लिंग पुराण [ पूर्वभाग ] अड़तालीसवाँ अध्याय
भूमध्य में स्थित मेरु ( सुमेरु ) पर्वत और इन्द्र आदि लोकपालों की पुरियों का वर्णन
सूत उवाच
अस्य द्वीपस्थ मध्ये तु मेरु्नाम महागिरि:।
नानारलमये: श्रृद्ढै: स्थित: स्थितिमतां बर:॥ ९
चतुराशीतिसाहसतरमुत्सेधेन प्रकोर्तित:।
प्रविष्ट: षोडशाधस्ताद्विस्तृत: षोडशैव तु॥ २
शराववत्संस्थितत्वाद् द्वात्रिंशन्मूर्ध्नि विस्तृत: ।
विस्तारात्रिगुणश्चास्य परिणाहोउनुमण्डल:॥ ३
सूतजी बोले- इस द्वीपके मध्यमें मेरु नामक महान् पर्वत है। पर्वतों में श्रेष्ठ यह अनेक प्रकारके रत्नोंसे पूर्ण शिखरोंसे युक्त होकर स्थित है यह चौरासी हजार योजन ऊँचाईवाला कहा गया है। यह सोलह हजार योजन पृथ्वीके नीचे प्रविष्ट है और सोलह हजार योजन ही फैला हुआ है। यह एक चौड़े शराव (कसोरा)-के समान स्थित है और बत्तीस हजार योजन चोटीपर फैला हुआ है। इसका घेरा इसके विस्तारसे तीन गुना है॥ २-३॥
हैमीकृतो महेशस्य शुभाड़स्पर्शनेन च।
धत्तूरपुष्पसड्डभाश: सर्वदेवनिकेतन:॥ ४
क्रीडाभूमिश्व देवानामनेकाश्चर्यसंयुत: ।
लक्षयोजन आयामस्तस्यैवं॑ तु महागिरे:॥ ५
ततः षोडशसाहस्त्र॑ योजनानि क्षितेरध:।
शेषज्चोपरि विप्रेन्द्रा धरायास्तस्य श्रृद्धिण:॥ ६
मूलायामप्रमाणं तु विस्तारान्मूलतो गिरे:।
ऊचुर्विस्तारमस्यैव द्विगुणं मूलतो गिरेः॥ ७
पूर्वतः पदारागाभो दक्षिणे हेमसन्निभ:।
पश्चिमे नीलसड्डाश उत्तरे विद्रुमप्रभ:॥ ८
अमरावती पूर्वभागे नानाप्रासादसड्डूला।
नानादेवगणै: कीर्णा मणिजालसमावृता॥ ९
गोप्रैर्विविधाकारैहमरलविभूषितै: ।
तोरणहमचित्रैस्तु मणिक्लुप्तै: पथि स्थित: ॥ १०
सललापालापकुश सर्वाभरणभूषिते:।
स्तनभारविनग्रे मदधघूर्णितलोचने: ॥ ११
स्त्रीसहस्त् समाकीर्णा चाप्सरोभि: समन्ततः ।
दीर्घिकाभिर्विचित्राभि: फुल्लाम्भोरुहसडुलै: ॥ १२
हेमसोपानसंयुक्तेहेमसिकतराशिभिः ।
नीलोत्पलैश्चोत्पलैश्च हैमैश्चापि सुगन्धिभि: ॥ १३
एवंविधैस्तटाकैश्व॒नदीभिश्च नददर्युता।
विराजते पुरी शुभ्रा तयासौ पर्वतः शुभः॥ १४
यह महेश्वरके शुभ शरीरके स्पर्शसे सुवर्णका हो गया है। यह धतूरके पुष्पके समान आभावाला, सभी देवताओंका निवासस्थान तथा देवताओंकी क्रीड़ाभूमि है और अनेक आश्चर्योसे भरा हुआ है इस महान् पर्वतका आयाम एक लाख योजन है। पृथ्वीके नीचे यह सोलह हजार योजनतक है और हे विप्रेन्दो! उस पर्वतका शेष भाग पृथ्वीके ऊपर है। इस पर्वतके मूलके आयाम (दैर्घ्य)-का प्रमाण विस्तारमें है; उसके विस्तारको पर्वतके मूलसे दुगुना कहा गया हैं यह पूर्वमें पद्मगगकी आभाके समान, दक्षिणमें स्वर्णके समान, पश्चिममें नीलमणि के समान और उत्तरमें मूँगेके समान है इसके पूर्वभागमें अमरावती (इन्द्रपुरी) है, जो अनेक प्रकारके महलोंसे युक्त, अनेक देवताओंसे भरी हुई और मणिमय जालोंसे घिरी हुई है। यह विविध आकायरवाले तथा स्वर्ण एवं रत्नोंसे विभूषित गोपुरों, सोने तथा मणियोंके बने हुए अद्भुत तोरणों, राजमार्गपर स्थित-वार्तालापमें प्रवीण-सभी आभूषणोंसे अलंकृतस्तनके भारसे झुकी हुई एवं मदके कारण