अग्नि पुराण तीन सौ बहत्तरवाँ अध्याय - Agni Purana 372 Chapter
अग्नि पुराण तीन सौ बहत्तरवाँ अध्याय - यमनियमाः
अग्निरुवाच
संसारतापमुक्त्यर्थं वक्ष्याम्यऽष्टाङ्गयोगकं ।
ब्रह्मप्रकाशकं ज्ञानं योगस्तत्रैकचित्तता ।। १ ।।
चित्तवृत्तिनिरोधश्य जीवब्रह्मात्मनोः परः ।
अहिसा सत्यमस्तेयं ब्रह्मचर्य्यापरिग्रहौ ।। २ ।।
यमाः पञ्च स्मृता विप्र नियमाद्भुक्तिमुक्तिदाः ।
शौचं सन्तोषतपसी स्वाध्यायेश्वरपूजने ।। ३ ।।
भूतापीड़ा ह्यहिंसा स्यादहिंसा धर्म्म उत्तमः ।
यथा गजपदेऽन्यानि पदानि पथगामिनां ।। ४ ।।
एवं सर्वमहिंसायां धर्म्मार्थमभिधीयते ।
उद्वेगजननं हिंसा सन्तापकरणन्तथा ।। ५ ।।
रुक्कृतिः शोनितकृतिः पैशुन्यकरणन्तथा ।
हितस्यातिनिषेधश्च मर्मोद्घाटनमेव च ।। ६ ।।
सुखापह्नुतिः संरोधो बधो दशविधा च सा ।
यद्भूतहितमत्यन्तं वचः सत्यस्य लक्षणं ।। ७ ।।
सत्यं ब्रूयात्प्रियं ब्रूयान्न ब्रूयात्सत्यमप्रियं ।
प्रियञ्च नानृतं ब्रूयादेष धर्म्मः सनातनः ।। ८ ।।
मैथुनस्य परित्यागो ब्रह्मचर्य्यन्तदष्टधा ।
स्मरणां कीर्त्तनं केलिः प्रेक्षणं गुह्यभाषणं ।। ९ ।।
सङ्कल्पोऽध्यवसायश्च क्रियानिर्वृत्तिरेव च ।
एतन्मैथुनमष्टाङ्गं प्रवदन्ति मनीषिणः ।। १० ।।
ब्रह्मचर्य्यं क्रियामूलमन्यथा विफला क्रिया ।
वसिष्ठञ्चन्द्रमाः शुक्रो देवाचार्य्यः पितामहः ।। ११ ।।
तपोवृद्धा वयोवृद्धास्तेऽपि स्त्रीभिर्विमोहिताः ।
गौड़ी पैष्टी च माध्वी च विज्ञेयास्त्रिविधाः सुराः ।। १२ ।।
चतुर्थी स्त्री सुरा ज्ञेया ययेदं मोहितं जगत् ।
माद्यति प्रमदां दृष्ट्वा सुरां पीत्वा तु माद्याति ।। १३ ।।
यस्माद्दृष्टमदा नारी तस्मात्तान्नावलोकयेत् ।
यद्वा तद्वाऽपरद्रव्यमपहृत्य बलान्नरः ।। १४ ।।
अवश्यं याति तिर्य्यक्त्वं जगध्वा चैवाहुतं हविः ।
कौपीनाच्छादनं वासः कन्था शीतनिवारिणीं ।। १५ ।।
पादुके चापि गृह्णीयात् कुर्य्यान्नान्यस्य संग्रहं ।
देहस्थितिनिमित्तस्य वस्त्रादेः स्यात्परिग्रहः ।। १६ ।।
शरीरं धर्म्मसंयुक्तं रक्षणीयं प्रयत्नतः ।
शौचन्तु द्विविधं प्रोक्तं वाह्यमभ्यन्तरं तथा ।। १७ ।।
मृज्जलाभ्यां स्मृतं वाह्यं भावशुद्धेरथान्तरं ।
उभयेन् शुचिर्यस्तु स शुचिर्नेतरः शुचिः ।। १८ ।।
यथा कथञ्चित्प्राप्त्या च सन्तोषस्तुष्टिरुच्यते ।
मनसश्येन्द्रियाणाञ्च ऐकाग्र्यं तप उच्यते ।। १९ ।।
तज्जयः सर्वधर्म्मेभ्यः स धर्म्मः पर उच्यते ।
वाचिकं मन्त्रजप्यादि मानसं रागवर्ज्जनं ।। २० ।।
शारीरं देवपूजादि सर्वदन्तु त्रिधा तपः ।
