अग्नि पुराण तीन सौ छिहत्तरवाँ अध्याय - Agni Purana 376 Chapter
अग्नि पुराण तीन सौ छिहत्तरवाँ अध्याय - समाधिः
अग्निरुवाच
यदात्ममात्रं निर्भासं स्तिमितोदधिवत् स्थितं ।
चैतन्यरूपवद्ध्यानं तत् समाधिरिहोच्यते ।। १ ।।
ध्यायन्मनः सन्निवेश्य यस्तिष्ठेदचलस्थिरः ।
निर्वातानलवद्योगी समाधिस्थः प्रकीर्त्तितः ।। २ ।।
न श्रृणोति न चाघ्राति न पश्यति न वम्यति ।
न च सपर्शं विजानाति न सङ्कल्पयते मनः ।। ३ ।।
न चाभिमन्यते किञ्चिन्न च बुध्यति काष्ठवत् ।
एवमीश्वरसंलीनः समाधिस्थः स गीयते ।। ४ ।।
यथा दीपो निवातस्थो नेङ्गते सोपमा स्मृता ।
ध्यायतो विष्णुमात्मानं समाधिस्तस्य योगिनः ।। ५ ।।
उपसर्गाः प्रवर्त्तन्ते दिव्याः सिद्धिप्रसूचकाः ।
पातितः श्रावणो धातुर्दशनस्बाङ्गवेदनाः ।। ६ ।।
प्रार्थयन्ति च तं देवा भोगैर्दिव्यैश्च योगिनं ।
नृपाश्च पृथिवीदानैर्धनैस्च सुधनाधिपाः ।। ७ ।।
वेदादिसर्व्वशास्त्रञ्च स्वयमेव प्रवर्तते ।
अभीष्टछन्दोविषयं काव्यञ्चास्य प्रवर्त्तते ।। ८ ।।
रसायनानि दिव्यानि दिव्याश्चौषधयस्तथा ।
समस्तानि च शिल्पानि कलाः सर्वाश्च विन्दति ।। ९ ।।
सुरेन्द्रकन्या इत्याद्या गुणाश्च प्रतिभादयः ।
तृणवत्तान्त्यजेद् यस्तु तस्य विष्णुः प्रसीदति ।। १० ।।
अणिमादिगुणैश्वर्य्यः शिष्ये ज्ञानं प्रकाश्य च ।
भुक्त्वा भोगान् यथेच्छातस्तनून्त्यक्त्वालयात्ततः ।। ११ ।।
तिष्ठेत् स्वात्मनि विज्ञान आनन्दे ब्रह्मणीश्वरे ।
मलिनो हि यथादर्श आत्मज्ञानाय न क्षमः ।। १२ ।।
सर्वाश्रयान्निजे देहे देही विन्दति वेदनां ।
योगयुक्तस्तु सर्व्वेषां योगान्नाप्नोति वेदनां ।। १३ ।।
आकाशमेकं हि यथा घटादिषु पृथग् भवेत् ।
तथात्मैको ह्यनेकेषु जलाधारेष्विवांशुमान् ।। १४ ।।
ब्रह्मखानिलतेजांसि जलभूक्षितिधातवः ।
इमे लोका एष चात्मा तस्माच्च सचराचरं ।। १५ ।।
मृद्दण्ड चक्रसंयोगात् कुम्भकारो यथा घटं ।
करोति तृणमृत्काष्ठैर्गृहं वा गृहकारकः ।। १६ ।।
करणान्येवमादाय तासु तास्विह योनिषु ।
सृजत्यात्मानमात्मैव सम्भूय करणानि च ।। १७ ।
कर्मणादोषमोहाभ्यामिच्छयैव स बध्यते ।
ज्ञानाद्विमुच्यते जीवो धर्माद् योगी न रोगभाक् ।। १८ ।।
वर्त्याधारस्नेहयोगाद् यथा दीपस्य संस्थितिः ।
विक्रियापि च दृष्टैवमकाले प्राणसंक्षयः ।। १९ ।।
अनन्ता रश्मयस्तस्य दीपवद् यः स्थितो हृदि ।
सितासिताः कद्रुनीलाः कपिलाः पीतलोहिताः ।। २० ।।
ऊद्र्ध्वमेकः स्थितस्तेषां यो भित्त्वा सूर्य्यमण्डलं ।
ब्रह्मलोकमतिक्रम्य तेन याति पराङ्गतिं ।। २१ ।।
यदस्यान्यद्रश्मिशतमूद्र्ध्वमेव व्यवस्थितम् ।
तेन देवनिकायानि धामानि प्रतिपद्यते ।। २२ ।।
ये नैकरूपाश्चाधस्ताद्रश्मयोऽस्य मृदुप्रभाः ।