घूर्णित नेत्रोंवाली हजारों स्त्रियोंस भरी और चारों ओरसे अप्सराओंसे घिरी हुई है। यह विचित्र बावलियोंसे युक्त है। यह खिले हुए कमलोंसे सुशोभित, स्वर्णकी बनी हुई सीढ़ियोंवाले, स्वर्णमय बालुओंवाले, नीलकमलों तथा अन्य प्रकारके कमलोंसे शोभायमान, सुगन्धित नील कमलों एवं स्वर्णकमलोंवाले इस प्रकारके सरोवरोंसे तथा नदियों और नदोंसे युक्त यह सुन्दर पुरी [ अत्यन्त] शोभित है। उस पुरीसे यह सुन्दर पर्वत भी सुशोभित होता है॥ १० -१४॥
तेजस्विनी नाम पुरी आग्नेय्यां पावकस्य तु।
अमरावतीसमा दिव्या सर्वभोगसमन्विता ॥ १५
वैवस्वती दक्षिणे तु यमस्य यमिनां वराः ।
भवनैरावृता दिव्यैर्जाम्बूनदमयैः शुभैः ॥ १६
नैर्ऋते कृष्णवर्णा च तथा शुद्धवती शुभा।
तादृशी गन्धवन्ती च वायव्यां दिशि शोभना ॥ १७
महोदया चोत्तरे च ऐशान्यां तु यशोवती।
पर्वतस्य दिगन्तेषु शोभते दिवि सर्वदा ॥ १८
ब्रह्मविष्णुमहेशानां तथान्येषां निकेतनम् ।
सर्वभोगयुतं पुण्यं दीर्घिकाभिर्नगोत्तमम् ॥ १९
सिद्धैर्यक्षैस्तु सम्पूर्ण गन्धर्वैर्मुनिपुङ्गवैः ।
तथान्यैर्विविधाकारैर्भूतसङ्गैश्चतुर्विधैः ॥ २०
इस पर्वतके आग्नेय (दक्षिण-पूर्व) भागमें अग्निदेवकी तेजस्विनी नामक पुरी है। यह अमरावतीतुल्य, दिव्य तथा समस्त भोगोंसे परिपूर्ण है हे व्रतियोंमें श्रेष्ठ मुनिगण ! इसके दक्षिणमें यमकी उत्तम वैवस्वती नामक पुरी है। यह सुवर्णमय, दिव तथा शुभ भवनोंसे घिरी हुई है इसके नैऋत्य (दक्षिण-पश्चिम) में कृष्णवर्णकी सुन्दर शुद्धवतीपुरी है और वायव्य (पश्चिम-उत्तर) दिशामें उसी प्रकारकी सुन्दर पुरी गन्धवती है। इसके उत्तरमें महोदया तथा ईशान (उत्तर-पूर्व) में यशोवती नामक पुरी है। इस प्रकार मेरु पर्वतकी सभी दिशाओंमें द्युलोकमें पुरियाँ सर्वदा सुशोभित रहती हैं यह पर्वत ब्रह्मा, विष्णु, महेश तथा अन्य देवताओंका निवासस्थान है। यह समस्त सुख-साधनोंसे सम्पन्न् पुण्यमय, अनेक झीलों और उत्तम वृक्षोंसे युक्त है। यह सिद्धों, यक्षों, गन्धवों, श्रेष्ठ मुनियों एवं विविध आकारवाले चारों प्रकारके प्राणियोंसे परिपूर्ण है॥ १५-२० ॥
गिरेरुपरि विप्रेन्द्राः शुद्धस्फटिकसन्निभम् ।
सहस्त्रभौमं विस्तीर्णं विमानं वामतः स्थितम् ॥ २९
तस्मिन् महाभुजः शर्वः सोमसूर्याग्निलोचनः ।
सिंहासने मणिमये देव्यास्ते षण्मुखेन च ॥ २२
हरेस्तदर्थं विस्तीर्ण विमानं तत्र सोऽपि च।
पद्मरागमयं दिव्यं पद्मजस्य च दक्षिणे ॥ २३
तस्मिन् शक्रस्य विपुलं पुरं रम्यं यमस्य च।
सोमस्य वरुणस्याथ निर्ऋतेः पावकस्य च ॥ २४
वायोश्चैव तु रुद्रस्य सर्वालयसमन्ततः ।
तेषां तेषां विमानेषु दिव्येषु विविधेषु च ॥ २५
ईशान्यामीश्वरक्षेत्रे नित्यार्चा च व्यवस्थिता ।
सिद्धेश्वरैश्च भगवाँच्चैलादिः शिष्यसम्मतः॥ २६
सनत्कुमारः सिद्धैस्तु सुखासीनः सुरेश्वरः ।
सनकश्च सनन्दश्च सदृशाश्च सहस्त्रशः ॥ २७
योगभूमिः क्वचित्तस्मिन् भोगभूमिः क्वचित्ववचित् ।
बालसूर्यप्रतीकाशं विमानं तत्र शोभनम् ॥ २८
शैलादिन: शुभं चास्ति तस्मिन्नास्ते गणेश्वर: ।
घण्मुखस्थ गणेशस्य गणानां तु सहस्त्रश:॥ २९
