकर उन पुरुषरूप ब्रह्माके ललाटके मध्य-भागका भेदन करके 'मैं आपका पुत्र हूँ'- ऐसा कहकर स्त्री-पुरुषरूपमें प्रकट हो गये। उनके पुत्र वे महादेव अर्धनारीश्वरके रूपमें प्रतिष्ठित हुए। तब  । तब उन्‍ हों? जगदूगुरु ब्रह्मसहित सब कुछ दग्ध कर दिया॥ ६-१

तस्य पुत्रो महादेवो हार्धनारीश्वरोऽभवत् । 
ददाह भगवान् सर्वं ब्रह्माणं च जगद्गुरुम् ॥ १०

अथार्धमात्रां कल्याणीमात्मन: परमेश्वरीम्‌। 
बुभुजे योगमार्गेण वृद्धयर्थ जगतां शिव:॥ १

तस्यां हरिं च ब्रह्माणं ससर्ज परमेश्वरः। 
विश्वेश्वरस्तु विश्वात्मा चास्त्रं पाशुपतं तथा ॥ १२

तस्माद्‌ ब्रह्मा महादेव्याश्चांशजश्च हरिस्तथा। 
अण्डज: पद्मजएचेव भवाड्भव एवं च॥ १३

एतत्ते कथितं सर्वमितिहासं पुरातनम्‌। 
परार्ध ब्रह्मणो यावत्तावद्धूति: समासत:॥ १४

बैराग्यं ब्रह्मणों वक्ष्ये तमोद्धूतं समासतः। 
नारायणो5पि भगवान्‌ द्विधा कृत्वात्मनस्तनुम्‌॥ १५

ससर्ज सकलं तस्मात्स्वाड्भादेव चराचरम्‌। 
ततो ब्रह्मणमसृजद ब्रह्मा रुद्रं पितामह:॥ १६

मुने कल्पान्तरे रुद्रो हरिं ब्रह्माणमीश्वरम्‌। 
ततो ब्रह्मणमसृजन्मुने कल्पान्ते हरि:॥ १७

नारायणं पुनर्त्रह्मा ब्रह्मणं च पुनर्भव:। 
तदा विचार्य वे ब्रह्मा दुःखं संसार इत्यज:॥ १८

सर्ग विसृज्य चात्मानमात्मन्येव नियोज्य च। 
संहत्य प्राणसञ्चारं पाषाण इब निशचल:॥ १९

इसके बाद शिवजीने समग्र जगतूकी वृद्धिके लिये योगमार्गके द्वारा कल्याणमयी अर्धमात्रास्वरूपिणी अपनी अर्धांगिनी परमेश्वरीके साथ संसर्ग किया। विश्वात्मा परमेश्वर शिवने उन परमेश्वरीसे विष्णु, ब्रह्म और पाशुपत अस्त्रका सृजन किया। इसीलिये ब्रह्मा तथा विष्णुको महादेवीके अंशसे उत्पन्न कहा गया है और उन ब्रह्माको अण्डज, पद्मज और भवांगभव भी कहा जाता है। मैंने आपसे यह सम्पूर्ण पुरातन इतिहास कह दिया जबतक ब्रह्माका परार्ध रहता है, तबतकके उनके ऐश्वर्य तथा तमोगुणसे प्रादुर्भूत उनके वैराग्यके विषयमें मैं संक्षेपमें कहूँगा भगवान्‌ नारायणने भी अपने शरीरको दो भागोंमें विभक्त करके अपने उसी अंगसे सम्पूर्ण चराचरकी सृष्टि की। तब उन्होंने ब्रह्माका सृजन किया और पितामह ब्रह्माने रुद्रका सृजन किया। हे मुने ! दूसरे कल्पमें रुद्रने विष्णु, ब्रह्मा और ईश्वर (शिव)-को उत्पन्न किया। हे मुने ! तदनन्तर दूसरे कल्पमें हरि (विष्णु)-ने ब्रह्माका सृजन किया। पुन: [दूसरे कल्पमें ] ब्रह्माने नारायणको और फिर भव (रुद्र)-ने ब्रह्माकी सृष्टि की। तत्पश्चात्‌ अजन्मा भगवान्‌ ब्रह्मा 'यह संसार दुःखरूप है 'ऐसा सोचकर सृष्टिकार्य छोड़ करके अपनेको आत्मतत्त्वमें अवस्थितकर प्राण-संचारको निरुद्ध करके पाषाणकी भाँति अचल होकर दस हजार वर्षोतक समाधि में स्थित रहे ॥ १०--१९॥ 

