अग्नि पुराण तीन सौ सत्तरवाँ अध्याय - Agni Purana 370 Chapter

अग्नि पुराण तीन सौ सत्तरवाँ अध्याय  - Agni Purana 370 Chapter

अग्निरूवच ।

आत्यन्तिकं लयं वक्ष्ये ज्ञानादत्यन्तिको लयः ।
अध्यात्मिकदिसन्तपं ज्ञात्वा स्वस्य विरागतः ॥ १ ॥

अध्यात्मवादी संतापः शरीर मनोविज्ञान ।
शरीरो बहुभिभिदिष्टपोऽसौ श्रूयताम् द्विज ॥ २ ॥

त्यक्त्वा जीवो भोगदेहं गर्भमाप्नोति कर्मभिः ।
आतिवाहिकासंज्ञस्तु देहो भवति वै द्विज ॥ ३ ॥

केवलं स मनुष्याणां मृत्युकाल उपस्थिते ।
याम्यैः पुंभिर्मनुष्यानां तच्छैरं द्विजोत्तमः ॥ ४ ॥

अभिप्राय नव नान्येषां प्रणीनां मुने ।
ततः स्वार्यति नरकं स भ्रमेद्घातयन्त्रवत् ॥ ५ ॥

कर्मभूमिरियं ब्रह्मन् फलभूमिरसौ स्मृता ।
यमो योनीश्च नरकं निरूपयति कर्मणा ॥ ६ ॥

पूर्णियाश्च तेनैव यमन्चैवाणुपश्यताम् ।
वायुभूतः प्राणिनश्च गर्भन्ते प्राप्नुवन्ति हि ॥ ७ ॥

यमादुतैरमनुष्यस्तु नियते तन्च पश्यति ।
धर्मि च पूज्यते तेन पपिष्ठाद्यते गृहे ॥ ८ ॥

शुभाशुभं कर्म तस्य चित्रगुप्तो निरूपयेत ।
बंधवानामासौसे तु देहे खल्वतिवाहिके ॥ ९ ॥

तिष्ठन्नयति धर्ममञ्जन दत्तपिण्डशानन्ततः ।
तांत्यक्त्वा प्रेतदेहंतु प्राप्यन्यां प्रेतलोकतः ॥ १० ॥

वसेत् क्षुधा तृषा युक्त अमश्रद्धान्नभुन्नरः ।
आतिवाहिकदेहातु प्रेतापिण्डैरविना ॥ ११ ॥

न हि मोक्षमवाप्नोति पिंडमस्ताद्रिव 
कृते सपिण्डिकरणे नरः संवत्सरतपरम् ॥ १२ ॥

प्रेतदेहं समुत्सृज्य भोगदेहं प्रपद्यते ।
भोगदेहावुभौ प्रोक्तावशुभशुभसंज्ञितौ ॥ १३ ॥

भुक्त्वा तु भोगदेहेन कर्मबन्धनिपत्यते ।
तं देहं परतस्तस्माद्भक्षयन्ति निशाचरः ॥ १४ ॥

पापे तिष्ठति चेत स्वर्गं तेन भुक्तं तदा द्विज ।
तेन द्वितीयं गृहाति भोगदेहंतु पापिनं ॥ १५ ॥

भुक्त्वा पापन्तु या पाश्चाद्येन भुक्तं त्रिपिष्टपम् ।
शुचिनां श्रीमतां गेहे स्वर्गभ्रष्टोऽभिजायते ॥ १६ ॥

पुण्ये तिष्ठति चेत्पान्तेन भुक्तं तदा भवेत् ।
तस्मिन सम्भक्षिते देहे शुभं गृहनाति विग्रहम् ॥ १७ ॥

कर्मण्यल्पवशे तुम समाप्त न करो ।
मुक्तस्तु नरकाद्यति तिर्यग्योनिं न संशयः ॥ १८ ॥

जीवः प्रविष्टो गर्भंतु कालेऽप्यत्र तिष्ठति ।
घनीभूतं द्वितीये तु तृतीयेऽवयवस्ततः ॥ १९ ॥

