अग्नि पुराण तीन सौ इक्यासीवाँ अध्याय - Agni Purana 381 Chapter

अग्नि पुराण तीन सौ इक्यासीवाँ अध्याय - Agni Purana 381 Chapter

अग्नि पुराण तीन सौ इक्यासीवाँ अध्याय - गीतासारः

अग्निरुवाच

गीतासारं प्रवक्ष्यामि सर्वगीतोत्तमोत्तमं ।
कृष्णोऽर्जुनाय यमाह पुरा वै भुक्तिमुक्तिदं ।। १ ।।

श्रीभगवानुवाच

गतासुरगतासुर्वा न शोच्यो देहवानजः ।
आत्माऽजरोऽमरोऽभेद्यस्तस्माच्छोकादिकं त्यजेत् ।। २ ।।

ध्यायतो विषयान् पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते ।
सङ्गात् कामस्ततः क्रोधः क्रोधात्सम्मोह एव च ।। ३ ।।

सम्मोहात् स्मृतिविभ्रंशो बुद्धिनाशात् प्रणश्यति ।
दुःसङ्गहानिः सत्सङ्गान्मोक्षकामी च कामनुत् ।। ४ ।।

कामत्यागादात्मनिष्ठः स्थिरप्रज्ञस्तदोच्यते ।
या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी ।। ५ ।।

यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः ।
आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते ।। ६ ।।

नैव तस्य कृते नार्थो नाकृते नेह कश्चन ।
तत्त्ववित्तु महावाहो गुणकर्मविभागयोः ।। ७ ।।

गुणा गुणेषु वर्त्तन्ते इति मत्वा न सज्जते ।
सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं सन्तरिष्यति ।। ८ ।।

ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात् कुरुतेऽर्जुन ।
ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गन्त्यक्त्वा करोति यः ।। ९ ।।

लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा ।
सर्वभूतेषु चात्मानां सर्वभूतानि चात्मनि ।। ११ ।।

ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः ।
शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते ।। ११ ।।

न हि कल्याणकृतं कश्चिद्‌दुर्गतिं तात गच्छति ।
देवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया ।। १२ ।।

मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतान्तरन्ति ते ।
आर्त्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ ।। १३ ।।

चतुर्विधा भजन्ते मां ज्ञानी चैकत्वमास्थितः ।
अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते ।। १४ ।।

भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्मसंज्ञितः ।
अधिभूतं क्षरो भावः पुरुषश्चाधिदैवतं ।। १५ ।।

अधियज्ञोहमेवात्र देहे देहभृतां वर ।
अन्तकाले स्मरन्माञ्च मद्भावं यात्यसंशयः ।। १६ ।।

यं यं भावं स्मारन्नन्ते त्यजेद्देहन्तमाप्नुयात् ।
प्राणं न्यस्य भ्रुवोर्मध्ये अन्ते प्राप्नोति मत्परम् ।। १७ ।।

ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म वदन् देहं त्यजन्तथा ।
ब्रह्मादिस्तम्भपर्यन्ताः सर्वे मम विभूतयः ।। १८ ।।

श्रीमन्तश्चोर्जिताः सर्वे ममांशाः प्राणिनः स्मृताः ।
अहमेको विश्वरुप इति ज्ञात्वा विमुच्यते ।। १९ ।।

क्षेत्रं शरीरं यो वेत्ति क्षेत्रज्ञः स प्रकीर्त्तिः ।
क्षेत्रक्षएत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम ।। २१ ।।

महाभूतान्यहङ्गारो बुद्धिरव्यक्तमेव च ।
इन्द्रियाणि दशौकञ्च पञ्च चेन्द्रियगोचराः ।। २१ ।।

इच्छा द्वेषः सुखं दुःखं सङ्घातश्चेतना धृतिः ।
एतत्क्षेत्रं समासेन सविकारमुदाहृतम् ।। २२ ।।

अमानित्वमदम्भित्वमहिसा क्षान्तिरार्जवं ।
आचार्योपासनं शौचं स्थौर्य्यमात्मविनिग्रहः ।। २३ ।।

इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहङ्कार एव च ।
जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनं ।। २४ ।।