दशवर्षसहस्राणि समाधिस्थोभवत्यभु: 
अधोमुखं तु यत्पद्मं हृदि संस्थं सुशोभनम्‌॥ २०

पूरितं पूरकेणैव प्रबुद्धं चाभवत्तदा। 
तदूर्ध्ववकामभवत्कुम्भकेन निरोधितम् ॥ २१

तत्पद्मकर्णिकामध्ये स्थापयामास चेश्वरम्‌। 
तदोमिति शिव देवमर्धमात्रापरं परम्‌॥ २२

मृणालतन्तुभागैकशतभागे व्यवस्थितम्‌।
यमी यमविशुद्धात्मा नियम्यैवं हृदीश्वरम्‌॥ २३

तब उनके हृदय में जो नीचेकी ओर मुखवाला सुन्दर कमल विराजमान था, वह पूरक प्राणायामद्वारा वायुपूररित होकर विकसित हो उठा और पुन: कुम्भक प्राणायामद्वारा वायुनिरुद्ध होकर ऊर्ध्वमुखवाला हो गया। तब उन्होंने परमेश्वरको उसी कमलकी कर्णिकाके मध्यमें स्थापित कर दिया। तदनन्तर आत्मनियन्त्रण करनेवाले, संयम द्वारा विशुद्ध आत्मावाले तथा पूजनके योग्य ब्रह्माने की शब्दसे सम्बन्ध रखनेवाली अर्धमात्रासे परे जो नाद है उससे भी परे ब्रह्मसंज्ञक नादस्वरूप, मृणालतन्तुके शतभागके एक भागमें अवस्थित परम सूक्ष्म पीतवर्ण अग्नि: सदृश, यम-नियम आदि योगांग पुष्पोंके द्वारा पूजनीय तथा अविनाशी ईश्वरको अपने हृदयमें ध्यानावस्थित करके उनकी पूजा की ॥ २०-२३॥

यमपुष्पादिशि: पूज्यं याज्यो हायजदव्ययम्‌। 
तस्य हत्कमलस्थस्य नियोगाच्चांशजो विभु:॥ २४ 

ललाटमस्य॒नि्िद्य प्रादुरासीत्पितामहात्‌। 
लोहितो भूल्स्वयं नील: शिवस्य हृदयोद्धव: ॥ २५

वह्नेश्चेव तु संयोगात्प्रकृत्या पुरुष: प्रभु:। 
नीलश्च लोहितश्चैव यतः कालाकृति: पुमान्‌॥ २६

नीललोहित इत्युक्तस्तेन देवेन बै प्रभुः। 
ब्रह्मणा भगवान्‌ काल: प्रीतात्मा चाभवद्विभु: ॥ २७

सुप्रीतमनसं देवं तुष्टाव च पितामह:। 
नामाष्टकेन विश्वात्मा विश्वात्मानं महामुने॥ २८

