लिंग पुराण : त्रिपुरासुरके वधके लिये विश्वकर्माद्वारा एक दिव्य रथका निर्माण | Linga Purana: Construction of a divine chariot by Vishwakarma for the killing of Tripurasura

लिंग पुराण [ पूर्वभाग ] बहत्तरवाँ अध्याय

त्रिपुरासुर के वध के लिये विश्वकर्मा द्वारा एक दिव्य रथका निर्माण तथा भगवान् महेश्वर का उस रथपर आरूढ़ हो त्रिपुरासुर को दग्ध करना एवं ब्रह्मा द्वारा भगवान् शिव की स्तुति

सूत उवाच

अथ रुद्रस्य देवस्य निर्मितो विश्वकर्मणा। 
सर्वलोकमयो दिव्यो रथो यत्नेन सादरम् ॥ १

सर्वभूतमयश्चैव सर्वदेवनमस्कृतः । 
सर्वदेवमयश्चैव सौवर्णः सर्वसम्मतः ॥ २

रथाङ्गं दक्षिणं सूर्यो वामाङ्गं सोम एव च। 
दक्षिणं द्वादशारं हि षोडशारं तथोत्तरम् ॥ ३

अरेषु तेषु विप्रेन्द्राश्चादित्या द्वादशैव तु। 
शशिनः षोडशारेषु कला वामस्य सुव्रताः ॥ ४

ऋक्षाणि च तदा तस्य वामस्यैव तु भूषणम्। 
नेम्यः षङ्गतवश्चैव तयोर्वै विप्रपुङ्गवाः ॥ ५

पुष्करं चान्तरिक्षं वै रथनीडश्च मन्दरः। 
अस्ताद्रिरुदयाद्रिश्च उभौ तौ कूबरी स्मृती ॥ ६

अधिष्ठानं महामेरुराश्रयाः केसराचलाः । 
वेगः संवत्सरस्तस्य अयने चक्रसङ्गमौ ॥ ७

मुहूर्ता बन्धुरास्तस्य शम्याश्चैव कलाः स्मृताः । 
तस्य काष्ठाः स्मृता घोणा चाक्षदण्डाः क्षणाश्च वै ।। ८

सूतजी बोले [हे ऋषियो!] विश्वकमनि प्रयत्नके साथ आदरपूर्वक भगवान् रुद्रका रथ बनायाः वह सर्वलोकमय, दिव्य, सर्वभूतमय, सभी देवताओंसे नमस्कृत, सभी देवताओंसे युक्त, सुवर्णमय तथा सबके अनुकूल था। उसका दाहिना चक्र सूर्य एवं बायाँ चक्र चन्द्रमा थे। दाहिना चक्र बारह अरोंवाला तथा बायाँ चक्र सोलह अरोंवाला था। हे विप्रेन्द्रो हे सुव्रतो! [दाहिने चक्रके] उन अरोंमें बारह आदित्य थे और बायें चक्रके सोलह अरोंमें चन्द्रमाकी [सोलह कलाएँ थीं। हे मुनिश्रेष्ठो ! नक्षत्रगण उस बाएँ चक्रके भूषण थे और छः ऋतुएँ उन दोनों चक्रोंको नेमियाँ थीं। आकाश इसको छत थी और मन्दर पर्वत रथका सारथि स्थान था। अस्ताचल तथा उदयाचल उसके दोनों स्तम्भ कहे गये हैं। महामेरु [पर्वत] उसका अधिष्ठान [मुख्य स्थान था और केसरपर्वत मेरुको आश्रय देनेवाले थे। संवत्सर उसका वेग था और दोनों अयन (उत्तरायण, दक्षिणायन) उसके चक्रसंगम (अक्षके प्रान्तभाग) थे। मुहूर्त उस रथके बंधुर [तल्पभाग] और कलाएँ उसकी शम्या (वर्तुलपट्टिकाएँ) कही गयी हैं। काष्ठाएँ उसकी नासिका तथा क्षण उसके अक्षदण्ड (चक्रोंका आधारदण्ड) कहे गये हैं। निमेष इस रथके अनुकर्ष (नीचेका तल) तथा लव (निमेषसे भी छोटा समय) इसकी ईषा (दोनों अक्षोंको जोड़नेवाला काष्ठ) कहे गये हैं॥ १-८॥

निमेषाश्चानुकर्षाश्च ईषा चास्य लवाः स्मृताः । 
द्यौर्वरूथं रथस्यास्य स्वर्गमोक्षावुभौ ध्वजौ ॥ ९

धर्मो विरागो दण्डोऽस्य यज्ञा दण्डाश्रयाः स्मृताः । 
दक्षिणाः सन्धयस्तस्य लोहाः पञ्चाशदग्नयः ॥ १०

युगान्तकोटी तौ तस्य धर्मकामावुभौ स्मृतौ । 
ईषादण्डस्तथाव्यक्तं बुद्धिस्तस्यैव नड्वलः ॥ ११

कोणस्तथा ह्यहङ्कारो भूतानि च बलं स्मृतम्। 
इन्द्रियाणि च तस्यैव भूषणानि समन्ततः ॥ १२

श्रद्धा च गतिरस्यैव वेदास्तस्य हयाः स्मृताः । 
पदानि भूषणान्येव षडङ्गान्युपभूषणम् ॥ १३

पुराणन्यायमीमांसाधर्मशास्त्राणि सुव्रताः । 
वालाश्रयाः पटाश्चैव सर्वलक्षणसंयुताः ॥ १४

मन्त्रा घण्टाः स्मृतास्तेषां वर्णाः पादास्तथाश्रमाः । 
अवच्छेदो हानन्तस्तु सहस्त्रफणभूषितः ।। १५

अन्तरिक्ष इस रथका वरूथ (कवच) था और स्वर्ग तथा मोक्ष इस रथके दोनों ध्वज थे। धर्म तथा विराग इसके दण्ड थे; यज्ञ इस दण्डको आश्रय (सहारा) देनेवाले कहे गये हैं। दक्षिणाएँ उस रथकी सन्धियाँ थीं और पचासों अग्नियाँ इसकी कीलें थीं। धर्म तथा काम ये दोनों उसके जुओंके सिरे कहे गये हैं। अव्यक्त [त्तत्त्व] उसका ईषादण्ड था तथा बुद्धि इसका नवल (अक्षको स्निग्ध बनानेवाले द्रव्यका पात्र) थी। अहंकार इसका कोण था। पंचमहाभूतोंको इसका बल बताया गया है। [सभी] इन्द्रियाँ उसके सभी ओर लगे हुए आभूषण थे। श्रद्धा इस [रथ] की गति थी। वेद उसके घोड़े कहे गये हैं। वेदोंके पदविभाग इसके भूषण थे तथा [शिक्षा आदि] छः वेदांग इसके उपभूषण थे। हे सुव्रतो । पुराण, न्याय, मीमांसा तथा धर्मशास्त्र इसके वालाश्रय पट थीं, जो सभी लक्षणोंसे युक्त थे। [गायत्री आदि] मन्त्र, [क आदि] वर्ण, पाद (छन्दोंके चतुर्थांश) तथा [ब्रह्मचर्य आदि] आश्रम उन पटोंके घंटे कड़े गये हैं। हजार फणोंसे विभूषित अनन्त [शेषनाग] उसके बन्धनरज्जु थे ॥ ९-१५ ॥

दिशः पादा रथस्यास्य तथा चोपदिशश्च ह। 
पुष्कराद्याः पताकाश्च सौवर्णा रत्नभूषिताः ॥ १६

समुद्रास्तस्य चत्वारो रथकम्बलिकाः स्मृताः । 
गङ्गाद्याः सरितः श्रेष्ठाः सर्वाभरणभूषिताः ॥ १७

चामरासक्तहस्ताग्राः सर्वाः स्त्रीरूपशोभिताः । 
तत्र तत्र कृतस्थानाः शोभयाञ्चक्रिरे रथम् ॥ १८

दिशाएँ तथा उपदिशाएँ इस रथके पाद थे। पुष्कर आदि [मेघ] रत्नभूषित सुवर्णनिर्मित पताकाएँ थीं। चारों समुद्र उस रथके बाह्य कम्बल कहे गये हैं। गंगा आदि सभी श्रेष्ठ नदियाँ समस्त आभूषणोंसे अलंकृत होकर [अपने] हाथोंके अग्रभागमें चामर (चॅवर) धारण किये हुए स्त्रीरूपसे शोभित होती हुई जहाँ तहाँ अपना स्थान बनाकर रथको सुशोभित कर रही थीं ॥ १६-१८॥

आवहाद्यास्तथा सप्त सोपानं हैममुत्तमम्। 
सारथिर्भगवान् ब्रह्मा देवाभीषुधराः स्मृताः ॥ १९

प्रतोदो ब्रह्मणस्तस्य प्रणवो ब्रह्मदैवतम्। 
लोकालोकाचलस्तस्य ससोपानः समन्ततः ॥ २०

विषमश्च तदा बाह्यो मानसाद्रिः सुशोभनः । 
नासाः समन्ततस्तस्य सर्व एवाचलाः स्मृताः ॥ २१

आवह आदि सात वायु उसकी सुवर्णमय उत्तम सीढ़ियाँ थीं। भगवान् ब्रह्मा सारथि थे और देवतालोग रथकी रश्मियोंको पकड़नेवाले कहे गये हैं। ब्रह्मदैवत प्रणव ब्रह्माके हाथमें स्थित उसका प्रतोद (चाबुक) था। विस्तृत लोकालोक पर्वत उसके सात वायुओंके स्कन्धरूप सोपानसे युक्त था। परम सुन्दर मानसे पर्वत उसमें पैर रखनेका अधोभाग (पायदान) था। समस्त पर्वत सभी ओर इस रथकी नासा (नासिका) कहे गये हैं॥ १९-२१॥ 

तलाः कपोताः कापोताः सर्वे तलनिवासिनः । 
मेरुरेव महाछत्रं मन्दरः पार्श्वडिण्डिमः ॥ २२

शैलेन्द्रः कार्मुकं चैव ज्याभुजङ्गाधिपः स्वयम्। 
कालरात्र्या तथैवेह तथेन्द्रधनुषा पुनः ॥ २३

घण्टा सरस्वती देवी धनुषः श्रुतिरूपिणी। 
इषुर्विष्णुर्महातेजाः शल्यं सोमः शरस्य च ॥ २४

कालाग्निस्तच्छरस्यैव साक्षात्तीक्ष्णः सुदारुणः । 
अनीकं विषसम्भूतं वायवो वाजकाः स्मृताः ॥ २५

