अग्नि पुराण तीन सौ अठहत्तरवाँ अध्याय - Agni Purana 378 Chapter

अग्नि पुराण तीन सौ अठहत्तरवाँ अध्याय - Agni Purana 378 Chapter

अग्नि पुराण तीन सौ अठहत्तरवाँ अध्याय - ब्रह्मज्ञानम्

अग्निरुवाच

अहं ब्रह्म परं ज्योतिः पृथिव्यबनलोज्झितं ।
अहं ब्रह्म परं ज्योतिर्वात्वाकाशविवर्जितं ।। १ ।।

अहं ब्रह्म परं ज्योतिर्जाग्रत्‌स्थानविवर्जितम् ।
अहं ब्रह्म परं ज्योतिर्विराडात्मविवर्जितं ।। २ ।।

अहं ब्रह्म परं ज्योतिर्जाग्रत्स्थानविवर्जितम् ।
अहं ब्रह्म परं ज्योतिर्विश्वभावविवर्जितम् ।। ३ ।।

अहं ब्रह्म परं ज्योतिराकाराक्षरवर्जितम् ।
अहं ब्रह्म परं ज्योतिर्वाक्‌पाण्यङ्‌घ्रिविवर्जितम् ।। ४ ।।

अहं ब्रह्म परं ज्योतिः पायूपस्थविवर्जितम् ।
अहं ब्रह्म परं ज्योतिः श्रोत्रत्वक्‌चक्षुरुज्भ्क्तितम् ।। ५ ।।

अहं ब्रह्म परं ज्योतीरसरूपविवर्जितम् ।
अहं ब्रह्म परं ज्योतिः सर्वगन्धविवर्जितम् ।। ६ ।।

अहं ब्रह्म परं ज्योतिर्जिह्वाघ्राणविवर्जितम् ।
अहं ब्रह्म परं ज्योतिः स्पर्शशब्दविवर्जितम् ।। ७ ।।

अहं ब्रह्म परं ज्योतिर्म्मनोबुद्धिविवर्जितम् ।
अहं ब्रह्म परं ज्योतिश्रित्ताहङ्कारवर्जितम् ।। ८ ।।

अहं ब्रह्म परं ज्योतिः प्राणापानविवर्जितम् ।
अहं ब्रह्म परं ज्योतिर्व्यानोदानविवर्जितम् ।। ९ ।।

अहं ब्रह्म परं ज्योतिः समानपरिवर्जितम् ।
अहं ब्रह्म परं ज्योतिर्जरामरणवर्जितम् ।। १० ।।

अहं ब्रह्म परं ज्योतिः शोकमोहविवर्जितम् ।
अहं ब्रह्म परं ज्योतिः क्षुत्पिपासाविवर्जितम् ।। ११ ।।

अहं ब्रहम परं ज्योतिः शब्दोद्भूतादिवर्जितम् ।
अहं ब्रह्म परं ज्योतिर्हिरण्यगर्भवर्जितम् ।। १२ ।।

अहं ब्रह्म परं ज्योतिः स्वप्नावस्थाविवर्जितम् ।
अहं ब्रह्म परं ज्योतिस्तेजसादिविवर्जितम् ।। १३ ।।

अहं ब्रह्म परं ज्योतिरपकारादिवर्जितम् ।
अहं ब्रह्म परं ज्योतिः सभाज्ञानविवर्जितम् ।। १४ ।।

अहं ब्रह्म परं ज्योतिरध्याहृतविवर्जितम् ।
अहं ब्रह्म परं ज्योतिः सत्त्वादिगुणवर्जितम् ।। १५ ।।

अहं ब्रह्म परं ज्योतिः सदसद्भाववर्जितम् ।
अहं ब्रह्म परं ज्योतिः सर्वावयववर्जितं ।। १६ ।।

अहं ब्रह्म परं ज्योतिर्भेदाभेदविवर्जितं ।
अहं ब्रह्म परं ज्योतिः सुषुप्तिस्थानवर्जितम् ।। १७ ।।

अहं ब्रह्म परं ज्योतिः प्राज्ञभावविवर्जितम् ।
अहं ब्रह्म परं ज्योतिर्मकारादिविवर्जितम् ।। १८ ।।

अहं ब्रह्म परं ज्योतिर्मानमेयविवर्जितम् ।
अहं ब्रह्म परं ज्योतिर्मितिमातृविवर्जितम् ।। १९ ।।

अहं ब्रह्म परं ज्योतिः साक्षइत्वादिविवर्जितम् ।
अहं ब्रह्म परं ज्योतिः कार्य्यकारणवर्जितम् ।। २० ।।

देहेन्द्रियमनोबुद्दिप्राणाहङ्कारवर्जितं ।
जाग्रत् सप्नसुषुप्त्यादिमुक्तं ब्रह्म तुरीयकं ।। २१ ।।

नित्याशुद्दबुद्धमुक्तं सत्यमानन्दमद्वयम् ।
ब्रह्माहमस्म्यहं ब्रह्म सविज्ञानं विमुक्त ओं ।।
अहं ब्रह्म परं ज्योतिः समाधिर्मोक्षदः परः ।। २२ ।।