इह कर्मोपभोगाय तैश्च सञ्चरते हि सः ।। २३ ।।
बुद्धीन्द्रियाणि सर्वाणि मनः कर्मेन्द्रियाणि च ।
अहङ्कारश्च बुद्धिश्च पृथिव्यादीनि चैव हि ।। २४ ।।
अव्यक्त आत्मा ज्ञेत्रज्ञः क्षेत्रस्यास्य निगद्यते ।
ईश्वरः सर्वभूतस्य सन्नसन् सदसच्च सः ।। २५ ।।
बुद्धेरुत्पत्तिरव्यक्ता ततोऽहङ्कारसम्भवः ।
तस्मात् खादीनि जायन्ते एकोत्तरगुणानि तु ।। २६ ।।
शब्दः स्पर्शश्च रुपञ्च रसों गन्धश्च तद्गुणाः ।
यो यस्मिन्नाश्रितश्चैषां स तस्मिन्नेव लीयते ।। २७ ।।
सत्त्वं रजस्तमश्चैव गुणास्तस्यैव कीत्तिताः ।
रजस्तमोब्यामाविष्टश्चक्रवद्भ्राम्यते हि सः ।। २८ ।।
अनादिरादिमान् यश्च स एव पुरुषः परः ।
लिङ्गेन्द्रियैरुपग्राह्यः स विकार उदाहृतः ।। २९ ।।
यतो वेदाः पुराणानि विद्योपनिषदस्तथा ।
श्लोकाः सूत्राणि भाष्याणि यच्चान्यद्वाङ्मयं भवेत् ।। ३० ।।
पितृयानोपवीथ्याश्च यदगस्त्यस्य चान्तरं ।
तेनाग्निहोत्रिणो यान्ति प्र्जाकामा दिवं प्रति ।। ३१ ।।
ये च दानपराः सम्यगष्टाभिश्च गुणैर्युताः ।
अष्टाशीतिसहस्राणि मुनयो गृहमेधिनः ।। ३२ ।।
पुनरावर्त्तने वीजभूता धर्म्मप्रवर्त्तकाः ।
सप्तर्षिनागवीथ्याश्च देवलोकं समाश्रिताः ।। ३३ ।।
तावन्त एव मुनयः सर्वारम्भविवर्ज्जिताः ।
तपसा ब्रह्मचर्येण सङ्गत्यागेन मेधया ।। ३४ ।।
यत्र यत्रावतिष्ठनेते यावदाहूतसंप्लवं ।
वेदानुवचनं यज्ञा ब्रह्मचर्य्यं तपो दमः ।। ३५ ।।
श्रद्धोपवासः सत्यत्वमात्मनो ज्ञानहेतवः ।
स त्वाश्रमैर्न्निदिध्यास्यः समस्तैरेवमेव तु ।। ३६ ।।
द्रष्टव्य्स्त्वथ मन्तव्यः श्रोतव्यश्च द्विजातिभिः ।
य एवमेनं विन्दन्ति ये चारण्यकमाश्रिताः ।। ३७ ।।
उपासते द्विजाः सत्यं श्रद्धया परया युताः ।
क्रमात्ते सम्भवन्त्यर्च्चिंरहः शुक्लं तथोत्तरं ।। ३८ ।।
अयनन्देवलोकञ्च सवितारं सविद्युतं ।
ततस्तान् पुरुषोऽभ्येत्य मानसो ब्रह्मलोकिकान् ।। ३९ ।।
करोति पुनारावृत्तिस्तेषामिह न विद्यते ।
यज्ञेन तपसा दानैर्ये हि स्वर्गजितो जनाः ।। ४० ।।
धूमं निशां कृष्णपक्षं दक्षिणायनमेव च ।
पितृलोकं चन्द्रमसं नभो वायुं जलं महीं ।। ४१ ।।
क्रमात्ते सम्भवन्तीह पुनरेव व्रजन्ति च ।
एतद्यो न विजानाति मार्गद्वितयमात्मनः ।। ४२ ।।
दन्दशूकः पतङ्गो वा बवेत्कीटोऽथवा कृमिः ।
हृदये दीपवद्ब्रह्म ध्यानाज्जीवो मृतो भवेत् ।। ४३ ।।
न्यायागतधनस्तत्त्वज्ञाननिष्ठोऽतिथिप्रियः ।
श्राद्धकृत्सत्यवादी च गृहस्थोऽपि विमुच्यते ।। ४४ ।।
इत्यादिमहापुराणे आग्नेये समाधिर्नाम षट्सप्तत्यधिकत्रिशततमोऽध्यायः ॥
अग्नि पुराण - तीन सौ छिहत्तरवाँ अध्याय हिन्दी मे Agni Purana 376 Chapter In Hindi
तीन सौ छिहत्तरवाँ अध्याय समाधि