सातों तल उस रथके मज्जन थे; उन तलोंमें रहनेवाले सभी लोग कपोतपक्षीके समान थे। मेरु पर्वत उस रथका महाछत्र था और मन्दर पर्वत पृष्ठवाद्यके रूपमें था। शैलराज [मेरु] धनुष थे और स्वयं भुजंगपति [वासुकि] कालरात्रि तथा इन्द्रधनुषके साथ ज्या (धनुषकी डोरी) थे। वेदस्वरूपिणी सरस्वती देवी [उस] धनुषकी घण्टा थीं, महातेजस्वी विष्णु बाण थे और चन्द्रमा [उस] बाणके शल्य (लौहनिर्मित अग्रभाग) थे। साक्षात् प्रलयाग्नि उस बाणके तीक्ष्ण तथा अतिभयंकर विषमय अनीक (बल) थे। [आवह आदि] वायु [उस बाणके] पंख कहे गये हैं॥ २२-२५ ॥ 

एवं कृत्वा रथं दिव्यं कार्मुकं च शरं तथा। 
सारथिं जगतां चैव ब्रह्माणं प्रभुमीश्वरम् ॥ २६

आरुरोह रथं दिव्यं रणमण्डनधृग्भवः । 
सर्वदेवगणैर्युक्तं कम्पयन्निव रोदसी ॥ २७

इस प्रकार [देवताओंके द्वारा] दिव्य रथ, धनुष, बाण तथा जगत्‌के स्वामी प्रभु ब्रह्माको सारथि बनाकर तथा [कवच, मुकुट आदि] रणभूषणोंको धारण करनेवाले शिवजी सभी देवताओंसहित पृथ्वी तथा स्वर्गको कम्पित करते हुए [उस] दिव्य रथपर आरूढ़ हुए ॥ २६-२७ ॥

ऋषिभिः स्तूयमानश्च वन्द्यमानश्च वन्दिभिः। 
उपनृत्यश्चाप्सरसां गणैर्नृत्यविशारदैः ॥ २८

सुशोभमानो वरदः सम्प्रेक्ष्यैव च सारथिम्। 
तस्मिन्नारोहति रथं कल्पितं लोकसम्भृतम् ॥ २९

शिरोभिः पतिता भूमिं तुरगा वेदसम्भवाः। 
अथाधस्ताद्रथस्यास्य भगवान् धरणीधरः ॥ ३०

वृषेन्द्ररूपी चोत्थाप्य स्थापयामास वै क्षणम्। 
क्षणान्तरे वृषेन्द्रोऽपि जानुभ्यामगमद्धराम् ।। ३१

अभीषुहस्तो भगवानुद्यम्य च हयान् विभुः । 
स्थापयामास देवस्य वचनाद्वै रथं शुभम् ॥ ३२

ततोऽश्वांश्चोदयामास मनोमारुतरंहसः । 
पुराण्युद्दिश्य खस्थानि दानवानां तरस्विनाम् ।। ३३

ऋषियोंक द्वारा स्तुत होते हुए और बन्दीजनों तथा नृत्य करती हुई नृत्यप्रवीण अप्सराओंके द्वारा वन्दित होते हुए वे वरद शिव अत्यन्त सुशोभित हो रहे थे। सारथिकी ओर देखकर उस लोकसम्भूत कल्पित रथपर उनके आरूढ़ होते ही वेदसम्भूत घोड़े सिरके बल भूमिपर गिर पड़े। तदनन्तर वृषेन्द्रका रूप धारण किये हुए भगवान् शेषने इस रथको नीचेसे उठाकर क्षणभरमें स्थापित करना चाहा, किंतु वे वृषेन्द्र भी एक क्षणके बाद घुटनोंके बल पृथ्वीपर गिर पड़े। तब हाथमें लगाम पकड़े हुए सर्वव्यापी भगवान् [ब्रह्माने] शिवके आदेशसे घोड़ोंको उद्यत (उत्साहित) करके [उस] शुभ रथको स्थापित कर दिया और उन्होंने मन तथा वायुके समान वेगवाले घोड़ोंको साहसी दानवोंके आकाश-स्थित पुरोंको उद्देश्य करके प्रेरित किया ॥ २८-३३॥

अथाह भगवान् रुद्रो देवानालोक्य शङ्करः । 
पशूनामाधिपत्यं मे दत्तं हन्मि ततोऽसुरान् ॥ ३४

पृथक्पशुत्वं देवानां तथान्येषां सुरोत्तमाः । 
कल्पयित्वैव वध्यास्ते नान्यथा नैव सत्तमाः ॥ ३५

इति श्रुत्वा वचः सर्व देवदेवस्य धीमतः । 
विषादमगमन् सर्वे पशुत्वं प्रति शङ्किताः ॥ ३६

तेषां भावं ततो ज्ञात्वा देवस्तानिदमब्रवीत्।
मा वोऽस्तु पशुभावेऽस्मिन् भयं विबुधसत्तमाः ।। ३७

श्रूयतां पशुभावस्य विमोक्षः क्रियतां च सः। 
यो वै पाशुपतं दिव्यं चरिष्यति स मोक्ष्यति ॥ ३८

पशुत्वादिति सत्यं च प्रतिज्ञातं समाहिताः । 
ये चाप्यन्ये चरिष्यन्ति व्रतं पाशुपतं मम ॥ ३९

मोक्ष्यन्ति ते न सन्देहः पशुत्वात्सुरसत्तमाः । 
नैष्ठिकं द्वादशाब्दं वा तदर्थ वर्षकत्रयम् ॥ ४०

शुश्रूषां कारयेद्यस्तु स पशुत्वाद्विमुच्यते। 
तस्मात्परमिदं दिव्यं चरिष्यथ सुरोत्तमाः ॥ ४१

इसके बाद भगवान् शंकर रुद्रने देवताओंको देखकर कहा- 'मुझे ही पशुओं (जीवों) का आधिपत्य दिया गया है; अतः मैं असुरोंका हनन करता हूँ। हे श्रेष्ठ देवताओ! देवों तथा असुरोंके लिये पृथक् पृथक् पशुत्व होनेके कारण ही वे महादानव वधके योग्य होंगे; अन्यथा नहीं बुद्धिमान् देवदेव [शिव]-का सम्पूर्ण वचन सुनकर पशुत्वके प्रति शंकित होते हुए सभी देवता विषादग्रस्त हो गये तब उनके इस भावको जानकर शिवजीने उनसे यह वचन कहा- 'हे श्रेष्ठ देवताओ। इस पशुभावमें आपलोगोंको भय नहीं होना चाहिये। अब पशुभाव की मुक्तिका उपाय सुनिये और उसे कीजिये। जो दिव्य पाशुपतव्रतको करेगा, वह पशुत्वसे मुक्त हो जायगा; यह सत्य तथा प्रतिज्ञात है। हे श्रेष्ठ देवताओ। एकाग्रचित होकर जो अन्य लोग भी मेरे पाशुपतव्रतको करेंगे, वे पशुत्वसे मुक्त हो जायेंगे; इसमें सन्देह नहीं है। से निष्ठापूर्वक बारह वर्ष, उसके आधे [छः वर्ष] अथवा तीन वर्षतक शुश्रूषा करेगा, वह पशुत्वसे मुक्त हो जायगा। अतः हे श्रेष्ठ देवताओ। [आपलोग] इस परम दिव्य व्रतको कीजिये ' ॥ ३४-४१ ॥

तथेति चाब्रुवन् देवाः शिवे लोकनमस्कृते। 
तस्माद्वै पशवः सर्वे देवासुरनराः प्रभोः ॥ ४२

रुद्रः पशुपतिश्चैव पशुपाशविमोचकः । 
यः पशुस्तत्पशुत्वं च व्रतेनानेन सन्त्यजेत् ॥ ४३

तत्कृत्वा न च पापीयानिति शास्त्रस्य निश्चयः । 
ततो विनायकः साक्षाद् बालोऽबालपराक्रमः ।॥ ४४

अपूजितस्तदा देवैः प्राह देवान्निवारयन् ।

श्रीविनायक उवाच

मामपूज्य जगत्यस्मिन् भक्ष्यभोज्यादिभिः शुभैः॥ ४५

कः पुमान् सिद्धिमाप्नोति देवो वा दानवोऽपि वा। 
ततस्तस्मिन् क्षणादेव देवकार्ये सुरेश्वराः ॥ ४६

विघ्नं करिष्ये देवेशः कथं कर्तुं समुद्यताः । 
ततः सेन्द्राः सुराः सर्वे भीताः सम्पूज्य तं प्रभुम् ॥ ४७

भक्ष्यभोज्यादिभिश्चैव उण्डरैश्चैव मोदकैः । 
अब्रुवंस्ते गणेशानं निर्विघ्नं चास्तु नः सदा ।। ४८

भवोऽप्यनेकैः कुसुमैर्गणेशं भक्ष्यैश्च भोज्यैः सुरसैः सुगन्धैः।
आलिङ्गय चाघ्राय सुतं तदानी- मपूजयत्सर्वसुरेन्द्रमुख्यः॥ ४९

सम्पूज्य पूज्यं सह देवस- विनायकं नायकमीश्वराणाम् ।
गणेश्वरैरेव नगेन्द्रधन्वा पुरत्रयं दग्धुमसौ जगाम ।। ५०

लोकनमस्कृत शिवके ऐसा कहनेपर देवताओंने कहा-'ऐसा ही होगा।' अतः समस्त देवता, असुर तथा मनुष्य शिवजीके पशु हैं। रुद्र पशुपति हैं और पशुपाशसे मुक्त करनेवाले हैं। जो पशु है, उसे इस व्रतके द्वारा पशुभावका त्याग कर देना चाहिये; इसे करके वह पापी नहीं रह जाता है यह शास्त्रका निश्चय है तत्पश्चात् अमित पराक्रमवाले बालकरूप साक्षात् विनायक देवताओंद्वारा पूजित न होनेके कारण उन्हें रोकते हुए कहने लगे श्रीविनायक बोले- शुभ भक्ष्य, भोज्य आदि पदार्थोक द्वारा मेरी पूजा किये बिना इस संसारमें कौन मनुष्य, देवता अथवा दानव सिद्धि प्राप्त कर सकता है? अतः हे सुरेश्वरो! मैं देवेश क्षणभरमें ही उस देवकार्यमें विघ्न करूँगा; [मेरी पूजा किये बिना] आपलोग कार्य करनेमें कैसे तत्पर हो गये ? तत्पश्चात् इन्द्रसहित सभी देवता भयभीत हो गये और भक्ष्य-भोज्य आदि पदार्थों, आटेसे बने लड्डुओं तथा मोदकोंसे उन प्रभुकी विधिवत् पूजा करके वे गणेश्वरसे बोले- 'हमलोगोंका कार्य सदा निर्विघ्न सम्पन्न हो' उस समय समस्त सुरेश्वरोंमें मुख्य शिवने भी [अपने] पुत्र गणेशका आलिङ्गन करके उनका सिर सूँघकर अनेक प्रकारके सुगन्धित पुष्यों, भक्ष्य-भोज्य पदार्थों तथा उत्तम रसोंसे उनकी पूजा की इसके बाद वे मेरुधन्वा शिवजी देवताओंके साथ ईश्वरोंके नायक पूजनीय विनायककी पूजा करके तीनों पुरोंको जलानेके लिये गणेश्वरोंके साथ चल पड़े ॥ ४२-५०॥

