अग्नि पुराण तीन सौ सतहत्तरवाँ अध्याय - Agni Purana 377 Chapter

अग्नि पुराण तीन सौ सतहत्तरवाँ अध्याय  - Agni Purana 377 Chapter

अग्नि पुराण तीन सौ सतहत्तरवाँ अध्याय - ब्रह्मज्ञानम्

अग्निरुवाच

ब्रह्मज्ञानं प्रवक्ष्यामि संसाराज्ञानमुक्तये ।
अयमात्मा परं ब्रह्म अहमस्मीति मुच्यते ।। १ ।।

देह आत्मा न भवति दृश्यत्वाच्च घटादिवत् ।
प्रसुप्ते मरणे देहादात्माऽन्यो ज्ञायते ध्रुवं ।। २ ।।

देहः स चेद्‌व्यवहरेदविकार्य्यादिसन्निभः ।
चक्षुरादीनीन्द्रियाणि नात्मा वै करणं त्वतः ।। ३ ।।

मनो धीरपि आत्मा न दीपवत् करणं त्वतः ।
प्राणोऽप्यात्मा न भवति सुषुप्ते चित्प्रभावतः ।। ४ ।।

जाग्रत्स्वप्ने च चैतन्यं सङ्कीर्णत्वान्न बुध्यते ।
विज्ञानरहितः प्राणः सुषुप्ते ज्ञायते यतः ।। ५ ।।

अतो नात्मेन्द्रियं तस्मादिन्द्रियादिकमात्मनः ।
अहङ्काराऽपि नैवात्मा देहवद्‌व्यभिचारतः ।। ६ ।।

उक्तेभ्यो व्यतिरिक्तोऽयमात्मा सर्वहृदि स्थितः ।
सर्वद्रष्टा च भोक्ता च नक्तमुज्ज्वलदीपवत् ।। ७ ।।

समाध्यारम्भकाले च एवं सञ्चिन्तयेन्मुनिः ।
यतो ब्रह्मण आकाशं खाद्वायुर्वायुतोऽनलः ।। ८ ।।

अग्नेरापो जलात्पृथ्वी ततः सूक्ष्मं शरीरकं ।
अपञ्चीकृतभूतेभ्य आसन् पञ्चीकृतान्यतः ।। ९ ।।

स्थूलं शरीरं ध्यात्वास्माल्ल्यं ब्रह्मणि चिन्तयेत् ।
पञ्चोकृतानि भूतानि तत्कार्य्यञ्च विराट्‌स्मृतम् ।। १० ।।

एतत् स्थूलं शरीरं हि आत्मनो ज्ञानकल्पितं ।
इन्द्रियैरथ विज्ञानं धीरा जागरितं विदुः ।। ११ ।।

विश्वस्तदबिमानी स्यात् त्रयमेनदकारकं ।
अपञ्चीकृतभूतानि तत्कार्थं लिङ्गमुच्यते ।। १२ ।।

संयुक्तं सप्तदशभिर्हिरण्यगर्भसंज्ञितं ।
शरीरमात्मनः सूक्ष्मं लिङ्गमित्यभिधीयते ।। १३ ।।

जाग्रत्संस्कारजः स्वप्नः प्रत्ययो विषयात्मकः ।
आत्मा तदुपमानी स्यात्तैजसो ह्यप्रपञ्चतः ।। १४ ।।

स्थूलसूक्षअमशरीराख्यद्वयस्यैकं हि कारणं ।
आत्मा ज्ञानञ्च साभासं तदध्याहृतमुच्यते ।। १५ ।।

न सन्नासन्न सदसदेतत्सावयवं न तत् ।
निर्गतावयवं नेति नाभिन्नं भिन्नमेव च ।। १६ ।।

भिन्नाभिन्नं ह्यनिर्वाच्यं बन्धसंसारकारकं ।
एकं स ब्रह्म विज्ञानात् प्राप्तं नैव च कर्म्मभिः ।। १७ ।।

सर्वात्मना हीन्द्रियाणां संहारः कारणात्मनां ।
बुद्धेः स्थानं सुषुप्तं स्यात्तद्‌द्वयस्याभिमानवान् ।। १८ ।।

प्राज्ञ आत्मा त्रयञ्चैतत् म्कारः प्रणवः स्मृतः ।
अकारश्च उकारोऽसौ मकारो ह्ययमेव च ।। १९ ।।

