लिंग पुराण : योग सिद्धि प्राप्त पुरुषोंके लक्षण, साधुधर्म का स्वरूप |

लिंग पुराण : दसवाँ अध्याय

योग सिद्धि प्राप्त पुरुषों के लक्षण, साधु धर्म का स्वरूप, भगवान् शिव के साक्षात्कार के उपायों का वर्णन तथा भक्ति भाव में श्रद्धा की महत्ता

सूत उवाच

सतां जितात्मनां साक्षाद् द्विजातीनां द्विजोत्तमाः । 
धर्मज्ञानां च साधूनामाचार्याणां शिवात्मनाम् ॥ १

दयावतां द्विजश्रेष्ठास्तथा चैव तपस्विनाम्। 
संन्यासिनां विरक्तानां ज्ञानिनां वशगात्मनाम् ॥ २

दानिनां चैव दान्तानां त्रयाणां सत्यवादिनाम्।
अलुब्धानां सयोगानां श्रुतिस्मृतिविदां द्विजाः ॥ ३

श्रौतस्मार्ताविरुद्धानां प्रसीदति महेश्वरः। 
सदिति ब्रह्मणः शब्दस्तदन्ते ये लभन्त्युत ॥ ४

सूतजी बोले- है उत्तम ब्राह्मणो। संत, जितेन्द्रिय, साक्षात् द्विजाति (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य), धर्मज्ञ, साधु, आचार्य, शिवात्मा, दयावान्, तपस्वी, संन्यासी, वैराग्य-परायण, ज्ञानी, मनपर नियन्त्रण रखनेवाले, दानी, उदार, मनसा वाचा-कर्मणा सत्यवादी, अलुब्ध, योगपरायण, बुतियों तथा स्मृतियोंके वेत्ता, श्रुतियों तथा स्मृतिका अनुकरण करनेवालोंका विरोध न करनेवाले लोगोंपर महेश्वर प्रसन्न रहते हैं सत् शब्दका अर्थ ब्रहा होता है। जो अन्तमें उस ग्रहाको पा लेते हैं, वे ब्रह्यसायुज्यको प्राप्त होते इसीलिये ऐसे महशया संत कहे जाते हैं॥१ - ४॥ 

सायुज्यं ब्रह्मणो यान्ति तेन सन्तः प्रचक्षते। 
दशात्मके ये विषये साधने चाष्टलक्षणे॥ ५

न कुष्यन्ति न दुष्यन्ति जितात्मानस्तु ते।
सामान्येषु च द्रव्येषु तथा वैशेषिकेषु च ॥ ६

ब्रह्मक्षत्रविशो यस्माद्युक्तास्तस्माद द्विजातयः ।
वर्णाश्रमेषु युक्तस्य स्वर्गादिसुखकारिणः ॥ ७

श्रौतस्मार्तस्य धर्मस्य ज्ञानाद्धर्मज्ञ उच्यते। 
विद्यायाः साधनात्साधुर्ब्रह्मचारी गुरोर्हितः ॥ ८

क्रियार्णा साधनाच्चचैव गृहस्थः साधुरुध्यते। 
साधनात्तपसोऽरण्ये साधुवैखानसः स्मृतः ॥ ९

यतमानी यतिः साधुः स्मृतो योगस्य साधनात्। 
एवमाश्रमधर्माणां साधनात्साधवः स्मृताः ॥ १०

दस इन्द्रियों के विषय भोगों में तथा पूर्ववर्णित आह प्रकारके ऐश्वर्यरूप साधनों की अप्राप्ति से जो न तो क्रोष करते हैं और न उनकी प्राप्तिसे हर्षका अनुभव करते हैं, वे जितात्मा कहे गये हैं सामान्य तथा विशेष पदार्थकि साथ ब्राहाण क्षत्रिय, वैश्योंका सम्बन्धविशेष होनेसे ही ये द्विजाति कहे गये हैं। स्वर्ग आदि का सुख प्रदान करनेवाले बुति-स्मृति- प्रतिपादित वर्षाश्रम-धर्मका ज्ञान रखनेसे व्यक्ति धर्मत कहा जाता है विद्याकी साधना करनेके कारण गुरुका हित करनेवाला ब्रह्मचारी साधु तथा विहित कर्मोंकी साधना करने वाला गृहस्थ साधु कहा जाता है। बनमें तपस्याकी साधना करनेसे वैखानस साधु एवं योगकी साधना करने तथा यतिधर्ममें परायण होनेसे व्यक्ति यति साधु कहा जाता है। इस प्रकार अपने-अपने आश्रमोंके धर्मीका साधन करनेसे गृहस्थ, ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ तथा यति- ये सभी साधु कहे गये हैं॥-१०॥