देवदेवं सुरसिद्धसङ्घा महेश्वरं भूतगणाश्च सर्वे ।
गणेश्वरा नन्दिमुखास्तदानीं स्ववाहनैरन्वयुरीशमीशाः॥ ५१

अग्रे सुराणां च गणेश्वराणां तदाथ नन्दी गिरिराजकल्पम्।
विमानमारुह्य पुरं प्रहर्तुं जगाम मृत्युं भगवानिवेशः ॥ ५२

यान्तं तदानीं तु शिलादपुत्र- मारुह्य नागेन्द्रवृषाश्ववर्यान् ।
देवास्तदानीं गणपाश्च सर्वे गणा ययुः स्वायुधचिह्नहस्ताः ॥ ५३

खगेन्द्रमारुह्य नगेन्द्रकल्पं खगध्वजो वामत एव शम्भोः।
जगाम तूर्ण जगतां हिताय पुरत्रयं दग्धुमलुप्तशक्तिः ॥ ५४

तं सर्वदेवाः सुरलोकनार्थ  समन्ततश्चान्वयुरप्रमेयम्।
सुरासुरेशं शितशक्तिटङ्क- गदात्रिशूलासिवरायुधैश्च ॥५५

रराज मध्ये भगवान् सुराणां विवाहनो वारिजपत्रवर्णः ।
यथा सुमेरोः शिखराधिरूढः सहस्त्ररश्मिर्भगवान् सुतीक्ष्णः ॥ ५६

सहस्त्रनेत्रः प्रथमः सुराणां गजेन्द्रमारुह्य च दक्षिणेऽस्य।
जगाम रुद्रस्य पुरं निहन्तुं यथोरगांस्तत्र तु वैनतेयः ॥ ५७

तं सिद्धगन्धर्वसुरेन्द्रवीराः सुरेन्द्रवृन्दाधिपमिन्द्रमीशम्
समन्ततस्तुष्टुवुरिष्टदं ते जयेति शक्रं वरपुष्पवृष्ट्या ॥ ५८

तदा ह्यहल्योपपतिं सुरेशं जगत्पतिं देवपतिं दिविष्ठाः ।
प्रणेमुरालोक्य सहस्त्रनेत्रं सलीलमम्बा तनयं यथेन्द्रम् ॥ ५९

उस समय सभी देवता, सिद्ध, भूतगण, नन्दी आदि गणेश्वर तथा अन्य ईश्वर अपने-अपने वाहनोंसे उन देवदेव ईश महेश्वरके पीछे-पीछे चले हिमालयसदृश विमानपर चढ़कर नन्दी [सभी] देवताओं तथा गणेश्वरोंके आगे होकर त्रिपुरपर प्रहार करनेके लिये चले, मानो भगवान् शिव मृत्युपर प्रहारहेतु चले हों उस समय जाते हुए शिलादपुत्र [नन्दी] के पीछे सभी देवता, गणेश्वर तथा गणलोग विशाल हाथियों, बैलों और घोड़ोंपर आरूढ़ होकर हाथोंमें अपने शस्त्र तथा चिह्न धारण किये हुए चले  महा शक्ति शाली गरुड़ध्वज [विष्णु] गिरीन्द्रसदृश पक्षिराज [गरुड़] पर आरूढ़ होकर लोकोंके हितार्थ तीनों पुरोंको दग्ध करनेके लिये शिवजीके बायें होकर शीघ्रतापूर्वक चले सभी देवता तीक्ष्ण शक्ति (बी), टंक, गदा, त्रिशूल, खड्ग आदि उत्तम आयुधोंसे युक्त होकर देवलोकके नाथ, देवताओं तथा असुरोंके स्वामी और अप्रमेय उन शिवके पीछे-पीछे सभी ओरसे चले कमलपत्रके समान वर्णवाले गरुड़वाहन भगवान् विष्णु देवताओंके मध्य ऐसे सुशोभित हो रहे थे, मानो सुमेरु [पर्वत] के शिखरपर आरूढ़ हजार किरणोंवाले भगवान् सूर्य हों गजेन्द्र (ऐरावत) पर आरूढ़ होकर देवताओंके प्रमुख सहस्र नेत्रवाले [इन्द्र] रुद्रके दाहिनी ओर होकर त्रिपुरका नाश करनेके लिये चले; मानो गरुड़ सर्पोंका नाश करनेके लिये चल दिये हों सिद्ध, गन्धर्व, श्रेष्ठ देवता तथा अन्य वीर देवताओंके स्वामी प्रभु उन इन्द्रकी स्तुति कर रहे थे और वे श्रेष्ठ पुष्पवृष्टिके साथ कामनाओंकी पूर्ति करनेवाले इन्द्रकी जय-जयकार कर रहे थे उस समय स्वर्गमें स्थित देवताओंने अहल्याके उपपति, देवताओंके ईश, जगत्के स्वामी, देवताओं के स्वामी तथा हजार नेत्रोंवाले इन्द्रको देखकर लोलापूर्वक उसी प्रकार प्रणाम किया, जैसे माता पार्वती पुत्र कार्तिकेयको प्रणाम करती हैं ॥ ५१-५९॥

यमपावकवित्तेशा वायुर्निऋतिरेव च।
अपां पतिस्तथेशानो भवं चानुसमागताः ॥ ६०

वीरभद्रो रणे भद्रो नैऋत्यां वै रथस्य तु।
वृषभेन्द्रं समारुह्य रोमजैश्च समावृतः ॥ ६१

सेवां चक्के पुरं हन्तुं देवदेवं त्रियम्बकम् ।
महाकालो महातेजा महादेव इवापरः ॥ ६२

वायव्यां सगणैः सार्धं सेवां चक्रे रथस्य तु ॥ ६३

षण्मुखोऽपि सह सिद्धचारणैः सेनया च गिरिराजसन्निभः ।
देवनाथगणवृन्दसंवृतो वारणेन च तथाग्निसम्भवः ॥ ६४

विघ्नं गणेशोऽप्यसुरेश्वराणां कृत्वा सुराणां भगवानविघ्नम् ।
विघ्नेश्वरो विघ्नगणैश्च सार्धं तं देशमीशानपदं जगाम । ६५

काली तदा कालनिशाप्रकाशं शूलं कपालाभरणा करेण।
प्रकम्पयन्ती च तदा सुरेन्द्रान् महासुरासृङ्‌मधुपानमत्ता ॥ ६६

मत्तेभगामी मदलोलनेत्रा मत्तैः पिशाचैश्च गणैश्च मत्तैः।
मत्तेभचर्माम्बरवेष्टिताङ्गी ययौ पुरस्ताच्च गणेश्वरस्य ॥ ६७

तां सिद्धगन्धर्वपिशाचयक्ष- विद्याधराहीन्द्रसुरेन्द्रमुख्याः।
प्रणेमुरुच्चैरभितुष्टुवुश्च जयेति देवीं हिमशैलपुत्रीम् ॥ ६८

मातरः सुरवरारिसूदनाः सादरं सुरगणैः सुपूजिताः ।
मातरं ययुरथ स्ववाहनैः स्वैर्गणैर्ध्वजधरैः समन्ततः ॥ ६९ ।

यम, अग्नि, कुबेर, वायु, निर्ऋति, वरुण तथा ईशान भी शिवजीके पीछे-पीछे चले युद्धमें प्रवीण वीरभद्र वृषभेन्द्रपर आरूढ़ होकर रथके नैऋत्यकोण (दक्षिण-पश्चिम) में होकर त्रिपुरका नाश करनेके लिये चले; अपने रोमजसंज्ञक बाणोंसे धिरे हुए वे देवदेव त्रियम्बककी सेवा कर रहे थे। दूसरे महादेवके समान प्रतीत होनेवाले महातेजस्वी महाकाल रथके वायव्यकोण (उत्तर-पश्चिम) में होकर गणोंके साथ रथकी सेवा कर रहे थे। गिरिराजके समान प्रतीत होनेवाले तथा अग्निसे उत्पन्न षडानन भी सिद्धों, चारणों एवं देवसेनाके साथ शिवके गणोंसे आवृत होकरके हाथीपर सवार होकर चले विघ्नेश्वर भगवान् गणेश भी असुरेश्वरोंका विघ्न करके तथा देवताओंका अविघ्न करके विघ्नगणोंके साथ उस देश (त्रिपुर) की ओर शिवजीके पीछे-पीछे चले उस समय हाथमें कालरात्रिके समान प्रकाशमान त्रिशूल धारण किये, कपालके आभूषणवाली, बड़े-बड़े असुरोंके रक्तरूपी मधुके पानसे मत्त, मतवाले हाथीके समान चालवाली, मदसे चंचल नेत्रोंवाली, मतवाले हाथियोंके चर्मरूपी बस्त्रसे वेष्टित अंगोंवाली काली देवताओंको कम्पित करती हुई मत्तपिशाचों तथा मतवाले गणोंके साथ गणेशजीके आगे आगे चलीं सिद्धों, गन्धवों, पिशाचों, यक्षों, विद्याधरों, सर्पों तथा प्रमुख देवताओंने उन देवी पार्वतीको प्रणाम किया उच्च स्वरसे उनकी स्तुति की तथा उनका जयकार किया प्रकार देवशत्रुओंका संहार करनेवाली तथा देवताओंके द्वारा आदरपूर्वक पूजित देवमाताएँ सभी ओर ध्वज धारण किये हुए अपने-अपने गणोंके साथ अपने-अपने वाहनोंसे माताके पीछे-पीछे चलीं ॥६०-६९ ॥

