लिंग पुराण : [ पूर्वभाग ] पन्द्रहवाँ अध्याय
सूत उवाच
ततस्तस्मिन् गते कल्पे कृष्णवर्णे भयानके।
तुष्टाव देवदेवेशं ब्रह्म तं॑ ब्रह्मरूपिणम्॥ १
अनुगृह्या ततस्तुष्टो. ब्रह्माणमवदद्धरः ।
अनेनैव तु रूपेण संहरामि न संशयः॥ २
ब्रह्महत्यादिकान् घोरांस्तथान्यानपि पातकान्।
हीनांश्चैव महाभाग तथेव विविधान्यपि॥ ३
उपपातकमप्येव॑ तथा पापानि सुतब्रत।
मानसानि सुतीक्ष्णानि वाचिकानि पितामह।॥ ४
कायिकानि सुमिश्राणि तथा प्रासड्रिकानि च।
बुद्धिपूर्व॑ कृतान्येव सहजागन्तुकानि च॥५
मातृदेहोत्थितान्येवे पितृदेहे च पातकम्।
संहरामि न सन्देह: सर्व पातकजं विभो॥६
लक्षं जप्त्वा ह्मघोरेभ्यो ब्रह्महा मुच्यते प्रभो।
तदर्ध वाचिके वत्स तदर्ध मानसे पुनः॥७
सूतजी बोले-[हे मुनियो!] उस भयावह कृष्ण कल्पके बीत जानेपर ब्रह्माजी उन ब्रह्मस्वरूप देवदेवेश अघोरकी स्तुति करने लगे उस स्तुतिसे प्रसन्न होकर महादेवने अनुग्रह करके ब्रह्मासे कहा - हे महाभाग ! ब्रह्महत्या आदि महापात कों, अन्य पातकों तथा अनेकविध पापोंको मैं अपने इसी अघोर रूपसे दूर करता हूँ; इसमें कोई संदेह नहीं है हे सुब्रत! हे पितामह ! इसी प्रकार सभी उपपातकों, मानसिक पापों, सुतीक्ष्ण वाचिक पापों, कायिक पापों, मिश्रित पापों, प्रासंगिक पापों, जानबूझकर किये गये पापों, सहज रूपमें आगन्तुक पापों तथा पितृ-मातृदेहजन्य पापोंको दूर कर देता हूँ और हे विभो! समस्त प्रकारके पातकजनित दुःखोंका नाश कर देता हूँ; इसमें लेशमात्र भी संशय नहीं है॥१ - ६॥
मातृहा नियुतं जप्त्वा शुद्धबते नात्र संशय:।
गोघ्नएचैव कृतघ्नएच स्त्रीघ्न: पापयुतो नर:॥ ९
अयुताघोरमभ्यस्य मुच्यते नात्र संशय: ।
सुरापो लक्षमात्रेण बुद्धय्बुद्धयापि वै प्रभो॥ १०
मुच्यते नात्र सन्देहस्तदर्धन चर वारुणीम्।
अस्नाताशी सहस्त्रेण अजपी च तथा द्विज:॥ १९
अहुताशी सहस्त्रेण अदाता च विशुद्धद्गति।
ब्राह्मणस्वापहर्ता च स्वर्णस्तेयी नराधम:॥ १२
नियुतं मानसं जप्त्वा मुच्यते नात्र संशय: ।
गुरुतल्परतो वापि मातृघध्नो वा नराधमः॥ १३
ब्रह्मघ्नश्च जपेदेव॑ मानसं वे पितामह।
सम्पर्कात्पापिनां पापं तत्समं परिभाषितम्॥ १४
तथाप्ययुतमात्रेण. पातकाद्दै प्रमुच्यते
संसर्गात्पातकी लक्ष॑ जपेद्बे मानसं धिया॥ १५
उपांशु यच्चतुर्धा वै बाचिकं चाष्टधा जपेत्।
