अग्नि पुराण तीन सौ पचहत्तरवाँ अध्याय - Agni Purana 375 Chapter

अग्नि पुराण तीन सौ पचहत्तरवाँ अध्याय  - Agni Purana 375 Chapter

अग्नि पुराण तीन सौ पचहत्तरवाँ अध्याय - धारणा

अग्निरुवाच

वारणा मनसो ध्येये संस्थितिर्ध्यानवद् द्विधा ।
मूर्त्तामूर्तहरिध्यानमनोधारणतो हरिः ।। १ ।।

यद्वाह्यावस्थितं लक्षअयं तस्मान्न चलते मनः ।
तावत् कालं प्रदेशेषु धारणा मनसि स्थितिः ।। २ ।।

कालावधि परिच्छिन्नं देहे संस्थापितं मनः ।
न प्रच्यवति यल्लक्ष्याद्धारणा साऽभिधीयते ।। ३ ।।

धारणा द्वादशायामा ध्यानं द्वादशधारणाः ।
ध्यानं द्वादशकं यावत्समाधिरभिधीयते ।। ४ ।।

धारणाभ्यासयुक्तात्मा यदि प्राणैर्विमुच्यते ।
कुलैकविंशमुत्तार्य्य स्वर्य्याति परमं पदं ।। ५ ।।

यस्मिन् यस्मिन् भवेदङ्गे योगिनां व्याधिसम्भवः ।
तत्तदङ्गं धिया व्याप्य दारयेत्तत्त्वधारणं ।। ६ ।।

आग्नेयी वारुणी चैव ऐशानी चामृतात्मिका ।
साग्निः शिखा फडन्ता च विष्णोः कार्य्या द्विजोत्तम ।। ७ ।।

नाड़ीभिर्विकटं दिव्यं शूलाग्रं वेधयेच्छुभम् ।
पादाङ्गुष्ठात् कपालान्तं रश्मिमण्डलमावृतं ।। ८ ।।

तिर्य्यक्‌चाधोद्‌र्ध्वभागेभ्यः प्रयान्त्योऽतीव तेजसा ।
चिन्तयेत् साध्केन्द्रस्तं यावत्सर्वं महामुने ।। ९ ।।

भस्मीभूतं शरीरं स्वन्ततश्चैवोपसंहरेत् ।
शीतश्लेष्मादयः पापं विनश्यन्ति द्विजातयः ।। १० ।।

शिरो धीरञ्च कारञ्च कण्ठं चाधोमुखे स्मरेत् ।
ध्यायेदच्छिन्नचित्तात्मा भूयो भूतेन चात्मना ।। ११ ।।

स्फुरच्छीकरसंस्पर्शप्रभूते हिमगामिभिः ।
धाराभिरखिलं विश्वमापूर्य्य भुवि चिन्तयेत् ।। १२ ।।

ब्रह्मरन्ध्राच्च संक्षोभाद्यावदाधारमण्डलम् ।
सुषुम्नान्तर्गतो बूत्वा संपूर्णेन्दुकृतालयं ।। १३ ।।

संप्लाव्य हिमसंस्पर्श तोयेनामृतमूर्त्तिना ।
क्षुत् पिपासाक्रमप्रायसन्तापपरिपीड़ितः ।। १४ ।।

धारयेद्वारुणीं मन्त्री तुष्ट्यर्थं चाप्यतन्त्रितः ।
वारुणी धारणा प्रोक्ता ऐशानीधारणां श्रृषु ।। १५ ।।

व्योग्नि ब्रह्ममये पद्मे प्राणापणे क्षयङ्गते ।
प्रसादं चिन्तयेद् विष्णोर्यावच्चिन्ता क्षयं गता ।। १६ ।।

महाभावञ्चपेत् सर्व्वं ततो व्यापक ईश्वरः ।
अर्द्धेन्दुं परमं शान्तं निराभासन्निरञ्जनं ।। १७ ।।