दुर्गारूढमृगाधिपा दुरतिगा दोर्दण्डवृन्दैः शिवा बिभ्राणाङ्कुशशूलपाशपरशुं चक्रासिशङ्खायुधम्।
प्रौढादित्यसहस्त्रवह्निसदृशैर्ने त्रैर्दहन्ती पथं बाला बालपराक्रमा भगवती दैत्यान् प्रहर्तुं ययौ ।। ७०

तं देवमीशं त्रिपुरं निहन्तुं तदा तु देवेन्द्ररविप्रकाशाः ।
गजैर्हयैः सिंहवरैरथैश्च वृषैर्ययुस्ते गणराजमुख्याः ॥ ७१

हलैश्च फालैर्मुसलैर्भुशुण्डै - गिरीन्द्रकूटैर्गिरिसन्निभास्ते ।
ययुः पुरस्ताद्धि महेश्वरस्य सुरेश्वरा भूतगणेश्वराश्च ॥ ७२

तथेन्द्रपद्मोद्भवविष्णुमुख्याः सुरा गणेशाश्च गणेशमीशम्।
जयेति वाग्भिर्भगवन्तमूचुः किरीटदत्ताञ्जलयःसमन्तात् ॥ ७३

ननृतुर्मुनयः सर्वे दण्डहस्ता जटाधराः।
ववृषुः पुष्पवर्षाणि खेचराः सिद्धचारणाः।
पुरत्रयं च विप्रेन्द्राः प्राणदत्सर्वतस्तथा ।। ७४

भृङ्गी गणेश्वरैर्देवगणैश्च समावृतःसर्वगणेन्द्रवर्यः ।
जगाम योगी त्रिपुरं निहन्तुं विमानमारुह्य यथा महेन्द्रः ।। ७५ 

बालरूपा होते हुए भी अमित पराक्रमवाली तथा [सबके द्वारा] अनतिक्रमणीय भगवती दुर्गा सिंहपर सवार होकर [अपनी] भुजाओंमें अंकुश, शूल, पाश, परशु, चक्र, खड्ग, शंख आदि आयुध धारण किये हुए और मध्याह्नकालीन सूर्य तथा हजार अग्नियोंके समान [देदीप्यमान] नेत्रोंसे मार्गको जलाती हुई [उन] दैत्योंपर प्रहार करनेके लिये चलीं उस समय इन्द्र तथा सूर्यके समान कान्तिवाले मुख्य गणेश्वर त्रिपुरका नाश करनेके लिये हाथियों, घोड़ों, उत्तम सिंहों, रथों तथा वृषभोंपर सवार होकर उन भगवान् शिवके पीछे चले हलों, फालों, मुसलों, लौहनिर्मित गदाओं तथा पर्वतशिखरोंको धारण किये हुए गिरिसदृश वे सुरेश्वर, भूत तथा गणेश्वर महेश्वरके आगे-आगे चले इन्द्र, ब्रह्मा, विष्णु आदि देवता और [सभी] गणेश्वर अपने मुकुटोंको अंजलिपर टिकाकर [प्रणाम करते हुए चारों ओरसे वाणीद्वारा ईश भगवान् गणेशकी जय बोल रहे थे हाथमें दण्ड लिये हुए जटाधारी सभी मुनियोंने नृत्य किया और आकाशचारी सिद्धों तथा चारणोंने पुष्पवर्षा की। हे विप्रेन्द्रो। त्रिपुर चारों ओरसे गूंज उठा सभी गणेश्वरों में श्रेष्ठ योगपरायण भृंगी देवताओंसे घिरे हुए इन्द्रकी भाँति गणेश्वरोंसे घिरे होकर विमानपर चढ़कर त्रिपुरका नाश करनेके लिये चले ॥७०-७५ ॥

केशो विगतवासाश्च महाकेशो महाज्वरः ।
सोमवल्ली सवर्णश्च सोमपः सेनकस्तथा ।। ७६

सोमधुक् सूर्यवाचश्च सूर्यपेषणकस्तथा।
सूर्याक्षः सूरिनामा च सुरः सुन्दर एव च ॥ ७७

प्रकुदः ककुदन्तश्च कम्पनश्च प्रकम्पनः ।
इन्द्रश्चेन्द्रजयश्चैव महाभीर्भीमकस्तथा ॥ ७८

शताक्षश्चैव पञ्चाक्षः सहस्त्राक्षो महोदरः ।
यमजिह्वः शताश्वश्च कण्ठनः कण्ठपूजनः ॥ ७९

द्विशिखस्त्रिशिखश्चैव तथा पञ्चशिखो द्विजाः ।
मुण्डोऽर्धमुण्डो दीर्घश्च पिशाचास्यः पिनाकधृक् ॥ ८०

पिप्पलायतनश्चैव तथा ह्यङ्गारकाशनः ।
शिथिलः शिथिलास्यश्च अक्षपादो हाजः कुजः ॥ ८१

अजवक्त्रो हयवक्त्रो गजवक्त्रोर्ध्ववक्त्रकः ।
इत्याद्याः परिवार्येशं लक्ष्यलक्षणवर्जिताः ॥ ८२

वृन्दशस्तं समावृत्य जग्मुः सोमं गणैर्वृताः ।
सहस्त्राणां सहस्त्राणि रुद्राणामूर्ध्वरेतसाम् ॥ ८३

समावृत्य महादेवं देवदेवं महेश्वरम् । 
दग्धुं पुरत्रयं जग्मुः कोटिकोटिगणैर्वृताः ॥ ८४

त्रयस्त्रिंशत्सुराश्चैव त्रयश्च त्रिशतास्तथा। 
त्रयश्च त्रिसहस्त्राणि जग्मुर्देवाः समन्ततः ॥ ८५

हे द्विजो! केश, विगतवास, महाकेश, महाज्वर, सोमवल्ली, सवर्ण, सोमप, सेनक, सोमधूक्, सूर्यवाच, सूर्यपेषण, सूर्याक्ष, सूरिनामा, सुर, सुन्दर, प्रकुद, ककुदन्त, कम्पन, प्रकम्पन, इन्द्र, इन्द्रजय, महाभी, भीमक, शताक्ष, पंचाक्ष, सहस्त्राक्ष, महोदर, यमजिह्न, शताश्व, कण्ठन, कण्ठपूजन, द्विशिख, त्रिशिख, पंचशिख, मुण्ड, अर्थमुण्ड, दीर्घ, पिशाचास्य, पिनाकधृक्, पिप्पलायतन, अंगारकाशन, शिथिल, शिथिलास्य, अक्षपाद, अज, कुज, अजवक्त्र, हयवक्त्र, गजवक्त्र, ऊर्ध्ववक्त्र तथा अन्य लक्ष्यलक्षण-वर्जित गणेश्वर एक साथ मिलकर अपने गणसमुदायोंके साथ उन शिवजीको घेरकर चले। इसी प्रकार [अपने] करोड़ों-करोड़ गणोंसे घिरे हुए हजारों-हजार रुद्र तीनों पुरोंको दग्ध करनेके लिये महादेव देवदेव महेश्वरको घेरकर चले [बसु, रुद्र, आदित्य आदि] तैंतीस देवता; ब्रह्मा, विष्णु, महेश-ये तीनों देवता और उनके भेदरूप तीन सौ तथा तीन हजार तीन अन्य देवता सभी ओरसे वहाँ गये ॥ ७६-८५ ॥

मातरः सर्वलोकानां गणानां चैव मातरः।
भूतानां मातरश्चैव जग्मुर्देवस्य पृष्ठतः ॥ ८६

भाति मध्ये गणानां च रथमध्ये गणेश्वरः । 
नभस्यमलनक्षत्रे तारामध्य इवोडुराट् ॥ ८७

रराज देवी देवस्य गिरिजा पार्श्वसंस्थिता । 
तदा प्रभावतो गौरी भवस्येव जगन्मयी ॥ ८८

शुभावती तदा देवी पार्श्वसंस्था विभाति सा। 
चामरासक्तहस्ताग्रा सा हेमाम्बुजवर्णिका ॥ ८९

अथ विभाति विभोर्विशदं वपु- र्भसितभासितमम्बिकया तया।
सितमिवाभ्रमहो इह विद्युता नभसि देवपतेः परमेष्ठिनः ॥ ९०

भातीन्द्रधनुषाकाशं मेरुणा च यथा जगत्। 
हिरण्यधनुषा सौम्यं वपुः शम्भोः शशिद्युति ॥ ९१

सितातपत्रं रत्नांशुमिश्रितं परमेष्ठिनः । 
यथोदये शशाङ्कस्य भात्यखण्डं हि मण्डलम् ॥ ९२

सदुकूला शिवे रक्ता लम्बिता भाति मालिका। 
छत्रान्ता रत्नजाकाशात्पतन्तीव सरिद्वरा ॥ ९३

अथ महेन्द्रविरिञ्चिविभावसु- प्रभृतिभिर्नतपादसरोरुहः । 
सह तदा च जगाम तयाम्बया सकललोकहिताय पुरत्रयम् ।। ९४

सभी लोकोंकी माताएँ, गणोंकी माताएँ तथा भूतोंकी माताएँ शिवजीके पीछे-पीछे चलीं रथके मध्य [विराजमान] गणेश्वर गणोंके बीच उसी तरह प्रतीत हो रहे थे, जैसे निर्मल नक्षत्रोंवाले आकाशमें ताराओंके बीच चन्द्रमा उस समय शिवके प्रभाव (सामर्थ्य) के कारण ही जगन्मयी पार्वती देवी [उन] शिवके वामभागमें स्थित होकर सुशोभित हो रही थीं। उस समय सुवर्णकमलके समान वर्णवाली देवी शुभावती (पार्वतीकी सखी) हाथके अग्रभागमें चैवर लिये हुए उनके बगलमें स्थित होकर सुशोभित हो रही थीं सर्वव्यापी देवेश्वर शिवका भस्मसे दीप्यमान अतिस्वच्छ विग्रह उन पार्वतीके साथ उसी प्रकार प्रतीत हो रहा था, जैसे आकाशमें विद्युत्के साथ श्वेत बादल सुवर्णमय धनुषसे युक्त तथा चन्द्रमाकी प्रभावाला शंकरजीका सौम्य शरीर इन्द्रधनुषसे युक्त आकाश अथवा मेरुपर्वतसे युक्त जगत्‌की भाँति प्रतीत हो रहा था रत्नोंकी किरणोंसे मिश्रित शिवजीका श्वेत छत्र उदयकालमें चन्द्रमाके पूर्णमण्डलके समान प्रतीत हो रहा था शिवजीके गलेमें रेशमी वस्त्रसहित लटकती हुई रत्नमयी मोतियोंकी माला उनके छत्रके पास आकाशसे गिरती हुई गंगाके समान प्रतीत हो रही थी इस प्रकार महेन्द्र, ब्रह्मा, अग्नि आदिके द्वारा वन्दित चरणकमलवाले शिवजीने समस्त संसारके हितके लिये उन पार्वतीके साथ त्रिपुरके लिये प्रस्थान किया ॥ ८६-९४॥

