लिंग पुराण : अग्नि तथा पितरों के वंश का वर्णन, ब्रह्मा जी से रुद्रों का प्रादुर्भाव, परमेष्ठी सदा शिव की महिमा |

श्री लिङ्गमहा पुराणे : छठा अध्याय

अग्नि तथा पितरों के वंश का वर्णन, ब्रह्मा जी से रुद्रों का प्रादुर्भाव, परमेष्ठी सदा शिव की महिमा

सूत उवाच 

पवमानः पावकश्च शुचिरग्निश्च ते स्मृताः । 
निर्मथ्यः पवमानस्तु वैद्युतः पावकः स्मृतः ॥ १

शुचिः सौरस्तु विज्ञेयः स्वाहा पुत्रास्वयस्तु ते। 
पुत्रैः पौत्रैस्त्विहैतेषां संख्या सक्षेपतः स्मृता ॥ २

सूतजी बोले-अग्निके वे तीन पुत्र पवमान, पावक तथा शुचि नामसे विख्यात हुए। अरणी आदिमें घर्षणसे पवमान, विद्युत्से पावक तथा सूर्य-प्रभासे शुचिका आविर्भाव हुआ। ये तीनों स्वाहाके पुत्र हैं। अब यहाँ पुत्रों तथा पौत्रोंको मिलाकर इनकी संख्या संक्षेपमें बतायी जाती है॥ १-२॥

विसृज्य सप्तकं चादौ चत्वारिंशन्नवैव च। 
इत्येते वहृयः प्रोक्ताः प्रणीयन्तेऽध्वरेषु च ॥ ३

सर्वे तपस्विनस्त्वेते सर्वे व्रतभृतः स्मृताः । 
प्रजानां पतयः सर्वे सर्वे रुद्रात्मकाः स्मृताः ॥ ४

अयज्वानश्च यज्वानः पितरः प्रीतिमानसाः । 
अग्निष्वात्ताश्च यज्वानः शेषा बर्हिषदः स्मृताः ॥ ५

मेनां तु मानसीं तेषां जनयामास वै स्वधा। 
अग्निष्वात्तात्मजा मेना मानसी लोकविश्रुता ॥ ६

असूत मेना मैनाकं क्रौञ्चं तस्यानुजामुमाम् । 
गङ्गां हैमवर्ती जज्ञे भवाङ्गाश्लेषपावनीम् ॥ ७

धरणीं जनयामास मानसीं यज्ञयाजिनीम्।
स्वधा सा मेरुराजस्य पत्नी पद्मसमानना ।। ८

पितरोऽमृतपाः प्रोक्तास्तेषां चैवेह विस्तरः। 
ऋषीणाञ्च कुलं सर्वं शृणुध्वं तत्सुविस्तरम् ॥ ९

आदि में सप्तक का त्याग करके कुल उनचास अग्नियों कही गयी हैं। ये यज्ञोंमें आराधित की जाती हैं ये सभी तपस्वी, व्रतधारी, प्रजाओंके पति तथा रुद्रस्वरूप कहे गये हैं अयज्वा तथा यज्या-ये दो प्रकारके प्रसन्न मनवाले पितर हैं। उनमें यज्वा (यज्ञ करनेवाले) पितरोंको अग्निष्वात्त तथा अयज्वा पितरोंको बर्हिषद कहा जाता है स्वधाने उन अग्निष्वात्त पितरोंसे मेना नामक मानसी कन्या उत्पन्न की। अग्निष्वात्त पितरोंकी वह मानसी पुत्री मेना लोकमें अतीव प्रसिद्ध हुई  मेनाने मैनाक, क्रौञ्च, उसकी अनुजा उमा तथा शिवजीके अंग-श्लेषके कारण (मस्तकपर विराजमान रहनेके कारण) जगत्‌को पवित्र करनेका गुण रखनेवाली हैमवती गंगाको उत्पन्न किया कमलके समान मुखवाली मेरुराजपत्नी स्वधाने यज्ञानुष्ठानमें प्रवृत्त रहनेवाली धरणी नामक मानसी पुत्री को जन्म दिया। यहाँ अमृतपान करने वाले पितरों तथा ऋषियों के कुल का विस्तार दिया जा रहा है; आप लोग उसे विस्तारपूर्वक सुनिये ॥ ३ -९ ॥