तब हृदयकमलमें विराजमान रहने वाले उन ब्रह्माके अंशसे जायमान सर्वव्यापी रुद्र उनके ललाटका भेदन करके पितामहसे उत्पन्न हुए। शिवके हृदयसे प्रादुर्भूत पुरुष रुद्र स्वभावतः स्वयं नील होते हुए भी अग्निके संयोगके कारण लोहित (रक्त) वर्णक हो गये। चूंकि वे कालाकृति पुरुष रुद्र नील और लोहित वर्णके हुए, अतः वे ब्रहादेव प्रभु रुद्रको 'नीललोहित'- ऐसा कहने लगे। कालरूप भगवान् रुद्र ब्रह्माजीसे अत्यन्त प्रसन्न हुए। हे महामुने। तदनन्तर विश्वात्मा पितामह ब्रह्मा नामाष्टक स्तोत्रसे प्रसन्नचित्त विश्वात्मा भगवान् रुद्रकी स्तुति करने लगे ॥ २४-२८॥

पितामह उवाच

नमस्ते भगवन्‌ रुद्र भास्करामिततेजसे। 
नमो भवाय देवाय रसायाम्बुमयाय ते॥ २९

शर्वाय क्षितिरूपाय सदा सुरभिणे नमः। 
ईशाय वायवे तुभ्यं॑ संस्पर्शाय नमो नमः॥ ३०

पशूनां पतये चेव पावकायातितेजसे। 
भीमाय व्योमरूपाय शब्दमात्राय ते नमः॥ ३१

महादेवाय सोमाय अमृताय नमोउस्तु ते। 
उग्राय. यजमानाय नमस्ते कर्मयोगिने॥ ३२

यः पठेच्छुणुयाद्वापि पैतामहमिमं स्तवम्‌। 
रुद्राय कथितं विप्रान्‌ श्रावयेद्वा समाहित: ॥ ३३

पितामह बोले- हे भगवन्! हे रुद्र! हे भास्कर ! अमित तेजस्वी आपको नमस्कार है; अम्बुमय तथा रस- स्वरूप आप भगवान् भवको नमस्कार है। गन्धमय पृथ्वीरूप शर्वको नित्य नमस्कार है; स्पर्शगुणयुक्त वायुरूप ईशको बार-बार नमस्कार है। अमित तेजस्वी अग्नि-रूप पशुपतिको नमस्कार है। शब्दतन्मात्रावाले व्योमरूप आप भीमको नमस्कार है। आप अमृतमय चन्द्रस्वरूप महादेवको नमस्कार है; आप कर्मयोगी यजमानरूप उग्रको नमस्कार है। जो मनुष्य समाहितचित्त होकर पितामह ब्रह्माके द्वारा रुद्रके लिये कहे गये इस स्तोत्रका पाठ करता है या श्रवण करता है अथवा विप्रोंको सुनाता है, वह एक वर्षमें ही अष्टमूर्ति भगवान् रुद्रका सायुज्य प्राप्त कर लेता है॥ २९-३३॥

अष्टमूर्तेस्तु सायुज्यं व्षादिकादवाण्नुयात्‌। 
एवं स्तुत्वा महादेवमवैक्षत पितामहः॥ ३४

तदाष्टधा महादेव: समातिष्ठत्समन्ततः । 
तदा प्रकाशते भानुः कृष्णवर्त्मा निशाकरः:॥ ३५ 

क्षितिर्वायु: पुमानम्भ: सुषिरं सर्वगं तथा। 
तदाप्रभ्ति त॑ प्राहुरष्टमूर्तिरितीश्वरम्‌ ॥ ३६

अष्टमूर्ते: प्रसादेन विरज्विश्चासूजत्पुनः। 
सृष्ट्वेतदखिलं ब्रह्मा पुनः कल्पान्तरे प्रभुः॥ ३७

सहस्त्रयुगपर्यन्त॑ संसुप्ते च चराचरे। 
प्रजा: सत्रष्टुमनास्तेपे तत उग्र॑ तपो महत्‌॥ ३८