अग्निदेव कहते हैं- जो चैतन्यस्वरूपसे युक्त और प्रशान्त समुद्र की भाँति स्थिर हो, जिसमें आत्मा के सिवा अन्य किसी वस्तुको प्रतीति न होती हो, उस ध्यान को 'समाधि' कहते हैं। जो ध्यान के समय अपने चित्त को ध्येय में लगाकर वायुहीन प्रदेशमें जलती हुई अग्निशिखाकी भाँति अविचल एवं स्थिरभावसे बैठा रहता है, वह योगी 'समाधिस्थ' कहा गया है। जो न सुनता है, न सूंघता है, न देखता है, न रसास्वादन करता है, न स्पर्शका अनुभव करता है, न मनमें संकल्प उठने देता है, न अभिमान करता है और न बुद्धिसे दूसरी किसी वस्तुको जानता ही है, केवल काष्ठकी भाँति अविचलभावसे ध्यानमें स्थित रहता है, ऐसे ईश्वरचिन्तनपरायण पुरुषको 'समाधिस्थ' कहते हैं। जैसे वायुरहित स्थानमें रखा हुआ दीपक कम्पित नहीं होता, यही उस समाधिस्थ योगीके लिये उपमा मानी गयी है। जो अपने आत्मस्वरूप श्रीविष्णुके ध्यानमें संलग्न रहता है, उसके सामने अनेक दिव्य विघ्न उपस्थित होते हैं। वे सिद्धिकी सूचना देनेवाले हैं। साधक ऊपरसे नीचे गिराया जाता है, उसके कानमें पीड़ा होती है, अनेक प्रकारके धातुओं के दर्शन होते हैं तथा उसे अपने शरीरमें बड़ी वेदनाका अनुभव होता है। देवतालोग उस योगीके पास आकर उससे दिव्य भोग स्वीकार करनेकी प्रार्थना करते हैं, राजा पृथ्वीका राज्य देनेकी बात कहते और बड़े-बड़े धनाध्यक्ष धनका लोभ दिखाते हैं। वेद आदि सम्पूर्ण शास्त्र स्वयं ही (बिना पढ़े) उसकी बुद्धिमें स्फुरित हो जाते हैं। उसके द्वारा मनोनुकूल छन्द और सुन्दर विषयसे युक्त उत्तम काव्यकी रचना होने लगती है। दिव्य रसायन, दिव्य ओषधियाँ तथा सम्पूर्ण शिल्प और कलाएँ उसे प्राप्त हो जाती हैं। इतना ही नहीं, देवेश्वरोंकी कन्याएँ और प्रतिभा आदि सद्गुण भी उसके पास बिना बुलाये जाते हैं; किंतु जो इन सबको तिनकेके समान निस्सार मानकर त्याग देता है, उसीपर भगवान् विष्णु प्रसन्न होते हैं॥ १-१०॥
अणिमा आदि गुणमयी विभूतियोंसे युक्त योगी पुरुषको उचित है कि वह शिष्यको ज्ञान दे। इच्छानुसार भोगोंका उपभोग करके लययोगकी रौतिसे शरीरका परित्याग करे और विज्ञानानन्दमय ब्रह्म एवं ईश्वररूप अपने आत्मामें स्थित हो जाय। जैसे मलिन दर्पण शरीरका प्रतिबिम्ब ग्रहण करनेमें असमर्थ होनेके कारण शरीरका ज्ञान करानेकी क्षमता नहीं रखता, उसी प्रकार जिसका अन्तःकरण परिपक्व (वासनाशून्य) नहीं है, वह आत्मज्ञान प्राप्त करनेमें असमर्थ है। देह सब प्रकारके रोगों और दुःखोंका आश्रय है; इसलिये देहाभिमानी जीव अपने शरीरमें वेदनाका अनुभव करता है। परंतु जो पुरुष योगयुक्त है, उसे योगके ही प्रभावसे किसी भी क्लेशका अनुभव नहीं होता। जैसे एक ही आकाश घट आदि भिन्न-भिन्न उपाधियोंमें पृथक् पृथक् सा प्रतीत होता है और एक