लिंग पुराण पाँचवाँ अध्याय
लिंग पुराण पाँचवाँ अध्याय - ब्रह्माजी द्वारा पंचपर्वा अविद्या की सृष्टि, नौ प्रकारकी सृष्टि (नवविध सर्ग) की संरचना, मरीचि आदि ऋषियों की उत्पत्ति, मनु-शतरूपा का प्रादुर्भाव तथा दक्षप्रजा पति की कन्याओंका वंशवर्णन
सूत उवाच
यदा स्त्रष्टुं मतिं चक्रे मोहश्चासीन्महात्मनः ।
द्विजाश्चाबुद्धिपूर्वं तु ब्रह्मणोऽव्यक्तजन्मनः ॥ १
तमो मोहो महामोहस्तामिस्त्रश्चान्धसंज्ञितः ।
अविद्या पञ्चधा होषा प्रादुर्भूता स्वयम्भुवः ॥ २
अविद्यया मुनेर्ग्रस्तः सर्गो मुख्य इति स्मृतः ।
असाधक इति स्मृत्वा सर्गों मुख्यः प्रजापतिः ॥ ३
अभ्यमन्यत सोऽन्यं वै नगा मुख्योद्भवाः स्मृताः ।
त्रिधा कण्ठो मुनेस्तस्य ध्यायतो वै ह्यवर्तत ॥ ४
सूतजी बोले- हे ब्राह्मणो। जब ब्रह्माजीने अबुद्धिपूर्वक अर्थात् सम्यक् विचार किये बिना सृष्टिरचनाका विचार किया, तब उन अव्यक्तजन्मा महात्मा ब्रह्माको मोहने व्याप्त कर लिया उन स्वयम्भूसे प्रथम तम (अज्ञान), मोह, महामोह (भोगेच्छा), तामिस्त्र (क्रोध) तथा अन्धतामिस्त्र (अभिनिवेश) नामवाली- ये पाँच प्रकारकी [पंचपर्वा] अविद्याएँ उत्पन्न हो गयीं ब्रह्माजीका वह मुख्य [प्रथम] सर्ग (सृष्टि) अविद्यासे ग्रस्त कहा गया है, तब उन्होंने इस प्रथम सर्गको सृष्टि-विस्तारका असाधक मानकर वृक्षादिरूप (वृक्ष, गुल्म, लता, वीरुधू, तृणरूप-पाँच प्रकारका सर्ग) मुख्यसर्गका सूजन किया, तदनन्तर ध्यानपूर्वक मनन करते हुए उन ब्रह्माजीका कण्ठ (चिन्तन) त्रिगुणात्मक (सत्त्व, रज तथा तमोगुणसे युक्त) हो गया ॥ १ -४॥
प्रथमं तस्य वै जज्ञे तिर्वक्त्रोतो महात्मनः ।
ऊर्ध्वस्त्रोतः परस्तस्य सात्त्विकः स इति स्मृतः ॥ ५
अर्वाक्रत्रोतोऽनुग्रहश्च तथा भूतादिकः पुनः ।
ब्रह्मणो महतस्त्वाद्यो द्वितीयो भौतिकस्तथा ।। ६
सर्गस्तृतीयश्चैन्द्रियस्तुरीयो मुख्य उच्यते।
तिर्यग्योन्यः पञ्चमस्तु षष्ठो दैविक उच्यते ॥ ७
सप्तमो मानुषो विप्रा अष्टमोऽनुग्रहः स्मृतः ।
नवमश्चैव कौमारः प्राकृता वैकृतास्त्विमे ॥ ८
पुरस्तादसृजद्देवः सनन्दं सनकं तथा।
सनातनं मुनिश्रेष्ठा नैष्कम्र्येण गताः परम् ॥ ९
मरीचिभृग्वङ्गिरसः पुलस्त्यं पुलहं क्रतुम् ।
दक्षमत्रिं वसिष्ठञ्च सोऽसृजद्योगविद्यया ॥ १०
नवैते ब्रह्मणः पुत्रा ब्रह्मज्ञा ब्राह्मणोत्तमाः ।
ब्रह्मवादिन एवैते ब्रह्मणः सदृशाः स्मृताः ॥ ११
सङ्कल्पश्चैव धर्मश्च ह्यधयों धर्मसन्निधिः ।
द्वादशैव प्रजास्त्वेता ब्रह्मणोऽव्यक्तजन्मनः ॥ १२