प्रणवाद्यास्ततो वेदाः प्रणवे पर्यवस्थिताः ।। २१ ।।
वाङ्मयः प्रणवः सर्वं तस्मात्प्रणवमभ्यसेत् ।
अकारश्च तथोकारो मकारश्चार्द्धमात्रया ।। २२ ।।
तिस्रो मात्रास्त्रयो वेदाः लोका भूरादयो गुणाः ।
जाग्रत् स्वप्नः सुषुप्तिश्च ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः ।। २३ ।।
प्रद्युम्नः श्रीर्वासुदेवः सर्वमोङ्कारकः क्रमात् ।
अमात्रो नष्टमात्रश्च द्वैतस्यापगमः शिवः ।। २४ ।।
ओङ्कारो विदितो येन स मुनिर्नेतरो मुनिः ।
चतुर्थी मात्रा गान्धारी प्रयुक्ता मूर्ध्निलक्ष्यते ।। २५ ।।
तत्तुरीयं परं ब्रह्म ज्योतिर्दीपो घटे यथा ।
तथा हृत्पद्मनिलयं ध्यायेन्नित्यं जपेन्नरः ।। २६ ।।
प्रणवो धनुः शरो ह्यात्मा ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते ।
अप्रमत्तेन वेद्धव्यं शरवत्तन्मयो भवेत् ।। २७ ।।
एतदेकाक्षरं ब्रह्म एतदेकाक्षरं परं ।
एतदेकाक्षरं ज्ञात्वा यो यदिच्छति तस्य तत् ।। २८ ।।
छन्दोऽस्य देवी गायत्री अन्तर्य्यामी ऋषिः स्मृतः ।
देवता परमात्मास्य नियोगो भुक्तिमुक्तये ।। २९ ।।
भूरगन्यात्मने हृदयं भुवः प्राजापत्यात्मने ।
शिरः स्वः सूर्य्यात्मने च शिखा कवचमुच्यते ।। ३० ।।
ओंभूर्भुवः स्वः कवचं सत्यात्मने ततोऽस्त्रकं ।
विन्यस्य पूजयेद्विष्णुं जपेद्वै भुक्तिमुक्तये ।। ३१ ।।
जुहुयाच्च तिलाज्यादि सर्वं सम्पद्यते नरे ।
यस्तु द्वादशसाहस्रं जपमन्वहमाचरेत् ।। ३२ ।।
तस्य द्वादशभिर्मासैः परं ब्रह्मा प्रकाशते ।
अणिमादि कोटिजप्याल्लक्षात्सारस्वतादिकं ।। ३३ ।।
वैदिकस्तान्त्रिको मिश्रो विष्णोर्वै त्रिविधो मखः ।
त्रयाणामीप्सितेनैकविधिना हरिमर्च्चयेत् ।। ३४ ।।
प्रणम्य दण्डवद्भमौ नमस्कारेण योऽर्चयेत् ।
स याङ्गतिमवाप्नोति न तां क्रतुशतैरपि ।। ३५ ।।
यस्य देवे परा भक्तिर्यथा देवे तथा गुरौ ।
तस्यैते कथिता ह्यर्थाः प्रकाशन्ते महात्मनः ।। ३६ ।।
इत्यादिमहापुराणे आग्नेये यमनियमा नाम द्विसप्तत्यधिकत्रिशततमोऽध्यायः ॥
अग्नि पुराण - तीन सौ बहत्तरवाँ अध्याय हिन्दी मे Agni Purana 372 Chapter In Hindi
तीन सौ बहत्तरवाँ अध्याय यम और नियमोंकी व्याख्या; प्रणव की महिमा तथा भगवत्पूजन का माहात्म्य