गृहस्थी ब्रह्मचारी च वानप्रस्थो यतिस्तथा। 
धर्माधर्माविह प्रोक्तौ शब्दावेती क्रियात्मकौ ॥ ११

कुशलाकुशलं कर्म धर्माधर्माविति स्मृती। 
धारणार्थे महान् होष धर्मशब्दः प्रकीर्तितः ॥ १२

अधारणे महत्त्वे च अधर्म इति चोच्यते। 
अवेष्टप्रापको धर्म आचार्यैरुपदिश्यते ॥ १३

अधर्मश्चानिष्टफलो ह्राचार्यैरुपदिश्यते। 
वृद्धाश्चालोलुपाश्चैष आत्पवनतो हादाम्भिकाः ॥ १४

सम्यग्विनीता ऋजवस्तानाचार्यान् प्रचक्षते। 
स्वयमाचरते यस्मादाचारे स्थापयत्यपि ॥ १५

आचिनोति च शास्त्रार्थानाचार्यस्तेन चोच्यते। 
विज्ञेयं श्रवणाच्छ्रौर्त स्मरणात्मार्तमुच्यते ॥ १६

इज्या वेदात्मकं श्रऔतं स्मार्तं वर्णाश्रमात्मकम्। 
दृष्ट्‌वानुरूपमर्थं यः पृष्टो नैवापि गृहति ॥ १७

यथादृष्टप्रवादस्तु सत्यं लैङ्गेऽत्र पठाते। 
ब्रह्मचर्यं तथा मौनं निराहारत्वमेव च ॥ १८

अहिंसा सर्वतः शान्तिस्तप इत्यभिधीयते। 
आत्मवत्सर्वभूतेषु यो हितायाहिताय च॥१९

वर्तते त्वसकृवृत्तिः कृत्स्ना होषा दया स्मृता। 
यद्यदिष्टतमं द्रव्यं न्यायेनैवागतं क्रमात् ॥ २०

धर्म तथा अधर्म- ये दोनों शब्द क्रियाके वाथक कहे गये हैं। कुशल कर्मको धर्म तथा अकुशल कर्मको अधर्म कहा गया है महत्तायुक्त यह धर्म शब्द धारणके अर्थमें कहा गया है तथा अधारण (धारण म करने) को उद्देश्य करके कृत कर्म अधर्म कहा जाता है जिससे अभीष्टकी प्राप्ति हो, उसे आचार्यलोग धर्म कहते हैं तथा जिससे अनिष्ट फलकी प्राप्ति हो. उसे आचार्यलोग अधर्म कहते हैं वृद्ध, निर्लोभी, जितेन्द्रिय, दम्भ न करनेवाले, पूर्ण विनम्र, सरल स्वभाववाले लोगोंको आचार्य कहा जाता जी स्वयं आचरण करता है तथा सभीको आचार में नियोजित करता है एवं शास्वों  का परिशीलन करता है; वह आचार्य कहा जाता है वेदों का श्रवण करने से बौत तथा शास्त्रों के अर्थोका स्मरण करनेसे स्मार्त कहा जाता है। वेदविहित यज्ञ आदि करनेवाला औत तथा वर्णाश्रमसम्बन्धी नियमोंका पालन करनेवाला स्मार्त कहा जाता है किसीके द्वारा पूछनेपर देखे गये अनुरूप (कधनयोग्य) तथा अननुरूप (कधनके अयोग्य) विषयको बिना छिपाये अभिव्यक्त करनेको लिङ्गपुराणके अनुसार सत्य कहा गया है ब्रह्मचर्य, मौन, निराहार, अहिंसा तथा सर्वविध शान्तिको तप कहा गया है जो पुरुष सदा अपने ही हित तथा अहितकी भाँति सभी प्राणियोंक हिताहितका ध्यान रखता है। उसकी यह निरन्तर बनी रहनेवाली वृत्ति पूर्णतः दमा कही गयी  क्रमसे न्यायपूर्वक अर्जित अभीष्टतम द्रव्य गुणीको ही दिया जाना चाहिये। दाताके द्वारा प्रदत्त दानका यही लक्षण है। वह दान भी कनिष्ठ, मध्यम तथा श्रेष्ठ-तीन प्रकारका होता है। करुणापूर्वक सभी प्राणियोंके निमित्त धनका विभाग करना मध्यम दान है॥ २०-२१॥

