अग्नि पुराण तीन सौ उन्यासीवाँ अध्याय - Agni Purana 379 Chapter
अग्नि पुराण तीन सौ उन्यासीवाँ अध्याय - ब्रह्मज्ञानम्
अग्निरुवाच
यज्ञैश्च देवानाप्नोति वैराजं तपसा पदं ।
ब्रह्मणः कर्मसन्नयासाद्वैराग्यात् प्रकृतौ लयं ।। १ ।।
ज्ञानात् प्नाप्नोति कैवल्यं पञ्चैता गतयः स्मृता ।
प्रीतितापविषादादेर्विनिवृत्तिर्विरक्तता ।। २ ।।
सन्न्यासः कर्मणान्त्यागः कृतानामकृतैः सह ।
अव्यक्तादौ विशेषान्ते विकारोऽस्मिन्निविर्त्तते ।। ३ ।।
चेतनाचेतनान्यत्वज्ञानेन ज्ञानमुच्यते ।
परमात्मा च सर्वेषामाधारः परमेश्वरः ।। ४ ।।
विष्णुनाम्ना च देवेषु वेदान्तेषु च गीयते ।
यज्ञेश्वरो यज्ञपुमान् प्रवृत्तेरिज्यते ह्यसौ ।। ५ ।।
निवृत्तैर्ज्ञानयोगेन ज्ञानमूर्त्तिः स चेक्ष्यते ।
ह्रस्वदीर्घप्लुताद्यन्तु वचस्तत्पुरुषोत्तमः ।। ६ ।।
तत्प्राप्तिहेतुर्ज्ञानञ्च कर्म चोक्तं महामुने ।
आगमोक्तं विवेकाच्च द्विधा ज्ञानं तथोच्यते ।। ७ ।।
शब्दब्रह्मागममयं परं ब्रह्म सत्परम् ।
द्वे ब्रह्मणी वेदितव्ये ब्रह्मशब्दपरञ्च यत् ।। ८ ।।
वेदादिविद्या ह्यपरमक्षरं ब्रह्म सत्परम् ।
तदेतद्भगवद्वाच्यमुपचारेऽर्चनेऽन्यतः ।। ९ ।।
सम्मर्तेति तथा भर्त्ता भ्कारोऽर्थद्वयान्वितः ।
नेता गमयिता स्रष्टा गकारोऽयं महामुने ।। १० ।।
ऐश्वर्य्यस्य समग्रस्य वीर्य्यस्य यशसः श्रइयः ।
ज्ञानवैराग्ययोश्चैव षण्णं भग इतीङ्गना ।। ११ ।।
वसन्ति विष्णौ भूतानि स च धातुस्त्रिधात्मकः ।
एवं हरौ हि भगवान् शब्दोऽन्यत्रोपचारतः ।। १२ ।।
उत्पत्तिं प्रलयञ्चैव भूतानामगतिं गतिं ।
वेत्ति विद्यामविद्याञ्च स वाच्यो भगवानिति ।। १३ ।।
ज्ञानशक्तिः परैश्वर्य्यं वीर्य्यं तेजांस्यशेषतः ।
भगवच्छब्दवाच्यानि विना हेयैर्गुणादिभिः ।। १४ ।।
खाण्डिक्यजनकायाह योगं केशिध्वजः पुरा ।
अनात्मन्यात्मबुद्धिर्या आत्मस्वमिति या मतिः ।। १५ ।।
अविद्याभवसम्भूतिर्वीजमेतद्द्विधा स्थितम् ।
पञ्चभूतात्मके देहे देही मोहतमाश्रितः ।। १६ ।।
अहमेतदितीत्युच्चैः कुरुते कुमतिर्मतिं ।
इत्थञ्च पुत्रपौत्रेषु तद्देहोत्पातितेषु च ।। १७ ।।
करोति पण्डितः साम्यमनात्मनि कलेवरे ।
सर्वदेहोपकाराय कुरुते कर्म्म मानवः ।। १८ ।।
देहश्चान्यो यदा पुंसस्तदा बन्धाय तत्परं ।
निर्वाणमथ एवायमात्मा ज्ञानमयोऽमलः ।। १९ ।।
दुःखज्ञानमयोऽधर्मः प्रकृतेः स तु नात्मनः ।
जलस्य नाग्निना सङ्गः स्थालीसङ्गत्तथापि हि ।। २० ।।
शब्दास्ते कादिका धर्मास्तत् कृता वै महामुने ।
तथात्मा प्रकृतौ सङ्गादहंमानादिभूषितः ।। २१ ।।
भजते प्राकृतान्धर्मान् अन्यस्तेभ्यो हि सोऽव्ययः ।