अहं साक्षी च चिन्मात्रो जाग्रत्स्वप्नादिकस्य च ।
नाज्ञानञ्चैव तत्कार्यं संसारादिकबन्धनं ।। २० ।।

नित्यशुद्धबन्धमुक्तसत्यमानन्दमद्वयं ।
ब्रह्माहमस्म्यहं ब्रह्म परं ज्योतिर्विमुक्त ओं ।। २१ ।।

अहं ब्रह्म परं ज्ञानं समाधिर्बन्धघातकः ।
चिरमानन्दकं ब्रह्मा सत्यं ज्ञानमनन्तकं ।। २२ ।।

अयमात्मा परम्ब्रह्म तद्‌ ब्रह्म त्वमसीति च ।
गुरुणा बोधितो जीवो ह्यहं ब्रह्मस्मि वाह्यतः ।। २३ ।।

सोऽसावादित्यपुरुषः सोऽसावहमखण्ड ओं ।
मुच्यतेऽसारसंसाराद् ब्रह्मज्ञो ब्रह्म तद्भवेत् ।। २४ ।।

इत्यादिमहापुराणे आग्नेये ब्ह्मज्ञानं नाम सप्तसप्तत्यधिकत्रिशततमोऽध्यायः ॥

अग्नि पुराण - तीन सौ सतहत्तरवाँ अध्याय हिन्दी मे Agni Purana 377 Chapter In Hindi

तीन सौ सतहत्तरवाँ अध्याय श्रवण एवं मननरूप ज्ञान

अग्निदेव कहते हैं- अब मैं संसाररूप अज्ञानजनित बन्धनसे छुटकारा पानेके लिये 'ब्रह्मज्ञान' का वर्णन करता हूँ। 'यह आत्मा परब्रह्म है और वह ब्रह्म में ही हूँ।' ऐसा निश्चय हो जानेपर मनुष्य मुक्त हो जाता है। घट आदि वस्तुओंकी भाँति यह देह दृश्य होनेके कारण आत्मा नहीं है; क्योंकि सो जानेपर अथवा मृत्यु हो जानेपर यह बात निश्चितरूपसे समझमें आ जाती है कि 'देहसे आत्मा भिन्न है'। यदि देह ही आत्मा होता तो सोने या मरनेके बाद भी पूर्ववत् व्यवहार करताः (आत्माके) 'अविकारी' आदि विशेषणोंके समान विशेषणसे युक्त निर्विकाररूपमें प्रतीत होता। नेत्र आदि इन्द्रियाँ भी आत्मा नहीं हैं; क्योंकि वे 'करण' हैं। यही हाल मन और बुद्धिका भी है। वे भी दीपककी भाँति प्रकाशके 'करण' हैं, अतः आत्मा नहीं हो सकते। 'प्राण' भी आत्मा नहीं है; क्योंकि सुषुप्तावस्थामें उसपर जडताका प्रभाव रहता है। जाग्रत् और स्वप्नावस्थामें प्राणके साथ चैतन्य मिला-सा रहता है, इसलिये उसका पृथक् बोध नहीं होता; परंतु सुषुप्तावस्थामें प्राण विज्ञानरहित है- यह बात स्पष्टरूपसे जानी जाती है। अतएव आत्मा इन्द्रिय आदि रूप नहीं है। इन्द्रिय आदि आत्माके करणमात्र हैं। अहंकार भी आत्मा नहीं है; क्योंकि देहकी भाँति वह भी आत्मासे पृथक् उपलब्ध होता है। पूर्वोक्त देह आदिसे भिन्न यह आत्मा सबके हृदयमें अन्तर्यामीरूपसे स्थित है। यह रातमें जलते हुए दीपककी भाँति सबका द्रष्टा और भोक्ता है॥ १-७ ॥ 