चतुर्थेऽस्थिनि त्वमांसंपञ्चमे रोमसंभवः ।
षष्ठे चेतोऽथा जीवस्य दुःखं विन्दति सप्तमे ॥ २० ॥

जरायुवेष्ठिते देहे मुद्र्धनी बधाञ्जलिस्तथा ।
मध्ये क्लीवस्तु वासे स्त्री दक्षिणे पुरुषस्थितः ॥ २१ ॥

तिष्ठत्युदरभागो तु पृष्टस्याबिमुखस्तथा ।
यस्यां तिष्ठत्यसौ जो संशयः से संतुष्ट नहीं है ॥ २२ ॥

सर्वाञ्च वेत्ति वृत्तान्तमरभ्य नरजन्मनः ।
अंधकाराञ्च महतिं पीडं निन्दति मानवः ॥ २३ ॥

मतुराहारापितन्तु सप्तमे मास्युपश्नुते ।
अष्टमे नवमे मसि भृषमुद्विजते तथा ॥ २४ ॥

व्यवहारे एडुपनोति महत्वपूर्णसप्ताह तथ्य ।
व्याधिश्च व्याधितायं सन्मुहुर्तयं शतवर्षवत् ॥ २५ ॥

संतप्यते कर्मभिस्तु कुरुतेत मनोरथन् ।
गर्भाद्विनिर्गतो ब्राह्मण मोक्षज्ञानं करिष्यति ॥ २६ ॥

सुतिवतैरधोभूतो नि:सारेद योनिन्त्रतः ।
पीद्यमानो मासमात्रं करस्पर्शेण दुःखितः ॥ २७ ॥

खशब्दात क्षुद्रश्रोतान्सि देहे श्रोत्रं विविक्तता ।
श्वसोच्चसौ गतिर्वयोर्वक्रसंस्पर्शनं तथा३ ॥ २८ ॥

अग्निरूपं दर्शनं स्यादुश्मा पंक्तिश्च पित्तक ।
मेधा वर्णं बलं छाया तेजः शौर्यं शरीरके ॥ २९ ॥

राष्ट्रपति चुनाव या गठबंधन ।
क्लेडो वासा जूस गन्ना ॥ ३० ॥

भूमेरघ्राणं केशनखं गौरवं स्थिरतोऽस्थितः ।
मातृजानिः मृदुन्यात्र त्वमांसहृदयानि च ॥ ३१ ॥

नाभिर्मज्जा४ शक्रनमेदः क्लेदान्यामशयनि च ।
पितृजानि शिरास्नायुशुक्रंचैवत्माजानि तु ॥ ३२ ॥

कामक्रोधौ भयं हार्पो धर्मधाधर्मात्मा तथा ।
आकृतिः स्वरवर्णौ तु मेहनद्यं तथा च यत् ॥ ३३ ॥

तमसानि तथाज्ञानं प्रमादलस्यत्रक्षुधाः ।
मोहमत्सर्यवैगुण्यशोकायासभयानि च ॥ ३४ ॥

कामक्रोधौ तथा शौर्यं यज्ञेप्सा बहुभाषिता ।
अहंकारः परावजना राजसानि महामुने ॥ ३५ ॥

धर्मेप्सा मोक्षकामित्वं परा भक्तिश्च केशवे ।
दक्षिण्यं व्यवहारयित्वं सात्विकानि विनिर्दिशेत् ॥ ३६ ॥

कपालः क्रोधो भिरूर्बाहुभाषि कलिप्रियः ।
स्वप्ने गगननागश्चैव बाहुवतो नरो भवेत् ॥ ३७ ॥

अकालपलितः क्रोधी महाप्राज्ञो रणप्रियः ।
स्वप्ने च दीप्तिमत्प्रेक्षी बहुपित्तो नरो भवेत् ॥ ३८ ॥