इस प्रकार स्तुति करके जब पितामहने महादेवकी ओर देखा, तब वे सभी ओर आठ प्रकारसे विभक्त होकर सुशोभित होने लगे। उसी समयसे सूर्य, चन्द्र, अग्नि प्रकाश करने लगे और पृथ्वी, वायु, यजमानरूप पुरुष, जल तथा सर्वव्यापी गगन अपने-अपने गुणधर्मसे समन्वित हुए। उसी समयसे लोग उन ईश्वरको 'अष्टमूर्ति' इस नामसे कहने लगे उन्हीं अष्टमूर्तिके अनुग्रहसे ब्रह्माजी पुनः सृष्टि करने लगे। इस सम्पूर्ण जगत्का सृजन करके पुनः दूसरे कल्पमें हजार युगपर्यन्त चराचर संसारके सुप्त रहने पर भगवान्‌ ब्रह्माने प्रजा सृष्टि करनेके विचार से अत्यन्त उग्र तप आरम्भ कर दिया॥ ३४-३८ ॥

तस्वैव॑ तप्यमानस्थ न किडि्चित्समवर्तत। 
ततो दीर्घेण कालेन दुःखात्क्रोधो व्यजायत॥ ३९

क्रोधाविष्टस्य नेत्राभ्यां प्रापतन्नश्रुबिन्दव: । 
ततस्तेभ्यो श्रुबिन्दुभ्यो भूताः प्रेतास्तदाभवन्‌॥ ४०

सर्वास्तानग्रजान्‌ दृष्ट्वा भूतप्रेतनिशाचरान्‌। 
अनिन्दत तदा देवो ब्रह्मात्माममजो विभु:॥ ४१

जहौ प्राणांश्च भगवान्‌ क्रोधाविष्ट: प्रजापति: । 
ततः प्राणमयो रुद्र: प्रादुरासीत्प्रभोर्मुखात्‌॥ ४२

अर्धनारीएवरो भूत्वा बालार्कसदूशद्युति:। 
तदैकादशधात्मानं प्रविभज्य व्यवस्थित: ॥ ४३

इस प्रकार तप करते हुए उन ब्रह्माको जब कोर सफलता प्राप्त न हुई; तब दीर्घकालतक तप करनेस् उत्पन्न दु:खके कारण उन्हें क्रोध आ गया। तब क्रोधाबिषर उन ब्रह्माके नेत्रोंसे अश्रुबिन्दु गिरने लगे। तदनन्तर उन अश्रुबिन्दुओंसे भूत-प्रेत प्रादुर्भूत हो गये तब उन सभी भूत-प्रेत-निशाचरोंको पहले उत्पन्न हुआ देखकर अजन्मा तथा परम ऐश्वर्य शाली भगवान्‌ ब्रह्मा अपनेको कोसने लगे। इससे उन भगवान्‌ पितामहने कोपाविष्ट होकर अपने प्राण त्याग दिये
तत्पश्चात्‌ उन प्रभु के मुखसे उदयकालीन सूर्यके समान कान्तिवाले अर्धनारीश्वरके रूपमें होकर प्राणमय रुद्र प्रकट हुए। तब वे अपनेको ग्यारह स्वरूपोंमें विभक्त करके व्यवस्थित हो गये। उन सर्वात्मा रुद्रने अपने आधे अंशसे कल्याणकारिणी उमाको आविर्भूत किया ॥ ३९-४३ ॥

अर्धेनांशेन सर्वात्मा ससर्जासौ शिवामुमाम्‌। 
सा चासृजत्तदा लक्ष्मी दुर्गा श्रेष्ठां सरस्वतीम्‌॥ ४४

वामां रौद्रीं महामायां वैष्णवीं वारिजेक्षणाम्‌ । 
कलां विकरिणीं चैव कालीं कमलवासिनीम्‌॥ ४५

बलविकरिणीं देवीं बलप्रमधिनीं तथा। 
सर्वभूतस्य दमनीं ससृजे च मनोन्‍मनीम्‌॥ ४६

तथान्या बहव: सृष्टास्तया नार्यः: सहस्त्रशः । 
रुद्रैश्चैव.. महादेवस्ताभिस्त्रिभुवनेश्वर: ॥ ४७

