अग्नि पुराण तीन सौ चौहत्तरवाँ अध्याय - Agni Purana 374 Chapter
अग्नि पुराण तीन सौ चौहत्तरवाँ अध्याय - ध्यानम्
अग्निरुवाच
ध्यै चिन्तायां स्मृतो धातुर्विष्णुचिन्ता मुहुर्मुहुः ।
अनाक्षिप्तेन मनसा ध्यानमित्यभिधीयते ।। १ ।।
आत्मनः समनस्कस्य मुक्ताशेषोपधस्य च ।
ब्रह्मचिन्तासमा शक्तिर्ध्यानं नाम तदुच्यते ।। २ ।।
ध्येयालम्बनसंस्थस्य सदृशप्रत्ययस्य च ।
प्रत्ययान्तरनिर्मुक्तः प्रत्ययो ध्यानमुच्यते ।। ३ ।।
ध्येयावस्थितचित्तस्य प्रदेशे यत्र कुत्रचित् ।
ध्यानमेतत्समुद्दिष्टं प्रत्ययस्यैकभावना ।। ४ ।।
एवं ध्यानसमायुक्तः स्वदेहं यः परित्यजत् ।
कुलं स्वजनमित्राणि समुद्धृत्य हरिर्भवेत् ।। ५ ।।
एवं मुहूर्त्तमर्धं वा ध्यायेद् यः श्रद्ध्या हरिं ।
सोपि यां गतिमाप्नोति न तां सर्वैर्महामखैः ।। ६ ।।
ध्याता ध्यानं तथा ध्येयं यच्च ध्यानप्रयोजनं ।
एतच्चतुष्टयं ज्ञात्वा योगं युञ्जीत तत्त्ववित् ।। ७ ।।
योगाभ्यासाद्भवेन्मुक्तिरैश्वर्य्यञ्चाष्टधा महत् ।
ज्ञानवैराग्यसम्पन्नः श्रद्दधानः क्षमान्वितः ।। ८ ।।
विष्णुभक्तः सदोत्साही ध्यातेत्थं पुरुषः स्मृतः ।
मूर्तामूर्त्तं परम्ब्रह्म हरेर्ध्यानं हि चिन्तनम् ।। ९ ।।
सकलो निष्कलो ज्ञेयः सर्वज्ञः परमो हरिः ।
अणिमादिगुणैश्वर्य्यं मुक्तिर्ध्यानप्रयोजनम् ।। १० ।।
फलेन योजको विष्णुरतो ध्यायेत् परेश्वरं ।
गच्छंस्तिष्ठन् स्वपन् जाग्रदुन्मिषन्निमिषन्नपि ।। ११ ।।
शुचिर्वाप्यशुचिर्वापि ध्यायेत् सततमीश्वरम् ।
स्वदेहायतनस्यान्ते मनसि स्थाप्य केशवम् ।। १२ ।।
हृत्पद्मपीठिकामध्ये ध्यानयोगेन पूजयेत् ।
ध्यानयज्ञः परः शुद्धः सर्वदोषक्विर्ज्जितः ।। १३ ।।
तेनेष्ट्वा मुक्तिमाप्नोति वाह्यशुद्धैश्च नाध्वरैः ।
हिंसादोषविमुक्तित्वाद्विशुद्धिश्चित्तसाधनः ।। १४ ।।
ध्यानयज्ञः परस्तस्मादपवर्गफलप्रदः ।
तस्मादशुद्धं सन्त्यज्य ह्यनित्यं वाह्यसाधनं ।। १५ ।।
यज्ञाद्यं कर्म्म सन्त्यज्य योगमत्यर्थमभ्यसेत् ।
विकारमुक्तमव्यक्तं भोग्यभोगसमन्वितं ।। १६ ।।
चिन्तयेद्धृदये पूर्वं क्रमादादौ गुणत्रयं ।
तमः प्रच्छाद्य रजसा सत्त्वेन च्छादयेद्रजः ।। १७ ।।
ध्यायेत्त्रिमण्डलं पूर्वं कृष्णां रक्तं सितं क्रमात् ।
सत्त्वोपाधिगुणातीतः पुरुषः पञ्चविंशकः ।। १८ ।।
ध्येयमेतदशुद्धञ्च त्यक्त्वा शुद्धं विचिन्तयेत् ।
ऐश्वर्य्यं पङ्कजं दिव्यं पुरुषोपरि संस्थितं ।। १९ ।।
द्वादशाङ्गुलविस्तीर्णं शुद्धं विकशितं सितम् ।
नालमष्टङ्गुलं तस्य नाभिकन्दसमुद्भ्वं ।। २० ।।
पद्मपत्राष्टकं ज्ञेयमणिमादिगुणाष्टकम् ।
कर्णिकाकेशरं नालं ज्ञानवैराग्यभुत्तमम् ।। २१ ।।
विष्णुधर्म्मश्च तत्कन्दमिति पद्मं विचिन्तयेत् ।