पातकादर्धमेव स्यादुपपातकिनां स्मृतम्॥ १६
तदर्ध केवले पापे नात्र कार्या विचारणा।
ब्रह्महत्या सुरापानं सुवर्णस्तेवमेव च॥ १७
कृत्वा च गुरुतल्पं च पापकृद ब्राह्मणो यदि।
रुद्रगायत्रिया ग्राह्मं गोमूत्रं कापिलं द्विजा:॥ १८
गन्धद्वारेति तस्या वै गोमयं स्वस्थमाहरेत्।
तेजोसिशुक्रमित्याज्यं कापिलं संहरेद् बुध: ॥ १९
आप्यायस्वेति च क्षीरं दधिक्राव्णेति चाहरेत्।
गव्यं दधि नवं साक्षात्कापिलं वे पितामह॥ २०
देवस्य त्वेति मन्त्रेण सड़ग्रहेद् कुशोदकम्।
एकस्थं हेमपात्रे वा कृत्वाघोरेण राजते॥ २१
ताग्रे वा पद्मपत्रे वा पालाशे वा दले शुभे।
सकूर्च सर्वरत्नाढ्ं क्षिप्त्वा तत्रेव काउचनम्॥ २२
जपेल्लक्षमघोराख्यं हुत्वा चैव घृतादिभि:।
घृतेन चरुणा चैव समिद्धिश्च तिलैस्तथा॥ २३
यवैश्च ब्रीहिभिश्चेव जुहुयाद्वे पृथक्पृथक् ।
प्रत्येक सप्तवारं तु द्र॒व्यालाभे घृतेन तु॥ २४
ह॒त्वाघोरेण देवेशं स्नात्वाघोरेण वे द्विजा:।
अष्टद्रोणघृतेनेव स्नाप्य पश्चाद्विशोध्य च॥ २५
अहोरात्रोषितः स्नातः पिबेत्कूर्च शिवाग्रत:।
ब्राह्मं॑ ब्रह्मजपं कुर्यादाचम्य च यथाविधि॥ २६
एवं कृत्वा कृतघ्नो5पि ब्रह्महा भ्रूणहा तथा।
वीरहा गुरुघाती चर मित्रविश्वासघातक: ॥ २७
स्तेयी सुवर्णस्तेयी च गुरुतल्परत: सदा।
मह्पो वृषलीसक्त: परदारविधर्षक:॥ २८
ब्रह्मस्वहा तथा गोघ्नो मातृहा पितृहा तथा।
देवप्रच्यावकश्चेव. लिड्डप्रध्वंसकस्तथा ॥ २९
तथान्यानि च पापानि मानसानि द्विजो यदि।
वाचिकानि तथान्यानि कायिकानि सहस्रश: ॥ ३०
कृत्वा विमुच्यते सद्यो जन्मान्तरशतैरपि। '
एतद्रहस्यं कथितमघोरेशप्रसड़त: ॥ ३९
तस्माजपेद् द्विजो नित्यं सर्वपापविशुद्धये ॥ ३२
॥ श्रीलिड्रमहापुराणे पूर्वभागेठयोरेशमाहात्म्यं नाम पठचदशोउध्याय: ॥ १५ ॥
॥ इस प्रकार श्रीलिज्रमहापुराण के अन्तर्गत पूर्वभाय में 'अघोरेशमाहात्म्य' नामक पत्रहवों अध्याय पूर्ण हुआ॥ १५
FAQs: लिंग पुराण: पूर्वभाग – पन्द्रहवां अध्याय (अघोरेश माहात्म्य)
प्रश्न 1: अघोरेश माहात्म्य क्या है?
उत्तर:
अघोरेश माहात्म्य भगवान शिव के अघोर रूप की महिमा का वर्णन करता है। इसमें बताया गया है कि अघोर रूप से भगवान शिव ब्रह्महत्या, सुरापान, और अन्य महापातकों सहित सभी पापों का नाश करते हैं।
प्रश्न 2: अघोर मंत्र का क्या महत्व है?