वदामि पृथगध्यायसंस्थितं वस्तदूर्ध्वतः । 
दाक्षायणी सती याता पार्श्व रुद्रस्य पार्वती ॥ १०

पश्चादृक्षं विनिन्द्रौषा पतिं लेभे भवं तथा।
तां ध्यात्वा ह्यसृजहुद्राननेकान्नीललोहितः ॥ ११

आत्मनस्तु समान् सर्वान् सर्वलोकनमस्कृतान्। 
याचितो मुनिशार्दूला ब्रह्मणा प्रहसन् क्षणात् ॥ १२

तैस्तु संच्छादितं सर्वं चतुर्दशविधं जगत्। 
तान्दृष्ट्‌वा विविधान् रुद्रान्निर्मलान्नीललोहितान् ।। १३

जरामरणनिर्मुक्तान् प्राह रुद्रान् पितामहः। 
नमोऽस्तु वो महादेवास्त्रिनेत्रा नीललोहिताः ।। १४

सर्वज्ञाः सर्वगा दीर्घा ह्रस्वा वामनकाः शुभाः । 
हिरण्यकेशा दृष्टिघ्ना नित्या बुद्धाश्च निर्मलाः ॥ १५

निर्द्वन्द्वा वीतरागाश्च विश्वात्मानो भवात्मजाः । 
एवं स्तुत्वा तदा रुद्रान् रुद्रं चाह भवं शिवम् । 
प्रदक्षिणीकृत्य तदा भगवान् कनकाण्डजः ॥ १६

अब मैं आप सबसे पूर्वनिरूपित विषयका पुनः पृथक् अध्यायमें वर्णन करता हूँ। दक्षकन्या सतीका विवाह रुद्रके साथ हुआ और वे उनके साथ चली गयीं। फिर इन्हों सतीने दक्षके यज्ञ का विध्वंस करके अपना देहत्याग कर दिया। इसके बाद पार्वतीरूपमें पुनः शिवजीको पतिके रूपमें प्राप्त किया हे मुनिशार्दूलो! उन (पार्वती) का ध्यान करके ब्रह्माजी की प्रार्थनापर नीललोहित महादेव जी ने क्षण- भरमें लीलापूर्वक अपने ही तुल्य तथा समस्त लोकोंके वन्दनीय अनेक रुद्र उत्पन्न कर दिये। उन रुद्रोंने सभी चौदह भुवनोंको पूर्णरूपेण व्याप्त कर लिया  जरा-मरणसे मुक्त तथा निर्मल आत्मावाले उन विविध नीललोहित रुद्रोंको देखकर पितामह ब्रह्माजीने उनसे कहा हे त्रिनेत्रधारी नीललोहित महादेवो! आप सभीको नमस्कार है। आप सभी सर्वज्ञ हैं, सर्वव्यापी हैं, दीर्घ- ह्रस्व-वामन (बौना) रूप धारण करनेवाले हैं, शुभ हैं, हिरण्यकेश हैं, दृष्टिष्न हैं, नित्य हैं, चेतनायुक्त हैं, निर्मल आत्मावाले हैं, द्वन्द्वरहित हैं, वीतराग हैं, विश्वकी आत्मा हैं तथा शिवजओके आत्मज हैं। इस प्रकार उन रुद्रोंकी अनेकविध स्तुति करके कनकाण्डज (हिरण्यगर्भ) भगवान् ब्रह्माने शिवजीकी प्रदक्षिणाकर उन भवरूप शिवसे कहा ॥ १० - १६ ॥