स्थिरमित्रः स्थिरोत्साः स्थिरांगो द्रविणान्वितः ।
स्वप्ने जलसीतालोकी बहुशलेशमा नरो भवेत् ॥ ३९ ॥

रसस्तु प्राणिनां देहे जीवनं रुधिरं तथा ।
लेपनाञ्च तथा मनसमेहस्नेहाकारन्तु तत् ॥ ४० ॥

धारणन्त्वाऽस्थि मजजा स्यात्पूर्णं वीर्यवर्धनम् ।
शुक्रवीर्यकारं ह्योजः प्राणकृज्जिवसंस्थितः ॥ ४१ ॥

ओजः शुक्रात शरतरमापीतम हृदयोपगम् ।
षडंगशाक्तिनि बहुमूर्धा जठरमृतम् ॥ ४२ ॥

शतत्वचा वाह्यतो यद्वदान्य रुधिरधारिका ।
विलासधारिणी कन्या चतुर्थी कुंडधारिणी ॥ ४३ ॥

पंचमी विद्राधिस्थानं षष्ठी प्राणधारा मता ।
काल सप्तमी मानसधारा द्वितीया रक्तधारिणी ॥ ४४ ॥

यकृतप्लिहाश्रय कन्या मेदोधरास्थिधारिणी ।
मज्जाश्लेश्मापुरीषाणां धारा पक्कशयस्थिता ।
षष्ठी पित्तधारा शुक्रधारा शुक्रशायपरा ॥ ४५ ॥

अग्नि पुराण - तीन सौ सत्तरवाँ अध्याय हिन्दी मे Agni Purana 370 Chapter In Hindi

तीन सौ सत्तरवाँ अध्याय - शरीर के अवयव

अग्निदेव कहते हैं- वसिष्ठजी! कान, त्वचा, नेत्र, जिह्वा और नासिका- ये ज्ञानेन्द्रियाँ हैं। आकाश सभी भूतोंमें व्यापक है। शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध-ये क्रमशः आकाश आदि पाँच भूतोंके गुण हैं। गुदा, उपस्थ (लिङ्ग या योनि), हाथ, पैर और वाणी-ये 'कर्मेन्द्रिय' कहे गये हैं। मलत्याग, विषयजनित आनन्दका अनुभव, ग्रहण, चलन तथा वार्तालाप ये क्रमशः उपर्युक्त इन्द्रियोंके कार्य हैं। पाँच कर्मेन्द्रिय, पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच इन्द्रियों के विषय, पाँच महाभूत मन, बुद्धि, आत्मा (महत्तत्त्व), अव्यक्त (मूल प्रकृति) ये चौबीस तत्त्व हैं। इन सबसे परे है- पुरुष। वह इनसे संयुक्त भी रहता है और पृथक् भी; जैसे मछली और जल-ये दोनों एक साथ संयुक्त भी रहते हैं और पृथक् भी। रजोगुण, तमोगुण और सत्त्वगुण- ये अव्यक्तके आश्रित हैं। अन्तःकरणको उपाधिसे युक्त पुरुष 'जीव' कहलाता है, वही निरुपाधिक स्वरूपसे 'परब्रह्म' कहा गया है, जो सबका कारण है। जो मनुष्य इस परम पुरुषको जान लेता है, वह परमपदको प्राप्त होता है। इस शरीरके भीतर सात 'आशय' माने गये हैं- पहला रुधिराशय, दूसरा श्लेष्माशय, तीसरा आमाशय, चौथा पित्ताशय, पाँचवाँ पक्वाशय, छठा वाताशय और सातवाँ मूत्राशय। 