पहले उन महात्मा ब्रह्माने तिर्यक्त्रोत पशु आदि उत्पन्न किये, तत्पश्चात् उन्होंने ऊर्ध्वस्रोतकी रचना की, जो सात्त्विकरूप कहा गया। इसके अनन्तर अर्वाक्स्रोत (मनुष्य आदि), पुनः सत्त्व, तमप्रधान अनुग्रह-सर्ग, तदुपरान्त भूतादिकोंका सर्ग रचा गया ब्रह्माजीद्वारा रचित पहला सर्ग महत्तत्त्वादिका है, दूसरा भौतिक सर्ग है, जो भूततन्मात्राओंका है, तीसरा ऐन्द्रियसर्ग है [ये बुद्धिपूर्वक उत्पन्न हुए तीन सर्ग प्राकृत सर्ग हैं। और चौथा मुख्य सर्ग वृक्ष आदिका कहा जाता है। तिर्यक् योनिवाले पशु-पक्षियोंवाला सर्ग पाँचवाँ सर्ग है तथा छठा देवताओंकी सृष्टिवाला [ऊर्ध्वस्रोताओंका] दैवसर्ग कहा जाता है सातवाँ [अर्वाक्स्स्रोताओंका] सर्ग मनुष्योंका, आठवाँ अनुग्रहसर्ग है, [ये पाँच वैकृतसर्ग हैं] नौवाँ कौमार सर्ग कहा जाता है। हे विप्रो। प्राकृत तथा वैकृत ये ही नौ सर्ग हैं; जिनमें प्रारम्भके तीन सर्ग प्राकृत हैं तथा पाँच सर्ग वैकृत हैं तथा नौवाँ कौमारसर्ग प्राकृत तथा वैकृत दोनों है तदुपरान्त भगवान् ब्रह्माने सनक, सनन्दन तथा सनातन [एवं सनत्कुमार] मुनि उत्पन्न किये। ये श्रेष्ठ मुनिगण निष्काम कर्मयोगसे परमपदको प्राप्त हुए तत्पश्चात् उन्होंने अपनी योगविद्यासे मरीचि, भृगु, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रंतु, दक्ष, अत्रि तथा वसिष्ठ-इन ऋषियोंको उत्पन्न किया। हे श्रेष्ठ ब्राह्मणो। ब्रह्माजीके ये नौ [मानस] पुत्र ब्रहाको जाननेवाले थे। ये ब्रह्मवादी ऋषि ब्रह्माके ही तुल्य कहे गये हैं। संकल्प, धर्म तथा अधर्म भी उत्पन्न हुए। इस प्रकार उन अव्यक्तजन्मा ब्रह्माकी ये बारह सन्तानें कहलायीं ॥ ५ -१२॥
ऋभुं सनत्कुमारञ्च ससर्जादौ सनातनः ।
तावूर्ध्वरेतसौ दिव्यौ चाग्रजौ ब्रह्मवादिनी ॥ १३
कुमारौ ब्रह्मणस्तुल्यौ सर्वज्ञौ सर्वभाविनी।
वक्ष्ये भार्याकुलं तेषां मुनीनामग्रजन्मनाम् ॥ १४
समासतो मुनिश्रेष्ठाः प्रजासम्भूतिमेव च।
शतरूपां तु वै राज्ञीं विराजमसृजत् प्रभुः ॥ १५
स्वायम्भुवात्तु वै राज्ञी शतरूपा त्वयोनिजा।
लेभे पुत्रद्वयं पुण्या तथा कन्याद्वयं च सा ।। १६
उत्तानपादो हावरो धीमान् ज्येष्ठः प्रियव्रतः ।
ज्येष्ठा वरिष्ठा त्वाकृतिः प्रसूतिश्चानुजा स्मृता ॥ १७
उपयेमे तदाकृतिं रुचिर्नाम प्रजापतिः।
प्रसूतिं भगवान् दक्षो लोकधात्रीं च योगिनीम् ॥ १८
दक्षिणासहितं यज्ञमाकृतिः सुषुवे तथा।
दक्षिणा जनयामास दिव्या द्वादशपुत्रिकाः ॥ १९
प्रसूतिः सुषुवे दक्षाच्चतुर्विंशति कन्यकाः ।
श्रद्धां लक्ष्मीं धृतिं पुष्टिं तुष्टिं मेधां क्रियां तथा ॥ २०