नमोऽस्तु ते महादेव प्रजा नार्हसि शङ्कर। 
मृत्युहीना विभोः स्त्रष्टुं मृत्युयुक्ताः सृज प्रभो ॥ १७

ततस्तमाह भगवान् नहि मे तादृशी स्थितिः । 
स त्वं सूज यथाकामं मृत्युयुक्ताः प्रजाः प्रभो ॥ १८

लब्ध्वा ससर्ज सकलं शङ्कराच्चतुराननः । 
जरामरणसंयुक्तं जगदेतच्वराचरम् ॥ १९

शङ्करोऽपि तदा रुद्रैर्निवृत्तात्मा ह्यधिष्ठितः । 
स्थाणुत्वं तस्य वै विप्राः शङ्करस्य महात्मनः ॥ २

हे महादेव। आपको नमस्कार है। हे प्रभो। हे शंकर। आपने तो अमर प्रजाओंको उत्पन्न कर दिया; ऐसी मृत्युहीन प्रजाकी सृष्टि उचित नहीं है। अतएव है विभो। अब आप मरणधर्मा प्रजाओंका सूजन करनेकी कृपा करें  तब भगवान् शंकरने ब्रह्मासे कहा- हे प्रभो। उस प्रकारकी (मरणधर्मा) सृष्टि करनेकी मेरी स्थिति नहीं है। अतएव आप ही मृत्युसे युक्त रहनेवाली प्रजाका अपने इच्छानुसार सृजन कीजिये भगवान् शंकरकी ऐसी आज्ञा प्राप्तकर चतुरानन ब्रह्माने जरा-मरणसे युक्त इस सम्पूर्ण स्थावर-जंगम जगत्की रचना की भगवान् शंकर भी उस समय रुद्रों (रुद्रात्मक सृष्टिके सूजन) से निवृत्त आत्मावाले होकर अधिष्ठित हो गये। हे विप्रो! निष्कल आत्मावाले तथा अपनी इच्छासे शरीर धारण करनेवाले उन महात्मा शंकरका स्थाणुत्व हो गया। इसीलिये वे भगवान् रुद्र दयार्द्र होकर सभी प्राणियोंका कल्याण करते हैं॥ २०-२१॥

निष्कलस्यात्मनः शम्भोः स्वेच्छाधृतशरीरिणः । 
शं रुद्रः सर्वभूतानां करोति घृणया यतः ॥ २१

शङ्करश्चाप्रयत्नेन तदात्या योगविद्यया। 
वैराग्यस्वं विरक्तस्य विमुक्तिर्यच्छमुच्यते ॥ २२

अणोस्तु विषयत्यागः संसारभयतः क्रमात्। 
वैराग्याज्जायते पुंसो विरागो दर्शनान्तरे ॥ २३

विमुख्यो विगुणत्यागो विज्ञानस्याविचारतः । 
तस्य चास्य च सन्धानं प्रसादात् परमेष्ठिनः ॥ २४

धर्मो ज्ञानञ्च वैराग्यमैश्वर्यं शङ्करादिह। 
स एव शङ्करः साक्षात् पिनाकी नीललोहितः ॥ २५

ये शङ्कराश्रिताः सर्वे मुच्यन्ते ते न संशयः । 
न गच्छन्त्येव नरकं पापिष्ठा अपि दारुणम् ॥ २६

