लिंग पुराण : दसवाँ अध्याय
योग सिद्धि प्राप्त पुरुषों के लक्षण, साधु धर्म का स्वरूप, भगवान् शिव के साक्षात्कार के उपायों का वर्णन तथा भक्ति भाव में श्रद्धा की महत्ता
सूत उवाच
सतां जितात्मनां साक्षाद् द्विजातीनां द्विजोत्तमाः ।
धर्मज्ञानां च साधूनामाचार्याणां शिवात्मनाम् ॥ १
दयावतां द्विजश्रेष्ठास्तथा चैव तपस्विनाम्।
संन्यासिनां विरक्तानां ज्ञानिनां वशगात्मनाम् ॥ २
दानिनां चैव दान्तानां त्रयाणां सत्यवादिनाम्।
अलुब्धानां सयोगानां श्रुतिस्मृतिविदां द्विजाः ॥ ३
श्रौतस्मार्ताविरुद्धानां प्रसीदति महेश्वरः।
सदिति ब्रह्मणः शब्दस्तदन्ते ये लभन्त्युत ॥ ४
सायुज्यं ब्रह्मणो यान्ति तेन सन्तः प्रचक्षते।
दशात्मके ये विषये साधने चाष्टलक्षणे॥ ५
न कुष्यन्ति न दुष्यन्ति जितात्मानस्तु ते।
सामान्येषु च द्रव्येषु तथा वैशेषिकेषु च ॥ ६
ब्रह्मक्षत्रविशो यस्माद्युक्तास्तस्माद द्विजातयः ।
वर्णाश्रमेषु युक्तस्य स्वर्गादिसुखकारिणः ॥ ७
श्रौतस्मार्तस्य धर्मस्य ज्ञानाद्धर्मज्ञ उच्यते।
विद्यायाः साधनात्साधुर्ब्रह्मचारी गुरोर्हितः ॥ ८
क्रियार्णा साधनाच्चचैव गृहस्थः साधुरुध्यते।
साधनात्तपसोऽरण्ये साधुवैखानसः स्मृतः ॥ ९
यतमानी यतिः साधुः स्मृतो योगस्य साधनात्।
एवमाश्रमधर्माणां साधनात्साधवः स्मृताः ॥ १०
गृहस्थी ब्रह्मचारी च वानप्रस्थो यतिस्तथा।
धर्माधर्माविह प्रोक्तौ शब्दावेती क्रियात्मकौ ॥ ११
कुशलाकुशलं कर्म धर्माधर्माविति स्मृती।
धारणार्थे महान् होष धर्मशब्दः प्रकीर्तितः ॥ १२
अधारणे महत्त्वे च अधर्म इति चोच्यते।
अवेष्टप्रापको धर्म आचार्यैरुपदिश्यते ॥ १३
अधर्मश्चानिष्टफलो ह्राचार्यैरुपदिश्यते।
वृद्धाश्चालोलुपाश्चैष आत्पवनतो हादाम्भिकाः ॥ १४
सम्यग्विनीता ऋजवस्तानाचार्यान् प्रचक्षते।
स्वयमाचरते यस्मादाचारे स्थापयत्यपि ॥ १५
आचिनोति च शास्त्रार्थानाचार्यस्तेन चोच्यते।
विज्ञेयं श्रवणाच्छ्रौर्त स्मरणात्मार्तमुच्यते ॥ १६
इज्या वेदात्मकं श्रऔतं स्मार्तं वर्णाश्रमात्मकम्।
दृष्ट्वानुरूपमर्थं यः पृष्टो नैवापि गृहति ॥ १७
यथादृष्टप्रवादस्तु सत्यं लैङ्गेऽत्र पठाते।
ब्रह्मचर्यं तथा मौनं निराहारत्वमेव च ॥ १८
अहिंसा सर्वतः शान्तिस्तप इत्यभिधीयते।
आत्मवत्सर्वभूतेषु यो हितायाहिताय च॥१९
वर्तते त्वसकृवृत्तिः कृत्स्ना होषा दया स्मृता।
यद्यदिष्टतमं द्रव्यं न्यायेनैवागतं क्रमात् ॥ २०
तत्तद्गुणवते देवं दातुस्तहानलक्षणम् ।
दानं त्रिविधमित्येतत्कनिष्ठज्येष्ठमध्यमम् ॥ २१