दग्धुं समर्थो मनसा क्षणेन चराचरं सर्वमिदं त्रिशूली।
किमत्र दग्धुं त्रिपुरं पिनाकी स्वयं गतश्चात्र गणैश्च सार्थम् ॥ ९५

रथेन किं चेषुवरेण तस्य गणैश्च किं देवगणैश्च शम्भोः ।
पुरत्रयं दग्धुमलुप्तशक्तेः किमेतदित्याहुरजेन्द्रमुख्याः ॥ ९६

मन्वाम नूनं भगवान् पिनाकी लीलार्थमेतत्सकलं प्रवर्तुम् ।
व्यवस्थितश्चेति तथान्यथा चे- दाडम्बरेणास्य फलं किमन्यत् ॥ ९७

पुरत्रयस्यास्य समीपवर्ती सुरेश्वरैर्नन्दिमुखैश्च नन्दी।
गणैर्गणेशस्तु रराज देव्या जगद्रथो मेरुरिवाष्टशृङ्गैः ॥ ९८

अथ निरीक्ष्य सुरेश्वरमीश्वरं सगणमद्रिसुतासहितं तदा।
त्रिपुररङ्गतलोपरि संस्थितः सुरगणोऽनुजगाम स्वयं तथा ॥ ९९

जगत्त्रयं सर्वमिवापरं तत् पुरत्रयं तत्र विभाति सम्यक् ।
नरेश्वरैश्चैव गणैश्च देवैः सुरेतरैश्च त्रिविधैर्मुनीन्द्राः ॥ १००

त्रिशूलधारी पिनाकी (शिव) मनसे ही क्षणभरमें इस सम्पूर्ण चराचर जगत्‌को दग्ध करनेमें समर्थ हैं, तो फिर वे त्रिपुरको जलानेके लिये गणोंके साथ वहाँ क्यों जा रहे हैं? तीनों पुराँको जलानेके लिये उन अलुप्त शक्तिवाले शम्भुको रथसे, उत्तम बाणसे, गणोंसे तथा देवताओंसे क्या प्रयोजन है- ब्रह्मा, इन्द्र आदि प्रमुख देवोंने ऐसा कहा। हमलोग तो समझते हैं कि पिनाकधारी भगवान् [शिव]-लीलाके लिये यह सब करनेके लिये प्रवृत्त हैं; अन्यथा [इस] आडम्बरसे इन्हें दूसरा कौन-सा लाभ है? इस त्रिपुरके समीपस्थित नन्दी, नन्दिकेश्वर आदि सुरेश्वरोंके साथ, गणेशजी गणोंके साथ तथा मेरुपर्वत आठ शिखरोंके साथ जिस प्रकार सुशोभित हो रहे थे, उसी प्रकार जगद्रथ (शिव) देवी [पार्वती] के साथ शोभायमान थे इसके बाद गणों तथा पार्वतीसहित सुरेश्वर शिवको देखकर त्रिपुरके युद्धक्षेत्रमें उपस्थित देवसमूहने स्वयं उनका अनुगमन किया हे मुनीश्वरो । युद्धकालमें तीन प्रकारके दैत्योंसे युक्त वे तीनों पुर राजाओं, [सिद्ध आदि] गणों तथा देवताओंसे युक्त तीनों लोकके समान प्रतीत हो रहे थे ॥ ९५-१००॥

अथ सज्यं धनुः कृत्वा शर्वः सन्धाय तं शरम्। 
युक्त्वा पाशुपतास्त्रेण त्रिपुरं समचिन्तयत् ॥ १०१

तस्मिंस्थिते महादेवे रुद्रे विततकार्मुके ।
पुराणि तेन कालेन जग्मुरेकत्वमाशु वै ॥ १०२

एकीभावं गते चैव त्रिपुरे समुपागते। 
बभूव तुमुलो हर्षो देवतानां महात्मनाम् ॥ १०३

ततो देवगणाः सर्वे सिद्धाश्च परमर्षयः ।
जयेति वाचो मुमुचुः संस्तुवन्तोऽष्टमूर्तिनम् ।। १०४

अथाह भगवान् ब्रह्मा भगनेत्रनिपातनम् ।
पुष्ययोगेऽपि सम्प्राप्ते लीलावशमुमापतिम् ।। १०५

स्थाने तव महादेव चेष्टेयं परमेश्वर।
पूर्वदेवाश्च देवाश्च समास्तव यतः प्रभो ॥ १०६

तथापि देवा धर्मिष्ठाः पूर्वदेवाश्च पापिनः ।
यतस्तस्माज्ञ्जगन्नाथ लीलां त्यक्तुमिहार्हसि ॥ १०७

इसके बाद धनुषपर डोरी चढ़ाकर उसपर बाण रखकर उसे पाशुपत अस्त्रसे युक्त करके शिवजीने त्रिपुरका चिन्तन किया धनुष ताने हुए उन महादेवके खड़े होनेपर उसी समय तीनों पुर शीघ्र ही आपसमें जुड़ गये। तीनों पुरोंके एकमें मिल जानेपर तथा समीपमें आ जानेपर महान् आत्मावाले [इन्द्र आदि] देवताओंको परम हर्ष हुआ तदनन्तर सभी देवगण, सिद्ध तथा महर्षिगण अष्टमूर्ति [शिव]-की स्तुति करते हुए उनकी जय बोलने लगे  भगवान् ब्रह्माने भगके नेत्रका विनाश करनेवाले इसके बाद पुष्य नक्षत्रका योग प्राप्त होनेपर लीलासक्त उमापतिसे कहा- हे महादेव! हे परमेश्वर ! हे प्रभो! इस स्थानपर आपकी यह भावना है कि दैत्य तथा देवता आपके लिये समान हैं, फिर भी देवता धर्मनिष्ठ हैं और दैत्य पापी हैं; अतः हे जगन्नाथ! आप यहाँ अपनी लीलाका त्याग करें। है ईश। हे प्रभो। तीनों पुरोंको दग्ध करनेके लिये आपको रथ ध्वज, बाण, भूतगणों, विष्णु तथा मुझ [ब्रह्मा] से क्या प्रयोजन है? पुष्ययोग प्राप्त होनेपर आप कृपा करके त्रिपुरको दग्ध कर दीजिये। हे देवेश। जबतक ये तीनों पुर अलग-अलग न हो जायें, तबतक आप इन्हें जला दीजिये ॥ १०१-१०९ ॥

किं रथेन ध्वजेनेश तव दग्धुं पुरत्रयम्। 
इषुणा भूतसङ्गैश्च विष्णुना च मया प्रभो ॥ १०८

पुष्ययोगे त्वनुप्राप्ते पुरं दग्धुमिहार्हसि। 
यावन्न यान्ति देवेश वियोगं तावदेव तु ॥ १०९

दग्धुमर्हसि शीघ्रं त्वं त्रीण्येतानि पुराणि वै। 
अथ देवो महादेवः सर्वज्ञस्तदवैक्षत ॥ ११०

पुरत्रयं विरूपाक्षस्तत्क्षणाद्भस्म वै कृतम्। 
सोमश्च भगवान् विष्णुः कालाग्निर्वायुरेव च ॥ १११

शरे व्यवस्थिताः सर्वे देवमूचुः प्रणम्य तम्। 
दग्धमप्यथ देवेश वीक्षणेन पुरत्रयम् ॥ ११२

अस्मद्धितार्थं देवेश शरं मोक्तुमिहार्हसि। 
अथ सम्मृज्य धनुषो ज्यां हसन् त्रिपुरार्दनः ॥ ११३

मुमोच बाणं विप्रेन्द्रा व्याकृष्याकर्णमीश्वरः । 
तत्क्षणात् त्रिपुरं दग्ध्वा त्रिपुरान्तकरः शरः ॥ ११४

देवदेवं समासाद्य नमस्कृत्य व्यवस्थितः । 
रेजे पुरत्रयं दग्धं दैत्यकोटिशतैर्वृतम् ॥ ११५

इषुणा तेन कल्पान्ते रुद्रेणेव जगत्त्रयम्। 
ये पूजयन्ति तत्रापि दैत्या रुद्रं सबान्धवाः ॥ ११६

तदनन्तर सब कुछ जाननेवाले तथा विरूपाक्ष (त्रिलोचन) भगवान् महादेवने त्रिपुरकी और देखा और उसी क्षण उसे भस्म कर दिया। तब उनके बाणमें स्थित चन्द्र, भगवान् विष्णु, कालाग्नि तथा वायु-इन सभीने उन शिवजीको प्रणाम करके कहा- हे देवेश। आपके देखनेमात्रसे त्रिपुर दग्ध हो गया, फिर भी हे देवेश। हमलोगोंके हितके लिये आप बाणको छोड़ दीजिये हे विप्रेन्द्रो! इसके बाद धनुषकी डोरी चढ़ाकर उसे कानतक खींचकर त्रिपुरका नाश करनेवाले शिवने हँसते हुए बाण छोड़ दिया। त्रिपुरका नाश करनेवाला वह बाण उसी क्षण त्रिपुरको जलाकर देवदेवके पास आकर उन्हें प्रणाम करके व्यवस्थित हो गया उस बाणके द्वारा सैकड़ों-करोड़ दैत्योंसहित दग्ध किया गया वह त्रिपुर कल्पके अन्तमें रुद्रके द्वारा दग्ध किये गये त्रिलोकके समान प्रतीत हो रहा था। वहाँ [त्रिपुरमें] भी जिन दैत्योंने बान्धवोंके साथ रुद्रका पूजन किया, उन्होंने शम्भुकी पूजाविधिके प्रभावसे गाणपत्य (गणपतिपद) प्राप्त किया ॥ १०८-११६ ॥

गाणपत्यं तदा शम्भोर्ययुः पूजाविधेर्बलात् । 
न किञ्चिदब्रुवन् देवाः सेन्द्रोपेन्द्रा गणेश्वराः ॥ ११७