सर्वात्ममश्च तस्याग्रे ह्यतिष्ठत्परमेश्वर: । 
मृतस्य तस्य देवस्य ब्रह्मण: परमेष्ठिन: ॥ ४८

घृणी ददौ पुनः प्राणान्‌ ब्रह्मपुत्रो महेश्वर:। 
ब्रह्मण: प्रददो प्राणानात्मस्थांस्तु तदा प्रभु:॥ ४९

प्रहृष्टो भूत्ततो रुद्र: किडिचत्प्रत्यागतासवम्‌ । 
अभ्यभाषत देवेशो ब्रह्माणं परम॑ वच:॥ ५०

मा भेदेव महाभाग विरिज्च जगतां गुरो। 
मयेह स्थापिता: प्राणास्तस्मादुत्तिष्ठ वै प्रभो॥ ५९

तत्पश्चात्‌ उमाने लक्ष्मी, दुर्गा तथा श्रेष्ठ सरस्वतीका सृजन किया; पुनः उन्होंने वामा, रौद्री, महामाया, कमलके समान नेत्रोंवाली वैष्णवी, कल-विकरिणी, काली, कमलवासिनी, बलविकरिणी, देवी बलप्रमथिनी, सर्वभूतदमनी और मनोन्‍मनी का सृजन किया। इसी प्रकार उन्होंने अन्य बहुत-सी हजारों नारियोंकी सृष्टि की तब तीनों लोकोंके स्वामी परमेश्वर महादेव समस्त रुद्रों तथा उन देवियोंके साथ उन सर्वात्मा ब्रह्माके समक्ष खड़े हो गये । तदनन्तर ब्रह्मपुत्र दयालु महेश्वर शिवने उन मरे हुए परमेष्ठी भगवान्‌ ब्रह्माको पुनः प्राण प्रदान कर दिये। जब प्रभु शिवने ब्रह्मामें आत्मस्थित प्राणोंका संचार किया, तब उन्हें कुछ-कुछ चेतनायुक्त देखकर भगवान्‌ रुद्र अत्यन्त प्रसन्‍न हुए इसके बाद देवेश्वर शिवने ब्रह्माजीसे यह श्रेष्ठ वचन कहा--हे देव! डरिये मत! हे महाभाग हे विरिञ्च! हे जगदगुरो! मैंने आपमें प्राण स्थापित करे दिये हैं; अत: हे प्रभो! अब उठिये॥ ४४-५१॥

श्रुत्ता वचस्ततस्तस्यथ स्वणनभूत॑ मनोगतम्‌। 
पितामहः प्रसन्नात्मा नेत्रे: फुल्लाम्बुजप्रभे: ॥ ५२

ततः प्रत्यागतप्राण: समुदैक्षन्महेश्वरम्‌। 
स उद्दीक्ष्य चिरं काल॑ स्निग्धगम्भीरया गिरा॥ ५३

उवाच भगवान्‌ ब्रह्मा समुत्थाय कृताउ्जलि: । 
भो भो वद महाभाग आनन्दयसि मे मन:॥ ५४

को भवानष्टमूर्तिव स्थित एकादशात्मक: । 
इन्द्र उवाच तस्य तद्वचनं श्रुत्वा व्याजहार महेश्वर:॥ ५५