बन्धाय विषयासङ्गं मनो निर्विषयं धिये ।। २२ ।।
विषयात्तत्समाकृष्य ब्रह्मभूतं हरिं स्मरेत् ।
आत्मभावं नयत्येनं तद्ब्रह्मध्यायिनं मुने ।। २३ ।।
विचार्य्य स्वात्मनः शक्त्या लौहमाकर्षको यथा ।
आत्भप्रयत्नसापेज्ञा विशिष्टा या मनोगतिः ।। २४ ।।
तस्या ब्रह्मणि संयोगो योग इत्यभिधीयते ।
विनिष्पन्दः समाधिस्थः परं ब्रह्माधिगच्छति ।। २५ ।।
यमैः सन्नियमैः स्थित्या प्रत्याहृत्या मरुज्जयैः ।
प्राणायामेन पवनैः प्रत्याहारेण चेन्द्रियैः ।। २६ ।।
वशीकृतैस्ततः कुर्य्यात् स्थितं चेतः शुभाश्रये ।
आश्रयश्चेतसो ब्रह्म मूर्त्तञ्चामूर्तकं द्विधा ।। २७ ।।
हिरण्यगर्भादिषु च ज्ञानकर्मात्मिका द्विधा ।
त्रिविधा भावना प्रोक्ता विश्वं ब्रह्म उपास्यते ।। २८ ।।
हिरण्यगर्भादिषु च ज्ञानकर्मात्मिका द्विधा ।
त्रिविधा भावना प्रोक्ता विश्वं ब्रह्म उपास्यते ।। २९ ।।
प्रत्यस्तमितभेदं यत् सत्तामात्रमगोचरं ।
वचसामात्मसंवेद्यं तज्ज्ञानं ब्रह्म संज्ञितम् ।। ३० ।।
तच्च विष्णोः परं रुपमरुपस्याजमक्षरं ।
अशक्यं प्रथमं ध्यातुमतो मूर्त्तादि चितन्येत् ।। ३१ ।।
सद्भावभावमापन्नस्ततोऽसौ परमात्मना ।
भवत्यभेदी भेदश्च तस्याज्ञानकृतो भवेत् ।। ३२ ।।
इत्यादिमहापुराणे आग्नेये ब्रह्मज्ञानं नामोनाशीत्यधिकत्रिशततमोऽध्यायः ॥
अग्नि पुराण - तीन सौ उन्यासीवाँ अध्याय हिन्दी मे Agni Purana 379 Chapter In Hindi
तीन सौ उन्यासीवाँ अध्याय भगवत्स्वरूप का वर्णन तथा ब्रह्मभाव की प्राप्ति का उपाय
अग्निदेव कहते हैं- वसिष्ठजी! धर्मात्मा पुरुष यज्ञके द्वारा देवताओंको, तपस्या द्वारा विराट् के पदको, कर्मके संन्यास द्वारा ब्रह्मपद को, वैराग्यसे प्रकृतिमें लयको और ज्ञानसे कैवल्यपद (मोक्ष) को प्राप्त होता है-इस प्रकार ये पाँच गतियाँ मानी गयी हैं। प्रसन्नता, संताप और विषाद आदिसे निवृत्त होना 'वैराग्य' है। जो कर्म किये जा चुके हैं तथा जो अभी नहीं किये गये हैं, उन सब (की आसक्ति, फलेच्छा और संकल्प) का परित्याग 'संन्यास' कहलाता है। ऐसा हो जानेपर अव्यक्तसे लेकर विशेषपर्यन्त सभी पदार्थोंके प्रति अपने मनमें कोई विकार नहीं रह जाता। जड़ और चेतनकी भिन्नताका ज्ञान (विवेक) होनेसे ही 'परमार्थज्ञान' की प्राप्ति बतलायी जाती है। परमात्मा सबके आधार हैं; वे ही परमेश्वर हैं। वेदों और वेदान्तों (उपनिषदों) में 'विष्णु' नामसे उनका यशोगान किया जाता है। वे यज्ञोंके स्वामी हैं। प्रवृत्तिमार्गसे चलनेवाले लोग यज्ञपुरुषके रूपमें उनका यजन करते हैं तथा निवृत्तिमार्गक पथिक ज्ञानयोगके द्वारा उन ज्ञानस्वरूप परमात्माका साक्षात्कार करते हैं। ह्रस्व, दीर्घ और प्लुत आदि वचन उन पुरुषोत्तमके ही स्वरूप हैं॥ १-६ ॥