ही सूर्य अनेक जलपात्रोंमें अनेक-सा जान पड़ता है, उसी प्रकार आत्मा एक होता हुआ भी अनेक शरीरोंमें स्थित होनेके कारण अनेकवत् प्रतीत होता है। आकाश, वायु, तेज, जल और पृथ्वी ये पाँचों भूत ब्रह्मके ही स्वरूप हैं। ये सम्पूर्ण लोक आत्मा ही है; आत्मासे ही चराचर जगत्की अभिव्यक्ति होती है। जैसे कुम्हार मिट्टी, डंडा और चाकके संयोगसे घड़ा बनाता है, अथवा जिस प्रकार घर बनानेवाला मनुष्य तृण, मिट्टी और काठसे घर तैयार करता है, उसी प्रकार जीवात्मा इन्द्रियोंको साथ ले, कार्य करण-संघातको एकचित्त करके भिन्न-भिन्न योनियोंमें अपनेको उत्पन्न करता है। कर्मसे, दोष और मोहसे तथा स्वेच्छासे ही जीव बन्धनमें पड़ता है और ज्ञानसे ही उसकी मुक्ति होती है। योगी पुरुष धर्मानुष्ठान करनेसे कभी रोगका भागी नहीं होता। जैसे बत्ती, तैलपात्र और तैल-इन तीनोंके संयोगसे ही दीपककी स्थिति है- इनमेंसे एकके अभावमें भी दीपक रह नहीं सकता, उसी प्रकार योग और धर्मके बिना विकार (रोग) की प्राप्ति देखी जाती है और इस प्रकार अकालमें ही प्राणोंका क्षय हो जाता है॥ ११-१९ ॥
हमारे हृदयके भीतर जो दीपककी भाँति प्रकाशमान आत्मा है, उसकी अनन्त किरणें फैली हुई हैं, जो श्वेत, कृष्ण, पिङ्गल, नील, कपिल, पीत और रक्त वर्णकी हैं। उनमेंसे एक किरण ऐसी है, जो सूर्यमण्डलको भेदकर सीधे ऊपरको चली गयी है और ब्रह्मलोकको भी लाँघ गयी है; उसीके मार्गसे योगी पुरुष परमगतिको प्राप्त होता है। उसके सिवा और भी सैकड़ों किरणें ऊपरकी ओर स्थित हैं। उनके द्वारा मनुष्य भिन्न-भिन्न देवताओंके निवासभूत लोकोंमें जाता है। जो एक ही रंगकी बहुत-सी किरणें नीचेकी और स्थित हैं, उनकी कान्ति बड़ी कोमल है। उन्हींके द्वारा जीव इस लोकमें कर्मभोगके लिये आता है। समस्त ज्ञानेन्द्रियाँ, मन, कर्मेन्द्रियाँ, अहंकार, बुद्धि, पृथिवी आदि पाँच भूत तथा अव्यक्त प्रकृति-ये 'क्षेत्र' कहलाते हैं और आत्मा ही इस क्षेत्रका ज्ञान रखनेवाला 'क्षेत्रज्ञ' कहलाता है। वही सम्पूर्ण भूतोंका ईश्वर है। सत्, असत् तथा सदसत्- सब उसीके स्वरूप हैं। व्यक्त प्रकृतिसे समष्टि बुद्धि (महत्तत्त्व) की उत्पत्ति होती है, उससे अहंकार उत्पन्न होता है, अहंकारसे आकाश आदि पाँच भूत उत्पन्न होते हैं, जो उत्तरोत्तर एकाधिक गुणोंवाले हैं। शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध ये क्रमशः उन पाँचों भूतोंके गुण हैं। इनमेंसे जो भूत जिसके आश्रयमें है, वह उसीमें लीन होता है। सत्त्व, रज और तम ये अव्यक्त प्रकृतिके ही गुण हैं। जीव रजोगुण और तमोगुणसे आविष्ट हो चक्रकी भाँति घूमता रहता है।