अग्निदेव कहते हैं मुने। अब मैं 'अष्टाङ्गयोग' का वर्णन करूँगा, जो जगत्के त्रिविध तापसे छुटकारा दिलानेका साधन है। ब्रह्मको प्रकाशित करनेवाला ज्ञान भी 'योग'से ही सुलभ होता है। एकचित्त होना- चित्तको एक जगह स्थापित करना 'योग' है। चित्तवृत्तियोंके निरोधको भी 'योग' कहते हैं। जीवात्मा एवं परमात्मामें ही अन्तःकरणकी वृत्तियोंको स्थापित करना उत्तम 'योग' है। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह- ये पाँच 'यम' हैं। ब्रह्मन् ! 'नियम' भी पाँच ही हैं, जो भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाले हैं। उनके नाम ये हैं शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वराराधन (ईश्वरप्रणिधान)। किसी भी प्राणीको कष्ट न पहुँचाना 'अहिंसा' है। 'अहिंसा' सबसे उत्तम धर्म है। जैसे राह चलनेवाले अन्य सभी प्राणियोंके पदचिह्न हाथीके चरणचिह्न में समा जाते हैं, उसी प्रकार धर्मके सभी साधन 'अहिंसा' में गतार्थ माने जाते हैं। 'हिंसा' के दस भेद हैं- किसीको उद्वेग में डालना, संताप देना, रोगी बनाना, शरीरसे रक्त निकालना, चुगली खाना, किसीके हितमें अत्यन्त बाधा पहुँचाना, उसके छिपे हुए रहस्यका उद्घाटन करना, दूसरेको सुखसे वञ्चित करना, अकारण कैद करना और प्राणदण्ड देना।
जो बात दूसरे प्राणियोंके लिये अत्यन्त हितकर है, वह 'सत्य' है। 'सत्य' का यही लक्षण है- सत्य बोले, किंतु प्रिय बोले; अप्रिय सत्य कभी न बोले। इसी प्रकार प्रिय असत्य भी मुँहसे न निकाले; यह सनातन धर्म है। 'ब्रह्मचर्य' कहते हैं- 'मैथुनके त्यागको'। 'मैथुन' आठ प्रकारका होता है- स्त्रीका स्मरण, उसकी चर्चा, उसके साथ क्रीड़ा करना, उसकी ओर देखना, उससे लुक छिपकर बातें करना, उसे पानेका संकल्प, उसके लिये उद्योग तथा क्रियानिवृत्ति (स्त्रीसे साक्षात् समागम) ये मैथुनके आठ अङ्ग हैं- ऐसा मनीषी पुरुषोंका कथन है। 'ब्रह्मचर्य' ही सम्पूर्ण शुभ कर्मोंकी सिद्धिका मूल है; उसके बिना सारी क्रिया निष्फल हो जाती है। वसिष्ठ, चन्द्रमा, शुक्र, देवताओंके आचार्य बृहस्पति तथा पितामह ब्रह्माजी ये तपोवृद्ध और वयोवृद्ध होते हुए भी स्त्रियोंके मोहमें फँस गये। गौड़ी, पैष्टी और माध्वी- ये तीन प्रकारकी सुरा जाननी चाहिये। इनके बाद चौथी सुरा 'स्त्री' है, जिसने सारे जगत्को मोहित कर रखा है। मदिराको तो पीनेपर ही मनुष्य मतवाला होता है, परंतु युवती स्त्रीको देखते ही उन्मत्त हो उठता है। नारी देखनेमात्रसे ही मनमें उन्माद करती है, इसलिये उसके ऊपर दृष्टि न डाले। मन, वाणी और शरीरद्वारा चोरीसे सर्वथा बचे रहना 'अस्तेय' कहलाता है। यदि मनुष्य बलपूर्वक दूसरेकी किसी भी वस्तुका अपहरण करता है, तो उसे अवश्य तिर्यग्योनिमें जन्म लेना पड़ता है। यही दशा उसकी भी होती है, जो हवन किये बिना ही (बलिवैश्वदेवके द्वारा देवता आदिका भाग अर्पण