महामुने ! उनकी प्राप्तिके दो हेतु बताये गये हैं-'ज्ञान' और 'कर्म'। 'ज्ञान' दो प्रकारका है- 'आगमजन्य' और 'विवेकजन्य'। शब्दब्रह्म (वेदादि शास्त्र और प्रणव) का बोध 'आगमजन्य' है तथा परब्रह्मका ज्ञान 'विवेकजन्य' ज्ञान है। 'ब्रह्म' दो प्रकारसे जाननेयोग्य है- 'शब्दब्रह्म' और 'परब्रह्म'। वेदादि विद्याको 'शब्दब्रह्म' या 'अपरब्रह्म' कहते हैं और सत्स्वरूप अक्षरतत्त्व 'परब्रह्म' कहलाता है। यह परब्रह्म ही 'भगवत्' शब्दका मुख्य वाच्यार्थ है। पूजा (सम्मान) आदि अन्य अर्थोंमें जो उसका प्रयोग होता है, वह औपचारिक (गौण) है। महामुने। 'भगवत्' शब्दमें जो 'भकार' है, उसके दो अर्थ हैं- पोषण करनेवाला और सबका आधार तथा 'गकार' का अर्थ है- नेता (कर्मफलकी प्राप्ति करानेवाला), गमयिता (प्रेरक) और स्रष्टा (सृष्टि करनेवाला)। सम्पूर्ण ऐश्वर्य, पराक्रम (अथवा धर्म), यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य- इन छःका नाम 'भग' है। विष्णुमें सम्पूर्ण भूत निवास करते हैं। वे भगवान् सबके धारक तथा ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव इन तीन रूपोंमें विराजमान हैं। अतः श्रीहरिमें ही 'भगवान्' पद मुख्यवृत्तिसे विद्यमान है, अन्य किसीके लिये तो उसका उपचार (गौणवृत्ति) से ही प्रयोग होता है। जो सम्पूर्ण प्राणियोंके उत्पत्ति-विनाश, आवागमन तथा विद्या-अविद्याको जानता है, वही 'भगवान्' कहलानेयोग्य है। त्याग करनेयोग्य दुर्गुण आदिको छोड़कर सम्पूर्ण ज्ञान, शक्ति, परम ऐश्वर्य, वीर्य तथा समग्र तेज-ये 'भगवत्' शब्दके वाच्यार्थ हैं॥७-१४॥
पूर्वकालमें राजा केशिध्वजने खाण्डिक्य जनकसे इस प्रकार उपदेश दिया था" अनात्मामें जो आत्मबुद्धि होती है, अपने स्वरूपकी भावना होती है, वही अविद्याजनित संसारबन्धनका कारण है। इस अज्ञानकी 'अहंता' और 'ममता' दो रूपोंमें स्थिति है। देहाभिमानी जीव मोहान्धकारसे आच्छादित हो, कुत्सित बुद्धिके कारण इस पाञ्चभौतिक शरीरमें यह दृढ़ भावना कर लेता है कि 'मैं ही यह देह हूँ।' इसी प्रकार इस शरीरसे उत्पन्न किये हुए पुत्र-पौत्र आदिमें 'ये मेरे हैं' ऐसी निश्चित धारणा बना लेता है। विद्वान् पुरुष अनात्मभूत शरीरमें समभाव रखता है-उसके प्रति वह राग-द्वेषके वशीभूत नहीं होता। मनुष्य अपने शरीर की भलाई के लिये ही सारे कार्य करता है; किंतु जब पुरुषसे शरीर भिन्न है, तो वह सारा