भयाद्देवं निरीक्ष्यैव देवीं हिमवतः सुताम्। 
दृष्ट्वा भीतं तदानीकं देवानां देवपुङ्गवः ॥ ११८

किं चेत्याह तदा देवान् प्रणेमुस्तं समन्ततः ॥ ११९

ववन्दिरे नन्दिनमिन्दुभूषणं ववन्दिरे पर्वतराजसम्भवाम्।
ववन्दिरे चाद्रिसुतासुतं प्रभुं ववन्दिरे देवगणा महेश्वरम् ॥ १२०

तुष्टाव हृदये ब्रह्मा देवैः सह समाहितः। 
विष्णुना च भवं देवं त्रिपुरारातिमीश्वरम् ॥ १२१

श्रीपितामह उवाच

प्रसीद देवदेवेश प्रसीद परमेश्वर। 
प्रसीद जगर्ता नाथ प्रसीदानन्ददाव्यय ॥ १२२

पञ्चास्य रुद्ररुद्राय पञ्चाशत्कोटिमूर्तये। 
आत्मत्रयोपविष्टाय विद्यातत्त्वाय ते नमः ॥ १२३

शिवाय शिवतत्त्वाय अघोराय नमो नमः। 
अघोराष्टकतत्त्वाय द्वादशात्मस्वरूपिणे ॥ १२४

विद्युत्कोटिप्रतीकाशमष्टकाशं सुशोभनम् । 
रूपमास्थाय लोकेऽस्मिन् संस्थिताय शिवात्मने ।। १२५

इन्द्र-विष्णुसहित सभी देवता तथा गणेश्वर शिव तथा हिमालयपुत्री देवी [पार्वती] की ओर देखकर भयवश कुछ नहीं बोले। तब देवताओंकी सेनाको भयभीत देखकर देवश्रेष्ठ [शिव]-ने देवताओंसे कहा- 'क्या बात है?' इसपर वे सभी ओरसे उन्हें केबल प्रणाम करते रहे। देवताओंने इन्दुभूषण नन्दीको प्रणाम किया, पर्वतराजको पुत्री [पार्वती] को प्रणाम किया, पार्वतीपुत्र (गणेश) को प्रणाम किया और प्रभु महेश्वरको प्रणाम किया। इसके बाद ब्रह्माजी एकाग्रचित्त होकर देवताओं तथा विष्णुके साथ त्रिपुरशत्रु भगवान् भव ईश्वरको हृदयसे स्तुति करने लगे श्रीपितामह बोले- हे देवदेवेश! प्रसन्न हो जाइये। हे परमेश्वर। प्रसन्न हो जाइये। हे जगन्नाथ! प्रसन्न हो जाइये। हे आनन्ददाता। हे अव्यय! हे पंचमुख ! प्रसन्न हो जाइये। [यम आदि] रुद्रोंको भी रुलानेवाले, पचास करोड़ मूर्तिवाले, [विश्व प्राज्ञ- तैजस] तीन रूपोंमें स्थित रहनेवाले तथा विद्याओंमें मुख्य कारणस्वरूप आपको नमस्कार है। शिव, शिवतत्त्व, अघोर, भैरवाष्टकके कारणरूप तथा द्वादश आत्मास्वरूपीको बार-बार नमस्कार है करोड़ों विद्युत्‌के समान तथा पृथिवी आदिमें प्रकाशमान अत्यन्त सुन्दर रूप धारण करके इस लोकमें विराजमान शिवस्वरूपको नमस्कार है ॥ ११७-१२५ ॥

अग्निवर्णाय रौद्राय अम्बिकार्धशरीरिणे। 
धवलश्यामरक्तानां मुक्तिदायामराय च ॥ १२६

ज्येष्ठाय रुद्ररूपाय सोमाय वरदाय 
त्रिलोकाय त्रिदेवाय वषट्‌काराय वै नमः ॥ १२७

मध्ये गगनरूपाय गगनस्थाय ते नमः । 
अष्टक्षेत्राष्टरूपाय अष्टतत्त्वाय ते नमः ॥ १२८

चतुर्धा च चतुर्धा च चतुर्धा संस्थिताय च। 
पञ्चधा पञ्चधा चैव पञ्चमन्त्रशरीरिणे ॥ १२९

चतुःषष्टिप्रकाराय अकाराय नमो नमः। 
द्वात्रिंशत्तत्त्वरूपाय उकाराय नमो नमः ॥ १३०

षोडशात्मस्वरूपाय मकाराय नमो नमः। 
अष्टधात्मस्वरूपाय अर्धमात्रात्मने नमः ॥ १३१

ओङ्काराय नमस्तुभ्यं चतुर्धा संस्थिताय च।
गगनेशाय देवाय स्वर्गेशाय नमो नमः ॥ १३२

अग्निके समान वर्णवाले, भयानक, अम्बिकाको अपने आधे शरीरमें धारण करनेवाले (अर्धनारीश्वर), रुद्र-विष्णु-ब्रह्माको मुक्ति देनेवाले, मृत्युरहित, ज्येष्ठ, भयंकर रूपवाले, सोमस्वरूप, वर प्रदान करनेवाले, त्रिलोकस्वरूप, त्रिदेवस्वरूप तथा वषट्‌कारस्वरूप शिवको नमस्कार है हृदयकमलके मध्य गगनसदृशरूपवाले तथा गगनमें स्थित आपको नमस्कार है। [सूर्य आदि] आठ स्थानोंमें [रुद्र आदि] आठ रूपोंवाले तथा पृथ्वी आदि आठ तत्त्वोंवाले आपको नमस्कार है। चारों वेदरूपसे, चारों आश्रमरूपसे तथा चतुर्व्यहरूपसे अवस्थित, आकाश आदि पंचभूत प्रकारसे, सद्योजात आदि पाँचरूपसे अवस्थित, सद्योजात आदि पंचमन्त्ररूप शरीरवाले शिवको नमस्कार है चौंसठ प्रकारके शिक्षोक्त वर्णरूपवाले अकारको बार-बार नमस्कार है। बत्तीस मातृकारूपवाले उकारको बार-बार नमस्कार है। सोलह तत्त्व रूपवाले मकारको बार-बार नमस्कार है। आठ प्रकारके आत्मस्वरूपवाले अर्थमात्रात्मक नादरूपको नमस्कार है। [अकार, ठकार मकार, अर्धमात्रात्मक नादरूप] चार प्रकारसे स्थित आप ओंकार (प्रणवरूप) को नमस्कार है। आकाशके स्वामी तथा स्वर्गक स्वामी शिवको बार-बार नमस्कार है॥ १२६-१३२॥

सप्तलोकाय पातालनरकेशाय वै नमः ।
अष्टक्षेत्राष्टरूपाय परात्परतराय च ॥ १३३

सहस्त्रशिरसे तुभ्यं सहस्त्राय च ते नमः।
सहस्त्रपादयुक्ताय शर्वाय परमेष्ठिने ॥ १३४

नवात्मतत्त्वरूपाय नवाष्टात्मात्मशक्तये।
पुनरष्टप्रकाशाय तथाष्टाष्टकमूर्तये ॥ १३५

चतुःषष्ट्यात्मतत्त्वाय पुनरष्टविधाय ते।
गुणाष्टकवृतायैव गुणिने निर्गुणाय ते ॥ १३६

मूलस्थाय नमस्तुभ्यं शाश्वतस्थानवासिने ।
नाभिमण्डलसंस्थाय हृदि निःस्वनकारिणे ॥ १३७

कन्धरे च स्थितायैव तालुरन्ध्रस्थिताय च।
भ्रूमध्ये संस्थितायैव नादमध्ये स्थिताय च ॥ १३८

चन्द्रबिम्बस्थितायैव शिवाय शिवरूपिणे ।
वह्निसोमार्करूपाय ष‌ट्त्रिंशच्छक्तिरूपिणे ॥ १३९

त्रिधा संवृत्य लोकान् वै प्रसुप्तभुजगात्मने। 
त्रिप्रकारं स्थितायैव त्रेताग्निमयरूपिणे । १४०

सदाशिवाय शान्ताय महेशाय पिनाकिने। 
सर्वज्ञाय शरण्याय सद्योजाताय वै नमः ॥ १४१

अघोराय नमस्तुभ्यं वामदेवाय ते नमः।
तत्पुरुषाय नमोऽस्तु ईशानाय नमो नमः ॥ १४२

सात लोकस्वरूप, पाताल तथा नरकके स्वामी,[पृथ्वी आदि] आठ क्षेत्रोंके रूपमें आठ स्वरूपोंवाले तथा परात्परतर (सर्वोत्कृष्ट) शिवको नमस्कार है हजार सिरोंवाले, हजार रूपोंवाले, हजार पैरोंसे युक्त आप शवं परमेष्ठीको नमस्कार है। [पुरुष, प्रकृति, व्यक्त, अहंकार, नभ, अनिल, ज्योति, आप (जल), पृथ्वी] नौ आत्मतत्त्वमय स्वरूपवाले, सत्रह आत्मशक्तियोंवाले, अष्टप्रकाशस्वरूप (उर आदि स्थानोंमें वणींको अभिव्यंजित करनेवाले), आठ मूर्तियोंवाले, चौंसठ योगिनियोंके प्राणतत्त्वरूप, भव आदि आठ नामोंवाले, आठ गुणोंसे युक्त, [सत्त्व, रज, तम] तीनों गुणोंसे युक्त तथा गुणोंसे शून्य आप [शिव]-को नमस्कार है मूलाधारचक्रमें विराजमान, शाश्वत स्थानमें निवास करनेवाले, नाभिमण्डलमें स्थित तथा हृदयमें प्राणवायु ध्वनि करनेवाले आप [शिव] को नमस्कार है। ग्रीवामें स्थित, तालुछिद्रमें स्थित, भौहोंके मध्यमें स्थित, नादके मध्यमें स्थित, चन्द्रबिम्बमें स्थित, कल्याणकारी, शिवस्वरूप, अग्नि-चन्द्र-सूर्यरूपवाले, छत्तीस शक्तिरूपवाले, तीन प्रकारके [सत्त्व, रज, तम] गुणोंसे लोकोंको वेष्टितकर सोये हुए सर्परूप [कुण्डलिनोरूप]-वाले, [गार्हपत्य, आहवनीय तथा दक्षिणाग्नि] तीन रूपसे स्थित त्रेताग्निमय रूपवाले, सदाशिव, शान्तस्वभाववाले, महेश्वर, पिनाकधारी, सब कुछ जाननेवाले तथा शरण देनेवाले सद्योजातको नमस्कार है। आप अघोरको नमस्कार है। आप वामदेवको नमस्कार है। तत्पुरुषको नमस्कार है। ईशानको बार-बार नमस्कार है॥ १३३-१४२ ॥

