लिंग पुराण [ पूर्वभाग ] सैंतालीसवाँ अध्याय
जम्बूद्वीपके अधिपति प्रियत्रतके पुत्र महाराज आग्नीश्रका वंश वर्णन तथा आग्नीक्के शिव भक्त नौ पुत्रों का अजनाभवर्ष ( भारतवर्ष ), किम्पुरुषवर्ष आदि नौ वर्षो ( देशों )-का स्वामी बनना
सूत उवाच
आग्नीक्ष॑ ज्येष्ठदायादं काम्यपुत्रं महाबलम्।
प्रियत्रतो भ्यषिज्चद्बै जम्बूद्वीपेशव ॥ ९
सोतीव भवभक्तश्च तपस्वी तरुण: सदा।
भवार्चनरतः श्रीमान् गोमान् धीमान् द्विजर्षभा: ॥ २
सूतजी बोले--राजा प्रियत्रतने अपने ज्येष्ठ उत्तराधिकारी महाबली प्रिय पुत्र आग्नीध्रको जम्बूद्वीप राजाके रूप में अभिषिक्त किया हे श्रेष्ठ ब्राह्मणो! वह महान् शिवभक्त, तपस्वी तरुण, सदा शिवपूजनमें रत रहनेवाला, ऐश्वर्यसममल अनेक गायोंका स्वामी तथा बुद्धिमान था॥१ - २॥
तस्य पुत्रा बभूवुस्ते प्रजापतिसमा नव।
सर्वे माहेश्वराश्चैव महादेवपरायणाः ॥ ३
ज्येष्ठो नाभिरिति ख्यातस्तस्य किम्पुरुषोऽनुजः ।
हरिवर्षस्तृतीयस्तु चतुर्थों वै त्विलावृतः ॥ ४
रम्यस्तु पञ्चमस्तत्र हिरण्मान् षष्ठ उच्यते।
कुरुस्तु सप्तमस्तेषां भद्राश्वस्त्वष्टमः स्मृतः ॥ ५
नवमः केतुमालस्तु तेषां देशान्निबोधत ।
नाभेस्तु दक्षिणं वर्ष हेमाख्यं तु पिता ददौ ॥ ६
हेमकूटं तु यद्वर्ष ददौ किम्पुरुषाय सः।
नैषधं यत्स्मृतं वर्ष हरये तत्पिता ददौ ॥ ७
इलावृताय प्रददौ मेरुर्यत्र तु मध्यमः।
नीलाचलाश्रितं वर्ष रम्याय प्रददौ पिता ॥ ८
श्वेतं यदुत्तरं तस्मात्पित्रा दत्तं हिरण्मते।
यदुत्तरं शृङ्गवर्षं पिता तत्कुरवे ददौ ॥ ९
वर्ष माल्यवतं चापि भद्राश्वस्य न्यवेदयत्।
गन्धमादनवर्ष तु केतुमालाय दत्तवान् ॥ १०
उसके प्रजापतिके समान नौ पुत्र हुए। वे सभी शिवभक्त तथा शिवपरायण थे उनमें ज्येष्ठ पुत्र नाभि नामसे प्रसिद्ध था। उसके छोटे भाईका नाम किम्पुरुष था। तीसरा पुत्र हरिवर्ष तथा चौथा पुत्र इलावृत था। रम्य पाँचवाँ पुत्र था। हिरण्मान् छठा पुत्र कहा जाता है। कुरु उनमें सातवाँ था और भद्राश्व आठवाँ पुत्र कहा गया है। नौवाँ केतुमाल था। अब उनके देशोंके विषयमें सुनिये पिताने [ज्येष्ठ पुत्र] नाभिको दक्षिणमें स्थित हेम नामक वर्ष (देश) प्रदान किया। उन्होंने हेम कूट नामक जो वर्ष था, उसे किम्पुरुषको दिया। नेषध नामक जो वर्ष कहा गया है, उसे पिताने हरिको दे दिया पिता ने मेरु पर्वतसे आवृत मध्य देश इलावृतको दिया और नीलाचल नामक वर्ष रम्यको दिया। पिताने हिरण्मान्को उत्तरमें स्थित श्वेत नामक वर्ष दिया और उत्तरमें जो श्रृंगवर्ष है, उसे उन्होंने कुरु नामक पुत्रको दिया। इसी प्रकार उन्होंने भद्राश्वको माल्यवान्वर्ष दिया और केतुमालको गन्धमादनवर्ष दिया॥ ३--१० ॥
इत्येतानि महान्तीह नव वर्षाणि भागशः।
आग्नीध्रस्तेषु वर्षेषु पुत्रांस्तानभिषिच्य वै ॥ ११
यथाक्रमं स धर्मात्मा ततस्तु तपसि स्थितः ।
तपसा भावितश्चैव स्वाध्यायनिरतस्त्वभूत् ॥ १२
स्वाध्यायनिरतः पश्चाच्छिवध्यानरतस्त्वभूत् ।
यानि किम्पुरुषाद्यानि वर्षाण्यष्टौ शुभानि च ॥ १३
तेषां स्वभावतः सिद्धिः सुखप्राया ह्ययत्नतः ।
विपर्ययो न तेष्वस्ति जरामृत्युभयं न च ॥ १४
धर्माधर्मों न तेष्वास्तां नोत्तमाधममध्यमाः ।
न तेष्वस्ति युगावस्था क्षेत्रेष्वष्टसु सर्वतः ॥ १५
रुद्रक्षेत्रे मृताश्चैव जङ्गमाः स्थावरास्तथा।
भक्ताः प्रासङ्गिकाश्चापि तेषु क्षेत्रेषु यान्ति ते ॥ १६
तेषां हिताय रुद्रेण चाष्टक्षेत्रं विनिर्मितम् ।
