लिंग पुराण : [ पूर्वभाग ] सत्रहवां अध्याय
ब्रह्मा तथा विष्णुके समक्ष ज्योतिर्मय महालिड्ग का प्राकट्य, ब्रह्म और विष्णु द्वारा हंस एवं वाराहरूप धारण कर लिड्डके मूलस्थान का अन्वेषण, लिड्रमध्य से शब्दमय उमामहेश्वर का प्रादुर्भाव और ईशानादि पाँच शिवरूपों की उत्पत्ति
यूत उवाच
एवं सड्क्षेपतः प्रोक्त: सद्यादीनां समुद्धव:।
यः पठेच्छुणुयाद्वापि श्रावयेद्दा द्विजोत्तमान्॥ १
स याति ब्रह्मसायुज्यं प्रसादात्परमेष्ठिन:।
ऋषय ऊचु:
कथ॑ लिड्डमभूल्लिड्रे समभ्यर्च्य: स शड्भूर:॥ २
कि लिड् कस्तथा लिड्री सूत वक्तुमिहाईसि।
रोमहर्षण उवाच
एवं देवाइ्च ऋषय: प्रणिपत्य पितामहम्॥ ३
अपृच्छन् भगवल्लिड़ं कथमासीदिति स्वयम्।
लिड्डे महेश्वरो रुद्र: समभ्यर्च्य: कथं त्विति॥ ४
कि लिड्ढ कस्तथा लिड्री सोप्याह च पितामह: ।
सूतजी बोले - हे मुनियो ! इस प्रकार मैंने शिवजीके सद्योजात आदि अवतारोंका वर्णन संक्षेपमें कर दिया। जो इसे पढ़ता है, सुनता है अथवा श्रेष्ठ द्विजों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य)-को सुनाता है, वह शिवजीके अनुग्रहसे ब्रह्मसायुज्यको प्राप्त होता है ऋषिगण बोले - हे सूतजी! लिड्गकी उत्त्पत्ति किस प्रकार हुई तथा उस लिड्में शंकरजीको उपासना कैसे की जानी चाहिये ? लिड़ कया है तथा लिड्री कौन है ? यह आप हमें बताइये रोमहर्षण [ सूतजी ] बोले हे ऋषियो! इसी प्रकार अत्यन्त निवेदनपूर्वक देवताओंने भी पितामह ब्रह्मासे पूछा था कि हे भगवन्! यह लिड़ केसे उत्पन्न हुआ तथा लिड्में महेश्वर रुद्रका किस प्रकार पूजन होना चाहिये? लिड्ज क्या है तथा लिड़ी कौन है? इसपर वे ब्रह्मा बोले॥ १-४ ॥
पितामह उवाच
प्रधानं लिड्गमाख्यातं लिड्डी च परमेश्वर:॥ ५
रक्षार्थमम्बुधौ महां विष्णोस्त्वासीत्सुरोत्तमा:।
वैमानिके गते सर्गे जनलोकं सहर्षिभि:॥ ६
स्थितिकाले तदा पूर्ण ततः प्रत्याहते तथा।
चतुर्युगसहस्त्रान् सत्यलोक॑ गते सुराः॥ ७
विनाधिपत्यं समतां गतेउन्ते ब्रह्यणो मम।
शुष्के च स्थावरे सर्वे त्वनावृष्ट्या च सर्वश:॥ ८
पशवो मानुषा वृक्षा: पिशाचाः पिशिताशना:।
गन्धर्वाद्या: क्रमेणैव निर्दग्धा भानुभानुभि:॥ ९
एकार्णवे महाघोरे तमोभूते समन्ततः।
सुष्वापाम्भसि योगात्मा निर्मलो निरुपप्लव: ॥ १०
सहस्रशीर्षा विश्वात्मा सहस्त्राक्ष: सहस्त्रपात्।
सहस्रबाहु: सर्वज्ञ: सर्वदेवभवोद्धव: ॥ ११
हिरण्यगर्भो रजसा तमसा शड्डभूर: स्वयम्।
सत्त्वेन सर्वगो विष्णु: सर्वात्मत्वे महेश्वरः॥ १२
कालात्मा कालनाभस्तु शुक्ल: कृष्णस्तु निर्गुण: ।
नारायणो महाबाहु: सर्वात्मा सदसन्मय:॥ १३
पितामह [ ब्रह्मजी ])-