बुद्धिं लज्जां वपुः शान्तिं सिद्धिं कीर्ति महातपाः ।
ख्यातिं शान्तिं च सम्भूतिं स्मृतिं प्रीतिं क्षमां तथा ॥ २१
सन्नतिं चानसूयां च ऊर्जा स्वाहां सुरारणिम्।
स्वधां चैव महाभागां प्रददौ च यथाक्रमम् ॥ २२
उन सनातन ब्रह्माने आदिमें ऋभु तथा सनत्कुमारको उत्पन्न किया था। अग्रजन्मा वे दोनों दिव्य पुत्र नैष्ठिक ब्रह्मचारी, ब्रह्मवादी, सर्वज्ञ, सर्वत्र व्याप्त रहनेवाले तथा ब्रह्माके हो समान थे हे श्रेष्ठ मुनियो। अब मैं उन अग्रजन्मा मुनियोंकी भार्याओंका कुल तथा प्रजाओंकी उत्पत्तिका संक्षेपमें वर्णन करूँगा ॥ भगवान् ब्रह्माने स्वायम्भुव मनु तथा रानी शतरूपाका सृजन किया। उस अयोनिजा तथा पुण्यशालिनी रानी शतरूपा ने स्वायम्भुव मनु से दो पुत्र एवं दो कन्याएँ उत्पन्न की उनमें बुद्धिसम्पन्न प्रियन्नत ज्येष्ठ तथा उत्तानपाद कनिष्ठ पुत्र थे। श्रेष्ठ गुणोंवाली आकूति ज्येष्ठ तथा प्रसूति छोटी कन्या थी रुचि नामक प्रजापतिने आकूतिको तथा दक्षप्रजा पति ने जगद्धात्री योगमयी प्रसूतिको भायकि रूपमें ग्रहण किया आकूतिने दक्षिणासहित यज्ञ नामक पुत्रको जन्म दिया और दक्षिणाने दिव्य बारह कन्याओंको उत्पन्न किया प्रसूतिने दक्षप्रजापतिसे श्रद्धा, लक्ष्मी, धृति, पुष्टि, तुष्टि, मेधा, क्रिया, बुद्धि, लज्जा, वपु, शान्ति, सिद्धि, कीर्ति, ख्याति, शान्ति, सम्भूति, स्मृति, प्रीति, क्षमा, सन्नति, अनसूया, ऊर्जा, देवताओं के लिये अरणिरूपा स्वाहा तथा स्वधा-इन तपोमयी चौबीस कन्याओंको उत्पन्न किया तथा इन महाभाग्यवती कन्याओंको आगे बताये गये क्रमके अनुसार महात्माजनोंको समर्पित कर दिया॥ १३ - २२॥
श्रद्धाद्याश्चैव कीर्त्यन्तास्त्रयोदश सुदारिकाः ।
धर्म प्रजापतिं जग्मुः पतिं परमदुर्लभाः ॥ २३
उपयेमे भृगुर्धीमान् ख्यातिं तां भार्गवारणिम्।
सम्भूतिञ्च मरीचिस्तु स्मृतिं चैवाङ्गिरा मुनिः ।। २४
प्रीतिं पुलस्त्यः पुण्यात्मा क्षमां तां पुलहो मुनिः ।
क्रतुश्च सन्नतिं धीमान् अत्रिस्ताञ्चानुसूयकाम् ॥ २५
ऊर्जा वसिष्ठो भगवान् वरिष्ठो वारिजेक्षणाम् ।
विभावसुस्तथा स्वाहां स्वधां वै पितरस्तथा ॥ २६
पुत्रीकृता सती या सा मानसी शिवसम्भवा ।
दक्षेण जगतां धात्री रुद्रमेवास्थिता पतिम् ॥ २७
अर्धनारीश्वरं दृष्ट्वा सर्गादौ कनकाण्डजः ।
विभजस्वेति चाहादौ यदा जाता तदाभवत् ॥ २८
तस्याश्चैवांशजाः सर्वाः स्त्रियस्त्रिभुवने तथा।
एकादशविधा रुद्रास्तस्य चांशोद्भवास्तथा ॥ २९
स्त्रीलिङ्गमखिलं सा वै पुंलिङ्ग नीललोहितः ।
तं दृष्ट्वा भगवान् ब्रह्या दक्षमालोक्य सुव्रताम् ॥ ३०