असत्यं सत्यमाभाति तावत्सर्वं चराचरं ।
यावत् स्वस्यन्दरूपन्तु न दृष्टं गुरुवक्त्रतः ।। १८ ।।

दृष्टे तस्मिन् परे तत्त्वे आब्रह्म सचराचरं ।
प्रमातृमानमेयञ्च ध्यानहृत्पद्मकल्पनं ।। १९ ।।

मातृमोदकवत्सर्वं जपहोमार्चनादिकं ।
विष्णुमन्त्रेण वा कुर्य्यादमृतां धारणां वदे ।। २० ।।

संपूर्णेन्दुनिभं ध्यायेत् कमलं तन्त्रिमुष्टिगं ।
शिरःस्थं चिन्तयेत् यत्नाच्छशाङ्गायुतवर्चसं ।। २१ ।।

सम्पूर्णमण्डलं व्योम्नि शिवकल्लोलपूर्णितं ।
तथा हृत्‌कमले ध्यायेत्तन्मध्ये स्वतनुं स्मरेत् ।।

साधको विगतक्लेशो जायते दारणादिभिः ।। २२ ।।

इत्यादिमहापुराणे आग्नेये धारणा नाम पञ्चसप्तत्यधिकत्रिशततमोऽध्यायः ॥

अग्नि पुराण - तीन सौ पचहत्तरवाँ अध्याय हिन्दी मे Agni Purana 375 Chapter In Hindi

तीन सौ पचहत्तरवाँ अध्याय धारणा

अग्निदेव कहते हैं-मुने ! ध्येय वस्तुमें जो मनकी स्थिति होती है, उसे 'धारणा' कहते हैं। ध्यान की ही भाँति उसके भी दो भेद हैं- 'साकार' और 'निराकार'। भगवान्‌के ध्यानमें जो मनको लगाया जाता है, उसे क्रमशः 'मूर्त और 'अमूर्त' धारणा कहते हैं। इस धारणासे भगवान्‌की प्राप्ति होती है। जो बाहरका लक्ष्य है, उससे मन जबतक विचलित नहीं होता, तबतक किसी भी प्रदेशमें मनकी स्थितिको 'धारणा' कहते हैं। देहके भीतर नियत समयतक जो मनको रोक रखा जाता है और वह अपने लक्ष्यसे विचलित नहीं होता, यही अवस्था 'धारणा' कहलाती है। बारह आयामकी 'धारणा' होती है, बारह 'धारणा' का 'ध्यान' होता है तथा बारह ध्यानपर्यन्त जो मनकी एकाग्रता है, उसे 'समाधि' कहते हैं। जिसका मन धारणाके अभ्यासमें लगा हुआ है, उसी अवस्थामें यदि उसके प्राणों का परित्याग हो जाय तो वह पुरुष अपने इक्कीस पीढ़ी का उद्धार कर के अत्यन्त उत्कृष्ट स्वर्गपद को प्राप्त होता है। 

योगियोंके जिस-जिस अङ्गमें व्याधिकी सम्भावना हो, उस-उस अङ्गको बुद्धिसे व्याप्त करके तत्त्वोंकी धारणा करनी चाहिये। द्विजोत्तम। आग्नेयी, वारुणी, ऐशानी और अमृतात्मिका ये विष्णुकी चार प्रकारकी धारणा करनी चाहिये। उस समय अग्नियुक्त शिखामन्त्रका, जिसके अन्तमें 'फट्' शब्दका प्रयोग होता है, जप करना उचित है। नाड़ियोंके द्वारा विकट, दिव्य एवं शुभ शूलाग्रका वेधन करे। पैरके अँगूठेसे लेकर कपोलतक किरणोंका समूह व्याप्त है और वह बड़ी तेजीके साथ ऊपर-नीचे तथा इधर-उधर फैल रहा है, ऐसी भावना करे। महामुने! श्रेष्ठ साधकको तबतक रश्मि-मण्डलका चिन्तन करते रहना चाहिये, जबतक कि वह अपने सम्पूर्ण शरीरको उसके भीतर भस्म होता न देखे। तदनन्तर उस धारणाका उपसंहार करे। इसके द्वारा द्विजगण शीत और श्लेष्मा आदि रोग तथा अपने पापोंका विनाश करते हैं (यह 'आग्नेयी धारणा' है) ॥ १-१० ॥ 