ने कहा - प्रधानको लिड्र तथा परमेश्वरको लिड्री कहा गया है। हे उत्तम देवताओ ! यह मेरी तथा विष्णुकी रक्षाके लिये समुद्रमें प्रकट हुआ था जब देवताओं की सृष्टि समाप्त हो गयी, तब वे देवता ऋषियोंके साथ जनलोक चले गये और पुनः स्थिति-कालके पूर्ण होनेपर और इसके बाद हजार चतुर्यगीके अन्तमें पुनः प्रलयके उपस्थित होनेपर वे सत्यलोक चले गये उस समय मैं ब्रह्मा बिना किसी आधिपत्यके साम्य-अवस्थाको प्राप्त था। इस प्रकार अन्तमें अनावृष्टिके कारण सभी स्थावर पदार्थोके सूख जानेपर सभी ओर समस्त पशु, मनुष्य, वृक्ष, पिशाच, राक्षस, गन्धर्व आदि क्रमसे सूर्यकी किरणोंसे दग्ध हो गये तत्पश्चात् चारों ओर समुद्र-ही-समुद्रके व्याप्त हो जाने तथा घोर मा छा जानेपर योगात्मा, निर्मल, उपद्रवरहित, हजार सिरोंवाले, हजार नेत्रोंवाले, हजार पैरोंवाले, हजार भुजाओंवाले, विश्वात्मा, सब कुछ जानने वाले, सभी देवताओं तथा संसारकी उत्तपत्ति करनेवाले, रजोगुणसे युक्त होनेके कारण ब्रह्मा, तमोगुणसे युक्त होनेके कारण स्वयं शंकर, सत्त्वगुणसे युक्त होनेके कारण सर्वव्यापी विष्णु, सबकी आत्मा होनेके कारण महेश्वर, कालात्मा, कालरूप नाभिवाले, शुक्ल, कृष्ण, गुणोंसे रहित, नारायण, महान् बाहुवाले तथा सतूअसत्से युक्त सर्वात्मा जलके मध्यमें शयन करने लगे॥ ५ - १३ ॥
तथाभूतमहं दृष्ट्वा शयानं पड्डुजेक्षणम्।
मायया मोहितस्तस्यथ तमवोचममर्षित: ॥ १४
कस्त्वं वदेति हस्तेन समुत्थाप्य सनातनम्।
तदा हस्तप्रहारेण तीब्रेण स दृढेन तु॥ ५५
प्रबुद्धो-हीयशयनात्समासीन: क्षणं वशी।
दरदर्श निद्राविक्लिनननीरजामललोचन: ॥ १६
मामग्रे संस्थितं भासाध्यासितो भगवान् हरि: ।
आह चोत्थाय भगवान् हसन्मां मधुरं सकृत्॥ १७
स्वागत स्वागतं वत्स पितामह महाद्युते।
तस्य तद्वचनं श्रुत्वा स्मितपूर्व सुर्षभा:॥ १८
रजसा बद्धवैरश्च॒ तमवोच जनार्दनम्।
भाष से वत्स वत्सेति सर्गसंहारकारणम्॥ १९
मामिहान्तः स्मितं कृत्वा गुरु: शिष्यमिवानघ।
कर्तारं जगतां साक्षात्प्रकृतेश्च प्रवर्तकम्॥ २०
सनातनमजं विष्णुं विरिजिच विश्वसम्भवम्।
विश्वात्मानं विधातारं धातारं पड्डजेक्षणम्॥
उन्हें इस प्रकार जल-स्थित कमलपर सोते हुए देखकर मैं उस क्षण उनकी मायासे मोहित हो गया और उन सनातन को हाथ से पकड़कर उठाते हुए क्रोधपूर्वक मैंने उनसे कहा--तुम कौन हो, यह मुझे बताओ तत्पश्चात् मेरे तेज तथा दृढ़ हस्त-प्रहारसे शेषनागरूपी शय्यासे उठकर इन्द्रियोंको वशमें रखनेवाले वे प्रभु उस क्षण बैठ गये इस के बाद निद्रासे विक्लिन्न स्वच्छ कमलसदृश नेत्रों वाले प्रभायुक्त भगवान् हरिने अपने सम्मुख विराजमान मुझ ब्रह्माको देखा और उन भगवानूने शय्यासे उठकर थोड़ा हँसते हुए मुझसे मधुर-मधुर वाणीमें कहा-हे महाद्युते! हे वत्स! हे पितामह! तुम्हारा स्वागत है, स्वागत है हे श्रेष्ठ देववाओ! उनका वह वचन सुनकर रजोगुणसे युक्त होनेके कारण शत्रुतापूर्ण भावसे मैंने सुस्कराकर उन जनार्दनसे कहा है अनघ! सृजन तथा संहार करनेवाले मुझ ब्रह्माको तुम “वत्स! वत्स !' इस प्रकार सम्बोधित करते हुए जैसे गुरु शिष्य से कहता है, उस प्रकारसे मुसकराकर क्यों बोल रहे हो ? जगत्के साक्षात् रचयिता, प्रकृतिके प्रवर्तक, सनातन, अजन्मा, पालनकर्ता,विश्वके उत्पत्तिकारक ब्रह्मा, विश्वात्मा, विधाता तथा धारणकर्ता मुझ कमलनयन पितामहसे मोहयुक्त होकर इस प्रकार क्यों बोल रहे हो? इसका कारण शीघ्र बताओ॥ १४-२१॥