तत्तद्‌गुणवते देवं दातुस्तहानलक्षणम् । 
दानं त्रिविधमित्येतत्कनिष्ठज्येष्ठमध्यमम् ॥ २१

कारुण्यात्सर्वभूतेभ्यः संविभागस्तु मध्यमः । 
श्रुतिस्मृतिभ्यां विहितो थर्मो वर्णाश्रमात्मकः ॥ २२

शिष्टाचाराविरुद्धश्च स धर्मः साधुरुच्यते। 
मायाकर्मफलत्यागी शिवात्मा परिकीर्तितः ॥ २३

निवृत्तः सर्वसङ्गेभ्यो युक्तो योगी प्रकीर्तितः। 
असक्तो भयतो यस्तु विषयेषु विचार्य च ॥ २४

अलुब्धः संयमी प्रोक्तः प्रार्थितोऽपि समन्ततः । 
आत्मार्थ वा परार्थं वा इन्द्रियाणीह यस्य वै॥ २५

न मिथ्या सम्प्रवर्तन्ते शमस्यैव तु लक्षणम्। 
अनुद्विग्नो ह्यनिष्टेषु तथेष्टान्नाभिनन्दति ॥ २६

प्रीतितापविषादेभ्यो विनिवृत्तिर्विरक्तता।
संन्यासः कर्मणां न्यासः कृतानामकृतैः सह ॥ २७

श्रुतियों तथा स्मृति यों से विहित वर्णा श्रम सम्बन्धी तथा शिष्टाचार के अनुकूल जी धर्म है, यह साधु धर्म कहा जाता है
माया मुक कर्म फल का त्याग करने वाला शिबात्मा कहा जाता है तथा सभी आसक्तियों से निवृत्त प्राणी गुक्त-योगी कहा जाता है  अनासक तथा पुनः पुनः जन्म-मृत्युके भयसे भीत होकर विषयभोगोंकी नश्वरतापर विचार करके सभी ओरसे प्रलोभन दिये जानेपर भी जो अलुब्ध बना रहता है, वह संयमी कहा जाता है अपने लिये अथवा दूसरेके लिये जिस व्यक्ति की इन्द्रियाँ मिथ्या प्रवृत्त नहीं होतीं, यह शमके लक्षणों वाला कहा जाता है जो अनिष्ट अर्मात् प्रतिकूल विषयोंपर उद्विग्न नहीं होता तथा अनुकूल विषयोंकी प्राप्तिपर हर्षित क होता वह प्रीति, संताप तथा विषादसे रहित ही क है। उसकी यह विनिवृत्ति ही विरकता (विराग) क जाती है निषिद्ध कामौसहित विहित कमीमें दोष-गुण बुद्धिस व्यास (त्याग) ही संन्यास है और इष्ट और अदिए कमौका भलीभाँति छौड़ना ही न्यास है॥ २१ - २७॥

कुशलाकुशलानां तु प्रहाणं न्यास उच्यते। 
अव्यक्ताद्यविशेषान्ते विकारेऽस्मिन्नचेतने ॥ २८