किये बिना ही) हविष्य (भोज्यपदार्थ)- का भोजन कर लेता है। कौपीन, अपने शरीरको ढकनेवाला वस्त्र, शीतका कष्ट निवारण करनेवाली कन्था (गुदड़ी) और खड़ाऊँ इतनी ही वस्तुएँ साथ रखे। इनके सिवा और किसी वस्तुका संग्रह न करे (यही अपरिग्रह है)। शरीरकी रक्षाके साधनभूत वस्त्र आदिका संग्रह किया जा सकता है। धर्मके अनुष्ठानमें लगे हुए शरीरकी यत्नपूर्वक रक्षा करनी चाहिये ॥ १-१६ ॥
'शौच' दो प्रकारका बताया गया है-'बाह्य और 'आभ्यन्तर'। मिट्टी और जलसे 'बाह्यशुद्धि' होती है और भावकी शुद्धिको 'आभ्यन्तर शुद्धि' कहते हैं। दोनों ही प्रकारसे जो शुद्ध है, वही शुद्ध है, दूसरा नहीं। प्रारब्धके अनुसार जैसे-तैसे जो कुछ भी प्राप्त हो जाय, उसीमें हर्ष मानना 'संतोष' कहलाता है। मन और इन्द्रियोंकी एकाग्रताको 'तप' कहते हैं। मन और इन्द्रियोंपर विजय पाना सब धर्मोंसे श्रेष्ठ धर्म कहलाता है। 'तप' तीन प्रकारका होता है- वाचिक, मानसिक और शारीरिक। मन्त्रजप आदि 'वाचिक' आसक्तिका त्याग 'मानसिक' और देवपूजन आदि 'शारीरिक' तप हैं। यह तीनों प्रकारका तप सब कुछ देनेवाला है। वेद प्रणवसे ही आरम्भ होते हैं, अतः प्रणवमें सम्पूर्ण वेदोंकी स्थिति है। वाणीका जितना भी विषय है, सब प्रणव है; इसलिये प्रणवका अभ्यास करना चाहिये (यह स्वाध्यायके अन्तर्गत है)। 'प्रणव अर्थात् 'ओंकार' में अकार, उकार तथा अर्धमात्राविशिष्ट मकार है। तीन मात्राएँ तीनों वेद, भूः आदि तीन लोक, तीन गुण, जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति ये तीन अवस्थाएँ तथा ब्रह्मा, विष्णु और शिव- ये तीनों देवता प्रणवरूप हैं। ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र, स्कन्द, देवी और महेश्वर तथा प्रद्युम्न, श्री और वासुदेव ये सब क्रमशः ॐकारके ही स्वरूप हैं। ॐकार मात्रासे रहित अथवा अनन्त मात्राओंसे युक्त है।
वह द्वैतकी निवृत्ति करने वाला तथा शिव स्वरूप है। ऐसे ॐकारको जिसने जान लिया, वही मुनि है, दूसरा नहीं। प्रणवकी चतुर्थीमात्रा (जो अर्थमात्राके नामसे प्रसिद्ध है) 'गान्धारी' कहलाती है। वह प्रयुक्त होनेपर मूद्धमे लक्षित होती है। वही 'तुरीय' नामसे प्रसिद्ध परब्रह्म है। वह ज्योतिर्मय है। जैसे घड़ेके भीतर रखा हुआ दीपक वहाँ प्रकाश करता है, वैसे ही मूद्धमे स्थित परब्रह्म भी भीतर अपनी ज्ञानमयी ज्योति छिटकाये रहता है। मनुष्यको चाहिये कि मनसे हृदयकमलमें स्थित आत्मा या ब्रह्मका ध्यान करे और जिह्वासे सदा प्रणवका जप करता रहे। (यही 'ईश्वरप्रणिधान' है।) 