भजस्व धात्रीं जगतां ममापि च तवापि च।
पुन्नाम्नो नरकात्त्राति इति पुत्री त्विहोक्तितः ॥ ३१
श्रद्धा से लेकर कीर्तिपर्यन्त तेरह परम दुर्लभ सुन्दर कन्याओंने प्रजापति धर्मको पतिरूपमें प्राप्त किया। बुद्धिसम्पन्न भूगुने ख्यातिको, भार्गव शुक्राचार्यने अरणि [शान्ति] को, मरीचिने सम्भूतिको तथा मुनि अंगिराने स्मृतिको पत्नीरूपमें ग्रहण किया पुण्यात्मा पुलस्त्यने प्रीतिको, मुनि पुलहने क्षमाको, बुद्धिसम्पन्न क्रतुने सन्नतिको, अत्रिने उस अनसूयाको, श्रेष्ठ वसिष्ठने कमलके समान नेत्रोंवाली ऊर्जाको भगवान् अग्निने स्वाहादेवीको तथा पितरोंने स्वधादेवीको पत्नीरूप में स्वीकार किया दक्षप्रजा पति की शिवसम्भवा (शिवांगसम्भूता) मानसी पुत्री सती, जो सम्पूर्ण जगत्को धारण करने वाली हैं, ने भगवान् रुद्रको पतिरूपमें प्राप्त किया सृष्टि के प्रारम्भमें ब्रह्माजी ने शिवजी को अर्धनारीश्वर देख कर कहा कि आप स्त्री-पुरुषका विभाग कीजिये, तब शिवजीकी देहसे सतीजी अलग हो गयीं उन्हीं सत्तीके अंशसे तीनों लोकमें सभी स्त्रियोंको उत्पत्ति हुई है तथा ग्यारह प्रकारके रुद्र भी उन शिवके अंशसे उत्पन्न हैं। इस प्रकार सम्पूर्ण स्त्रीजातिके रूपमें वे सतीजी तथा पुरुषजातिके रूपमें नीललोहित शिवजी अधिष्ठित हैं भगवान् ब्रह्माने सुव्रता सतीको देखकर पुनः दक्षप्रजापतिकी ओर देखकर उनसे कहा कि ये सती हमारी, आपकी तथा सम्पूर्ण जगत्को धात्री हैं, अतएव इनकी सेवा करो। पुन्नामक नरकसे पुत्री ही रक्षा करती है, यहाँपर ऐसी ही उक्ति है॥ २३-३१॥
प्रशस्ता तव कान्तेयं स्यात्पुत्री विश्वमातृका ।
तस्मात्पुत्री सती नाम्ना तवैषा च भविष्यति ॥ ३२
एवमुक्तस्तदा दक्षो नियोगाद् ब्रह्मणो मुनिः ।
लब्वा पुत्रीं ददौ साक्षात् सर्ती रुद्राय सादरम् ॥ ३३
धर्मस्य पल्यः श्रद्धाद्याः कीर्तिताः वै त्रयोदश।
तासु धर्मप्रजां वक्ष्ये यथाक्रममनुत्तमम् ।। ३४
कामो दर्पोऽथ नियमः सन्तोषो लोभ एव च।
श्रुतस्तु दण्डः समयो बोधश्चैव महाद्युतिः ॥ ३५
अप्रमादश्च विनयो व्यवसायो द्विजोत्तमाः ।
क्षेमं सुखं यशश्चैव धर्मपुत्राश्च तासु वै ॥ ३६
धर्मस्य वै क्रियायां तु दण्डः समय एव च।
अप्रमादस्तथा बोधो बुद्धेर्धर्मस्य तौ सुतौ ॥ ३७
तस्मात् पञ्चदशैवैते तासु धर्मात्मजास्त्विह।
भृगुपत्नी च सुषुवे ख्यातिर्विष्णोः प्रियां श्रियम् ॥ ३८
धातारञ्च विधातारं मेरोर्जामातरी सुतौ।
प्रभूतिर्नाम या पत्नी मरीचेः सुषुवे सुतौ ।। ३९
पूर्णमासं तु मारीचं ततः कन्याचतुष्टयम्।