चेतनाचेतनान्यत्वविज्ञानं ज्ञानमुच्यते। 
एवं तु ज्ञानयुक्तस्य श्रद्धायुक्तस्य शङ्करः ॥ २९

प्रसीदति न सन्देहो धर्मश्चायं द्विजोत्तमाः ।
किं तु गुहातमं वक्ष्ये सर्वत्र परमेश्वरे।॥ ३०

भये भक्तिर्न सन्देहस्तया युक्तो विमुच्यते। 
योग्यस्यापि भगवान् भक्तस्य परमेश्वरः ॥ ३१

प्रसीदति न सन्देहो निगृह्य विविधं तमः। 
ज्ञानमध्यापनं होमो ध्यानं यज्ञस्तपः श्रुतम् ॥ ३२

अध्यक्त अर्थात् प्रकृतिसे लेकर परमाणुपर्वन्तइ जड जगत्‌के सभी पदाथोंसे ईश्वरको पृथक जानना हो वास्तविक ज्ञान है हे श्रेष्ठ द्विजो। इस प्रकारके ज्ञान तथा भवि (श्रद्धा) से सम्यान पुरुषके ऊपर भगवान् शंकर अवार प्रसन्न होते हैं; इसमें कोई संशय नहीं है और वास्तवमें पही धर्म है।परम गुहा रहस्य क्या है' अब में आप लोगोंकी यह बताता हूँ। सर्वव्यापी परमेश्वर शिवमें भक्ति रखरी चाहिये। उस भक्तिसे युक्त प्राणी निःसंदेह मुक्ति प्राप कर लेता है पात्रता न होनेपर भी उनकी परम भक्तिसे मुरु प्राणीके विविध अज्ञानरूप अन्धकारोंको दूर करके महेश्वर शिव उसपर प्रसन्न हो जाते हैं; इसमें मंदा नहीं है ज्ञान, अध्यापन, हीम, ध्यान, यज्ञ, तप, वेद, दान अध्ययन-ये सभी शिवकी भक्ति प्राप्त करने के साथर हैं। इसमें लेशमात्र भी संदेह नहीं है॥ २८ - ३२॥

दानमध्ययनं सर्व भवभक्त्यै न संशयः। 
बान्द्रायणसहस्त्रैश्च प्राजापत्यशतैस्तथा ॥ ३३

मासोपवासैश्चान्यैर्वा भक्तिर्मुनिवरोत्तमाः। 
अभक्ता भगवत्यस्मिल्लोके गिरिगुहाशये ॥ ३४

पतन्ति चात्मभोगार्थ भक्तो भावेन मुख्यते। 
भक्तानां दर्शनादेव नृणां स्वर्गादयो द्विजाः ॥ ३५

न दुर्लभा न सन्देहो भक्तानां किं पुनस्तथा।
ब्रह्मविष्णुसुरेन्द्राणां तधान्येषामपि स्थितिः ॥ ३६

भक्त्या एव मुनीनां च बलसौभाग्यमेव च। 
भवेन च तथा प्रोक्त सम्प्रेक्ष्योमां पिनाकिना ॥ ३७

देव्यै देवेन मधुरं वाराणस्यां पुरा द्विजाः। 
अविमुक्ते समासीना रुद्रेण परमात्मना ॥ ३८

रुद्राणी रुद्रमाहेदं लब्वा वाराणसीं पुरीम्।
केन वश्यो महादेव पूज्यो दृश्यस्त्वमीश्वरः ॥ ३९