कारुण्यात्सर्वभूतेभ्यः संविभागस्तु मध्यमः ।
श्रुतिस्मृतिभ्यां विहितो थर्मो वर्णाश्रमात्मकः ॥ २२
शिष्टाचाराविरुद्धश्च स धर्मः साधुरुच्यते।
मायाकर्मफलत्यागी शिवात्मा परिकीर्तितः ॥ २३
निवृत्तः सर्वसङ्गेभ्यो युक्तो योगी प्रकीर्तितः।
असक्तो भयतो यस्तु विषयेषु विचार्य च ॥ २४
अलुब्धः संयमी प्रोक्तः प्रार्थितोऽपि समन्ततः ।
आत्मार्थ वा परार्थं वा इन्द्रियाणीह यस्य वै॥ २५
न मिथ्या सम्प्रवर्तन्ते शमस्यैव तु लक्षणम्।
अनुद्विग्नो ह्यनिष्टेषु तथेष्टान्नाभिनन्दति ॥ २६
प्रीतितापविषादेभ्यो विनिवृत्तिर्विरक्तता।
संन्यासः कर्मणां न्यासः कृतानामकृतैः सह ॥ २७
कुशलाकुशलानां तु प्रहाणं न्यास उच्यते।
अव्यक्ताद्यविशेषान्ते विकारेऽस्मिन्नचेतने ॥ २८
चेतनाचेतनान्यत्वविज्ञानं ज्ञानमुच्यते।
एवं तु ज्ञानयुक्तस्य श्रद्धायुक्तस्य शङ्करः ॥ २९
प्रसीदति न सन्देहो धर्मश्चायं द्विजोत्तमाः ।
किं तु गुहातमं वक्ष्ये सर्वत्र परमेश्वरे।॥ ३०
भये भक्तिर्न सन्देहस्तया युक्तो विमुच्यते।
योग्यस्यापि भगवान् भक्तस्य परमेश्वरः ॥ ३१
प्रसीदति न सन्देहो निगृह्य विविधं तमः।
ज्ञानमध्यापनं होमो ध्यानं यज्ञस्तपः श्रुतम् ॥ ३२
दानमध्ययनं सर्व भवभक्त्यै न संशयः।
बान्द्रायणसहस्त्रैश्च प्राजापत्यशतैस्तथा ॥ ३३
मासोपवासैश्चान्यैर्वा भक्तिर्मुनिवरोत्तमाः।
अभक्ता भगवत्यस्मिल्लोके गिरिगुहाशये ॥ ३४
पतन्ति चात्मभोगार्थ भक्तो भावेन मुख्यते।
भक्तानां दर्शनादेव नृणां स्वर्गादयो द्विजाः ॥ ३५
न दुर्लभा न सन्देहो भक्तानां किं पुनस्तथा।
ब्रह्मविष्णुसुरेन्द्राणां तधान्येषामपि स्थितिः ॥ ३६
भक्त्या एव मुनीनां च बलसौभाग्यमेव च।
भवेन च तथा प्रोक्त सम्प्रेक्ष्योमां पिनाकिना ॥ ३७
देव्यै देवेन मधुरं वाराणस्यां पुरा द्विजाः।
अविमुक्ते समासीना रुद्रेण परमात्मना ॥ ३८
रुद्राणी रुद्रमाहेदं लब्वा वाराणसीं पुरीम्।
केन वश्यो महादेव पूज्यो दृश्यस्त्वमीश्वरः ॥ ३९
तपसा विद्यया वापि योगेनेह वद प्रभी।
है मुनीश्वरी। हजारों चान्द्रायण तथा सैकड़ों प्राजापत्यवतों, मासपर्यन्त किये गये उपवासों तथ अन्य अनुष्ठान आदि को अपेक्षा शिव भक्ति ही श्रेष भगवान् शिवको भकिसे हीन प्राणी स्वर्गादि की प्राप्ति के लिये अनेकविध कर्मजाल में फैसकर गहन गिरि- गुहारूपी इस मृत्युलोकमें बार-बार गिरते रहते हैं, किंतु भक्तिभावसे गुरु प्राणी गुरू हो जाता है द्वियो। भगवान् शिवके भकोंक दर्शनमात्र से प्राणियोंको स्वर्ग