नमस्त्रिंशत्प्रकाशाय शान्तातीताय वै नमः। 
अनन्तेशाय सूक्ष्माय उत्तमाय नमोऽस्तु ते ॥ १४३

एकाक्षाय नमस्तुभ्यमेकरुद्राय ते नमः। 
नमस्त्रिमूर्तये तुभ्यं श्रीकण्ठाय शिखण्डिने ॥ १४४

अनन्तासनसंस्थाय अनन्तायान्तकारिणे। 
विमलाय विशालाय विमलाङ्गाय ते नमः ॥ १४५

विमलासनसंस्थाय विमलार्धार्थरूपिणे । 
योगपीठान्तरस्थाय योगिने योगदायिने ॥ १४६

योगिनां हृदि संस्थाय सदा नीवारशूकवत्। 
प्रत्याहाराय ते नित्यं प्रत्याहाररताय ते ॥ १४७

प्रत्याहाररतानां च प्रतिस्थानस्थिताय च। 
धारणायै नमस्तुभ्यं धारणाभिरताय ते ॥ १४८

धारणाभ्यासयुक्तानां पुरस्तात्संस्थिताय च।
ध्यानाय ध्यानरूपाय ध्यानगम्याय ते नमः ।। १४९

ध्येयाय ध्येयगम्याय ध्येयध्यानाय ते नमः ।
ध्येयानामपि ध्येयाय नमो ध्येयतमाय ते ॥ १५०

समाधानाभिगम्याय समाधानाय ते नमः।
समाधानरतानां तु निर्विकल्पार्थरूपिणे ॥ १५१

तीसों मुहूर्तोंमें सदा प्रकाशमान रहनेवालेको नमस्कार है। शान्तातीतको नमस्कार है। आप अनन्तेश, सूक्ष्म तथा उत्तमको नमस्कार है। आप एकाक्ष (एकमात्र ज्ञानरूपी नेत्रवाले) को नमस्कार है। आप अद्वितीय रुद्रको नमस्कार है। आप त्रिमूर्ति, श्रीकण्ठ तथा शिखण्डीको नमस्कार है अनन्त (शेष) रूपी आसनपर स्थित, अनन्तस्वरूप, अन्त करनेवाले, विशुद्ध, विशाल तथा स्वच्छ अंगोंवाले आपको नमस्कार है। विमल आसनपर विराजमान, विमल ज्ञानके अर्थस्वरूप, योगपीठके मध्यस्थित योगी, योग प्रदान करनेवाले, नीवार (जंगली धान्य) के शुक (सूक्ष्म अग्रभाग) की भाँति योगियोंके हृदयमें सदा स्थित रहनेवाले आपको नमस्कार है। प्रत्याहारस्वरूप,प्रत्याहारमें निरत, प्रत्याहारमें रत लोगोंके हृदयमें विराजमान धारणास्वरूप तथा धारणामें निरत आपको नमस्कार है धारणाके अभ्यासमें लगे हुए लोगोंके सामने [सदा] विराजमान, ध्यान, ध्यानरूप तथा ध्यानगम्य आपको नमस्कार है। ध्येय, ध्येयगम्य, ध्यान करनेयोग्य, ध्यानवाले आपको नमस्कार है। ध्यानयोग्य (ब्रह्मा, विष्णु आदि]-के भी ध्येय तथा सबसे अधिक ध्यानयोग्य आपको नमस्कार है। समाधानके द्वारा प्राप्य, समाधानस्वरूप, समाधान (ध्यान) में रत लोगोंक लिये निर्विकल्प अर्थस्वरूप आपको नमस्कार है॥ १४३-१५१ ॥

दग्ध्वोद्धृतं सर्वमिदं त्वयाद्य जगत्त्रयं रुद्र पुरत्रयं हि।
कः स्तोतुमिच्छेत्कथमीदृशं त्वां स्तोष्ये हि तुष्टाय शिवाय तुभ्यम् ॥ १५२

भक्त्या च तुष्ट्या द्भुतदर्शनाच्च मर्त्या अमर्त्या अपि देवदेव।
एते गणाः सिद्धगणैः प्रणामं कुर्वन्ति देवेश गणेश तुभ्यम् ॥ १५३

निरीक्षणादेव विभोऽसि दग्धुं पुरत्रयं चैव जगत्त्रयं च।
लीलालसेनाम्बिकया क्षणेन दग्धं किलेषुश्च तदाथ मुक्तः ॥ १५४

हे रुद्र। त्रिपुरको दग्ध करके आपने तीनों लोकोंका उद्धार कर दिया। ऐसे प्रभावशाली आपकी स्तुति करनेका सामर्थ्य कौन रखता है; फिर भी [स्वयं] सन्तुष्ट रहनेवाले आप शिवकी मैं स्तुति करता हूँ हे देवदेव! आपकी भक्ति, तुष्टि तथा अद्भुत दर्शनके कारण ये मानव, देवता तथा सिद्धगणॉसहित समस्त गण आपको प्रणाम करते हैं। हे देवेश। हे गणेश! आपको नमस्कार है हे विभो ! आप तो देखनेमात्रसे ही तीनों पुरों तथा तीनों लोकोंको जला देनेमें समर्थ हैं। अम्बिकाके साथ लीलासक्त आपने क्षणभरमें त्रिपुरको जला दिया और [सोम आदिके प्रार्थना करनेपर] उस समय बाणको भी मुक्त कर दिया ॥ १५२-१५४॥

कृतो शुभ्रं रथश्चेषुवरश्च शरासनं ते त्रिपुरक्षयाय।
अनेकयलैश्च मयाथ तुभ्यं फलं न दृष्टं सुरसिद्धसङ्घः ॥ १५५

रथो रथी देववरो हरिश्च रुद्रः स्वयं शक्रपितामही च।
त्वमेव सर्वे भगवन् कथं तु स्तोष्ये ह्यतोष्यं प्रणिपत्य मूर्जा ॥ १५६

अनन्तपादस्त्वमनन्तबाहु- रनन्तमूर्धान्तकरः शिवश्च ।
अनन्तमूर्तिः कथमीदृशं त्वां तोष्ये ह्यतोष्यं कथमीदृशं त्वाम् ॥ १५७

नमो नमः सर्वविदे शिवाय रुद्राय शर्वाय भवाय तुभ्यम्।
स्थूलाय सूक्ष्माय सुसूक्ष्मसूक्ष्म- सूक्ष्माय सूक्ष्मार्थविदे विधात्रे ॥ १५८

आपके द्वारा त्रिपुरके नाशके लिये मैंने अनेक यत्नोंसे रथ, श्रेष्ठ बाण तथा सुन्दर धनुष आपके लिये निर्मित किया था; किंतु देवताओं तथा सिद्धजनोंद्वारा युद्धरूपी फलको नहीं जाना जा सका अर्थात् परम महिमावाले आपने क्षणभरमें त्रिपुरका नाश कर दिया रथ, रथी, देवश्रेष्ठ विष्णु, स्वयं रुद्र, इन्द्र, ब्रह्मा-ये सब आप ही हैं। हे भगवन्! मैं आप अतोष्य (स्तुति न किये जा सकनेवाले) की स्तुति कैसे करूँ; अतः सिर झुकाकर [केवल] प्रणाम करता हूँ  आप अनन्त चरणोंवाले, अनन्त भुजाओंवाले अनन्त सिरवाले, अनन्त रूपोंवाले, संहार करनेवाले तथा कल्याण करनेवाले हैं-ऐसे प्रभाववाले आपकी स्तुति कैसे करूँ; आप अतोष्यकी स्तुति कैसे करूँ ? आप सर्ववेत्ता, शिव, रुद्र, शर्व, भव, स्थूल, सूक्ष्म, अत्यन्त सूक्ष्मसे भी सूक्ष्म, सूक्ष्म अर्थोंको जाननेवाले तथा विधाताको नमस्कार है ॥ १५५ - १५८ ॥

स्त्रष्ट्रे नमः सर्वसुरासुराणां भत्रै च हर्ने जगतां विधात्रे।
नेत्रे सुराणामसुरेश्वराणां दात्रे प्रशास्त्रे मम सर्वशास्त्रे ॥ १५९

वेदान्तवेद्याय सुनिर्मलाय वेदार्थविद्भिः सततं स्तुताय ।
वेदात्मरूपाय भवाय तुभ्य- मन्ताय मध्याय सुमध्यमाय ॥ १६०

आद्यन्तशून्याय च संस्थिताय तथा त्वशून्याय च लिङ्गिने च।
अलिङ्गिने लिङ्गमयाय तुभ्यं लिङ्गाय वेदादिमयाय साक्षात् ॥ १६१

रुद्राय मूर्धाननिकृन्तनाय ममादिदेवस्य च यज्ञमूर्तेः ।
विध्वान्तभङ्ग मम कर्तुमीश दृष्ट्वैव भूमौ करजाग्रकोट्या ॥ १६२

अहो विचित्रं तव देवदेव विचेष्टितं सर्वसुरासुरेश।
देहीव देवैः सह देवकार्य करिष्यसे निर्गुणरूपतत्त्व ।। १६३

सभी देवताओं तथा असुरोंके स्रष्टा, लोकोंका सूजन-पालन-संहार करनेवाले, देवताओं तथा असुरोंके नायक, सब कुछ देनेवाले और मुझपर तथा सभीपर शासन करनेवालेको नमस्कार है वेदान्तके द्वारा जाननेयोग्य, परम शुद्ध, वेदार्थक ज्ञाताओंद्वारा निरन्तर स्तुत, वेदके आत्मास्वरूप, भव, अन्त, मध्य तथा सुमध्यम आपको नमस्कार है आदि तथा अन्तसे रहित, सर्वत्र विद्यमान, शून्यत्व से रहित, लिङ्गी, अलिङ्गी, लिङ्गमय, लिङ्गस्वरूप तथा साक्षात् वेदादिमय (प्रणवरूप) आपको नमस्कार है मेरे भी आदिदेव यज्ञमूर्ति विष्णुके तथा मुझ ब्रह्माके अज्ञानान्धकारका नाश करनेके लिये अपराधस्थानमें देखकर [अपने] नाखूनके अग्रभागसे मेरे मस्तकका छेदन करनेवाले हे ईश! आप रुद्रको नमस्कार है हे देवदेव ! हे समस्त देवताओं तथा असुरोंके ईश। आपका क्रिया-कलाप विचित्र है। हे निर्गुणरूपतत्त्व ! आप देवताओंके साथ देहधारीकी भाँति देवोंका कार्य करेंगे ॥ १५९-१६३॥