तद्धर्मज्ञानवैराग्यं शिवैश्वर्य्यमयं परं ।। २२ ।।
ज्ञात्वा पद्मासनं सर्वं सर्वदुःखान्तमाप्नुयात् ।
तत्पद्मकर्णिकामध्ये शुद्धदीपशिखाकृति ।। २३ ।।
अङ्गुष्ठमात्रममलं ध्यायेदोङ्कारमीश्वरं ।
कदम्वगोलकाकारं तारं रूपमिव स्थितं ।। २४ ।।
ध्यायेद्वा रश्मिजालेन दीप्यमानं समन्ततः ।
प्रधानं पुरुषातीतं स्थितं पद्मस्थमीश्वरं ।। २५ ।।
ध्यायेज्जपेच्च सततमोङ्कारं परमक्षरं ।
मनःस्थित्यर्थमिच्छन्ति स्थूलध्यानमनुक्रमात् ।। २६ ।।
तद्भूतं निश्चलीभूतं लभेत् सूक्ष्मेऽपि संस्थितं ।
नाभिकन्दे स्थितं नालं दशाङ्गुलसमायतं ।। २७ ।।
नालेनाष्टदलं पद्म द्वादशाङ्गुलविस्तृतं ।
सकर्णिके केसराले सूर्य्यसोमाग्निमण्डलं ।। २८ ।।
अग्निमण्डलमध्यस्थः शङ्खक्रगदाधरः ।
पद्मी चतुर्भुजो विष्णुरथवाष्टभुजो हरिः ।। २९ ।।
शार्ङ्गाक्षवलयधरः पाशाङ्कुशधरः परः ।
स्वर्णबर्णः श्वेतवर्णः सश्रीवत्सः सकौस्तुभः ।। ३० ।।
वनमाली स्वर्णहारी स्फुरन्मकरकुण्डलः ।
रत्नोज्जवलकिरीटश्च पीताम्बरधरो महान् ।। ३१ ।।
सर्व्वाभरणभूषाढ्यो वितस्तिर्वा यथेच्छया ।
अहं ब्रह्म ज्योतिरात्मा वासुदेवो विमुक्त ओं ।। ३२ ।।
ध्यानाच्छ्रान्तो जपेन्मन्त्रं जपाच्छ्रान्तश्च चिन्तयेत् ।
जपध्यानादियुक्तस्य विष्णुः शीघ्रं प्रसीदति ।। ३३ ।।
जपयज्ञस्य वै यज्ञाः कलां नार्हन्ति षोड़शीं ।
जपिनं नोपसर्पन्ति व्याधयश्चाधयो ग्रहाः ।।
भुक्तिर्मुक्तिर्मृत्युजयो जपेन प्राप्नुयात् फलं ।। ३४ ।।
इत्यादिमहापुराणे आग्नेये ध्यानं नाम चतुःसप्तत्यधिकत्रिशततमोऽध्यायः ॥
अग्नि पुराण - तीन सौ चौहत्तरवाँ अध्याय हिन्दी मे Agni Purana 374 Chapter In Hindi
तीन सौ चौहत्तरवाँ अध्याय ध्यान
अग्निदेव कहते हैं- मुने ! 'ध्यै चिन्तायाम्'- यह धातु है। अर्थात् 'ध्यै' धातुका प्रयोग चिन्तनके अर्थमें होता है। ('ध्यै' से ही 'ध्यान' शब्दकी सिद्धि होती है) अतः स्थिरचित्त से भगवान् विष्णुका बारंबार चिन्तन करना 'ध्यान' कहलाता है। समस्त उपाधियोंसे मुक्त मनसहित आत्माका ब्रह्मविचारमें परायण होना भी 'ध्यान' ही है। ध्येयरूप आधारमें स्थित एवं सजातीय प्रतीतियोंसे युक्त चित्तको जो विजातीय प्रतीतियोंसे रहित प्रतीति होती है, उसको भी 'ध्यान' कहते हैं। जिस किसी प्रदेशमें भी ध्येय वस्तुके चिन्तनमें एकाग्र हुए चित्तको प्रतीतिके साथ जो अभेद-भावना होती है, उसका नाम भी 'ध्यान' है। इस प्रकार ध्यानपरायण होकर जो अपने शरीरका परित्याग करता है, वह अपने कुल, स्वजन और मित्रोंका उद्धार करके स्वयं भगवत्स्वरूप हो जाता है। इस तरह जो प्रतिदिन एक या आधे मुहूर्ततक भी श्रद्धापूर्वक श्रीहरिका ध्यान करता है, वह भी जिस गतिको प्राप्त करता है, उसे सम्पूर्ण महायज्ञोंके द्वारा भी कोई नहीं पा सकता ॥ १-६ ॥