स्त्रियोंके इन सातके अतिरिक्त एक आठवाँ आशय भी होता है, जिसे 'गर्भाशय' कहते हैं। अग्निसे पित्त और पित्तसे पक्वाशय होता है। ऋऋतुकालमें स्त्रीकी योनि कुछ फैल जाती है। उसमें स्थापित किया हुआ वीर्य गर्भाशयतक पहुँच जाता है। गर्भाशय कमलके आकारका होता है। वही अपनेमें रज और वीर्यको धारण करता है। वीर्यसे शरीर और समयानुसार उसमें केश प्रकट होते हैं। ऋतुकालमें भी यदि योनि वात, पित्त और कफसे आवृत्त हो तो उसमें विकास (फैलाव) नहीं आता। (ऐसी दशामें वह गर्भ धारणके योग्य नहीं रहती।) महाभाग। बुकसे पुक्कस, प्लीहा, यकृत्, कोष्ठाङ्ग, हृदय, व्रण तथा तण्डक होते हैं। ये सभी आशयमें निबद्ध हैं। प्राणियोंके पकाये जानेवाले रसके सारसे प्लीहा और यकृत् होते हैं। धर्मके ज्ञाता वसिष्ठजी। रक्तके फेनसे पुक्कसकी उत्पत्ति होती है। इसी प्रकार रक्त, पित्त तथा तण्डक भी उत्पन्न होते हैं। मेदा और रक्तके प्रसारसे बुक्काकी उत्पत्ति होती है। रक्त और मांसके प्रसारसे देहधारियोंकी आँतें बनती हैं। पुरुषकी आँतोंका परिमाण साढ़े तीन व्याम बताया जाता है 

और वेदवेत्ता पुरुष स्त्रियोंकी आँतें तीन व्याम लंबी बतलाते हैं। रक्त और वायुके संयोगसे कामका उदय होता है। कफके प्रसारसे हृदय प्रकट होता है। उसका आकार कमलके समान है। उसका मुख नीचेकी ओर होता है तथा उसके मध्यका जो आकाश है, उसमें जीव स्थित रहता है। चेतनतासे सम्बन्ध रखनेवाले सभी भावोंकी स्थिति वही है। हृदयके वामभागमें प्लीहा और दक्षिणभागमें यकृत् है तथा इसी प्रकार हृदयकमलके दक्षिणभागमें क्लोम (फुफ्फुस) की भी स्थिति बतायी गयी है। इस शरीरमें कफ और रक्तको प्रवाहित करनेवाले जो-जो स्रोत हैं, उनके भूतानुमानसे इन्द्रियोंकी उत्पत्ति होती है। नेत्रमण्डलका जो श्वेतभाग है, वह कफसे उत्पन्न होता है। उसका प्राकट्य पिताके वीर्यसे माना गया है तथा नेत्रोंका अंशसे उत्पन्न समझना चाहिये। मांस, रक्त और कफसे जिह्वाका निर्माण होता है। मेदा, रक्त, जो कृष्ण-भाग है, वह माताके रज एवं वातके अंशसे प्रकट होता है। त्वचामण्डलकी उत्पत्ति पित्तसे होती है। इसे माता और पिता दोनोंके कफ और मांससे अण्डकोषको उत्पत्ति होती है। प्राणके दस आश्रय जानने चाहिये- मूर्द्धा, हृदय, नाभि, कण्ठ, जिह्वा, शुक्र, रक्त, गुद, वस्ति (मूत्राशय) और गुल्फ (पाँवकी गाँठ या घुट्ठी) तथा 'कण्डरा' (नसें) सोलह बतायी गयी हैं। दो हाथमें, दो पैरमें, चार पीठमें, चार गलेमें तथा चार पैरसे लेकर सिरतक समूचे शरीरमें हैं। इसी प्रकार 'जाल' भी सोलह बताये गये हैं। मांसजाल, स्नायुजाल, शिराजाल और अस्थिजाल- ये चारों पृथक् पृथक् दोनों कलाइयों और पैरकी दोनों गाँठोंमें परस्पर आबद्ध हैं। इस शरीरमें छः कूर्च माने गये हैं। मनीषी पुरुषोंने दोनों हाथ, दोनों पैर, गला और लिङ्ग इन्होंमें उनका स्थान बताया है। 