किमर्थ भाषसे मोहाद्वक्तुमहसि सत्वरम।
सो5पि मामाह जगतां कर्ताहमिति लोकय ॥ २२
भर्ता हर्ता भवानड्रादवतीर्णों ममाव्ययात्।
विस्मृतोडसि जगन्नाथ नारायणमनामयम्॥ २३
पुरुष॑ परमात्मानं पुरुहृत॑ पुरुष्टुतम्।
विष्णुमच्युतमीशानं विश्वस्य प्रभवोद्धवम्॥ २४
तवापराधो नास्त्यत्र मम मायाकृतं त्विदम्।
श्रुणु सत्यं चतुर्वक्त्र सर्वदेवेश्वरो हाहम्॥२५
कर्ता नेता च हर्ता च न मयास्ति समो विभु:।
अहमेव परं ब्रह्म परं तत्त्वं पितामह॥ २६
अहमेव पर ज्योति: परमात्मा त्वहं विभु:।
यद्यदृष्टं श्रुत॑ सर्व जगत्यस्मिंश्चराचरम्॥ २७
तत्तद्विद्वि चतुर्वक्त्र सर्व मन्मयमित्यथ।
मया सृष्टं पुरा व्यक्त चतुर्विशतिकं स्वयम्॥ २८
नित्यान्ता ह्मणवो बद्धा: सृष्टा: क्रोधोद्धवादय: ।
प्रसादाद्धि भवानण्डान्यनेकानीह लीलया॥ २९
इस पर उन्होंने भी मुझसे कहा - सम्पूर्ण जगत्का सृष्टिकर्ता, पालनकर्ता तथा संहारकर्ता मैं (विष्णु) ही हूँ, ऐसा जानो और तुमने भी मुझ शाश्वत परमेश्वरके अंगसे ही अवतार ग्रहण किया है। फिर भी तुम मुझ जगत्पति, नारायण, रोग-विकाररहित, परम पुरुष, परमात्मा, सभीसे आवाहित होनेवाले, पुरुष्टुत, अच्युत, ऐश्वर्यसम्पन्न तथा विश्वकी उत्पत्तिके कारणस्वरूप मुझ विष्णुको भूल गये हो, किंतु इसमें तुम्हारा कोई अपराध नहीं है। यह सब तो मेरी मायाद्वारा रचा गया है हे चार मुखवाले ब्रह्मन्! तुम यह सत्य जानो कि सृष्टिका कर्ता, पालक, संहारक तथा सभी देवताओंका स्वामी मैं ही हूँ। मेरे सदृश ऐश्वर्यववाला और कोई नहीं है हे पितामह! मैं ही परम ब्रह्म हूँ, मैं ही परम तत्त्व हूँ, मैं ही परम ज्योति हूँ तथा मैं ही परम समर्थ परमात्मा हूँ हे चतुर्मुख इस जगत्में जो भी समस्त स्थावरजंगम वस्तुएँ दिखायी पड़ रही हैं अथवा जिनके बारेमें सुना जाता है; उन सबको मुझसे व्याप्त किया हुआ जानो प्राचीन कालमें मैंने ही स्वयं चौबीस तत्त्वमय व्यक्त सृष्टि रची है। नित्य अन्तको प्राप्त होनेवाले सूक्ष्मातिसूक्ष्म बद्धजीव, क्रोधसे उत्पन्न अन्यान्य तामसी सृष्टि तथा आप (ब्रह्मा)-सहित अनेक ब्रह्माण्ड मेरी मायाके प्रभावसे ही विरचित हैं॥ २२-२९॥
सृष्टा बुद्धिर्मया तस्यामहलड्डारस्त्रिधा ततः।
तन्मात्रापञ्चकं तस्मान्मन: षष्ठेन्द्रियाणि च॥ ३०
आकाशादीनि भूतानि भौतिकानि च लीलया।
इत्युक्ततति तस्मिंश्च मयि चापि वचस्तथा॥ ३१
आवयोश्चाभवद्युद्ध॑ सुधोरं॑ रोमहर्षणम्।
प्रलयार्णवमध्ये तु रजसा बद्धवैरयो: ॥ ३२
एतस्मिननन्ते लिड्रमभवच्चावयो: पुरः।
विवादशमनार्थ हि प्रबोधार्थ च भास्वरम्॥ ३३
ज्वालामालासहस्त्राढ्यं कालानलशतोपमम् ॥
क्षयवृद्धिविनिर्मुक्तमादिमध्यान्तवर्जितम्॥ ३४
