अग्नि पुराण तीन सौ उनहत्तरवाँ अध्याय - Agni Purana 369 Chapter
तीन सौ उनहत्तरवाँ अध्याय - आत्यन्तिकलयगर्भोत्पत्तिनिरूपणम्
अग्निरुवाच
आत्यन्तिकं लयं वक्ष्ये ज्ञानादात्यन्तिको लयः ।
आध्यात्मिकादिसन्तापं ज्ञात्वा स्वस्य विरागतः ।। १ ।।
आध्यात्मिकस्तु सन्तापः शारीरो मानसो द्विधा ।
शारीरो बहुभिर्भेदैस्तापोऽसौ श्रूयतां द्विज ।। २ ।।
त्यक्त्वा जीवो भोगदेहं गर्भमाप्नोति कर्मभिः ।
आतिवाहिकसंज्ञस्तु देहो भवति वै द्विज ।। ३ ।।
केवलं स मनुष्याणां मृत्युकाल उपस्थिते ।
याम्यैः पुंभिर्मनुष्याणां तच्छरीरं द्विजोत्तमाः ।। ४ ।।
नीयते याम्यमार्गेण नान्येषां प्राणिनां मुने ।
ततः स्वर्य्याति नरकं स भ्रमेद्घटयन्त्रवत् ।। ५ ।।
कर्मभूमिरियं ब्रह्मन् फलभूमिरसौ स्मृता ।
यमो योनीश्च नरकं निरूपयति कर्मणा ।। ६ ।।
पूरणीयाश्च तेनैव यमञ्चैवानुपश्यतां ।
वायुभूताः प्राणिनश्च गर्भन्ते प्राप्नुवन्ति हि ।। ७ ।।
यमदूतैर्मनुष्यस्तु नीयते तञ्च पश्यति ।
धर्म्मी च पूज्यते तेन पापिष्ठस्ताड्यते गृहे ।। ८ ।।
शुभाशुभं कर्म्म तस्य चित्रगुप्तो निरूपयेत् ।
बान्धवानामशौचे तु देहे खल्वातिवाहिके ।। ९ ।।
तिष्ठन्नयति धर्म्मज्ञ दत्तपिण्डाशनन्ततः ।
तन्त्यक्त्वा प्रेतदेहन्तु प्राप्यान्यं प्रेतलोकतः ।। १० ।।
वसेत् क्षुधा तृषा युक्त आमश्राद्धान्नभुङ्नरः ।
आतिवाहिकदेहात्तु प्रेतपिण्डैर्विना नरः ।। ११ ।।
न हि मोक्षमवाप्नोति पिण्डांस्तत्रैव सोऽश्नुते ।
कृते सपिण्डीकरणे नरः संवत्सरात्परं ।। १२ ।।
प्रेतदेहं समुत्सृज्य भोगदेहं प्रपद्यते ।
भोगदेहावुभौ प्रोक्तावशुभशुभसंज्ञितौ ।। १३ ।।
भुक्त्वा तु भोगदेहेन कर्म्मबन्धान्निपात्यते ।
तं देहं परतस्तस्माद्भक्षयन्ति निशाचराः ।। १४ ।।
पापे तिष्ठति चेत् स्वर्गं तेन भुक्तं तदा द्विज ।
तदा द्वितायं गृह्णाति भोगदेहन्तु पापिनां ।। १५ ।।
भुक्त्वा पापन्तु वै पश्चाद्येन भुक्तं त्रिपिष्टपं ।
शुचीनां श्रीमतां गेहे स्वर्गभ्रष्टोऽभिजायते ।। १६ ।।
पुण्ये तिष्ठति चेत्पापन्तेन भुक्तं तदा भवेत् ।
तस्मिन् स्म्भक्षिते देहे शुभं गृह्णाति विग्रहम् ।। १७ ।।
कर्म्मण्यल्पावशेषे तु नरकादपि मुच्यते ।
मुक्तस्तु नरकाद्याति तिर्य्यग्योनिं न संशयः ।। १८ ।।