तुष्टिज्येष्ठा च वै दृष्टिः कृषिश्चापचितिस्तथा ।। ४०
यह परम सुन्दरी एवं प्रशस्त तथा विश्वकी जननी आपकी ही पुत्री है। अतएव अबसे यह सती नामसे तुम्हारी पुत्री होगी तत्पश्चात् ब्रह्माजीके ऐसा कहनेपर दक्षप्रजापतिने उनके आदेशसे पुत्रीरूपमें प्राप्त उन साक्षात् सतीको आदरपूर्वक भगवान् रुद्रको सौंप दिया प्रजापति धर्मकी श्रद्धा आदि जिन तेरह पत्नियोंका वर्णन किया जा चुका है, उनसे तथा धर्मसे उत्पन्न उत्तम सन्तानोंके विषयमें अब मैं यथाक्रम कह रहा हूँ हे उत्तम ब्राह्मणो! काम, दर्प, नियम, सन्तोष, लोभ, श्रुत, दण्ड, समय, महान् द्युतिसम्पन्न बोध, अप्रमाद, विनय, व्यवसाय, क्षेम, सुख और यश इन पुत्रोंको उन तेरह पत्नियोंने प्रजापति धर्मसे उत्पन्न किया था। धर्मके दो पुत्र दण्ड तथा समय उनकी क्रिया नामक पत्नीसे उत्पन्न हुए और अप्रमाद तथा बोध नामक ये दो पुत्र धर्मकी बुद्धि नामक पत्नीसे उत्पन्न हुए। इस प्रकार उन तेरह पत्नियोंसे धर्मके ये पन्द्रह पुत्र उत्पन्न हुए। भृगुकी पत्नी ख्यातिने 'श्री' (लक्ष्मी) को जन्म दिया, जो भगवान् विष्णुको परम प्रिया हुईं तथा धाता एवं विधाता नामक दो पुत्र भी उत्पन्न हुए, जो मेरुपर्वतके जामाता बने। मरीचिकी प्रभूति नामक पत्नीने पूर्णमास तथा मारीच नामक दो पुत्रों तथा तुष्टि, दृष्टि, कृषि एवं अपचिति नामक चार पुत्रियोंको जन्म दिया; इनमें तुष्टि ज्येष्ठ थी ॥ ३५-४० ॥
क्षमा च सुषुवे पुत्रान् पुत्रीं च पुलहाच्छुभाम्।
कर्दमं च वरीयांसं सहिष्णुं मुनिसत्तमाः ॥ ४१
तथा कनकपीतां स पीवरीं पृथिवीसमाम्।
प्रीत्यां पुलस्त्यश्च तथा जनयामास वै सुतान् ॥ ४२
दत्तोर्णं वेदबाहुञ्च पुत्रीं चान्यां दृषद्वतीम्।
पुत्राणां षष्टिसाहस्त्रं सन्नतिः सुषुवे शुभा ॥ ४३
क्रतोस्तु भार्या सर्वे ते बालखिल्या इति श्रुताः ।
सिनीवालीं कुहूञ्चैव राकां चानुमतिं तथा ॥ ४४
स्मृतिश्च सुषुवे पत्नी मुनेश्चाङ्गिरसस्तथा।
लब्ध्वानुभावमग्निञ्च कीर्तिमन्तञ्च सुव्रताः ॥ ४५
अत्रेर्भार्यानसूया वै सुषुवे षट् प्रजास्तु याः।
तास्त्वेका कन्यका नाम्ना श्रुतिः सा सूनुपञ्चकम् ।। ४६
सत्यनेत्रो मुनिर्भव्यो मूर्तिरापः शनैश्चरः ।
सोमश्च वै श्रुतिः षष्ठी पञ्चात्रेयास्तु सूनवः ।॥ ४७
ऊर्जा वसिष्ठाद्वै लेभे सुतांश्च सुतवत्सला।
ज्यायसी पुण्डरीकाक्षान् वासिष्ठान् वरलोचना ।। ४८
रजः सुहोत्रो बाहुश्च सवनश्चानघस्तथा।
सुतपाः शुक्र इत्येते मुनेर्वे सप्त सूनवः ॥ ४९
यश्चाभिमानी भगवान् भवात्मा पैतामहो वह्निरसुः प्रजानाम्।