भगवान् शंकरकी आत्मा बिना प्रयत्नके ही कल्याण करनेवाली है। वे योगविद्याके द्वारा वैराग्यमें स्थित रहते हैं। विरक्त पुरुषको मुक्तिको ही कल्याण कहा जाता हैस्वल्प विषयोंका त्याग करके प्राणी सांसारिक भयसे मुक्त होकर क्रमसे वैराग्यको प्राप्त होता है और उस वैराग्यसे उस विरागी पुरुषको अन्तमें शिवजीका साक्षात् दर्शन प्राप्त होता है संसारनिवर्तक आत्मानात्मविवेकरूप विशिष्ट ज्ञानका विचार किये बिना जो क्षणिक विषयत्याग है वह ज्ञानरहित होनेसे अस्थायी है, अतएव विमुख्य [अप्रशंस्य] है। उस सतू, असत् वस्तु-विवेकरूप विचार तथा इस (सांसारिक) विषयोंके त्यागका एक साथ होना परमेष्ठी सदाशिवके कृपाप्रसादसे ही सम्भव है इस लोकमें धर्म, ज्ञान, वैराग्य तथा ऐश्वर्य शिवजीकी कृपासे प्राप्त होते हैं। वे कल्याण करनेके कारण शंकर हैं, पिनाक नामक धनुष धारण करनेके कारण पिनाकी हैं तथा उनका कण्ठ नीला एवं देह लाल होनेके कारण नीललोहित हैं जो प्राणी शंकरजीका आश्रय ग्रहण करते हैं अर्थात् उनके शरणागत होते हैं, वे सभी मुक्ति प्राप्त करते हैं। भगवान् शंकरके आश्रित महान् पापी भी अत्यन्त भयावह नरकको नहीं प्राप्त होते हैं। वे शिवजीके शाश्वत पदको पा जाते हैं। इस विषयमें कोई भी संदेह नहीं है॥ २२ - २६॥

आश्रिताः शङ्करं तस्मात्प्राप्नुवन्ति च शाश्वतम् ।
मायान्ताश्चैव घोराद्या ह्यष्टाविंशतिरेव च ॥ २७

कोटयो नरकाणान्तु पच्यन्ते तासु पापिनः। 
अनाश्रिताः शिवं रुद्रं शङ्करं नीललोहितम्।।॥ २८

आश्रयं सर्वभूतानामव्ययं जगतां पतिम्।
पुरुषं परमात्मानं पुरुहूतं पुरुष्टुतम् ॥ २९

तमसा कालरुद्राख्यं रजसा कनकाण्डजम्। 
सत्त्वेन सर्वगं विष्णुं निर्गुणत्वे महेश्वरम् ॥ ३०

केन गच्छन्ति नरकं नराः केन महामते। 
कर्मणाकर्मणा वापि श्रोतुं कौतूहलं हि नः ॥ ३१

ऋषिगण बोले- अहंकार (भोर) से लेकर मायापर्यन्त विभिन्न प्रकारके कुल अट्ठाईस करोड़ नरक हैं; उनमें जाकर पापी प्राणी अपने द्वारा किये गये कर्मोंके फल भोगते हैं। ये वही प्राणी होते हैं, जो शिव, रुद्र, शंकर, नीललोहित, सभी प्राणियोंके आश्रय, अव्यय, जगत्पति, विराट् पुरुष, परमात्मा, पुरुहूत, पुरुष्टुत, तमोगुणकी प्रधानता होनेपर कालरुद्ररूप, रजो गुणकी प्रधानता होनेपर ब्रह्मारूप, सत्त्वगुणकी प्रधानता होनेपर सर्वव्यापी विष्णुरूप तथा गुणरहित होनेपर महेश्वर-रूप भगवान् महादेवजीका आश्रय ग्रहण नहीं किये होते हैं हे महामते। अब हम लोगोंकी यह सुननेकी उत्कट अभिलाषा है कि किन-किन कमोंके करने अथवा न करनेसे मनुष्य नरकको प्राप्त होते हैं ॥ २७ - ३१॥

॥ इति श्रीलिङ्गमहापुराणे पूर्वभागे शङ्करमाहात्म्यवर्णनं नाम षष्ठोऽध्यायः ॥ ६ ॥ 

॥ इस प्रकार श्रीलिङ्गमहापुराणके अन्तर्गत पूर्वभागमें 'शंकरमाहात्म्यवर्णन' नामक छठा अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ६ ॥ 

FAQs: श्री लिङ्गमहापुराण के छठे अध्याय से संबंधित प्रश्न

Q1: छठे अध्याय में मुख्य रूप से किन विषयों का वर्णन किया गया है?