आसक्तिरनभिष्वङ्गः पुत्रदारगृहादिषु ।
नित्यञ्च समचित्तत्त्वमिष्टानिष्टोपपत्तिषु ।। २५ ।।

मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी ।
विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि ।। २६ ।।

अध्यात्मज्ञाननिष्ठत्वन्तत्त्वज्ञानानुदर्शनं ।
ओतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा ।। २७ ।।

ज्ञेयं यत्तत् प्रवक्ष्यामि यं ज्ञात्वाऽमृतमश्नुते ।
अनादि परमं ब्रह्म सत्त्वं नाम तदुच्यते ।। २८ ।।

सर्वतः पाणिपादान्तं सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम् ।
सर्वतः श्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति ।। २९ ।।

सर्वेन्द्रियगुणाभासं सर्वेन्दियविवर्जितम् ।
असक्तं सर्वभृच्चैव निर्गुणं गुणभोक्तृ च ।। ३१ ।।

बहिरन्तश्च भूतानामचरञ्चरमेव च ।
सूक्षमत्वात्तदविज्ञेयं दूरस्थञ्चान्तिकेऽपि यत् ।। ३१ ।।

अविभक्तञ्च भूतेषु विभक्तमिव च स्थितम् ।
भूतभर्तृ च विज्ञेयं ग्रसिष्णु प्रभविष्णु च ।। ३२ ।।

ज्योतिषामपि तज्जयोतिस्तमसः परमुच्यते ।
ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यं हृदि सर्वस्य घिष्ठितं ।। ३३ ।।

ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति केचिदात्मानमात्मना ।
अन्ये साङ्‌ख्येन योगेन कर्मयोगेन चापरे ।। ३४ ।।

अन्ये त्वेवमजानन्तो श्रुत्वान्येभ्य उपासते ।
तेपि चाशु तरन्त्येव मृत्युं श्रुतिपरायणाः ।। ३५ ।।

सत्त्वात्सञ्जायते ज्ञानं रजसो लोभ एव च ।
प्रमादमोहौ तमसो भवतो ज्ञानमेव च ।। ३६ ।।

गुणा वर्तन्त इत्येव योऽवतिष्ठति नेङ्गते ।
मानावमानमित्रारितुल्यस्त्यागी स निर्गुणः ।। ३७ ।।

ऊर्ध्वमूलमधः शाखमश्चत्थं प्राहुरव्ययं ।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित् ।। ३८ ।।

द्वौ भूतसर्गौ लोकेऽस्मिन् दैव आसुर एव च ।
अहिंसादिः क्षमा चैव दैवीसम्पत्तितो नृणां ।। ३९ ।।

न शौचं नापि वाचारो ह्यासुरीसम्पदोद्भवः ।
नरकत्वात् क्रोधकोभकामस्तस्मात्त्रयं त्यजेत् ।। ४१ ।।

यज्ञस्तपस्तथा दानं सत्त्वाद्यैस्त्रिविधं स्मृतम् ।
आयुः सत्त्वं बलारोग्यसुखायान्नन्तु सात्त्विकं ।। ४१ ।।

दुःखशोकामयायान्नं तीक्ष्णरूक्षन्तु राजसं ।
अमेध्योच्छिष्टपूत्यन्नं तामसं नीरसादिकं ।। ४२ ।।

यष्टव्यो विधिना यज्ञो निष्कामाय स सात्त्विकः ।
यज्ञः फलाय दम्भात्मी राजसस्तामसः क्रतुः ।। ४३ ।।

श्रद्धामन्त्रादिविध्युक्तं तपः शारीरमुच्यते ।
देवादिपूजाऽहिंसादि वाङ्‌मयं तप उच्यते ।। ४४ ।।

अनुद्धेगकरं वाक्यं सत्यं स्वाध्यायसज्जपः ।
मानसं चित्तसंशुद्धेर्मौनमात्मविनिग्रहः ।। ४५ ।।

सात्त्विकञ्च तपोऽकामं फ्लाद्यर्थन्तु राजसं ।
तामसं परपीड़ायै सात्त्विकं दानमुच्यते ।। ४६ ।।