तत्त्ववेत्ता योगीको चाहिये कि वह ध्याता, ध्यान, ध्येय तथा ध्यानका प्रयोजन- इन चार वस्तुओंका ज्ञान प्राप्त करके योगका अभ्यास करे। योगाभ्याससे मोक्ष तथा आठ प्रकारके महान् ऐश्वर्यों (अणिमा आदि सिद्धियों) की प्राप्ति होती है। जो ज्ञान-वैराग्यसे सम्पन्न, श्रद्धालु, क्षमाशील, विष्णुभक्त तथा ध्यानमें सदा उत्साह रखनेवाला हो, ऐसा पुरुष ही 'ध्याता' माना गया है। 'व्यक्त और अव्यक्त, जो कुछ प्रतीत होता है, सब परम ब्रह्म परमात्माका ही स्वरूप है' इस प्रकार विष्णुका चिन्तन करना 'ध्यान' कहलाता है। सर्वज्ञ परमात्मा श्रीहरिको सम्पूर्ण कलाओंसे युक्त तथा निष्कल जानना चाहिये। अणिमादि ऐश्वर्योंकी प्राप्ति तथा मोक्ष- ये ध्यानके प्रयोजन हैं। भगवान् विष्णु ही कर्मोंके फलकी प्राप्ति करानेवाले हैं, अतः उन परमेश्वरका ध्यान करना चाहिये। वे ही ध्येय हैं। चलते-फिरते, खड़े होते, सोते-जागते, आँख खोलते और आँख मींचते समय भी, शुद्ध या अशुद्ध अवस्थामें भी निरन्तर परमेश्वरका ध्यान करना चाहिये ॥ ७-११ ॥
अपने देहरूपी मन्दिर के भीतर मनमें स्थित हृदयकमलरूपी पीठके मध्यभाग में भगवान् केशव की स्थापना करके ध्यानयोग के द्वारा उनका पूजन करे। ध्यानयज्ञ श्रेष्ठ, शुद्ध और सब दोषोंसे रहित है। उसके द्वारा भगवान् का यजन करके मनुष्य मोक्ष प्राप्त कर सकता है। बाह्यशुद्धिसे युक्त यज्ञोंद्वारा भी इस फलकी प्राप्ति नहीं हो सकती। हिंसा आदि दोषोंसे मुक्त होनेके कारण ध्यान अन्तःकरणकी शुद्धिका प्रमुख साधन और चित्तको वशमें करनेवाला है। इसलिये ध्यानयज्ञ सबसे श्रेष्ठ और मोक्षरूपी फल प्रदान करनेवाला है; अतः अशुद्ध एवं अनित्य बाह्य साधन यज्ञ आदि कर्मोंका त्याग करके योगका ही विशेषरूपसे अभ्यास करे। पहले विकारयुक्त, अव्यक्त तथा भोग्य-भोगसे युक्त तीनों गुणोंका क्रमशः अपने हृदयमें ध्यान करे। तमोगुणको रजोगुणसे आच्छादित करके रजोगुणको सत्त्वगुणसे आच्छादित करे। इसके बाद पहले कृष्ण, फिर रक्त, तत्पश्चात् श्वेतवर्णवाले तीनों मण्डलोंका क्रमशः ध्यान करे। इस प्रकार जो गुणोंका ध्यान बताया गया, वह 'अशुद्ध ध्येय' है। उसका त्याग करके 'शुद्ध ध्येय' का चिन्तन करे। पुरुष (आत्मा) सत्त्वोपाधिक गुणोंसे अतीत चौबीस तत्त्वोंसे परे पचीसवाँ तत्त्व है, यह 'शुद्ध ध्येय' है। पुरुषके ऊपर उन्हींकी नाभिसे प्रकट हुआ एक दिव्य कमल स्थित है, जो प्रभुका ऐश्वर्य ही जान पड़ता है। उसका विस्तार बारह अंगुल है। वह शुद्ध, विकसित तथा श्वेत वर्णका है। उसका मृणाल आठ अंगुलका है। उस कमलके आठ पत्तोंको अणिमा आदि आठ ऐश्वर्य जानना चाहिये।