स्पृशन्‌ कराभ्यां ब्रह्माणं सुखाभ्यां स सुरारिहा ।

तब उनका स्वप्नभूत मनोगत वचन सुनकर पितामह प्रसन्‍नचित्त हो गये। तदनन्तर लब्धप्राण ब्रह्माजीने अपने खिले हुए कमलके समान नेत्रोंसे महेश्वरको देखा। बहुत समयतक उन्हें देखते रहनेके पश्चात्‌ भगवान्‌ ब्रह्माने उठ करके दोनों हाथ जोड़कर स्नेहयुक्त गम्भीर वाणीमें उनसे कहा-हे महाभाग! आप मेरे मनको आनन्दित कर रहे हैं; एकादश रूपोंमें प्रतिष्ठित अष्टमूर्ति आप कौन हैं ? इन्द्र बोले--उनका वचन सुनकर देवशत्रुओंका संहार करनेवाले महेश्वर अपने सुखप्रद हाथोंसे ब्रह्माजीका स्पर्श करते हुए उनसे कहने लगे॥ ५२ - ५५॥

श्रीशंकर उवाच

मां विद्धि परमात्मानमेनां मायामजामिति॥ ५६

एते वे संस्थिता रुद्रास्त्वां रक्षितुमिहागता:। 
ततः प्रणम्य तं ब्रह्मा देवदेवमुवाच ह॥ ५७ 

कृताञ्जलिपुटो भूत्वा हर्षगद्गदया गिरा। 
भगवन्‌ देवदेवेश दुःखेैराकुलितो हाहम्‌॥५८

संसारान्मोक्तुमीशान मामिहाईसि शड्डूर। 
ततः प्रहस्य भगवान्‌ पितामहमुमापति:॥ ५९ 

तदा रुद्रैर्जगन्नाथस्तया चान्तर्दधे विभु:। 

श्रीशंकर बोले--मुझे परमात्मा तथा इन्हें अजन्मा माया समझिये और सामने खड़े ये रुद्र आपकी रक्षा करनेके लिये यहाँ आये हैं तदनन्तर उन देवाधिदेवको प्रणाम करके ब्रह्माने हाथ जोड़कर हर्षपूर्ण गदगद वाणीमें कहा--हे भगवन्‌! हे देवदेवेश ! मैं दुःखोंसे अत्यन्त व्याकुल हूँ। हे ईशान! हे शंकर! मुझे इस संसारसे मुक्त करनेमें आप समर्थ हैं  तत्पश्चात्‌ पितामह ब्रह्माकी इस बातपर हँसकर सर्वव्यापी तथा जगत्‌के स्वामी उमापति भगवान्‌ शिव रुद्रों एवं उन भगवती उमाके साथ अन्तर्धान हो गये॥ ५६ - ५९ ॥

इन्द्र उवाच

तस्माच्छिलाद लोकेषु दुर्लभो वे त्वयोनिज: ॥ ६०

मृत्युहीनः पुमान्‌ विद्धि समृत्यु: पद्दजोपि सः। 
किन्तु देवेश्वरो रुद्र: प्रसीदति यदीश्वर:॥ ६१

न दुर्लभो मृत्युहीनस्तव पुत्रों हायोनिज:। 
मया च विष्णुना चैव ब्रह्मणा च महात्मना॥ ६२

अयोनिजं मृत्युहीनमसमर्थ निवेदितुम्‌।

शैलादिरुवाच

एवं व्याहत्य विप्रेन्द्रमनुगृह् च त॑ घृणी॥ ६३

देवैव॑तों ययौ देवः सितेनेभेन वे प्रभु:॥ ६४

इन्द्र बोले--हे शिलाद! अत: समस्त लोकोंमें अयोनिज तथा मृत्युरहित पुरुष सर्वथा दुर्लभ है। [यहाँतक कि] वे पद्मयोनि ब्रह्मा भी मृत्युयुक्त हैं--ऐसा जानिये। किंतु यदि देवेश्वर भगवान्‌ रुद्र प्रसन्‍न हो जायूँ, तो आपके लिये मृत्युरहित तथा अयोनिज पुत्र दुर्लभ नहीं है। मैं, विष्णु एवं महात्मा ब्रह्मा भी मृत्युहीन तथा अयोनिज पुत्र देनेमें असमर्थ हैं शैलादि बोले--इस प्रकार विप्रेन्द्रसे कहकर तथा उनपर अनुग्रह करके वे दयालु इन्द्र देवताओंके साथ श्वेतवर्णवाले ऐरावतपर आरूढ़ होकर चले गये ॥ ६०-६४ ॥