हे श्रेष्ठ ब्राह्मणो! इस पर्वतके ऊपर शुद्ध स्फटिक के समान, हजार मण्डपोंसे युक्त तथा विस्तृत विमान बायीं ओर स्थित हैं। विशाल भुजाओंवाले तथा चन्द्र- सूर्य-अग्निरूप नेत्रोंवाले शिव उसमें मणिमय सिंहासनपर पार्वती-देवी तथा कार्तिकेयके साथ विराजमान रहते हैं वहाँ विष्णुका भी विमान है, जो उन शिवके विमानके आधे विस्तारवाला है और दक्षिणमें पद्मयोनि ब्रह्माका पद्मरागमय दिव्य विमान है उस मेरुपर शिवके भवनके चारों ओर इन्द्र, यम, चन्द्रमा, वरुण, निर्ऋति, पावक, वायु और रुद्रका विशाल तथा सुन्दर पुर है। विविध दिव्य विमानोंमें अन्य लोगोंका निवास है। उस ईश्वरक्षेत्र (शिवविमान) में ईशानदिशामें नित्य पूजा होती रहती है। वहाँ भगवान् नन्दी सिद्धेश्वरोंके साथ रहते हैं और शिष्योंसहित सुरेश्वर सनत्कुमार सिद्धोंके साथ सुखपूर्वक आसीन रहते हैं। इसी प्रकार सनक, सनन्द और उन्हींके समान अन्य हजारों लोग विराजमान रहते हैं उस पर्वतपर कहीं-कहीं योगभूमि है और कहीं- कहीं भोगभूमि है। वहाँ उगते हुए सूर्यके सदृश, सुन्दर तथा शुभ विमान है, उसमें वे गणेश्वर विराजमान रहते हैं। वहाँ छ: मुखोंवाले कार्तिकेय, गणेश, हजारों गणों, सुयशा तथा सुनेत्रा--इन पार्वतीकी सखियों, सभी माताओं तथा मदन (कामदेव)-के भी विमान हैं॥ २९-२९ ॥
सुयशायाः सुनेत्राया: मातृणां मदनस्यथ च।
तस्य जम्बूनदी नाम मूलमावेष्ट्य संस्थिता॥ ३०
तस्य दक्षिणपाशवे तु जम्बूवृक्ष: सुशोभन:।
अत्युच्छितः सुविस्तीर्ण: सर्वकालफलप्रदः ॥ ३९
मेरो: समन्ताद्विस्तीर्ण शुभं वर्षमिलावृतम्।
तत्र जम्बूफलाहारा: केचिच्यामृतभोजना: ॥ ३२
जाम्बूनद्समप्रख्या नानावणश्चि भोगिन:।
मेरुपादाश्रितो विप्रा द्वीपोड्यं मध्यम: शुभ: ॥ ३३
नववर्षान्वितश्चैव नदीनदगिरीएवरै:।
नववर्ष तु वश्ष्यामि जम्बूद्वीप॑ यथातथम्॥ ३४
विस्तारान्मण्डलाच्चैव योजनैश्च निबोधत॥ ३५
उस पर्वतके मूलकों चारों ओरसे घेरकर जम्बू नामक नदी प्रवाहित होती है। उसके दक्षिण भागमें अत्यन्त सुन्द, बहुत ऊँचा, अतिविस्तृत तथा सभी समयोंमें फल प्रदान करनेवाला जम्बूवृक्ष है मेरु पर्वतके चारों ओर इलावृत नामक विस्तृत तथा सुन्दर वर्ष (देश) है। वहाँपर लोग जम्बूफलका आहार करनेवाले हैं और कुछ लोग अमृतका आहार करनेवाले हैं। वहाँके लोग स्वर्णके समान आभावाले तथा अन्य वर्णोवाले भी हैं और [सब प्रकारके] सुखोंको भोगनेवाले हैं। हे विप्रो! यह द्वीप मेरुके मूलके चारों ओर फैला हुआ, सुन्दर, मध्यमें स्थित, नौ वर्षोंसे युक्त और नदियों-नदों तथा महान पर्वतोंसे समन्वित है। अब में नो वर्षोंसे युक्त जम्बूद्दीपका यथार्थ वर्णन करूँगा; योजनोंमें इसके विस्तार, मण्डल आदिको [आपलोग] सुनिये॥ ३०-३५॥
॥ श्रीलिंगमहापुराणे पूर्वभागे मेरुगिरिवर्णन॑ नामाष्टचत्वारिशोउध्याय: ॥ ४८ ॥
॥ इस प्रकार श्रीलिंगमहापुराणके अन्तर्गत एर्वभागमें 'मेरुगिरिवर्णन नामक अड़तालीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ४८ ॥
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