देशादौ चैव दातव्यमुपकाराय राजसं ।
अदेशादाववज्ञातं तामसं दानमीरितं ।। ४७ ।।

ओंतत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविधः स्मृतः ।
यज्ञदानादिकं कर्म्म भुक्तिमुक्तिप्रदं नृणं ।। ४८ ।।

अनिष्टमिष्टं मिशञ्च त्रिविंधं कर्मणः फलं ।
भवत्यत्यागिनां प्रेत्य न तु सन्न्यासिनां क्कचित् ।। ४९ ।।

तामसः कर्मसंयोगात् मोहात्क्लेशभयादिकात् ।
राजसः सात्त्विकोऽकामात् पञ्चैते कर्महेतवः ।। ५१ ।।

अधिष्ठानं तथा कर्त्ता करणञ्च पृथग्विधम् ।
त्रिविधाश्च पृथक् चेष्टा दैवञ्चैवात्र पञ्चमं ।। ५१ ।।

एकं ज्ञानं सात्त्विकं स्यात् पृथग्‌ ज्ञान्तु राजसं ।
अतत्त्वार्थन्तामसं स्यात् कर्माकामाय सात्त्विकं ।। ५२ ।।

कामाय राजसं कर्म मोहात् कर्म तु तामसं ।
सिद्ध्यसिद्ध्योः समः कर्त्ता सात्त्विको राजसोऽत्यपि ।। ५३ ।।

शठोऽलसस्तामसः स्यात् कार्य्यादिधीश्च सात्त्विकी ।
कार्य्यार्थं सा राजसी स्याद्विपरीता तु तामसी ।। ५४ ।।

मनोधृतिः सात्त्विकी स्यात् प्रीतिकामेति राजसी ।
तामसी तु प्रशोकादौ सुखं सत्त्वात्तदन्तगं ।। ५५ ।।

सुखं तद्राजसञ्चाग्रे अन्ते दुःखन्तु तामसं ।
अतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदन्ततं ।। ५६ ।।

स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य विष्णुं सिद्धिञ्च विन्दति ।
कर्मणा मनसा वाचा सर्वावस्थासु सर्वदा ।। ५७ ।।

ब्रह्मादिस्तम्भपर्यन्तं जगद्विष्णुञ्च वेत्ति यः ।
सिद्धिमाप्नोति भगवद्भक्तो भागवतो ध्रुवं ।। ५८ ।।

इत्यादिमहापुराणे आग्नेये गीतासारो नामैकाशीत्यधिकत्रिशततमोऽध्यायः ॥

अग्नि पुराण - तीन सौ इक्यासीवाँ अध्याय हिन्दी मे Agni Purana 381 Chapter In Hindi

तीन सौ इक्यासीवाँ अध्याय गीता-सार

अब मैं गीताका सार बतलाऊँगा, जो समस्त गीताका उत्तम-से-उत्तम अंश है। पूर्वकालमें भगवान् श्रीकृष्णने अर्जुनको उसका उपदेश दिया था। वह भोग तथा मोक्ष दोनोंको देनेवाला है॥१॥ 

श्रीभगवान्ने कहा- अर्जुन! जिसका प्राण चला गया है अथवा जिसका प्राण अभी नहीं गया है, ऐसे मरे हुए अथवा जीवित किसी भी देहधारीके लिये शोक करना उचित नहीं है; क्योंकि आत्मा अजन्मा, अजर, अमर तथा अभेद्य है, इसलिये शोक आदिको छोड़ देना चाहिये। विषयोंका चिन्तन करनेवाले पुरुषकी उनमें आसक्ति हो जाती है; आसक्तिसे काम, कामसे क्रोध और क्रोधसे अत्यन्त मोह (विवेकका अभाव) होता है। मोहसे स्मरणशक्तिका ह्रास और उससे बुद्धिका नाश हो जाता है। बुद्धिके नाशसे उसका सर्वनाश हो जाता है। सत्पुरुषोंका सङ्ग करनेसे बुरे सङ्ग छूट जाते हैं- (आसक्तियाँ दूर हो जाती हैं)। फिर मनुष्य अन्य सब कामनाओंका त्याग करके केवल मोक्षकी कामना रखता है। कामनाओंके त्यागसे मनुष्यकी आत्मा अर्थात् अपने स्वरूपमें स्थिति होती है, उस समय वह 'स्थिरप्रज्ञ' कहलाता है। सम्पूर्ण प्राणियोंके लिये जो रात्रि है, अर्थात् समस्त जीव जिसकी ओरसे बेखबर होकर सो रहे हैं, उस परमात्माके स्वरूपमें भगवत्प्रास संयमी (योगी) पुरुष जागता रहता है 