मैंने बुद्धेकी रचना की है तथा उस में तीन प्रकारके अहंकारों (सात्तिक, राजस, तामस)-का निर्माण किया है। इसी प्रकार अपनी मायासे पाँच तन्मात्राएं एवं मन, इन्द्रियाँ. आकाश आदि पाँच महाभूतोंकी सृष्टि मैंने ही की है यह वचन कहनेके अनन्तर रजोगुणकी वृद्धिसे परस्पर शत्रुता-भावको प्राप्त हम दोनोंमें उस प्रलय-सागरके मध्य भीषण रोमांचकारी संग्राम होने लगा इसी बीच हम दोनोंके कलहको दूर करने तथा ज्ञान प्रदान करनेके निमित्त एक दीप्तिमान् लिज्ज हम लोगों के समक्ष प्रकट हुआ। वह लिड्ग हजारों अग्नि-ज्वालाओंसे व्याप्त, सैकड़ों कालाग्निके सदृश, क्षय तथा वृद्धिसे रहित, आदि-मध्य-अन्तसे हीन, अतुलनीय, अवर्णनीय, अव्यक्त तथा विश्वका उत्पत्तिकर्तारूप था॥ ३०-३४ ॥
अनौपम्यमनिर्देश्यमव्यक्त विश्वसम्भवम्।
तस्य ज्वालासहस्त्रेण मोहितो भगवान् हरि: ॥ ३५
मोहितं प्राह मामत्र परीक्षावोउग्निसम्भवम्।
अधोगमिष्याम्यनलस्तम्भस्थानुपमस्य च॥ ३६
उस लिड्की हजारों ज्वालाओं से भगवान् विष्णु तथा मैं - दोनों लोग मोहित हो गये । फिर विष्णुने मुझसे कहा कि हमें अग्नि-उद्धृत इस लिज्गञका पता लगाना चाहिये। एतदर्थ मैं इस अनुपम अग्नि-स्तम्भके नीचे जाता हूँ और आप प्रयलपूर्वक शीघ्र इसके ऊपर जाइये ॥ ३५-३६ ॥
भवानूर्ध्व॑ प्रयत्तेन गन्तुमहसि सत्वरम्।
एवं व्याहत्य विश्वात्मा स्वरूपमकरोत्तदा॥ ३७
वाराहमहमप्याशु हंसत्वं प्राप्तवान् सुरा:।
तदा प्रभूति मामाहुईसं हंसो विराडिति॥ ३८
हंस हंसेति यो ब्रूयान्मां हंसः स भविष्यति।
सुश्वेतो हानलाक्षश्च विश्वतः पश्षसंयुतः॥ ३९
मनो निलजवो भूत्वा गतोउहं चोर्ध्वतः सुरा: ।
नारायणो5पि विश्वात्मा नीलाउज्जनचयोपमम् ॥ ४०
दशयोजनविस्तीर्ण_ शतयोजनमायतम्।
मेरुपर्वतवर्ष्षाणं गौरतीक्ष्णाग्रदंष्ट्रिणम्॥ ४९
कालादित्यसमाभासं दीर्घघोणं महास्वनम्।
हस्वपादं विचित्राड़ं जैत्रं दृढ्मनौपमम्॥ ४२
हे देवताओ! ऐसा कहकर विश्वात्मा भगवान् विष्णुने वाराहका रूप धारण कर लिया और मैं भी शीघ्र हंसके रूपको प्राप्त हो गया। उसी समयसे मुझ ब्रह्माको विराट् रूपवाले भगवान् विष्णु 'हंस' कहने लगे। जो प्राणी 'हंस-हंस” नामसे मेरा कीर्तन करता है, वह हंसत्वको प्राप्त हो जाता है हे देवताओ! उस समय मैं अत्यन्त श्वेत वर्णका था, मेरे नेत्र अग्निके समान थे और मैं सभी ओरसे पंखोंसे युक्त था-इस प्रकार हंसरूपमें में मनरूपी वायुके वेगसे उड़कर ऊपरकी ओर गया उधर विश्वात्मा नारायण विष्णु भी दस योजन चौड़े तथा शत योजन लम्बे और नीले अंजनके समूहसदृश, मेरुपर्वत-तुल्य शरीरवाले, श्वेत तथा तीक्ष्ण दंष्ट्राकं:? एवं विशाल थूथनवाले, छोटे-छोटे पैरोंवाले, विचित्र अंगोंवाले, प्रलयकालीन सूर्यके समान प्रकाशमान, दृढ़, अनुपमेय, भीषण शब्दवाले तथा सर्वथा अपराजेय कृष्णवाराहका रूप धारण करके उस अग्नि-स्तम्भ (लिड्र)-के नीचेकी ओर गये॥३७ - ४२॥
वाराहमसितं रूपमास्थाय. गतवानध:।
एवं वर्षसहस्त्र॑ तु त्वरन् विष्णुरधोगत:॥ ४३
नापश्यदल्पमप्यस्य मूल लिड्गस्थ सूकरः।
तावत्कालं॑ गतो हार्ध्वमहमप्यरिसूदन: ॥ ४४
सत्वरं सर्वयत्नेन तस्यान्तं ज्ञातुमिच्छया।
श्रान्तो ह्दृष्टवा तस्यान्तमहड्भारादधोगत:॥ ४५
तथेव भगवान् विष्णु: श्रान्त: सन्त्रस्तलोचन:।
सर्वदेवभवस्तूर्णमुत्थित। स॒ महावपु:॥ ४६
समागतो मया सार्ध प्रणिपत्य महामना:।
मायया मोहित: शम्भोस्तस्थौ संविग्नमानस: || ४७
पृष्ठतः पार्श्वतश्चैब चाग्रत: परमेश्वरम।