कर्म केवल बन्धनका ही कारण होता है। वास्तवमें तो आत्मा निर्वाणमय (शान्त), ज्ञानमय तथा निर्मल है। दुःखानुभवरूप जो धर्म है, वह प्रकृतिका है, आत्माका नहींः ' जैसे जल स्वयं तो अग्निसे असङ्ग है, किंतु आगपर रखी हुई बटलोईके संसर्गसे उसमें तापजनित खलखलाहट आदिके शब्द होते हैं। महामुने! इसी प्रकार आत्मा भी प्रकृतिके सङ्गसे अहंता-ममता आदि दोष स्वीकार करके प्राकृत धर्मोको ग्रहण करता है; वास्तवमें तो वह उनसे सर्वथा भिन्न और अविनाशी है। विषयोंमें आसक्त हुआ मन बन्धनका कारण होता है और वही जब विषयोंसे निवृत्त हो जाता है तो ज्ञान प्राप्तिमें सहायक होता है। अतः मनको विषयोंसे हटाकर ब्रह्मस्वरूप श्रीहरिका स्मरण करना चाहिये। मुने! जैसे चुम्बक पत्थर लोहेको अपनी ओर खींच लेता है,
उसी प्रकार जो ब्रह्मका ध्यान करता है, उसे वह ब्रह्म अपनी ही शक्तिसे अपने स्वरूपमें मिला लेता है। अपने प्रयत्नकी अपेक्षासे जो मनकी विशिष्ट गति होती है, उसका ब्रह्मसे संयोग होना ही 'योग' कहलाता है। जो पुरुष स्थिरभावसे समाधिमें स्थित होता है, वह परब्रह्मको प्राप्त होता है ॥ १५-२५॥ "अतः यम, नियम, प्रत्याहार, प्राणजय, प्राणायाम, इन्द्रियोंको विषयोंकी ओरसे हटाने तथा उन्हें अपने वशमें करने आदि उपायोंके द्वारा चित्तको किसी शुभ आश्रयमें स्थापित करे। 'ब्रह्म' ही चित्तका शुभ आश्रय है। वह 'मूर्त' और 'अमूर्त' रूपसे दो प्रकारका है। सनक-सनन्दन आदि मुनि ब्रह्मभावनासे युक्त हैं तथा देवताओंसे लेकर स्थावर जङ्गम-पर्यन्त सम्पूर्ण प्राणी कर्म- भावनासे युक्त हैं। हिरण्यगर्भ (ब्रह्मा) आदिमें ब्रह्मभावना और कर्मभावना दोनों ही हैं। इस तरह यह तीन प्रकारकी भावना बतायी गयी है। सम्पूर्ण विश्व ब्रह्म है' इस भावसे ब्रह्मकी उपासना की जाती है। जहाँ सब भेद शान्त हो जाते हैं, जो सत्तामात्र और वाणीका अगोचर है तथा जिसे स्वसंवेद्य (स्वयं ही अनुभव करनेयोग्य) माना गया है, वही 'ब्रह्मज्ञान' है। वही रूपहीन विष्णुका उत्कृष्ट स्वरूप है, जो अजन्मा और अविनाशी है। अमूर्तरूपका ध्यान पहले कठिन होता है अतः मूर्त आदिका ही चिन्तन करे, ऐसा करनेवाला मनुष्य भगवद्भावको प्राप्त हो परमात्माके साथ एकीभूत-अभिन्न हो जाता है। भेदकी प्रतीति तो अज्ञानसे ही होती है" ॥ २६-३२॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें 'ब्रह्मज्ञाननिरूपण' नामक तीन सौ उन्यासीवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३७९ ॥
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