तथा जिस क्षणभङ्गर सांसारिक सुखमें सब भूत-प्राणी जागते हैं, अर्थात् जो विषय भोग उनके सामने दिनके समान प्रकट हैं, वह ज्ञानी मुनिके लिये रात्रिके ही समान है। जो अपने-आपमें ही संतुष्ट है, उसके लिये कोई कर्तव्य शेष नहीं है। इस संसारमें उस आत्माराम पुरुषको न तो कुछ करनेसे प्रयोजन है और न न करनेसे ही। महाबाहो। जो गुण-विभाग और कर्म-विभागके तत्त्वको जानता है, वह यह समझकर कि सम्पूर्ण गुण गुणोंमें ही बरत रहे हैं, कहीं आसक्त नहीं होता। अर्जुन। तुम ज्ञानरूपी नौकाका सहारा लेनेसे निश्चय ही सम्पूर्ण पापोंको तर जाओगे। ज्ञानरूपी अग्नि सब कर्मोंको जलाकर भस्म कर डालती है। जो सब कर्मोंको परमात्मामें अर्पण करके आसक्ति छोड़कर कर्म करता है, वह पापसे लिप्त नहीं होता-ठीक उसी तरह जैसे कमलका पत्ता पानीसे लिप्त नहीं होता। जिसका अन्तःकरण योगयुक्त है-परमानन्दमय परमात्मामें स्थित है तथा जो सर्वत्र समान दृष्टि रखनेवाला है, वह योगी आत्माको सम्पूर्ण भूतोंमें तथा सम्पूर्ण भूतोंको आत्मामें देखता है। योगभ्रष्ट पुरुष शुद्ध आचार-विचारवाले श्रीमानों (धनवानों) के घरमें जन्म लेता है। तात! कल्याणमय शुभ कमाँका अनुष्ठान करनेवाला पुरुष कभी दुर्गतिको नहीं प्राप्त होता ॥ २-११॥ 

"मेरी यह त्रिगुणमयी माया अलौकिक है; इसका पार पाना बहुत कठिन है। जो केवल मेरी शरण लेते हैं, वे ही इस मायाको लाँघ पाते हैं। भरतश्रेष्ठ ! आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी और ज्ञानी ये चार प्रकारके मनुष्य मेरा भजन करते हैं। इनमेंसे ज्ञानी तो मुझसे एकीभूत होकर स्थित रहता है। अविनाशी परम-तत्त्व (सच्चिदानन्दमय परमात्मा) 'ब्रह्म' है, स्वभाव अर्थात् जीवात्माको 'अध्यात्म' कहते हैं, भूतोंकी उत्पत्ति और वृद्धि करनेवाले विसर्गका (यज्ञ-दान आदिके निमित्त किये जानेवाले द्रव्यादिके त्यागका) नाम 'कर्म' है, विनाशशील पदार्थ 'अधिभूत' है तथा पुरुष (हिरण्यगर्भ) 'अधिदैवत' है। देहधारियोंमें श्रेष्ठ अर्जुन! इस देहके भीतर मैं वासुदेव ही 'अधियज्ञ' हूँ। अन्तकालमें मेरा स्मरण करनेवाला पुरुष मेरे स्वरूपको प्राप्त होता है, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। मनुष्य अन्तकालमें जिस-जिस भावका स्मरण करते हुए अपने देहका परित्याग करता है, उसीको वह प्राप्त होता है। मृत्युके समय जो प्राणोंको भौंहोंके मध्यमें स्थापित करके 'ओम्'- इस एकाक्षर ब्रह्मका उच्चारण करते हुए देहत्याग करता है, वह मुझ परमेश्वरको ही प्राप्त करता है। ब्रह्माजीसे लेकर तुच्छ कीटतक जो कुछ दिखायी देता है, सब मेरी ही विभूतियाँ हैं। जितने भी श्रीसम्पन्न और शक्तिशाली प्राणी हैं, सब मेरे अंश हैं। 'मैं अकेला ही सम्पूर्ण विश्वके रूपमें स्थित हूँ'- ऐसा जानकर मनुष्य मुक्त हो जाता है" ॥ १२-१९॥