प्रणिपत्य मया सार्ध सस्मार किमिदं त्विति॥ ४८
तदा समभवत्तत्र नादो वे शब्दलक्षण:।
ओमोमिति सुरश्रेष्ठा: सुव्यक्त: प्लुतलक्षण: ॥ ४९
किमिदं त्विति सज्चिन्त्य मया तिष्ठन् महास्वनम्।
लिड्डस्य दक्षिणे भागे तदापश्यत्सनातनम्॥ ५०
आद्यवर्णमकारं तु उकारं चोत्तरे ततः।
मकारं मध्यतश्चेव नादान्तं तस्य चोमिति॥ ५९
इस प्रकार विष्णुभगवान् एक हजार वर्षतक वेगपूर्वक नीचेकी ओर जाते रहे, किंतु वाराहरूप विष्णु इस लिड्रके मूलका अल्पांश भी नहीं देख सके शत्रुओं का दमन करने वाला मैं ब्रह्मा भी उस लिड्रका अन्त जाननेकी इच्छासे पूरे प्रयासके साथ शीघ्रतापूर्वक्कत ऊपरकी ओर जाता रहा तत्पश्चात् अहंकार पूर्वक ऊपर गया हुआ मैं उस लिड्गका अन्त न देखकर अत्यन्त थका हुआ नीचे लौट आया और उसी प्रकार सभी देवताओंके उद्धवकर्ता तथा महान् शरीर वाले वे भगवान् विष्णु भी थकान एवं सन्त्रासभरे नेत्रों के साथ लिड्रका मूल न पाकर नीचे से ऊपर आ गये शंकर की मायासे मोहको प्राप्त वे महामना विष्णु मेरे साथ आकर परमेश्वरको प्रणाम करके व्याकुल मनसे खड़े हो गये। इसके बाद मेरे साथ पुनः परमेश्वरको पीछेसे, बगलसे तथा आगेसे प्रणाम करके वे विचार करने लगे कि [आदि-अन्तहीन] यह क्या है ? हे श्रेष्ठ देवताओ! उसी समय वहाँ प्लुत स्वरसे युक्त 'ओम्-ओम्' ऐसा अत्यन्त स्पष्ट शब्दरूप नाद सुनायी पड़ा यह तीव्र शब्द क्या है ऐसा मेरे साथ विचार करते हुए वे विष्णु खड़े रहे। तभी उन्होंने उस ' ओम्' नादके अन्तमें लिड्गके दक्षिण भागमें सनातन आदि वर्ण अकार, उसके उत्तर भागमें उकार तथा उसके मध्यमें मकार देखा॥ ४३-५१ ॥
सूर्यममण्डलवद् दृष्ट्वा वर्णमाद्यं तु दक्षिणे।
उत्ते पावकप्रख्यमुकारं पुरुषर्षभ:॥ ५२
शीतांशुमण्डलप्रख्यं मकारं मध्यमं तथा।
तस्योपरि तदापश्यच्छुद्धस्फटिकवत्प्रभुम्॥ ५३
तुरीयातीतममृतं निष्कलं निरुपप्लवम्।
निईन्द्दं केवलं शून्यं बाह्याभ्यन्तरवर्जितम्॥ ५४
सबाह्याभ्यन्तरं चैव सबाह्भ्यन्तरस्थितम्।
आदिमध्यान्तरहितमानन्दस्यापि कारणम्॥ ५७
मात्रास्तिसस्त्वर्धमात्र॑ नादाख्य॑ ब्रह्मसंज्ञितम्।
ऋग्यजुः:सामवेदा वै मात्रारूपेण माधवः॥ ५६
वेदशब्देभ्य एवेशं विश्वात्मानमचिन्तयत्।
तदाभवदृषिवेद ऋषे: सारतम॑ शुभम्॥ ५७
तेनेव ऋषिणा विष्णुर्ज्ञातवान् परमेश्वरम्
देव उवाच
चिन्तया रहितो रुद्रो वाचों यन्मनसा सह॥ ५८
अप्राप्य तं निवर्तन्ते वाच्यस्त्वेकाक्षेण सः।
एकाक्षेण . ठद्वाच्यमृतं परमकारणम्॥ ५९
स प्रकार सूर्यमण्डलके समान आदि वर्ण अकारको लिड़के दक्षिणमें, अग्निके सदृश प्रतीत होने वाले उकारको उत्तमें तथा चन्द्रमण्डलके तुल्य मकारको मध्यमें देखनेके बाद उन पुरुषश्रेष्ठ विष्णुने उसके ऊपर तुरीयातीत, अमृतरूप, कलारहित, विकारशून्य, निद्धन्द्र, अद्वितीय, शून्यस्वरूप, बाह्य तथा आशभ्यन्तरसे रहित, बाह्य तथा आभ्यन्तरसे युक्त, बाह्य तथा आभ्यन्तर दोनों रूपों में स्थित, आदि-मध्य-अन्तसे रहित तथा आनन्दके भी कारणस्वरूप शुद्ध स्फटिकके सदृश प्रकाशमान प्रभुको देखा