जो सबका 'आदि' होता हुआ स्वयं 'अनादि' है, वही परमपुरुष परमात्मा है। मन और इन्द्रियोंसे जिसका ग्रहण होता है, वह 'विकार' (विकृत होनेवाला प्राकृत तत्त्व कहलाता है। जिससे वेद, पुराण, विद्या, उपनिषद्, श्लोक, सूत्र, भाष्य तथा अन्य वाङ्मयकी अभिव्यक्ति हुई है, वही 'परमात्मा' है। पितृयानमार्गको उपवीथीसे लेकर अगस्त्य ताराके बीचका जो मार्ग है, उससे संतानकी कामनावाले अग्निहोत्री लोग स्वर्गमें जाते हैं। जो भलीभाँति दानमें तत्पर तथा आठ गुणोंसे युक्त होते हैं, वे भी उसी भाँति यात्रा करते हैं। अठासी हजार गृहस्थ मुनि हैं, जो सब धर्मोंके प्रवर्तक हैं; वे ही पुनरावृत्तिके बीज (कारण) माने गये हैं। वे सप्तर्षियों तथा नागवीधीके बीचके मार्गसे देवलोकमें गये हैं। उतने ही (अर्थात् अठासी हजार) मुनि और भी हैं, जो सब प्रकारके आरामोंसे रहित हैं। वे तपस्या, ब्रह्मचर्य, आसक्ति, त्याग तथा मेधाशक्तिके प्रभावसे कल्पपर्यन्त भिन्न-भिन्न दिव्यलोकोंमें निवास करते हैं॥ २०-३५॥
वेदोंका निरन्तर स्वाध्याय, निष्काम यज्ञ, ब्रह्मचर्य, तप, इन्द्रिय-संयम, श्रद्धा, उपवास तथा सत्य-भाषण- ये आत्मज्ञानके हेतु हैं। समस्त द्विजातियोंको उचित है कि वे सत्त्वगुणका आश्रय लेकर आत्मतत्त्वका श्रवण, मनन, निदिध्यासन एवं साक्षात्कार करें। जो इसे इस प्रकार जानते हैं, जो वानप्रस्थ आश्रमका आश्रय ले चुके हैं और परम श्रद्धासे युक्त हो सत्यकी उपासना करते हैं, वे क्रमशः अग्नि, दिन, शुक्लपक्ष, उत्तरायण, देवलोक, सूर्यमण्डल तथा विद्युत्के अभिमानी देवताओंके लोकोंमें जाते हैं। तदनन्तर मानस पुरुष वहाँ आकर उन्हें साथ ले जा, ब्रह्रालोकका निवासी बना देता है; उनकी इस लोकमें पुनरावृत्ति नहीं होती। जो लोग यज्ञ, तप और दानसे स्वर्गलोकपर अधिकार प्राप्त करते हैं, वे क्रमशः धूम, रात्रि, कृष्णपक्ष, दक्षिणायन, पितृलोक तथा चन्द्रमाके अभिमानी देवताओंके लोकोंमें जाते हैं और फिर आकाश, वायु एवं जलके मार्गसे होते हुए इस पृथ्वीपर लौट आते हैं। इस प्रकार वे इस लोकमें जन्म लेते और मृत्युके बाद पुनः उसी मार्गसे यात्रा करते हैं। जो जीवात्माके इन दोनों मागौँको नहीं जानता, वह साँप, पतंग अथवा कीड़ा- मकोड़ा होता है। हृदयाकाशमें दीपककी भाँति प्रकाशमान ब्रह्मका ध्यान करनेसे जीव अमृतस्वरूप हो जाता है। जो न्यायसे धनका उपार्जन करनेवाला, तत्त्वज्ञानमें स्थित, अतिथि-प्रेमी, श्राद्धकर्ता तथा सत्यवादी है, वह गृहस्थ भी मुक्त हो जाता है ॥ ३६-४४॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें 'समाधिनिरूपण' नामक तीन सौ छिहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३७६॥
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