तपसा विद्यया वापि योगेनेह वद प्रभी।

है मुनीश्वरी। हजारों चान्द्रायण तथा सैकड़ों प्राजापत्यवतों, मासपर्यन्त किये गये उपवासों तथ अन्य अनुष्ठान आदि को अपेक्षा शिव भक्ति ही श्रेष भगवान् शिवको भकिसे हीन प्राणी स्वर्गादि की प्राप्ति के लिये अनेकविध कर्मजाल में फैसकर गहन गिरि- गुहारूपी इस मृत्युलोकमें बार-बार गिरते रहते हैं, किंतु भक्तिभावसे गुरु प्राणी गुरू हो जाता है द्वियो। भगवान् शिवके भकोंक दर्शनमात्र से प्राणियोंको स्वर्ग आदि लोक सहज ही सुलभ हो जाते हैं तो फिर साक्षात् शिवभक्तोंके विषयमें क्या कहना। इस वास्तविकतामें कोई संदेह नहीं है ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र तथा अन्य देवता शिवभक्तिके द्वारा ही उत्तम पदको प्राप्त हुए हैं। इसी प्रकार मुनियोंका भी बाल तथा सौभाग्य शिवभक्रिके ही कारण है ऋषियो। प्राचीन कालमें देवाधिदेव पिनाकी शंकरने उमाको लक्ष्य करके वाराणसीमें उनसे जिस मधुर प्रसंगका वर्णन किया था, वही मैं भी आप लोगोंसे कह रहा हूँ अविमुक्त क्षेत्र वाराणसीपुरीमें आकर भगवान् शिवके साथ विराजमान भगवती रुद्राणीने उन भगवान् रुद्र से यह पूछा देवी श्री पार्वती ने कहा- हे महादेव। तप, विद्या, योग आदि किस साधनसे आप वशमें होते हैं, पूजित होते हैं तथा दर्शन देते हैं? हे प्रथी। मुझे बताइये ॥ ३९॥

सूर उवाच

निशम्य वचनं तस्यास्तथा ह्यालोक्य पार्वतीम् ॥ ४०

आह बालेन्दुतिलकः पूर्णेन्दुवदनां हसन् । 
स्मृत्वाथ मेनया पल्या गिरेर्गा कधितां पुरा ॥ ४१

बिरकालस्थितिं प्रेक्ष्य गिरौ देव्या महात्मनः । 
देवि लब्धा पुरी रम्या त्वया यत्प्रष्टुमर्हसि ॥ ४२

स्थानार्थ कथितं मात्रा विस्मृतेह विलासिनि। 
पुरा पितामहेनापि पृष्टः प्रश्नवतां वरे ॥ ४३

यथा त्वयाद्य वै पृष्टो द्रष्टुं ब्रह्मात्मके त्वहम्। 
श्वेते श्वेतेन वर्णेन दृष्ट्‌वा कल्पे तु मां शुभे ॥ ४४

सद्योजाते तथा रके रक्त वार्म पितामहः।
पीते तत्पुरुषं पीतमपोरे कृष्णमीश्वरम् ॥

ईशानं विश्वरूपाको विश्वरूपं तदाह माम्।
बाम तत्पुरुषाधोर सद्योजात महेश्वर ४६

दृष्टो मया त्वं गायत्र्या देवदेव महेश्वर। 
केन वश्यो महादेव ध्येयः कुत्र पृणानिधे ॥ ४७

दृश्यः पूज्यस्तथा देव्या वक्तुमर्हसि शङ्कर।
अवोचं अद्धवैवेति वश्यो वारिजसम्भव ॥ ४८