आदि लोक सहज ही सुलभ हो जाते हैं तो फिर साक्षात् शिवभक्तोंके विषयमें क्या कहना। इस वास्तविकतामें कोई संदेह नहीं है ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र तथा अन्य देवता शिवभक्तिके द्वारा ही उत्तम पदको प्राप्त हुए हैं। इसी प्रकार मुनियोंका भी बाल तथा सौभाग्य शिवभक्रिके ही कारण है ऋषियो। प्राचीन कालमें देवाधिदेव पिनाकी शंकरने उमाको लक्ष्य करके वाराणसीमें उनसे जिस मधुर प्रसंगका वर्णन किया था, वही मैं भी आप लोगोंसे कह रहा हूँ अविमुक्त क्षेत्र वाराणसीपुरीमें आकर भगवान् शिवके साथ विराजमान भगवती रुद्राणीने उन भगवान् रुद्र से यह पूछा देवी श्री पार्वती ने कहा- हे महादेव। तप, विद्या, योग आदि किस साधनसे आप वशमें होते हैं, पूजित होते हैं तथा दर्शन देते हैं? हे प्रथी। मुझे बताइये ॥ ३९॥
सूर उवाच
निशम्य वचनं तस्यास्तथा ह्यालोक्य पार्वतीम् ॥ ४०
आह बालेन्दुतिलकः पूर्णेन्दुवदनां हसन् ।
स्मृत्वाथ मेनया पल्या गिरेर्गा कधितां पुरा ॥ ४१
बिरकालस्थितिं प्रेक्ष्य गिरौ देव्या महात्मनः ।
देवि लब्धा पुरी रम्या त्वया यत्प्रष्टुमर्हसि ॥ ४२
स्थानार्थ कथितं मात्रा विस्मृतेह विलासिनि।
पुरा पितामहेनापि पृष्टः प्रश्नवतां वरे ॥ ४३
यथा त्वयाद्य वै पृष्टो द्रष्टुं ब्रह्मात्मके त्वहम्।
श्वेते श्वेतेन वर्णेन दृष्ट्वा कल्पे तु मां शुभे ॥ ४४
सद्योजाते तथा रके रक्त वार्म पितामहः।
पीते तत्पुरुषं पीतमपोरे कृष्णमीश्वरम् ॥
ईशानं विश्वरूपाको विश्वरूपं तदाह माम्।
बाम तत्पुरुषाधोर सद्योजात महेश्वर ४६
दृष्टो मया त्वं गायत्र्या देवदेव महेश्वर।
केन वश्यो महादेव ध्येयः कुत्र पृणानिधे ॥ ४७
दृश्यः पूज्यस्तथा देव्या वक्तुमर्हसि शङ्कर।
अवोचं अद्धवैवेति वश्यो वारिजसम्भव ॥ ४८
ध्येयो तिलो त्वया दृष्टे विष्णुना पयसां निधी।
पूज्यः पञ्यास्यरूपेण पवित्रेः पञ्चभिद्विजैः ॥ ४९
भवभक्त्याद्य दृष्टोऽहं त्वयाण्डज जगदगुरो।
सोऽपि मामाह भावार्थ दर्श तस्मै मया पुरा।॥५०
भावं भावेन देवेशि दृष्टवान् मां हृदीश्वरम्।
तस्मात्तु श्रद्धया वश्यो दृश्यः श्रेष्ठगिरेः सुते ॥ ५१
पूग्यो लिङ्गे न सन्देहः सर्वदा श्रद्धया द्विजैः।
श्रद्धा धर्मः परः सूक्ष्मः श्रद्धा ज्ञानं हुतं तपः ॥ ५२
॥ इति श्रीलिङ्गमहापुराणे पूर्वभागे भक्तिभावकथनं नाम दशमोऽध्यायः ॥ १० ॥
यहां 'लिंग पुराण' के दसवें अध्याय का सारांश आधारित प्रश्न-उत्तर
1. सूत उवाच में कौन से भक्तों का वर्णन किया गया है ?