स्वाहा च तस्मात् सुषुवे सुतानां त्रयं त्रयाणां जगतां हिताय ॥ ५०
हे श्रेष्ठ मुनियो। क्षमाने पुलहमुनि से कर्दम, वरीयांस तथा सहिष्णु नामक तीन पुत्र तथा स्वर्णसदृश कान्तिवाली और पृथ्वीके समान क्षमाशील पीवरी नामकी एक पुत्रीको उत्पन्न किया था पुलस्त्यऋषिने अपनी प्रीति नामक पत्नीसे दत्तोर्ण तथा वेदबाहु नामक पुत्रों तथा एक अन्य दृषद्वती नामक पुत्रीको उत्पन्न किया। क्रतुकी प्रिय पत्नी सन्नतिने साठ हजार पुत्रोंको उत्पन्न किया; वे सभी बालखिल्य नामसे प्रसिद्ध हुए। हे सुव्रतो। अंगिरामुनिकी पत्नी स्मृतिसे सिनीकाली, कुडू, राका तथा अनुमति-इन चार कन्याओं तथा प्रिय स्वभाववाले कीर्तिमान् पुत्र अग्निकी उत्पत्ति हुई अत्रिकी भार्या अनसूयाने छः सन्ततियोंको जन्म दिया था। उनमें श्रुति नामधारिणी एक कन्या थी। सत्यनेत्र, मुनिर्भव्य, मूर्तिराप, शनैश्चर एवं सोम- ये पाँच पुत्र हुए, जो आत्रेय कहलाये। सभी सन्तानोंमें श्रुति छठी थी सुन्दर नेत्रोंवाली तथा पुत्रोंके प्रति स्नेहभाव रखनेवाली महिमामयी वसिष्ठपत्नी ऊर्जाने कमलके समान नेत्रवाले सात पुत्र उत्पन्न किये। रज, सुहोत्र, बाहु, सवन, अनघ, सुतपा और शुक्र ये सात पुत्र मुनि वसिष्ठसे हुए परम अभिमानी, रुद्ररूप, ब्रह्माके पुत्र तथा प्रजाओंके प्राण स्वरूप जो भगवान् अग्नि हैं, उनसे स्वाहाने तीनों लोकों के कल्याणार्थ तीन पुत्र उत्पन्न किये ॥ ५० ॥
॥ इति श्रीलिङ्गमहापुराणे पूर्वभागे प्रजासृष्टिवर्णनं नाम पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५ ॥
॥ इस प्रकार श्रीलिङ्गमहापुराणके अन्तर्गत पूर्वभागमें 'प्रजासृष्टिवर्णन' नामक पाँचवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ५ ॥
लिंग पुराण पाँचवाँ अध्याय FAQs
यहां लिंग पुराण के पाँचवाँ अध्याय - ब्रह्माजी द्वारा पंचपर्वा अविद्या की सृष्टि, नौ प्रकारकी सृष्टि (नवविध सर्ग) की संरचना, मरीचि आदि ऋषियों की उत्पत्ति, मनु-शतरूपा का प्रादुर्भाव तथा दक्षप्रजा पति की कन्याओंका वंशवर्णन पर अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न दिए गए हैं:
Q1. लिंग पुराण का पाँचवाँ अध्याय किस बारे में है?
A1: पाँचवाँ अध्याय ब्रह्माजी द्वारा सृष्टि की रचना, पंचपर्वा अविद्या की उत्पत्ति, नौ प्रकार की सृष्टि (नवविध सर्ग), मरीचि आदि ऋषियों की उत्पत्ति, मनु-शतरूपा का प्रादुर्भाव, और दक्ष प्रजापति की कन्याओं के वंशवर्णन का वर्णन करता है।
Q2. पंचपर्वा अविद्या क्या है और इसे कैसे वर्णित किया गया है?