॥ श्रीलिड्रमहापुराणे पूर्वभागे इद्रवाक्यं नामैकचत्वारिशोउथ्याय: ॥ ४१ ॥

॥ इस प्रकार श्रीलिड्रमहापुराणके अन्तर्गत पूर्वभागमें 'इद्रवाक्य नामक इकतालीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ॥

FAQs : - यहां "लिंग पुराण" के पूर्वभाग के इकतालीसवें अध्याय पर आधारित कुछ प्रश्न और उनके उत्तर दिए गए हैं:

  • प्रश्न: भगवान ब्रह्मा द्वारा प्रजाओं का पुनः सृजन कब हुआ? 

उत्तर: भगवान ब्रह्मा ने सृष्टि के परार्ध (द्विगुण समय) के बाद पुनः प्रजाओं का सृजन किया। जब एक हजार चतुर्युगी (सहस्त्रयुग) का समय बीत गया, तब ब्रह्मा ने प्रजाओं को पुनः उत्पन्न किया।

  • प्रश्न: भगवान ब्रह्मा ने किसके द्वारा तपस्या की थी? 

उत्तर: भगवान ब्रह्मा ने स्वयं महेश्वर शिव के निमित्त कठोर तपस्या की थी, ताकि प्रजा की वृद्धि हो सके।

  • प्रश्न: शिवजी ने किस रूप में भगवान ब्रह्मा के ललाट में प्रकट किया? 

उत्तर: शिवजी ने ब्रह्मा के ललाट के मध्य में पुरुष रूप में प्रकट हो कर अपनी इच्छा पूरी की। उनके पुत्र अर्धनारीश्वर के रूप में प्रतिष्ठित हुए।

  • प्रश्न: भगवान ब्रह्मा और शिव ने किस विशेष अस्त्र का सृजन किया? 

उत्तर: भगवान शिव ने भगवान ब्रह्मा के साथ मिलकर पाशुपत अस्त्र का सृजन किया।

  • प्रश्न: भगवान ब्रह्मा ने शिव के साथ कौन से विशेष कार्य किए? 

उत्तर: भगवान ब्रह्मा और भगवान शिव ने मिलकर सृष्टि का कार्य किया और विभिन्न रूपों में विश्व का निर्माण किया।

  • प्रश्न: भगवान नारायण ने अपने शरीर को कैसे विभक्त किया? 

उत्तर: भगवान नारायण ने अपने शरीर को दो भागों में विभक्त किया, जिससे सम्पूर्ण चराचर की सृष्टि हुई।

  • प्रश्न: शिव और ब्रह्मा के बीच संवाद किस रूप में हुआ? 

उत्तर: भगवान ब्रह्मा ने शिव को अपने ललाट का भेदन करके दर्शन दिया और दोनों ने मिलकर सृष्टि का कार्य किया।

  • प्रश्न: भगवान शिव ने किस रूप में ब्रह्मा से उत्पन्न हुए? 

उत्तर: भगवान शिव ने ब्रह्मा के हृदय से प्रकट होकर उनके ललाट का भेदन किया।

  • प्रश्न: शिव के दर्शन से क्या लाभ होता है? 

उत्तर: शिव के दर्शन से व्यक्ति का उद्धार होता है, वह सुखी और सम्पन्न होता है और उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है।

  • प्रश्न: भगवान ब्रह्मा ने शिव की स्तुति में कौन सा स्तोत्र पढ़ा? 

उत्तर: भगवान ब्रह्मा ने शिव की स्तुति में "नामाष्टक" स्तोत्र का पाठ किया, जिससे वे शिव के गुणों को अत्यन्त श्रद्धा और भक्ति से पूजते हैं।

टिप्पणियाँ