अकार, उकार और मकाररूप तीन मात्राएँ तथा बिन्दुरूप अर्धमात्रा स्वरूप वाला प्रणव ही नाद कहलाता है और वही त्रह्मसंज्ञावाला है। ऋक् -यजु: तथा सामवेद उन तीनों मात्राओंके रूपमें विष्णु ही हैं उसी वेदरूप शब्दके द्वारा विष्णुने विश्वात्मा ईश्वर शिवका चिन्तन किया। उसी समयसे अतीन्द्रि दर्शक, परम-तत्त्वरूप कल्याणकारी वेद हुआ और उसी ऋषि (वेद)-से विष्णुने परमेश्वर शिवको जाना देव ( ब्रह्मा ) बोले--वाणी भी मनके साथ जिन्हें प्राप्त्न करके लौट आती है, उन चिन्तारहित भगवान् रुद्रका वाचक एकाक्षर प्रणव ही है और यही एकाक्षर प्रणव उस सृष्टिके परम कारणरूप, सत्यआनन्द तथा अमृतरूप परात्पर परम ब्रह्मका भी वाचक है ॥ ५२ - ५९ ॥
सत्यमानन्दममृतं परं॑ ब्रह्म परात्परम्।
एकाक्षरादकाराख्यो भगवान् कनकाण्डज: ॥ ६०
एकाक्षरादुकाराख्यों हरिः परमकारणम्।
एकाक्षरान्मकाराख्यो भगवान्नीललोहितः॥ ६१
सर्गकर्ता त्वकाराख्यो ह्युकाराख्यस्तु मोहकः ।
मकाराख्यस्तयोर्नित्यमनुग्रहकरो$भवत्. ॥६२
मकाराख्यो विभुर्बीजी हाकारो बीजमुच्यते।
उकाराख्यो हरियोंनि: प्रधानपुरुषेश्वर: ॥ ६३
बीजी च बीजं तद्योनिर्नादाख्यएच महेश्वर:।
बीजी विभज्य चात्मानं स्वेच्छया तु व्यवस्थित: ॥ ६४
अस्य लिड्रादभूदबीजमकारो बीजिन: प्रभो: ।
उकारयोनौ. निष्षिप्तमवर्धतभ समन्ततः॥ ६५
सौवर्णमभवच्चाण्डमावेष्ट्याद्य॑ तदक्षरम्।
अनेकाब्दं तथा चाप्सु दिव्यमण्डं व्यवस्थितम्॥ ६६
ततो वर्षसहस् द्विधा कृतमजोद्धवम।
अण्डमप्सु स्थितं साक्षादाद्याख्येनेश्वरेण तु॥ ६७
तस्याण्डस्य शुभं हैम॑ कपालं चोर्ध्वसंस्थितम्।
जज्ञे यद् द्यौस्तदपरं पृथिवी पञ्चलक्षणा॥ ६८
उसी एकाक्षर प्रणवसे अकारसंज्ञक भगवान् ब्रह्मा, उकारसंज्ञक परमकारणस्वरूप विष्णु तथा मकारसंज्ञक परमेश्वर नीललोहितका प्रादुर्भाव हुआ है अकारसंज्ञक ब्रह्मा सृष्टिके निर्माता, उकारसंज्ञक विष्णु मोह करनेवाले तथा मकारसंज्ञक शिव उन दोनों ब्रह्मा तथा विष्णुपर सदा अनुग्रह करने वाले हैं मकार रूप भगवान् शिव बीजवानू, अकाररूप ब्रह्मा बीज तथा उकाररूप प्रधानपुरुषेश्वर विष्णु योनि कहे जाते हैं नादरूप महेश्वर शिव ही स्वयं बीजी, बीज तथा योनि--तीनों हैं। वे बीजीरूप महेश्वर स्वेच्छासे अपनेको विभाजित करके प्रतिष्ठित हैं इन बीजी रूप परमेश्वर शिवके लिड्रसे अकाररूप बीज (ब्रह्मा), उकाररूप योनि (विष्णु)-में गिरकर चारों ओर वृद्धिको प्राप्त होने लगा और वह फिर स्वर्णका अण्ड हो गया। इसके बाद एकाक्षर प्रणबको आदि-अन्तसे आवेष्टित करके वह दिव्य अण्ड बहुत वर्षोतक जलमें स्थित रहा तदनन्तर हजार वर्षके बाद साक्षात् आदिरूप परमेश्वरने जलमें स्थित उस अजोद्धूत अण्डको दो भागोंमें कर दिया उस अण्डके ऊर्ध्वस्थित हेममय पवित्र कपालसे आकाश तथा नीचेके भागसे पाँच लक्षणोंसे सम्पन्न पृथ्वीकी उत्पत्ति हुई॥६० - ६८॥
तस्मादण्डोद्भवो जज्ञे त्वकाराख्यश्चतुर्मुखः ।
स स्रष्टा सर्वलोकानां स एव त्रिविधः प्रभुः ॥ ६९
एवमोमोमिति प्रोक्तमित्याहुर्यजुषां बरा:।