"यह शरीर 'क्षेत्र' है; जो इसे जानता है, उसको 'क्षेत्रज्ञ' कहा गया है। 'क्षेत्र' और 'क्षेत्रज्ञ'को जो यथार्थरूपसे जानना है, वही मेरे मतमें 'ज्ञान' है। पाँच महाभूत, अहंकार, बुद्धि, अव्यक्त (मूलप्रकृति), दस इन्द्रियाँ, एक मन, पाँच इन्द्रियोंके विषय, इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख, स्थूल शरीर, चेतना और धृति- यह विकारोंसहित 'क्षेत्र' है, जिसे यहाँ संक्षेपसे बतलाया गया है। अभिमानशून्यता, दम्भका अभाव, अहिंसा, क्षमा, सरलता, गुरुसेवा, बाहर-भीतरकी शुद्धि, अन्तःकरणकी स्थिरता, मन, इन्द्रिय एवं शरीरका निग्रह, विषयभोगोंमें आसक्तिका अभाव, अहंकारका न होना, जन्म, मृत्यु, जरा तथा रोग आदिमें दुःखरूप दोषका बारंबार विचार करना, पुत्र, स्त्री और गृह आदिमें आसक्ति और ममताका अभाव, प्रिय और अप्रियको प्राप्तिमें सदा ही समानचित्त रहना (हर्ष-शोकके वशीभूत न होना), मुझ परमेश्वरमें अनन्य भावसे अविचल भक्तिका होना, पवित्र एवं एकान्त स्थानमें रहनेका स्वभाव, विषयी मनुष्योंके समुदायमें प्रेमका अभाव, अध्यात्म ज्ञानमें स्थिति तथा तत्त्व-ज्ञानस्वरूप परमेश्वरका निरन्तर दर्शन- यह सब 'ज्ञान' कहा गया है और जो इसके विपरीत है, वह 'अज्ञान' है" ॥ २०-२७॥ 

"अब जो 'ज्ञेय' अर्थात् जाननेके योग्य है, उसका वर्णन करूँगा, जिसको जानकर मनुष्य अमृत-स्वरूप परमात्माको प्राप्त होता है। ' तत्त्व' अनादि है और 'परब्रह्म 'के नामसे प्रसिद्ध है। उसे न 'सत्' कहा जा सकता है, न 'असत्' (वह इन दोनोंसे विलक्षण है।) उसके सब हाथ-पैर हैं, सब ओर नेत्र, सिर और मुख तथा सब ओर कान हैं। वह संसारमें सबको व्याप्त करके स्थित है। सब इन्द्रियोंसे रहित होकर भी समस्त इन्द्रियोंके विषयोंको जाननेवाला है। सबका धारण-पोषण करनेवाला होकर आसक्तिरहित है तथा गुणोंका भोक्ता होकर 'निर्गुण' है। वह परमेश्वर सम्पूर्ण प्राणियोंके बाहर और भीतर विद्यमान है। 'चर' और 'अचर' सब उसीके स्वरूप हैं। सूक्ष्म होनेके कारण वह 'अविज्ञेय' है। वही निकट है और वही दूर। यद्यपि वह विभागरहित है (आकाशकी भाँति अखण्डरूपसे सर्वत्र परिपूर्ण है), तथापि सम्पूर्ण भूतोंमें विभक्त पृथक् पृथक् स्थित हुआ सा प्रतीत होता है। उसे विष्णुरूपसे सब प्राणियोंका पोषक, रुद्ररूपसे सबका संहारक और ब्रह्माके रूपसे सबको उत्पन्न करनेवाला जानना चाहिये। वह सूर्य आदि ज्योतियोंकी भी ज्योति (प्रकाशक) है। उसकी स्थिति अज्ञानमय अन्धकारसे परे बतलायी जाती है। वह परमात्मा ज्ञानस्वरूप, जाननेके योग्य, तत्त्वज्ञानसे प्राप्त होनेवाला और सबके हृदयमें स्थित है" ॥ २८-३३ ॥ 