सूतजी बोले-उन पार्वतीका वचन सुनकर बालचन्द्रमाको तिलकरूपमें धारण करनेवाले शिवने पूर्णिमाके चन्द्रमाके समान मुखवाली पार्वतीकी और देखकर हँसते हुए उनसे कहा- पूर्वमें चिरकालतक कैलासपर पार्वतीसहित मुझे रहते हुए देखकर हिमालयकी पत्नी मेनाद्वारा अपना स्थान होना चाहिये इस प्रकार] कही गयी वाणीको स्मरणकर सदाशिव बोले हे देवि। हे विलासिनि ! क्या तुम स्थानहेतु अपनी माताके द्वारा कहे गये बचनौंको भूल गयी हो? अब तुमने परम रम्य काशीपुरीको पा लिया है, अतः निश्चिन्त होकर अब तुम प्रश्न करनेयोग्य हो प्रश्न करनेवालोंमें श्रेष्ठ हे पार्वति। जिस प्रकार ब्रह्मात्मक तत्त्व जाननेके लिये इस समय तुमने मुझसे प्रश्न किया है, उसी प्रकार प्राचीन कालमें पितामह ब्रह्माने भी मुझसे पूछा था हे कल्याणि! श्वेतकल्पमें श्वेतवर्ण सद्योजात नामवाले, रक्तकल्पमें रकवर्ण कामदेव नामवाले, पौड कल्प पुरुषावाले, कृष्णकप वर्ष अघोर नामवाले तथा विश्वरूपकल्पमें विश्वकर ईशान नामवाले मुझ ईश्वरको देखकर ब्रह्माजीने मुझे हैं ब्रह्माजी बोले- हे वामदेव। हे तत्पुरुष। अपर। हे सद्योजात। हे महेश्वर। हे देवदेव। महादेव। गायत्री-उपासनासे आपका दर्शन किया है हे महादेव। आप किस प्रकार वशमें होते हैं? दयानिधे। आपका ध्यान कहाँ करना चाहिये? देवी पार्वतीके द्वारा दृश्य तथा पूज्य हैं। है शंकर। कृप करके मुझे बताइये भगवान् श्रीशंकर [पार्वतीसे] बोले- मैंने ब्रह्मानीसे कहा कि हे कमलोद्भव पितामह। केवल बद्धासे वशमें किया जा सकता हूँ और आपने तथा विष्णुने समुद्र में जिस लिङ्गका दर्शन किया था उसीमें सबको मेरा ध्यान करना चाहिये॥ ४० - ४८॥ 

ध्येयो तिलो त्वया दृष्टे विष्णुना पयसां निधी। 
पूज्यः पञ्यास्यरूपेण पवित्रेः पञ्चभिद्विजैः ॥ ४९

भवभक्त्याद्य दृष्टोऽहं त्वयाण्डज जगदगुरो। 
सोऽपि मामाह भावार्थ दर्श तस्मै मया पुरा।॥५०

भावं भावेन देवेशि दृष्टवान् मां हृदीश्वरम्। 
तस्मात्तु श्रद्धया वश्यो दृश्यः श्रेष्ठगिरेः सुते ॥ ५१

पूग्यो लिङ्गे न सन्देहः सर्वदा श्रद्धया द्विजैः। 
श्रद्धा धर्मः परः सूक्ष्मः श्रद्धा ज्ञानं हुतं तपः ॥ ५२

द्विनों (ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य) को पवित्र सद्योजात आदि पाँच मन्त्रीं चे मेरे पंचमुख रूप को पूरा करनी चाहिये। हे अण्डज। हे जगद‌गुरी। आज आपने उसी भकिसे ही मेरा दर्शन प्राप्त किया है हे देवेशि। उन पितामहने भावपूर्वक मुझ ईश्वरको अपने हृदय में देखा और जब उन्होंने मुझसे यह कहा कि आपमें मेरी अचल भकि हो, तब मैंने पूर्व-कालमें उन्हें वह भतिभाव प्रदान कर दिया। अतः पर्वत की पुत्री पार्वती। मात्र श्रद्धासे ही भक्त मुझे वश कर सकता है तथा मेरा दर्शन कर सकता है द्विजों को लिङ्ग में ही श्रद्धापूर्वक सदा मेरी पूज करनी चाहिये और इसमें किसी प्रकारका संदेह नहीं होना चाहिये। श्रद्धा ही परम सूक्ष्म धर्म है। बढ़ा ही ज्ञान, हवन, तप, स्वर्ग तथा मौध आदिका फल प्रदान करती है और इसी श्रद्धा से भक्त सदा मेरा साक्षात् दर्शर प्राप्त कर सकते हैं॥४९-५३ ॥

॥ इति श्रीलिङ्गमहापुराणे पूर्वभागे भक्तिभावकथनं नाम दशमोऽध्यायः ॥ १० ॥ 

॥ इस प्रकार श्रीलिङ्गमहापुराणके अन्तर्गत पूर्वभागमें 'भक्तिभावकथन' नामक दसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १०॥

यहां 'लिंग पुराण' के दसवें अध्याय का सारांश आधारित प्रश्न-उत्तर 

1. सूत उवाच में कौन से भक्तों का वर्णन किया गया है ?