उत्तर:
अघोर मंत्र, "अघोरेभ्योऽथ घोरेभ्यः" के जप से पापों का नाश होता है। यह मंत्र सभी प्रकार के पाप, जैसे ब्रह्महत्या, मानसिक, वाचिक, और शारीरिक पापों को समाप्त करने में सक्षम है।
प्रश्न 3: किन पापों का नाश अघोर मंत्र के जप से संभव है?
उत्तर:
अघोर मंत्र से निम्नलिखित पापों का नाश हो सकता है:
- ब्रह्महत्या
- भ्रूणहत्या
- गोहत्या
- गुरु की हत्या
- सुरापान
- मित्र विश्वासघात
- परस्त्रीगमन
- स्वर्णचोरी
- देवताओं की मूर्ति खंडित करना
- शिवलिंग का ध्वंस करना
- अन्य मानसिक, वाचिक, और शारीरिक पाप।
प्रश्न 4: पापों के प्रकार के अनुसार अघोर मंत्र का जप कितनी बार करना चाहिए?
उत्तर:
- ब्रह्महत्या: 1,00,000 जप
- वाचिक पाप: 50,000 जप
- मानसिक पाप: 25,000 जप
- जानबूझकर किए गए पाप: चार गुना अधिक जप
- क्रोधपूर्वक किए गए पाप: आठ गुना अधिक जप
- भ्रूणहत्या: 1 करोड़ जप
- गुरुपत्नी गमन: 10 लाख जप
प्रश्न 5: अघोर मंत्र के जप के अलावा अन्य क्या उपाय हैं?
उत्तर:
- रुद्रगायत्री मंत्र के साथ पंचगव्य का पान।
- स्वर्ण, चांदी या तांबे के पात्र में गोमूत्र, गोबर, घी, दूध, दही एकत्र करना।
- घी, तिल, और अन्य पवित्र सामग्री से हवन।
- दिन-रात उपवास करके जप और हवन करना।
प्रश्न 6: क्या अघोर मंत्र के जप से जन्म-जन्मांतर के पाप नष्ट हो सकते हैं?
उत्तर:
हां, अघोर मंत्र के विधिपूर्वक जप और हवन से वर्तमान और पिछले जन्मों के पाप भी नष्ट हो सकते हैं।
प्रश्न 7: अघोरेश्वर भगवान शिव के अघोर रूप का विशेष महत्व क्यों है?
उत्तर:
अघोरेश्वर भगवान शिव का अघोर रूप सबसे करुणामय और पाप नाशक है। यह रूप सभी जीवों को उनके किए गए पापों से मुक्ति दिलाता है और जन्मांतर के दोषों का भी निवारण करता है।
प्रश्न 8: अघोर मंत्र का जप कौन कर सकता है?
उत्तर:
अघोर मंत्र का जप सभी जातियों के ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य कर सकते हैं। विशेष रूप से पापों से मुक्ति के इच्छुक व्यक्ति इस मंत्र का जप कर सकते हैं।
प्रश्न 9: क्या पापियों के संपर्क से उत्पन्न दोष का निवारण अघोर मंत्र से हो सकता है?
उत्तर:
हां, पापियों के संपर्क से हुए दोष को भी अघोर मंत्र के जप से दूर किया जा सकता है। इसके लिए 10,000 बार जप करना चाहिए।
प्रश्न 10: क्या अघोर मंत्र का जप दैनिक करना चाहिए?
उत्तर:
हां, सभी प्रकार के पापों से बचने और आत्मा की शुद्धि के लिए अघोर मंत्र का दैनिक जप करने का विधान है।
निष्कर्ष
अघोरेश्वर भगवान शिव के अघोर मंत्र के जप से सभी पापों का नाश संभव है। यह अध्याय हमें सिखाता है कि आत्मा की शुद्धि और पापों से मुक्ति के लिए श्रद्धा और विधिपूर्वक अघोर मंत्र का जप करना अनिवार्य है।
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