समाधिके आरम्भकालमें मुनिको इस प्रकार चिन्तन करना 'ब्रहासे चाहिये- आकाश, आकाशसे वायु, वायुसे अग्नि, अग्रिसे जल, जलसे पृथ्वी तथा पृथ्वीसे सूक्ष्म शरीर प्रकट हुआ है।' अपञ्चीकृत भूतोंसे पञ्चीकृत भूतोंकी उत्पत्ति हुई है। फिर स्थूल शरीरका ध्यान करके ब्रह्ममें उसके लय होनेकी भावना करे। पञ्चीकृत भूत तथा उनके कार्योंको 'विराट्' कहते हैं। आत्माका वह स्थूल शरीर अज्ञानसे कल्पित है। इन्द्रियोंके द्वारा जो ज्ञान होता है, उसे धीर पुरुष 'जाग्रत् अवस्था' मानते हैं। जाग्रत्‌के अभिमानी आत्माका नाम 'विश्व' है। ये (इन्द्रिय-विज्ञान, जाग्रत् अवस्था और उसके अभिमानी देवता) तीनों प्रणवकी प्रथम मात्रा 'अकारस्वरूप' हैं। अपञ्चीकृत भूत और उनके कार्यको 'लिङ्ग' कहा गया है। सत्रह तत्त्वों (दस इन्द्रिय, पञ्चतन्मात्रा तथा मन और बुद्धि) से युक्त जो आत्माका सूक्ष्म शरीर है, जिसे 'हिरण्यगर्भ' नाम दिया गया है, उसीको 'लिङ्ग' कहते हैं। जाग्रत् अवस्थाके संस्कारसे उत्पन्न विषयोंकी प्रतीतिको 'स्वप्न' कहा गया है। उसका अभिमानी आत्मा 'तैजस' नामसे प्रसिद्ध है। वह जाग्रत्‌के प्रपञ्चसे पृथक् तथा प्रणवकी दूसरी मात्रा 'उकाररूप' है। स्थूल और सूक्ष्म दोनों शरीरोंका एक ही कारण है- 'आत्मा'। आभासयुक्त ज्ञानको 'अध्याहृत ज्ञान' कहते हैं। इन अवस्थाओंका साक्षी 'ब्रह्म' न सत् है, न असत् और न सदसत्रूप ही है। वह न तो अवयवयुक्त है और न अवयवसे रहित; न भिन्न है न अभिन्नः भिन्नाभिन्नरूप भी नहीं है। वह सर्वथा अनिर्वचनीय है। इस बन्धनभूत संसारकी सृष्टि करनेवाला भी वही है। ब्रह्म एक है और केवल ज्ञानसे प्राप्त होता है; कर्मोंद्वारा उसकी उपलब्धि नहीं हो सकती ॥ ८-१७॥  

जब बाह्यज्ञान के साधनभूत इन्द्रियों का सर्वथा लय हो जाता है, केवल बुद्धिकी ही स्थिति रहती है, उस अवस्था को 'सुषुति' कहते हैं। 'बुद्धि' और 'सुषुप्ति' दोनों के अभिमानी आत्मा का नाम 'प्राज्ञ' है। ये तीनों 'मकार' एवं प्रणव रूप माने गये हैं। यह प्राज्ञ ही अकार, उकार और मकार स्वरूप है। 'अहम्' पदका लक्ष्यार्थभूत चित्स्वरूप आत्मा इन जाग्रत् और स्वप्न आदि अवस्थाओं का साक्षी है। उसमें अज्ञान और उसके कार्यभूत संसारादिक बन्धन नहीं हैं। मैं नित्य, शुद्ध, बुद्ध, मुक्त, सत्य, आनन्द एवं अद्वैतस्वरूप ब्रह्म हूँ। मैं ज्योतिर्मय परब्रह्म हूँ। सर्वथा मुक्त प्रणव (ॐ) वाच्य परमेश्वर हूँ। मैं ही ज्ञान एवं समाधिरूप ब्रह्म हूँ। बन्धनका नाश करनेवाला भी मैं ही हूँ। चिरन्तन, आनन्दमय, सत्य, ज्ञान और अनन्त आदि नामोंसे लक्षित परब्रह्म में ही हूँ। 'यह आत्मा परब्रह्म है, वह ब्रह्म तुम हो'- इस प्रकार गुरुद्वारा बोध कराये जानेपर जीव यह अनुभव करता है कि मैं इस देहसे विलक्षण परब्रह्म हूँ। वह जो सूर्यमण्डलमें प्रकाशमय पुरुष है, वह मैं ही हूँ। मैं ही ॐकार तथा अखण्ड परमेश्वर हूँ। इस प्रकार ब्रह्मको जाननेवाला पुरुष इस असार संसारसे मुक्त होकर ब्रह्मरूप हो जाता है ॥ १८-२४॥

इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें 'ब्रहाज्ञानविरूपण' नामक तीन सी सतहसरवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३७७॥

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