"उस परमात्माको कितने ही मनुष्य सूक्ष्मबुद्धिसे ध्यानके द्वारा अपने अन्तःकरणमें देखते हैं। दूसरे लोग सांख्ययोगके द्वारा तथा कुछ अन्य मनुष्य कर्मयोगके द्वारा देखते हैं। इनके अतिरिक्त जो मन्द बुद्धिवाले साधारण मनुष्य हैं, वे स्वयं इस प्रकार न जानते हुए भी दूसरे ज्ञानी पुरुषोंसे सुनकर ही उपासना करते हैं। वे सुनकर उपासनामें लगनेवाले पुरुष भी मृत्युरूप संसार सागरसे निश्चय ही पार हो जाते हैं। सत्त्वगुणसे ज्ञान, रजोगुणसे लोभ तथा तमोगुणसे प्रमाद, । मोह और अज्ञान उत्पन्न होते हैं। गुण ही गुणोंमें बर्तते हैं- ऐसा समझकर जो स्थिर रहता है, अपनी स्थितिसे विचलित नहीं होता, जो मान- अपमानमें तथा मित्र और शत्रुपक्षमें भी समानभाव रखता है, जिसने कर्तुत्वके अभिमानको त्याग दिया है, वह 'निर्गुण' (गुणातीत) कहलाता है। 

जिसकी जड़ ऊपरकी ओर (अर्थात् परमात्मा है) और 'शाखा' नीचेकी ओर (यानी ब्रह्माजी आदि) हैं, उस संसाररूपी अश्वत्थ वृक्षको अनादि प्रवाहरूपसे 'अविनाशी' कहते हैं। वेद उसके पत्ते हैं। जो उस वृक्षको मूलसहित यथार्थरूपसे जानता है, वही वेदके तात्पर्यको जाननेवाला है। इस संसारमें प्राणियोंकी सृष्टि दो प्रकारकी है-एक 'दैवी' देवताओंके से स्वभाववाली और दूसरी 'आसुरी' - असुरोंके- से स्वभाववाली। अतः मनुष्योंके अहिंसा आदि सद्‌गुण और क्षमा 'दैवी सम्पत्ति' है। 'आसुरी सम्पत्ति 'से जिसकी उत्पत्ति हुई है, उसमें न शौच होता है, न सदाचार। क्रोध, लोभ और काम- ये नरक देनेवाले हैं, अतः इन तीनोंको त्याग देना चाहिये। सत्त्व आदि गुणोंके भेदसे यज्ञ, तप और दान तीन प्रकारके माने गये हैं (सात्त्विक, राजस और तामस)। 'सात्त्विक' अन्न आयु, बुद्धि, बल, आरोग्य और सुखकी वृद्धि करनेवाला है। तीखा और रूखा अन्न 'राजस' है। वह दुःख, शोक और रोग उत्पन्न करनेवाला है। अपवित्र, जूठा, दुर्गन्धयुक्त और नीरस आदि अन्न 'तामस' माना गया है। 'यज्ञ करना कर्तव्य है'- यह समझकर निष्कामभावसे विधिपूर्वक किया जानेवाला यज्ञ 'सात्विक' है। फलकी इच्छासे किया हुआ यज्ञ 'राजस' और दम्भके लिये किया जानेवाला यज्ञ 'तामस' है। श्रद्धा और मन्त्र आदिसे युक्त एवं विधि-प्रतिपादित जो देवता आदिकी पूजा तथा अहिंसा आदि तप है, उन्हें 'शारीरिक तप' कहते हैं। अब वाणीसे किये जानेवाले तपको बताया जाता है। जिससे किसीको उद्वेग न हो-ऐसा सत्य वचन, स्वाध्याय और जप-यह 'वाङ्मय तप' है। चित्तशुद्धि, मौन और मनोनिग्रह-ये 'मानस तप' हैं। 