इत्यादिम्हापुराणे आग्नेये ब्रह्मज्ञानं नामाष्टसप्तत्यधिकत्रिशततमोऽध्यायः ॥

अग्नि पुराण - तीन सौ अठहत्तरवाँ अध्याय हिन्दी मे Agni Purana 378 Chapter In Hindi

तीन सौ अठहत्तरवाँ अध्याय निदिध्यासनरूप ज्ञान

अग्निदेव कहते हैं- ब्रहान् ! मैं पृथ्वी, जल और अग्निसे रहित स्वप्रकाशमय परब्रह्म हूँ। मैं वायु और आकाशसे विलक्षण ज्योतिर्मय परब्रह्म हूँ। मैं कारण और कार्यसे भिन्न ज्योतिर्मय परब्रह्म हूँ। मैं विराट्स्वरूप (स्थूल ब्रह्माण्ड) से पृथक् ज्योतिर्मय परब्रह्म हूँ। मैं जाग्रत्-अवस्थासे रहित ज्योतिर्मय परब्रह्म हूँ। मैं 'विश्व' रूपसे विलक्षण ज्योतिर्मय परब्रह्म हूँ। मैं आकार अक्षरसे रहित ज्योतिर्मय परब्रह्म हूँ। मैं वाक्, पाणि और चरणसे हीन ज्योतिर्मय परब्रह्म हूँ। मैं पायु (गुदा) और उपस्थ (लिङ्ग या योनि) से रहित ज्योतिर्मय परब्रह्म हूँ। मैं कान, त्वचा और नेत्रसे हीन ज्योतिर्मय परब्रह्म हूँ। मैं रस और रूपसे शून्य ज्योतिर्मय परब्रह्म हूँ। मैं सब प्रकारकी गन्धोंसे रहित ज्योतिर्मय परब्रह्म हूँ। मैं जिल्ह्वा और नासिकासे शून्य ज्योतिर्मय परब्रह्म हूँ। 

मैं स्पर्श और शब्दसे हीन ज्योतिर्मय परब्रह्म हूँ। मैं मन और बुद्धिसे रहित ज्योतिर्मय परब्रह्म हूँ। मैं चित्त और अहंकारसे वर्जित ज्योतिर्मय परब्रह्म हूँ। मैं प्राण और अपानसे पृथक् ज्योतिर्मय परब्रह्म हूँ। मैं व्यान और उदानसे विलग ज्योतिर्मय परब्रह्म हूँ। मैं समान नामक वायुसे भिन्न ज्योतिर्मय परब्रह्म हूँ। मैं जरा और मृत्युसे रहित ज्योतिर्मय परब्रह्म हूँ। मैं शोक और मोहकी पहुँचसे दूर ज्योतिर्मय परब्रह्म हूँ। मैं क्षुधा और पिपासासे शून्य ज्योतिर्मय परब्रह्म हूँ। मैं शब्दोत्पत्ति आदिसे वर्जित ज्योतिर्मय परब्रह्म हूँ। मैं हिरण्यगर्भसे विलक्षण ज्योतिर्मय परब्रह्म हूँ। मैं स्वप्नावस्थासे रहित ज्योतिर्मय परब्रह्म हूँ। में तैजस आदिसे पृथक् ज्योतिर्मय परब्रह्म हूँ। मैं अपकार आदिसे हीन ज्योतिर्मय परब्रह्म हूँ। मैं समाज्ञानसे शून्य ज्योतिर्मय परब्रह्म हूँ। मैं अध्याहारसे रहित ज्योतिर्मय परब्रह्म हूँ। 

मैं सत्त्वादि गुणोंसे विलक्षण ज्योतिर्मय परब्रह्म हूँ। मैं सदसद्भावसे रहित ज्योतिर्मय परब्रह्म हूँ। मैं सब अवयवोंसे रहित ज्योतिर्मय परब्रह्म हूँ। मैं भेदाभेदसे रहित ज्योतिर्मय परब्रह्म हूँ। मैं सुषुप्तावस्थासे शून्य ज्योतिर्मय परब्रह्म हूँ। मैं प्राज्ञ-भावसे रहित ज्योतिर्मय परब्रह्म हूँ। मैं मकारादिसे रहित ज्योतिर्मय परब्रह्म हूँ। मैं मान और मेयसे रहित ज्योतिर्मय परब्रह्म हूँ। मैं मिति (माप) और माता (माप करनेवाले) से भिन्न ज्योतिर्मय परब्रह्म हूँ। मैं साक्षित्व आदिसे रहित ज्योतिर्मय परब्रह्म हूँ। मैं कार्य कारणसे भिन्न ज्योतिर्मय परब्रह्म हूँ। मैं देह, इन्द्रिय, मन, बुद्धि, प्राण और अहंकाररहित तथा जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति आदिसे मुक्त तुरीय ब्रह्म हूँ। मैं नित्य, शुद्ध, बुद्ध, मुक्त, सत्य, आनन्द और अद्वैतरूप ब्रह्म हूँ। मैं विज्ञानयुक्त ब्रह्म हूँ। मैं सर्वथा मुक्त और प्रणवरूप हूँ। मैं ज्योतिर्मय परब्रह्म हूँ और मोक्ष देनेवाला समाधिरूप परमात्मा भी मैं ही हूँ ॥ १-२२॥ 

इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें 'ब्रह्मज्ञाननिरूपण' नामक तीन सौ अठहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३७८ ॥

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