उत्तर: सूत उवाच में संत, जितात्मा, धर्मज्ञ, साधु, आचार्य, तपस्वी, संन्यासी, ज्ञानी, दानी, सत्यवादी और योगी जैसे भक्तों का वर्णन किया गया है, जिनका महेश्वर शिव पर कृपा रहती है।
2. किसे 'जितात्मा' कहा गया है ?
उत्तर: वे लोग जिन्हें दस इन्द्रियों के विषयों से अप्रभावित किया जाता है और जो न तो किसी वस्तु के न मिलने पर क्रोधित होते हैं, न ही किसी वस्तु के मिल जाने पर हर्षित होते हैं, उन्हें 'जितात्मा' कहा गया है।
3. साधु धर्म के लक्षण क्या हैं ?
उत्तर: साधु धर्म के लक्षण हैं - जो अपने-अपने आश्रमों के धर्म का पालन करते हैं, जैसे ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यासी। यह लोग सत्य बोलते हैं, शान्त रहते हैं और अपने जीवन में अहिंसा तथा सादा जीवन अपनाते हैं।
4. 'धर्म' और 'अधर्म' के बीच अंतर क्या है ?
उत्तर: धर्म वह है जो शास्त्रों और आचार्यों द्वारा निर्धारित किया जाता है, जो शुभ फल की प्राप्ति कराता है। अधर्म वह है, जो शास्त्रों के विरुद्ध होता है और असमर्थ या अशुभ परिणाम लाता है।
5. भगवान शिव के प्रति श्रद्धा की महत्ता क्या है ?
उत्तर: श्रद्धा और भक्ति से युक्त व्यक्ति भगवान शिव के साथ साक्षात्कार कर सकता है और उन्हें प्राप्त कर सकता है। भक्ति से ही मुक्ति मिलती है और यह व्यक्ति को शरणागति के उच्चतम स्तर तक पहुंचाता है।
6. शिव भक्ति के महत्व को किस प्रकार बताया गया है ?
उत्तर: शिव भक्ति के माध्यम से भक्त भगवान शिव की कृपा प्राप्त करता है। शिव की भक्ति बिना किसी संदेह के सच्ची मुक्ति और ईश्वर के साक्षात्कार का मार्ग है। यही सर्वोत्तम मार्ग है जो व्यक्ति को परम शांति और सुख प्रदान करता है।
7. कौन से लोग शिव भक्ति से वंचित रहते हैं ?
उत्तर: वे लोग जो विषयों में आसक्ति रखते हैं और जिनका ध्यान परमेश्वर पर नहीं है, वे शिव भक्ति से वंचित रहते हैं। इनका जीवन भोगों में उलझा रहता है और ये बार-बार जन्म-मृत्यु के चक्र में फंसते हैं।
8. शिव भक्ति का परिणाम क्या होता है ?
उत्तर: शिव भक्ति का परिणाम यह होता है कि भक्त शिव के दर्शन से स्वर्ग और मोक्ष प्राप्त करता है। शिव के भक्तों को शांति, सुख और परमज्ञान की प्राप्ति होती है।
9. श्रद्धा का क्या महत्व है ?
उत्तर: श्रद्धा के साथ भगवान की पूजा करने से व्यक्ति का मन शुद्ध होता है और वह वास्तविक ज्ञान प्राप्त करता है। इस श्रद्धा के कारण ही भगवान शिव अपने भक्तों पर कृपा करते हैं।
10. भगवान शिव की पूजा के क्या उपाय बताए गए हैं ?
उत्तर: भगवान शिव की पूजा के उपायों में यज्ञ, ध्यान, तप, वेद अध्ययन और शिव मंत्रों का उच्चारण शामिल है। श्रद्धा और भक्ति से सच्चे रूप से पूजा करने पर भगवान शिव प्रसन्न होते हैं।
यह प्रश्न-उत्तर लिंग पुराण के दसवें अध्याय के मुख्य बिंदुओं का सार प्रस्तुत करते हैं, जो भगवान शिव की भक्ति और साधु धर्म के महत्व को स्पष्ट करते हैं।
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