कामनारहित तप 'सात्त्विक' फल आदिके लिये किया जानेवाला तप 'राजस' तथा दूसरोंको पीड़ा देनेके लिये किया हुआ तप 'तामस' कहलाता है। उत्तम देश, काल और पात्रमें दिया हुआ दान 'सात्त्विक' है, प्रत्युपकारके लिये दिया जानेवाला दान 'राजस' है तथा अयोग्य देश, काल आदिमें अनादरपूर्वक दिया हुआ दान 'तामस' कहा गया है। 'ॐ', 'तत्', और 'सत्'- ये परब्रह्म परमात्माके तीन प्रकारके नाम बताये गये हैं। यज्ञ-दान आदि कर्म मनुष्योंको भोग एवं मोक्ष प्रदान करनेवाले हैं। जिन्होंने कामनाओंका त्याग नहीं किया है, उन सकामी पुरुषोंके कर्मका बुरा, भला और मिला हुआ तीन प्रकारका फल होता है। यह फल मृत्युके पश्चात् प्राप्त होता है। संन्यासी (त्यागी पुरुषों) के कर्मोंका कभी कोई फल नहीं होता। मोहवश जो कर्मोंका त्याग किया जाता है, वह 'तामस' है, शरीरको कष्ट पहुँचनेके भयसे किया हुआ त्याग 'राजस' है तथा कामनाके त्यागसे सम्पन्न होनेवाला त्याग 'सात्त्विक' कहलाता है। अधिष्ठान, कर्ता, भिन्न-भिन्न करण, नाना प्रकारकी अलग अलग चेष्टाएँ तथा दैव ये पाँच ही कर्म के कारण हैं। सब भूतोंमें एक परमात्माका ज्ञान 'सात्त्विक', भेदज्ञान 'राजस' और अतात्त्विक ज्ञान 'तामस' है। निष्काम भावसे किया हुआ कर्म 'सात्विक', कामनाके लिये किया जानेवाला 'राजस' तथा मोहवश किया हुआ कर्म 'तामस' है। 

कार्यकी सिद्धि और असिद्धिमें सम (निर्विकार) रहनेवाला कर्ता 'सात्त्विक', हर्ष और शोक करनेवाला 'राजस' तथा शठ और आलसी कर्ता 'तामस' कहलाता है। कार्य अकार्यके तत्त्वको समझनेवाली बुद्धि 'सात्त्विकी', उसे ठीक-ठीक न जाननेवाली बुद्धि 'राजसी' तथा विपरीत धारणा रखनेवाली बुद्धि 'तामसी' मानी गयी है। मनको धारण करनेवाली धृति 'सात्त्विकी', प्रीतिकी कामनावाली धृति 'राजसी' तथा शोक आदिको धारण करनेवाली धृति 'तामसी' है। जिसका परिणाम सुखद हो, वह सत्त्वसे उत्पन्न होनेवाला 'सात्त्विक सुख' है। जो आरम्भमें सुखद प्रतीत होनेपर भी परिणाममें दुःखद हो वह 'राजस सुख' है तथा जो आदि और अन्तमें भी दुःख-ही-दुःख है, वह आपाततः प्रतीत होनेवाला सुख 'तामस' कहा गया है। जिससे सब भूतोंकी उत्पत्ति हुई है और जिससे यह सम्पूर्ण जगत् व्याप्त है, उस विष्णुको अपने- अपने स्वाभाविक कर्मद्वारा पूजकर मनुष्य परम सिद्धिको प्राप्त कर लेता है। जो सब अवस्थाओंमें और सर्वदा मन, वाणी एवं कर्मके द्वारा ब्रह्मासे लेकर तुच्छ कीटपर्यन्त सम्पूर्ण जगत्‌को भगवान् विष्णुका स्वरूप समझता है, वह भगवान्में भक्ति रखनेवाला भागवत पुरुष सिद्धिको प्राप्त होता है" ॥ ३४-५८ ॥ 

इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें 'गीता सार-निरूपण' नामक तीन सौ इक्यासीवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३८१॥

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