एकं स्थूलं सूक्ष्ममेकं सुसूक्ष्मं मूर्तामूर्त मूर्तमेकं ह्यमूर्तम् ।
एकं दृष्टं वाङ्मयं चैकमीशं ध्येयं चैकं तत्त्वमत्राद्भुतं ते ॥ १६४

स्वप्ने दृष्टं यत्पदार्थ हालक्ष्यं दृष्टं नूनं भाति मन्ये न चापि।
मूर्तिनों वै देवमीशानदेवै- र्लक्ष्या यत्नैरप्यलक्ष्यं कथं तु ॥ १६५

दिव्यः क्व देवेश भवत्प्रभावो वयं क्व भक्तिः क्व च ते स्तुतिश्च।
तथापि भक्त्या विलपन्तमीश पितामहं मां भगवन् क्षमस्व ॥ १६६

सूत उवाच

य इमं शृणुयाद् द्विजोत्तमा भुवि देवं प्रणिपत्य वा पठेत्।
स च मुञ्चति पापबन्धनं भवभक्त्या पुरशासितुः स्तवम् ॥ १६७

श्रुत्वा च भक्त्या चतुराननेन स्तुतो हसशैलसुतां निरीक्ष्य।
स्तवं तदा प्राह महानुभावं महाभुजो मन्दरशृङ्गवासी ॥ १६८

इस ब्रह्माण्डमें आपका एक स्थूल रूप (पृथ्वीरूप), एक सूक्ष्म रूप (जलरूप), एक सुसूक्ष्म रूप (अग्निरूप), मूर्ती मूर्त रूप (क्षय-वृद्धिके आश्रयके कारण चन्द्ररूप), एक मूर्तरूप (सूर्यरूप), एक अमूर्तरूप (वायुरूप), एक दृष्ट वाङ्मयरूप (शब्दगुणसे ज्ञात गगनरूप) और एक ध्येय अद्भुत ईशरूप है स्वप्नमें जो पदार्थ दिखायी देता है, वह प्रत्यक्षकी भाँति प्रतीत होता है; उसे मैं अलक्ष्य नहीं मानता हूँ। वैसे ही हे ईशान। देवताओंके द्वारा प्रयत्नपूर्वक देखा गया आपका विग्रह हमारे लिये निर्गुण तथा अलक्ष्य कैसे हो सकता है? हे देवेश! कहाँ आपका दिव्य प्रभाव और कहाँ हमलोग, कहाँ हमारी भक्ति और कहाँ आपकी [यह] स्तुतिः फिर भी हे देवेश। हे भगवन् ! भक्तिपूर्वक विलाप करते हुए मुझ ब्रह्माको क्षमा कीजिये सूतजी बोले- हे द्विजश्रेष्ठो ! पृथ्वीपर जो भी शिवको प्रणाम करके त्रिपुरके शास्ता भगवान् शिवकी इस स्तुतिको सुनता अथवा पढ़ता है, वह भवभक्तिके द्वारा पापबन्धनसे मुक्त हो जाता है तब ब्रह्माके द्वारा भक्तिपूर्वक स्तुत हुए मन्दरशिखरवासी तथा महान् भुजाओंवाले शिवजी उस स्तुतिको सुनकर पार्वतीकी ओर देखकर महानुभाव ब्रह्मासे हँसते हुए कहने लगे - ॥ १६४-१६८॥

शिव उवाच

स्तवेनानेन तुष्टोऽस्मि तव भक्त्या च पद्मज। 
वरान् वरय भद्रं ते देवानां च यथेप्सितान् ॥ १६९

सूत उवाच

ततः प्रणम्य देवेशं भगवान् पद्मसम्भवः । 
कृताञ्जलिपुटो भूत्वा प्राहेदं प्रीतमानसः ॥ १७०

श्रीपितामह उवाच

भगवन् देवदेवेश त्रिपुरान्तक शङ्कर। 
त्वयि भक्तिं परां मेऽद्य प्रसीद परमेश्वर ॥ १७१

देवानां चैव सर्वेषां त्वयि सर्वार्थदेश्वर। 
प्रसीद भक्तियोगेन सारथ्येन च सर्वदा ॥ १७२

जनार्दनोऽपि भगवान्नमस्कृत्य महेश्वरम् । 
कृताञ्जलिपुटो भूत्वा प्राह साम्बं त्रियम्बकम् ॥ १७३

वाहनत्वं तवेशान नित्यमीहे प्रसीद मे। 
त्वयि भक्तिं च देवेश देवदेव नमोऽस्तु ते ॥ १७४

सामर्थ्यं च सदा महां भवन्तं वोढुमीश्वरम् । 
सर्वज्ञत्वं च वरद सर्वगत्वं च शङ्कर ॥ १७५

सूत उवाच

तयोः श्रुत्वा महादेवो विज्ञप्तिं परमेश्वरः । 
सारथ्ये वाहनत्वे च कल्पयामास वै भवः ॥ १७६

दत्त्वा तस्मै ब्रह्मणे विष्णवे च दग्ध्वा दैत्यान् देवदेवो महात्मा।
सार्थ देव्या नन्दिना भूतसङ्गै रन्तर्धानं कारयामास शर्वः ॥ १७७

ततस्तदा महेश्वरे गते रणाद् गणैः सह। 
सुरेश्वराः सुविस्मिता भवं प्रणम्य पार्वतीम् ॥ १७८

त्रिपुरारेरिमं पुण्यं निर्मितं ब्रह्मणा पुरा। 
यः पठेच्छ्राद्धकाले वा दैवे कर्मणि च द्विजाः ॥ १८०

श्रावयेद्वा द्विजान् भक्त्या ब्रह्मलोकं स गच्छति। 
मानसैर्वाचिकैः पापैस्तथा वै कायिकैः पुनः ॥ १८१

शिवजी बोले- हे पद्मयोने! भक्तिपूर्वक की गयी आपकी इस स्तुतिसे मैं प्रसन्न हूँ। आप यथेष्ट वर माँगिये; आपका तथा देवताओंका कल्याण हो सूतजी बोले- तत्पश्चात् पद्मयोनि ब्रह्माजी देवेशको प्रणाम करके हाथ जोड़कर प्रसन्नचित्त होकर यह [वचन] कहने लगे श्रीपितामह बोले- 'हे भगवन्! हे देवदेवेश! हे त्रिपुरविनाशक ! हे शंकर! आपमें अपनी परम भक्ति चाहता हूँ। हे परमेश्वर! अब प्रसन्न हो जाइये। सभी कामनाओंको पूर्ण करनेवाले हे ईश्वर! आपमें सभी देवताओंकी भक्ति हो; मेरे भक्तियोगसे तथा सारथीरूपसे आप सदा प्रसन्न रहें' भगवान् विष्णुने भी पार्वतीसहित त्रिनेत्र शिवको प्रणाम करके हाथ जोड़कर उनसे कहा- 'हे ईशान। मैं [वृषभ आदि रूपसे] सदा आपका वाहन होनेकी अभिलाषा करता हूँ और हे देवेश! आपमें [अपनी] भक्ति चाहता हूँ। हे देवदेव! आपको नमस्कार है। है वरद! हे शंकर! आप ईश्वरको सदा वहन करनेका सामर्थ्य, सर्वज्ञत्व तथा सर्वत्र गमन करनेकी शक्ति मुझे प्रदान कीजिये सूतजी बोले- उन दोनोंकी प्रार्थना सुनकर महादेव परमेश्वर शिवने उन्हें सारथि तथा वाहन होनेका वर प्रदान किया इस प्रकार दैत्योंको दग्ध करके और उन ब्रह्मा तथा विष्णुको वर प्रदान करके देवदेव महात्मा शिव देवी [पार्वती], नन्दी तथा भूतगणोंसहित अन्तर्धान हो गये इसके बाद युद्धभूमिसे गणोंसहित शिवके चले जानेपर श्रेष्ठ देवतालोग अतिविस्मित हुए। हे मुनीश्वरो ! शिव तथा पार्वतीको प्रणाम करके दुःखरहित होकर सुरेश्वर, गणेश्वर तथा आदित्यगण अपने-अपने वाहनोंसे स्वर्ग चले गये ॥ १६९-१७९ ॥

स्थूलैः सूक्ष्मैः सुसूक्ष्मैश्च महापातकसम्भवैः । 
पातकैश्च द्विजश्रेष्ठा उपपातकसम्भवैः ॥ १८२

पापैश्च मुच्यते जन्तुः श्रुत्वाध्यायमिमं शुभम् । 
शत्रवो नाशमायान्ति सङ्ग्रामे विजयी भवेत् ॥ १८३

सर्वरोगैर्न बाध्येत आपदो न स्पृशन्ति तम्। 
धनमायुर्यशो विद्यां प्रभावमतुलं लभेत् ॥ १८४

हे द्विजो! जो [व्यक्ति] पूर्वकालमें ब्रह्माके द्वारा निर्मित किये गये त्रिपुरशत्रु [शिव] के इस पवित्र स्तोत्रको श्राद्धके समय अथवा देवकार्यमें भक्तिपूर्वक पढ़ता है अथवा द्विजोंको सुनाता है, वह ब्रह्मलोकको जाता है। हे द्विजश्रेष्ठो । इस शुभ अध्यायको सुनकर प्राणों मानसिक, वाचिक तथा शारीरिक पापोंसे; स्थूल, सूक्ष्म तथा अतिसूक्ष्म पापोंसे; घोर अपराधसे होनेवाले पापोंसे तथा अल्प अपराधसे होनेवाले पापोंसे मुक्त हो जाता है; उसके शत्रु नष्ट हो जाते हैं, वह संग्राममें विजयी होता है, सभी रोग उसे बाधा नहीं पहुँचाते, आपदाएँ उसे स्पर्शतक नहीं करतीं और वह धन-आयु-यश-विद्या तथा अतुलनीय प्रभाव प्राप्त करता है॥ १८२-१८४॥

॥ इति श्रीलिङ्गमहापुराणे पूर्वभागे त्रिपुरदाहे ब्रह्मस्तवो नाम द्विसप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७२ ॥ 

॥ इस प्रकार श्रीलिङ्गमहापुराणके अन्तर्गत पूर्वभागमें त्रिपुरदाहप्रसंगमें 'ब्रहास्तव' नामक बहत्तरवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ७२॥

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