पृष्ठके मध्यभागमें जो मेरुदण्ड है, उसके निकट चार मांसमयी डोरियाँ हैं तथा उतनी ही पेशियाँ भी हैं, जो उन्हें बाँधे रखती हैं। सात सीरणियाँ हैं। इनमेंसे पाँच तो मस्तकके आश्रित हैं और एक-एक मेद्र (लिङ्ग) तथा जिह्वामें है। हड्डियाँ अठारह हजार हैं। सूक्ष्म और स्थूल दोनों मिलाकर चौसठ दाँत हैं। बीस नख हैं। इनके अतिरिक्त हाथ और पैरोंकी शलाकाएँ हैं, जिनके चार स्थान हैं। अँगुलियों में साठ, एड़ियोंमें दो, गुल्फोंमें चार, अरत्नियोंमें चार और जंघोंमें भी चार ही हड्डियाँ हैं। घुटनोंमें दो, गालोंमें दो, ऊरुओंमें दो तथा फलकोंके मूलभागमें भी दो ही हड्डियाँ हैं। इन्द्रियोंके स्थानों तथा श्रोणिफलकमें भी इसी प्रकार दो-दो हड्डियाँ बतायी गयी हैं। भगमें भी थोड़ी-सी हड्डियाँ हैं। पीठमें पैंतालीस और गलेमें भी पैंतालीस हैं। गलेकी हसली, ठोड़ी तथा उसकी जड़में दो-दो अस्थियाँ हैं। ललाट, नेत्र, कपोल, नासिका, चरण, पसली, तालु तथा अर्बुद इन सबमें सूक्ष्मरूपसे बहत्तर हड्डियाँ हैं। मस्तकमें दो शङ्ख और चार कपाल हैं तथा छातीमें सत्रह हड्डियाँ हैं। संधियाँ दो सौ दस बतायी गयी हैं। इनमेंसे शाखाओंमें अड़सठ तथा उनसठ हैं और अन्तरामें तिरासी संधियाँ बतायी गयी हैं। स्नायुकी संख्या नौ सौ है, जिनमेंसे अन्तराधिमें दो सौ तीस हैं, सत्तर ऊर्ध्वगामी हैं और शाखाओंमें छः सौ त्रायु हैं। 

पेशियाँ पाँच सौ बतलायी गयी हैं। इनमें चालीस तो ऊर्ध्वगामिनी हैं, चार सौ शाखाओं में हैं और साठ अन्तराधिमें हैं। स्त्रियोंकी मांसपेशियाँ पुरुषोंकी अपेक्षा सत्ताईस अधिक हैं। इनमें दस दोनों स्तनोंमें, तेरह योनिमें तथा चार गर्भाशयमें स्थित हैं। देहधारियोंके शरीरमें तीस हजार नौ तथा छप्पन हजार नाड़ि‌याँ हैं। जैसे छोटी-छोटी नालियाँ क्यारियोंमें पानी बहाकर ले जाती हैं, उसी प्रकार वे नाड़ियाँ सम्पूर्ण शरीरमें रसको प्रवाहित करती हैं। क्लेद और लेप आदि उन्हींके कार्य हैं। महामुने! इस देहमें बहत्तर करोड़ छिद्र या रोमकूप हैं तथा मज्जा, मेदा, वसा, मूत्र, पित्त, श्लेष्मा, मल, रक्त और रस-इनकी क्रमशः 'अञ्जलियाँ' मानी गयी हैं। इनमेंसे पूर्व-पूर्व अञ्जलीकी अपेक्षा उत्तरोत्तर सभी अञ्जलियाँ मात्रामें डेढ़ गुनी अधिक है। एक अञ्जलिमें आधी वौर्यको और आधी ओजकी है। विद्वानोंने स्त्रियों के रजकी चार अञ्जलियाँ बतायी हैं। यह शरीर मल और दोष आदिका पिण्ड है, ऐसा समझकर अपने अन्तःकरण में इसके प्रति होने वाली आसक्ति का त्याग करना चाहिये ॥ १-४३॥

इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें 'शरीरावयवविभागका वर्णन' नामक तीन सौ सत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३७०॥

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