'प्रणव' धनुष है, 'जीवात्मा' बाण है तथा 'ब्रह्म' उसका लक्ष्य कहा जाता है। सावधान होकर उस लक्ष्यका भेदन करना चाहिये और बाणके समान उसमें तन्मय हो जाना चाहिये। यह एकाक्षर (प्रणव) ही ब्रह्म है, यह एकाक्षर ही परम तत्त्व है, इस एकाक्षर ब्रह्मको जानकर जो जिस वस्तुकी इच्छा करता है, उसको उसीकी प्राप्ति हो जाती है। इस प्रणवका देवी गायत्री छन्द है, अन्तर्यामी ऋषि हैं, परमात्मा देवता हैं तथा भोग और मोक्षकी सिद्धिके लिये इसका विनियोग किया जाता है। इसके अङ्ग- न्यासको विधि इस प्रकार है ॐ भूः अग्न्यात्मने हृदयाय नमः।' इस मन्त्रसे हृदयका स्पर्श करे। ॐ भुवः प्राजापत्यात्मने शिरसे स्वाहा।' ऐसा कहकर मस्तकका स्पर्श करे। 'ॐ स्वः सर्वात्मने शिखायै वषट्।' इस मन्त्रसे शिखाका स्पर्श करे।
अब कवच बताया जाता है- 'ॐ भूर्भुवः स्वः सत्यात्मने कवचाय हुम्।' इस मन्त्रसे दाहिने हाथकी अँगुलियोंद्वारा बायीं भुजाके मूलभागका और बायें हाथकी अँगुलियोंसे दाहिनी बाँहके मूलभागका एक ही साथ स्पर्श करे। तत्पश्चात् पुनः ॐ भूर्भुवः स्वः सत्यात्मने अस्त्राय फट्।' कहकर चुटकी बजाये। इस प्रकार अङ्गन्यास करके भोग और मोक्षकी सिद्धिके लिये भगवान् विष्णुका पूजन, उनके नामोंका जप तथा उनके उद्देश्यसे तिल और घी आदिका हवन करे; इससे मनुष्यकी समस्त कामनाएँ पूर्ण होती हैं। (यही ईश्वरपूजन है; इसका निष्कामभावसे ही अनुष्ठान करना उत्तम है।) जो मनुष्य प्रतिदिन बारह हजार प्रणवका जप करता है, उसको बारह महीनेमें परब्रह्मका ज्ञान हो जाता है। एक करोड़ जप करनेसे अणिमा आदि सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं, एक लाखके जपसे सरस्वती आदिकी कृपा होती है। विष्णुका यजन तीन प्रकारका होता है-वैदिक, तान्त्रिक और मिश्र। तीनोंमेंसे जो अभीष्ट हो, उसी एक विधिका आश्रय लेकर श्रीहरिकी पूजा करनी चाहिये। जो मनुष्य दण्डकी भाँति पृथ्वीपर पड़कर भगवान्को साष्टाङ्ग प्रणाम करता है, उसे जिस उत्तम गतिकी प्राप्ति होती है, वह सैकड़ों यज्ञोंके द्वारा दुर्लभ है। जिसकी आराध्यदेवमें पराभक्ति है और जैसी देवतामें है, वैसी ही गुरुके प्रति भी है, उसी महात्माको इन कहे हुए विषयोंका यथार्थ ज्ञान होता है॥ १७-३६ ॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें 'यम-नियम-निरूपण' नामक तीन सौ बहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३७२ ॥
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