A1: इस अध्याय में अग्नि तथा पितरों के वंश का वर्णन, ब्रह्मा जी से रुद्रों का प्रादुर्भाव, और परमेष्ठी सदाशिव की महिमा का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है।


Q2: अग्नि के कितने पुत्र हैं, और उनका प्रादुर्भाव कैसे हुआ?

A2: अग्नि के तीन पुत्र हैं:

  1. पवमान - अरणी (लकड़ी के घर्षण) से उत्पन्न हुए।
  2. पावक - विद्युत (बिजली) से प्रकट हुए।
  3. शुचि - सूर्य की प्रभा से उत्पन्न हुए।

ये तीनों स्वाहा देवी के पुत्र कहे गए हैं।


Q3: पितरों को कितने भागों में विभाजित किया गया है?

A3: पितरों को दो भागों में विभाजित किया गया है:

  1. अग्निष्वात्त: यज्ञ करने वाले पितर।
  2. बर्हिषद: यज्ञ नहीं करने वाले पितर।

अग्निष्वात्त पितरों की मानसी पुत्री मेना और बर्हिषद पितरों की मानसी पुत्री धरणी हैं।


Q4: मेना कौन हैं, और उनके वंशज कौन-कौन हैं?

A4: मेना अग्निष्वात्त पितरों की मानसी पुत्री हैं। उनके वंशज हैं:

  1. मैनाक (पुत्र)
  2. क्रौञ्च (पुत्र)
  3. उमा (पुत्री)
  4. गंगा (पुत्री)

गंगा को शिवजी के अंग-श्लेष (मस्तक पर विराजमान) के कारण "भवांगाश्लेषपावनी" कहा गया है।


Q5: रुद्रों का प्रादुर्भाव कैसे हुआ?

A5: ब्रह्माजी की प्रार्थना पर भगवान नीललोहित रुद्र (शिव) ने अपने ही समान अनेक रुद्र उत्पन्न किए। ये रुद्र जरा-मरण से मुक्त, त्रिनेत्रधारी, और सर्वव्यापी थे। इन रुद्रों ने चौदह भुवनों को व्याप्त कर लिया।


Q6: भगवान शिव को "नीललोहित" क्यों कहा जाता है?

A6: भगवान शिव का कंठ नीला और देह लाल है। इसीलिए उन्हें "नीललोहित" कहा जाता है।


Q7: भगवान शिव की कृपा से क्या-क्या प्राप्त किया जा सकता है?

A7: भगवान शिव की कृपा से धर्म, ज्ञान, वैराग्य, और ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है। उनके शरणागत व्यक्ति पापों से मुक्त होकर मोक्ष प्राप्त करते हैं।


Q8: नरक का उल्लेख इस अध्याय में कैसे किया गया है?

A8: अध्याय के अनुसार, अट्ठाईस प्रकार के घोर नरक हैं। इनमें वे पापी प्राणी जाते हैं जो भगवान शिव का आश्रय नहीं लेते।


Q9: भगवान शिव की आराधना करने वालों को क्या लाभ होता है?

A9: भगवान शिव के शरणागत व्यक्तियों को नरक नहीं भोगना पड़ता। वे शाश्वत मोक्ष प्राप्त करते हैं।


Q10: छठे अध्याय का मुख्य संदेश क्या है?

A10: छठे अध्याय का मुख्य संदेश यह है कि भगवान शिव की कृपा और शरणागति से प्राणी मोक्ष प्राप्त कर सकता है। शिवजी कल्याणकारी, निर्गुण, और समस्त ब्रह्मांड के आधार हैं।


समाप्ति:

यह अध्याय शिवजी के महात्म्य और उनकी कृपा का महत्व स्पष्ट करता है, जो हर भक्त के लिए प्रेरणादायक है।

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