तत्पश्चात् धीरभावसे विचार करते हुए मस्तक और कण्ठके अधोमुख होनेका चिन्तन करे। उस समय साधकका चित्त नष्ट नहीं होता। वह पुनः अपने अन्तःकरणद्वारा ध्यानमें लग जाय और ऐसी धारणा करे कि जलके अनन्त कण प्रकट होकर एक-दूसरेसे मिलकर हिमराशिको उत्पन्न करते हैं और उससे इस पृथ्वीपर जलको धाराएँ प्रवाहित होकर सम्पूर्ण विश्वको आप्लावित कर रही हैं। इस प्रकार उस हिमस्पर्शसे शीतल अमृतस्वरूप जलके द्वारा क्षोभवश ब्रह्मरन्ध्रसे लेकर मूलाधारपर्यन्त सम्पूर्ण चक्र मण्डलको आप्लावित करके सुषुम्णा नाड़ीके भीतर होकर पूर्ण चन्द्रमण्डलका चिन्तन करे। भूख-प्यास आदिके क्रमसे प्राप्त होनेवाले क्लेशोंसे अत्यन्त पीड़ित होकर अपनी तुष्टिके लिये इस 'वारुणी धारणा' का चिन्तन करना चाहिये तथा उस समय आलस्य छोड़कर विष्णु-मन्त्रका जप करना भी उचित है। यह 'वारुणी धारणा' बतलायी गयी, अब 'ऐशानी धारणा 'का वर्णन सुनिये ॥ ११-१५॥

प्राण और अपानका क्षय होनेपर हृदयाकाशमें ब्रह्ममय कमलके ऊपर विराजमान भगवान् विष्णुके प्रसाद (अनुग्रह) का तबतक चिन्तन करता रहे, जबतक कि सारी चिन्ताका नाश न हो जाय। तत्पश्चात् व्यापक ईश्वररूपसे स्थित होकर परम शान्त, निरञ्जन, निराभास एवं अर्द्धचन्द्रस्वरूप सम्पूर्ण महाभावका जप और चिन्तन करे। जबतक गुरुके मुखसे जीवात्माको ब्रह्मका ही अंश (या साक्षात् ब्रह्मरूप) नहीं जान लिया जाता, तबतक यह सम्पूर्ण चराचर जगत् असत्य होनेपर भी सत्यवत् प्रतीत होता है। उस परम तत्त्वका साक्षात्कार हो जानेपर ब्रह्मासे लेकर यह सारा चराचर जगत्, प्रमाता, मान और मेय (ध्याता, ध्यान और ध्येय) - सब कुछ ध्यानगत हृदय कमलमें लीन हो जाता है। जप, होम और पूजन आदिको माताकी दी हुई मिठाईकी भाँति मधुर एवं लाभकर जानकर विष्णुमन्त्रके द्वारा उसका श्रद्धापूर्वक अनुष्ठान करे। अब मैं 'अमृतमयी धारणा' बतला रहा हूँ- मस्तककी नाड़ीके केन्द्रस्थानमें पूर्ण चन्द्रमाके समान आकारवाले कमलका ध्यान करे तथा प्रयत्नपूर्वक यह भावना करे कि 'आकाशमें दस हजार चन्द्रमाके समान प्रकाशमान एक पूर्ण चन्द्रमण्डल उदित हुआ है, जो कल्याणमय कालोलोंसे परिपूर्ण है।' ऐसा ही ध्यान अपने हृदय- कमलमें भी करे और उसके मध्यभागमें अपने शरीरको स्थित देखे। धारणा आदिके द्वारा साधकके सभी क्लेश दूर हो जाते हैं॥ १६-२२॥

इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें 'धारणानिरूपण' नामक तीन सौ पचहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३७५॥

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