यजुषां वचन श्रुत्वा ऋच: सामानि सादरम्॥ ७०
एवमेव हरे ब्रह्मन्तित्याहु: श्रुतयस्तदा।
ततो विज्ञाय देवेशं यथावच्छतिसम्भवै:॥ ७९
मन्त्रैमहेश्वर॑ देव॑ तुष्ठाव सुमहोदयम।
आवयो: स्तुतिसन्तुष्टो लिड़े तस्मिन्निरउ्जन: ॥ ७२
दिव्यं शब्दमयं रूपमास्थाय प्रहसन् स्थित: ।
अकारस्तस्य॒मूर्द्धां तु ललाटं दीर्घमुच्यते॥ ७३
इकारो दक्षिणं नेत्रमीकारो वामलोचनम्।
उकारो दक्षिणं श्रोत्रमूकारो वाममुच्यते॥ ७४
ऋकारो दक्षिणं तस्य कपोलं परमेष्ठिन:।
वाम॑ कपोलमृकारों लूलू नासापुटे उभे॥ ७५
एकारमोष्ठमूर्ध्वश्च ऐकारस्त्वधरो विभो:।
ओकारश्च तथौकारो दन्तपड्िद्वयं क्रमात्॥ ७६
अमस्तु तालुनी तस्य देवदेवस्थ धीमत:।
कादिपज्चाक्षराण्यस्य पठ्च हस्तानि दक्षिणे॥ ७७
चादिपज्चाक्षराण्येवं पञ्च हस्तानि वामतः।
टादिपज्चाक्षर पादस्तादिपज्चाक्षर तथा॥ ७८
पकारमुदर॑तस्य फकारः पार्श्वमुच्यते।
बकारो वामपाएगवँ वै भकारं स्कन्धमस्य तत्॥ ७९
मकारं॑ हृदयं शम्भोर्महादेवस्थ योगिनः।
यकारादिसकारान्ता विभोर्वे सप्तधातवः ॥ ८०
हकार आत्मरूप॑ बै क्षकारः क्रोध उच्यते।
तं दृष्ट्वा उमया सार्द्ध भगवन्तं महेश्वरम्॥ ८१
उसी अण्डसे अकारसंज्ञक चतुर्मुख ब्रह्मा प्रादुर्भूत हुए। अतएव वही लिड्डगरूप प्रणव सभी लोकोंकी सृष्टि करनेवाला है तथा वही प्रणव अकार-उकार-मकाररूप तीन प्रकारका ईश्वर है इस प्रकार वह प्रणव ओम्-ओम्रूप ब्रह्म कहा गया है ऐसा यजुर्वेदके ज्ञाताओंमें श्रेष्ठ मनीषियोंने कहा है और उन यजुर्वेद-ज्ञाताओंके वचन सुनकर उसे ऋग्वेदकी ऋचाओं तथा साममन्त्रोंने भी आदरपूर्वक स्वीकार किया है और इसी तरह सभी श्रुतियोंने उसी 'ओम्' को सदा हे हरे! हे ब्रह्मन्! के रूपमें सम्बोधित किया है इस वेद-वाक्य आदिसे शिवको यथावत् जानकर हम दोनों वैदिक मन्त्रोंस महोदय देवेश्वर महादेवकी स्तुति करने लगे हम दोनों के स्तवन से प्रसन्न होकर मायाके आवरण से रहित महेश्वर दिव्य शब्दमय रूप धारणकर हँस ते हुए उस लिक्में प्रकट हुए अकार उनका मस्तक तथा दीर्घ (आकार) उनका ललाट कहा जाता है। इकार दाहिना नेत्र, ईकार बायाँ नेत्र, उकार दाहिना कान, ऊकार बायाँ कान, ऋकार उन परमेष्ठी महेश्वरका दायाँ कपोल, ऋकार उनका बायाँ कपोल, लू तथा लू क्रमश: उनके दाहिने तथा बायें-दोनों नासापुट, एकार ऊपरी ओष्ठ, ऐकार उन प्रभुका नीचेका ओष्ठ, ओकार तथा औकार क्रमश: ऊपर तथा नीचेकी दन्त-पंक्तियाँ, अं तथा अ: उन धीमान् देवदेवके क्रमश: ऊपर तथा नीचेके तालु, ककार आदि पाँच अक्षर (क, ख, ग, घ, ड) उनके दाहिनी ओरके पाँच हाथ, इसी प्रकार चकार आदि पाँच अक्षर बायीं ओरके पाँच हाथ, टकार आदि पाँच अक्षर दायाँ पैर, तकार आदि पाँच अक्षर बायाँ पैर, पकार उन परमेश्वरका उदर, फकार दाहिना पार्श्व, बकार बायाँ पार्श्व, भकार उनका स्कनध, मकार परम योगी महादेव शंकरका हृदय, यकारसे लेकर सकारपर्यन्त सात वर्ण (य, र, ल, व, श, ष, स) उन प्रभुके सातों धातु, हकार उनकी आत्मा तथा क्षकार उनका क्रोध कहा गया है॥ ६९ - ८०॥
प्रणम्य भगवान् विष्णु: पुनश्चापश्यदूर्ध्वत:
कारप्रभवं॑ मन्त्र कलापञ्चकसंयुतम्॥ ८२
शुद्धस्फटिकसड्डाश शुभाष्टत्रिंशदक्षरम् ।
मेधाकरमभूद्धूयः सर्वधर्मार्थसाधकम् ॥ ८३
गायत्रीप्रभवं॑ मन्त्र हरितं वश्यकारकम्
चतुर्विशति वर्णाढ्यं॑ चतुष्कलमनुत्तमम | ८४
अथर्वमसितं मन्त्र कलाष्टकसमायुतम् |
अभिचारिकमत्यर्थ त्रयस्त्रिशच्छुभाक्षरम्॥ ८५
यजुर्वेदसमायुक्ते.. पजञ्चत्रिंशच्छुभाक्षरम्।
कलाष्टकसमायुक्त सुश्वेतं शान्तिकं तथा॥ ८६
त्रयोदशकलायुक्त बालाद्येः सह लोहितम्।
सामोद्धवं॑ जगत्याद्य वृद्धिसंहारकारणम्॥ ८७
वर्णा: षडधिका: षष्टिरस्थ मन्त्रवरस्य तु।
पजञ्चमन्रांस्तथा लब्ध्वा जजाप भगवान् हरि: ॥ ८८
अथ दृष्ट्वा कलावर्णमृग्यजु:सामरूपिणम्।
ईशानमीशमुकुर्ट पुरुषास्य॑ पुरातनमू॥ ८९
अघोरहदयं हृदय वामगुहां सदाशिवम्।
सद्यः पादं महादेव॑ महाभोगीन्द्रभूषणम्॥ ९०
विश्वतः पादवदनं विश्वतोक्षिकरं शिवम्।
ब्रह्मणो<ईधिपतिं सर्गस्थितिसंहारकारणम्॥ ९१
तुष्टाव. पुनरिष्टाभिवॉाग्भिर्वरदमीएवरम्॥ ९२
उमाके साथ उन भगवान् महेश्वरको देखकर पुन: उन्हें प्रणाम करके जब भगवान् विष्णुने ऊपरकी ओर देखा तब उन्हें कारसे उत्पन्न, पाँच कलाओंसे युक्त, बुद्धिविवर्धक तथा सभी धर्म-अर्थको सिद्ध करनेवाला शुद्ध स्फटिकतुल्य अत्यन्त शुभ्र तथा अड़तीस शुभ अक्षरोंवाला पवित्र मन्त्र ( ईशान: सर्वविद्यानाम्० )' दृष्टिगोचर हुआ। साथ ही गायत्रीसे उत्पन्न, चार कलाओंवाला, चौबीस अक्षरोंसे युक्त तथा वश्यकारक हरित वर्ण अत्युत्तम मन्त्र ( तत्पुरुषाय विद्यहे० ) ; अथर्ववेदसे उत्पनन आठ कलाओंसे युक्त तैंतीस शुभ अक्षरोंवाला कृष्णवर्ण तथा अत्यन्त अभिचारिक अघोरमन्त्र ( अधोरेभ्योथ घोरेभ्य० ); यजुर्वेदसे प्रादुर्भूत, आठ कलाओंवाला, श्वेतवर्णवाला, शान्तिकारक पैंतीस अक्षरोंसे युक्त पवित्र सद्योजात मन्त्र ( सद्योजात॑ प्रपद्यामि० ) एवं सामवेदसे उत्पन्न, रक्तवर्ण, बाल आदि तेरह कलाओंसे युक्त, जगत्॒का आदि स्वरूप तथा वृद्धि-संहारका कारणरूप छाछठ अक्षरोंवाला उत्तम मन्त्र (वामदेवाय नमो० )' दृष्टिगत हुए। इन पाँचों मन्त्रोंको प्राप्तकर भगवान् विष्णुने इनका जप करना आरम्भ कर दिया तत्पश्चात् समस्त कलाओंकी कान्तिसे युक्त, ऋक्-यजु:-सामस्वरूप, ईशान मन्त्ररूप मुकुटवाले, तत्पुरुष मन्त्ररूप मुखवाले, अघोर मन्त्ररूप करुणामय हृदयवाले, वामदेव मन्त्र-रूप सदा कल्याणकर गुह्मस्थानवाले तथा सद्योजात मन्त्ररूप चरणोंवाले, विशाल सर्पोंका आभूषण धारण करनेवाले, चारों ओर पैर-मुख-आँख धारण किये हुए, सृष्टि-पालन-संहारके कारणस्वरूप, पुरातन पुरुष महादेव ब्रह्माधिपति शिवको देखकर भगवान् विष्णु अभीष्ट स्तुतियोंसे उन वरदाता परमेश्वर ईशानका पुनः स्तवन करने लगे॥ ८२ - ९२॥
॥ ज्ति श्रीलिंगमहापुराणे पूर्वभागे लिड्रोद्भधवो नाम सप्तदशोडध्याय: ॥ १७ ॥
॥ इस प्रकार श्रीलिंगमहापुराण के अन्तर्गत एूर्वभाग में 'लिझ्द्भधव नामक सत्रहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ॥ १७॥
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