उसकी कणिकाका केसर 'ज्ञान' तथा नाल 'उत्तम वैराग्य' है। 'विष्णु-धर्म' ही उसकी जड़ है। इस प्रकार कमलका चिन्तन करे। धर्म, ज्ञान, वैराग्य एवं कल्याणमय ऐश्वर्य स्वरूप उस श्रेष्ठ कमलको, जो भगवान्का आसन है, जानकर मनुष्य अपने सब दुःखोंसे छुटकारा पा जाता है। उस कमलकर्णिकाके मध्यभागमें ओङ्कारमय ईश्वरका ध्यान करे। उनकी आकृति शुद्ध दीपशिखाके समान देदीप्यमान एवं अँगूठेके बराबर है। वे अत्यन्त निर्मल हैं। कदम्बपुष्यके समान उनका गोलाकार स्वरूप ताराकी भाँति स्थित है। अथवा कमलके ऊपर प्रकृति और पुरुषसे भी अतीत परमेश्वर विराजमान हैं, ऐसा ध्यान करे तथा परम अक्षर ओंकारका निरन्तर जप करता रहे। साधकको अपने मनको स्थिर करनेके लिये पहले स्थूलका ध्यान करना चाहिये। फिर क्रमशः मनके स्थिर हो जानेपर उसे सूक्ष्म तत्त्वके चिन्तनमें लगाना चाहिये ॥ १२-२६ ॥
(अब कमल आदिका ध्यान दूसरे प्रकारसे बतलाया जाता है-) नाभि-मूलमें स्थित जो कमलकी नाल है, उसका विस्तार दस अंगुल है। नालके ऊपर अष्टदल कमल है, जो बारह अंगुल विस्तृत है। उसकी कर्णिकाके केसरमें सूर्य, सोम तथा अग्नि- तीन देवताओंका मण्डल है। अग्नि मण्डलके भीतर शङ्ख, चक्र, गदा एवं पद्म धारण करनेवाले चतुर्भुज विष्णु अथवा आठ भुजाओंसे युक्त भगवान् श्रीहरि विराजमान हैं। अष्टभुज भगवान्के हाथोंमें शङ्ख चक्रादिके अतिरिक्त शार्ङ्गधनुष, अक्षमाला, पाश तथा अङ्कुश शोभा पाते हैं। उनके श्रीविग्रहका वर्णं श्वेत एवं सुवर्णक समान उद्दीप्त है। वक्षःस्थलमें श्रीवत्सका चिह्न और कौस्तुभमणि शोभा पा रहे हैं। गलेमें वनमाला और सोनेका हार है। कानोंमें मकराकार कुण्डल जगमगा रहे हैं।
मस्तकपर रत्नमय उज्वल किरीट सुशोभित हैं। श्रीअङ्गॉपर पीताम्बर शोभा पाता है। वे सब प्रकारके आभूषणोंसे अलंकृत हैं। उनका आकार बहुत बड़ा अथवा एक बितेका है। जैसी इच्छा हो, वैसी ही छोटी या बड़ी आकृतिका ध्यान करना चाहिये। ध्यानके समय ऐसी भावना करे कि 'मैं ज्योतिर्मय ब्रह्म हूँ मैं ही नित्यमुक्त प्रणवरूप वासुदेवसंज्ञक परमात्मा हूँ।' ध्यानसे थक जानेपर मन्त्रका जप करे और जपसे थकनेपर ध्यान करे। इस प्रकार जो जप और ध्यान आदिमें लगा रहता है, उसके ऊपर भगवान् विष्णु शीघ्र ही प्रसन्न होते हैं। दूसरे दूसरे यज्ञ जपयज्ञको सोलहवों कलाके बराबर भी नहीं हो सकते। जप करनेवाले पुरुषके पास आधि, व्याधि और ग्रह नहीं फटकने पाते। जप करनेसे भोग, मोक्ष तथा मृत्यु विजयरूप फलकी प्राप्ति होती है॥ २७-३५ ॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें ध्याननिरूपण' नामक तीन सौ चौहत्तर अध्याय पूरा हुआ ॥ ३७४॥
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