तत्र तेषां महादेवः सान्निध्यं कुरुते सदा ॥ १७
दृष्ट्वा हदि महादेवमष्टक्षेत्रनिवासिन:।
सुखिनः सर्वदा तेषां स एवेह परा गति:॥ १८
नाभेर्निसर्ग वक्ष्यामि हिमाड्लेउस्मिन्निबोधत।
नाभिस्त्वजनयत्पुत्र॑ मेरुदेव्यां महामति:॥ १९
ऋषभं पार्थिवश्रेष्ट सर्वक्षत्रस्थ॒पूजितम्।
ऋषभाद्धरतो जज्ञे वीरः पुत्रशताग्रज:॥ २०
विभागके अनुसार ये नौ महान् वर्ष हैं। धर्मात्मा राजा आग्नीभ्र उन वर्षो्में अपने उन पुत्रोंको [राजपदपर ] क्रमानुसार अभिषिक्त करके तपस्यामें रत हो गये। तपसे अपनेको शुद्ध करनेके अनन्तर वे स्वाध्यायमें संलग्न हो गये और स्वाध्यायमें रत रहनेवाले वे बादमें शिवके ध्यानमें निमग्न हो गये किम्पुरुष आदि जो आठ शुभ वर्ष थे, उनमें स्वभावत: बिना प्रयलके ही सुखमय सिद्धि थी। उनमें [किसी प्रकारका] विपरीत भाव नहीं था और [प्रजाओंमें] बुढ़ापे तथा मृत्युका भय नहीं था। उनमें न धर्म था न अधर्म और उत्तम, मध्यम तथा अधम--ये भाव नहीं थे। उन आठों क्षेत्रोंमें हर प्रकारसे युगकी अवस्था नहीं थी रुद्रक्षेत्रमें जो भी स्थावर, जंगम, भक्त अथवा अस्थायी आगमन्तुक प्राणी मृत होते हैं, वे उन्हों क्षेत्रोंमें जाते हैं। रुद्रने उनके कल्याणके लिये ही आवठों क्षेत्रोंका निर्माण किया है। वहाँपर महादेव सदा उनका सान्निध्य करते हैं॥ आठों क्षेत्रोंके निवासी [अपने] हृदयमें महादेवको देखकर सदा सुखी रहते हैं। वे [महादेव) ही उनकों परम गति हैं अब मैं हिमसे चिह्नित इस [हिमालय]-में विद्यमान नाधिके वंशका वर्णन करूँगा, आपलोग सुनें। महाबुद्धिमान् नाभिने मेरुदेवीसे राजाओंमें श्रेष्ठ तथा सभी राजाओंसे पूजित ऋषभ नामक पुत्रको उत्पन्न किया। ऋषभसे पराक्रमी भरत उत्पन्न हुए, जो उनके सौ पुत्रोंमें सबसे बड़े थे ॥ ११-२० ॥
सोउभिषिच्याथ ऋषभो भरतं पुत्रवत्सल:।
ज्ञानवैराग्यमाथित्य जित्वेन्द्रियमहोरगान्॥ २१
सर्वात्मनात्मनि स्थाप्य परमात्मानमीश्वरम्।
नग्नो जटी निराहारो चीरी ध्वान्तगतो हि सः ॥ २२
निराशस्त्यक्तसन्देहः शैवमाप पर पदम्।
हिमाद्रेर्दक्षिणं वर्ष भरताय न्यवेदयत्॥ २३
तस्मात्तु भारतं वर्ष तस्य नाम्ना विदुर्ब॒धा:।
भरतस्यात्मजो विद्वान् सुमतिर्नाम धार्मिक:॥ २४
बभूव तस्मिस्तद्राज्य॑ भरत: सन्यवेशयत्।
पुत्रसड्क्रामितश्रीको वनं राजा विवेश सः॥ २५
उन पुत्रवत्सल ऋषभने भरत का राज्याभिषेक करके ज्ञान-वैराग्यका आश्रय लेकर सर्परूप इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करके परमात्मा ईश्वरको पूर्णरूप से अपने में स्थापितकर [स्वयं] दिगम्बर, जटाधारी, वल्कलधारी तथा निराहार होकर वनमें प्रवेश किया। उन्होंने [समस्त] आशाओंसे रहित तथा सन्देहमुक्त होकर शिवका परम पद प्राप्त किया उन्होंने हिमालय पर्वतके दक्षिणमें स्थित वर्ष भरतको प्रदान किया था, इसीलिये विद्वान् लोग उनके नामसे उसे भारतवर्ष कहते हैं भरत के सुमति नामक विद्वान् तथा धार्मिक पुत्र हुए। भरतने वह राज्य उन्हें सौंप दिया। पुत्रको राज्य प्रदान करके वे राजा [भरत] वनमें प्रविष्ट हुए ॥ २१-२५॥
॥ इति श्रीलिङ्गमहापुराणे पूर्वभागे भरतवर्षकथनं नाम सप्तचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४७ ॥
॥ इस प्रकार श्रीलिङ्गमहापुराणके अन्तर्गत पूर्वभागमें 'भरतवर्षकथन' नामक सैंतालीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ४७ ॥
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