उत्तर: सूत उवाच में संत, जितात्मा, धर्मज्ञ, साधु, आचार्य, तपस्वी, संन्यासी, ज्ञानी, दानी, सत्यवादी और योगी जैसे भक्तों का वर्णन किया गया है, जिनका महेश्वर शिव पर कृपा रहती है।

2. किसे 'जितात्मा' कहा गया है ?

उत्तर: वे लोग जिन्हें दस इन्द्रियों के विषयों से अप्रभावित किया जाता है और जो न तो किसी वस्तु के न मिलने पर क्रोधित होते हैं, न ही किसी वस्तु के मिल जाने पर हर्षित होते हैं, उन्हें 'जितात्मा' कहा गया है।

3. साधु धर्म के लक्षण क्या हैं ?

उत्तर: साधु धर्म के लक्षण हैं - जो अपने-अपने आश्रमों के धर्म का पालन करते हैं, जैसे ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यासी। यह लोग सत्य बोलते हैं, शान्त रहते हैं और अपने जीवन में अहिंसा तथा सादा जीवन अपनाते हैं।

4. 'धर्म' और 'अधर्म' के बीच अंतर क्या है ?

उत्तर: धर्म वह है जो शास्त्रों और आचार्यों द्वारा निर्धारित किया जाता है, जो शुभ फल की प्राप्ति कराता है। अधर्म वह है, जो शास्त्रों के विरुद्ध होता है और असमर्थ या अशुभ परिणाम लाता है।

5. भगवान शिव के प्रति श्रद्धा की महत्ता क्या है ?

उत्तर: श्रद्धा और भक्ति से युक्त व्यक्ति भगवान शिव के साथ साक्षात्कार कर सकता है और उन्हें प्राप्त कर सकता है। भक्ति से ही मुक्ति मिलती है और यह व्यक्ति को शरणागति के उच्चतम स्तर तक पहुंचाता है।

6. शिव भक्ति के महत्व को किस प्रकार बताया गया है ?

उत्तर: शिव भक्ति के माध्यम से भक्त भगवान शिव की कृपा प्राप्त करता है। शिव की भक्ति बिना किसी संदेह के सच्ची मुक्ति और ईश्वर के साक्षात्कार का मार्ग है। यही सर्वोत्तम मार्ग है जो व्यक्ति को परम शांति और सुख प्रदान करता है।

7. कौन से लोग शिव भक्ति से वंचित रहते हैं ?

उत्तर: वे लोग जो विषयों में आसक्ति रखते हैं और जिनका ध्यान परमेश्वर पर नहीं है, वे शिव भक्ति से वंचित रहते हैं। इनका जीवन भोगों में उलझा रहता है और ये बार-बार जन्म-मृत्यु के चक्र में फंसते हैं।

8. शिव भक्ति का परिणाम क्या होता है ?

उत्तर: शिव भक्ति का परिणाम यह होता है कि भक्त शिव के दर्शन से स्वर्ग और मोक्ष प्राप्त करता है। शिव के भक्तों को शांति, सुख और परमज्ञान की प्राप्ति होती है।

9. श्रद्धा का क्या महत्व है ?

उत्तर: श्रद्धा के साथ भगवान की पूजा करने से व्यक्ति का मन शुद्ध होता है और वह वास्तविक ज्ञान प्राप्त करता है। इस श्रद्धा के कारण ही भगवान शिव अपने भक्तों पर कृपा करते हैं।

10. भगवान शिव की पूजा के क्या उपाय बताए गए हैं ?

उत्तर: भगवान शिव की पूजा के उपायों में यज्ञ, ध्यान, तप, वेद अध्ययन और शिव मंत्रों का उच्चारण शामिल है। श्रद्धा और भक्ति से सच्चे रूप से पूजा करने पर भगवान शिव प्रसन्न होते हैं।

यह प्रश्न-उत्तर लिंग पुराण के दसवें अध्याय के मुख्य बिंदुओं का सार प्रस्तुत करते हैं, जो भगवान शिव की भक्ति और साधु धर्म के महत्व को स्पष्ट करते हैं।

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