A2: पंचपर्वा अविद्या में पाँच प्रकार की अज्ञान स्थितियाँ हैं:
- तम: अज्ञान।
- मोह: भ्रम।
- महामोह: भोग की तीव्र इच्छा।
- तामिस्त्र: क्रोध।
- अन्धतामिस्त्र: मृत्यु और विनाश का डर।
ब्रह्माजी के अविचारित सृष्टि प्रयास के दौरान ये उत्पन्न हुईं।
Q3. नवविध सर्ग क्या हैं?
A3: लिंग पुराण के अनुसार सृष्टि के नौ प्रकार हैं:
- महत्तत्त्व सर्ग: सृष्टि का प्रारंभिक सृजन।
- भौतिक सर्ग: भूततन्मात्रा की सृष्टि।
- ऐन्द्रिय सर्ग: इंद्रियों और उनके कार्यों का निर्माण।
- मुख्य सर्ग: वृक्ष, पौधों आदि की सृष्टि।
- तिर्यक सर्ग: पशु-पक्षियों की सृष्टि।
- दैविक सर्ग: देवताओं की सृष्टि।
- मानुष सर्ग: मनुष्यों की उत्पत्ति।
- अनुग्रह सर्ग: पुण्यात्मा आत्माओं की रचना।
- कौमार सर्ग: सनक, सनन्दन आदि मुनियों का प्रादुर्भाव।
Q4. ब्रह्माजी के मानस पुत्र कौन-कौन थे?
A4: ब्रह्माजी के नौ मानस पुत्र थे:
- मरीचि
- भृगु
- अंगिरा
- पुलस्त्य
- पुलह
- क्रतु
- दक्ष
- अत्रि
- वसिष्ठ
ये सभी ब्रह्मज्ञानी और ब्रह्माजी के समान तेजस्वी थे।
Q5. मनु और शतरूपा कौन थे?
A5: स्वायम्भुव मनु और शतरूपा ब्रह्माजी द्वारा उत्पन्न प्रथम मानव और उनकी पत्नी थे। शतरूपा ने दो पुत्र (उत्तानपाद और प्रियव्रत) और दो कन्याएँ (आकृति और प्रसूति) को जन्म दिया।
Q6. दक्ष प्रजापति की कितनी कन्याएँ थीं, और उनका क्या हुआ?
A6: दक्ष प्रजापति की कुल 24 कन्याएँ थीं।
- 13 कन्याएँ धर्म प्रजापति को दी गईं।
- बाकी कन्याएँ ऋषियों और देवताओं से विवाह कराई गईं, जैसे स्वाहा अग्नि को और स्वधा पितरों को दी गई।
Q7. सती का वर्णन क्या है?
A7: सती, दक्ष प्रजापति की पुत्री और भगवान शिव की पत्नी थीं। वह अर्धनारीश्वर शिवजी से अलग हुईं और सभी स्त्रियों की अधिष्ठात्री बनीं। शिव और सती ने त्रिभुवन की सृष्टि को संतुलन प्रदान किया।
Q8. सनकादि ऋषियों की भूमिका क्या थी?
A8: सनक, सनन्दन, सनातन, और सनत्कुमार ब्रह्मा जी के मानस पुत्र थे। वे नैष्ठिक ब्रह्मचारी और परम ज्ञान के प्रतीक थे। उन्होंने कर्म और मोक्ष के मार्ग को परिभाषित किया।
Q9. ब्रह्माजी द्वारा स्त्री और पुरुष का विभाग कैसे हुआ?
A9: ब्रह्माजी ने शिवजी को अर्धनारीश्वर रूप में देखा और उनसे स्त्री-पुरुष का विभाग करने को कहा। शिवजी की देह से सती प्रकट हुईं, और उनसे सभी स्त्रियों की उत्पत्ति हुई।
Q10. इस अध्याय का मुख्य संदेश क्या है?
A10: यह अध्याय सृष्टि की उत्पत्ति, ब्रह्मांड की संरचना, और ज्ञान-अज्ञान के मध्य संतुलन को समझने पर केंद्रित है। यह बताता है कि ब्रह्मांड में प्रत्येक जीव का एक विशिष्ट उद्देश्य और स्थान है।
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