जीवः प्रविष्टो गर्भन्तु कललेऽप्यत्र तिष्ठति२ ।
घनीभूतं द्वितीये तु तृतीयेऽवयवास्ततः ।। १९ ।।
चतुर्थेऽस्थीनि त्वङ्मांसम्पञ्चमे रोमसम्भवः ।
षष्ठे चेतोऽथ जीवस्य दुःखं विन्दति सप्तमे ।। २० ।।
जरायुवेष्टिते देहे मूद्र्ध्नि बद्धाञ्जलिस्तथा ।
मध्ये क्लीवस्तु वासे स्त्री दक्षिणे पुरुषस्थितिः ।। २१ ।।
तिष्ठत्युदरभागो तु पृष्ठस्याबिमुखस्तथा ।
यस्यां तिष्ठत्यसौ योनौ तां स वेत्ति न संशयः ।। २२ ।।
सर्वञ्च वेत्ति वृत्तान्तमारभ्य नरजन्मनः ।
अन्ध्कारञ्च महतीं पीड़ां निन्दति मानवः ।। २३ ।।
मातुराहारपीतन्तु सप्तमे मास्युपाश्नुते ।
अष्टमे नवमे मासि भृशमुद्विजते तथा ।। २४ ।।
व्यवाये पीडडामाप्नोति मातुर्व्यायामके तथा ।
व्याधिश्च व्याधितायां स्यान्मुहूर्त्तं शतवर्षवत् ।। २५ ।।
सन्तप्यते कर्मभिस्तु कुरुतेऽथ मनोरथान् ।
गर्भाद्विनिर्गतो ब्रह्मन् मोक्षज्ञानं करिष्यति ।। २६ ।।
सूतिवातैरधोभूतो निःसरेद् योनियन्त्रतः ।
पीड्यमानो मासमात्रं करस्पर्शेन दुःखितः ।। २७ ।।
खशब्दात् क्षुद्रश्रोतांसि देहे श्रोत्रं विविक्तता ।
श्वासोच्छासौ गतिर्वायोर्वक्रसंस्पर्शनं तथा३ ।। २८ ।।
अग्नेरूपं दर्शनं स्यादूष्मा पङ्क्तिश्च पित्तकं ।
मेधा वर्णं बलं छाया तेजः शौर्य्यं शरीरके ।। २९ ।।
जलात्स्वेदश्च रसन्देहे वै संप्रजायते ।
क्लेदो वसा रसा रक्तं शुक्रमूत्रकफादिकं ।। ३० ।।
भूमेर्घ्राणं केशनखं गौरवं स्थिरतोऽस्थितः ।
मातृजानिः मृदून्यत्र त्वङ्मांसहृदयानि च ।। ३१ ।।
नाभिर्मज्जा४ शकृन्मेदः क्लेदान्यामाशयानि च ।
पितृजानि शिरास्नायुशुक्रञ्चैवात्मजानि तु ।। ३२ ।।
कामक्रोधौ भयं हर्पो धर्म्धाधर्म्मात्मता तथा ।
आकृतिः स्वरवर्णौ तु मेहनाद्यं तथा च यत् ।। ३३
तामसानि तथाऽज्ञानं प्रमादालस्यतृट्क्षुधाः ।
मोहमात्सर्य्यवैगुण्यशोकायासभयानि च ।। ३४ ।।
कामक्रोधौ तथा शौर्य्यं यज्ञेप्सा बहुभाषिता ।
अहङ्कारः परावज्ञा राजसानि महामुने ।। ३५ ।।
धर्मेप्सा मोक्षकामित्वं परा भक्तिश्च केशवे ।
दाक्षिण्यं व्यवसायित्वं सात्विकानि विनिर्दिशेत् ।। ३६ ।।
चपलः क्रोधनो भीरुर्बहुभाषी कलिप्रियः ।
स्वप्ने गगनगश्चैव बहुवातो नरो भवेत् ।। ३७ ।।
अकालपलितः क्रोधी महाप्राज्ञो रणप्रियः ।
स्वप्ने च दीप्तिमत्प्रेक्षी बहुपित्तो नरो भवेत् ।। ३८ ।।
स्थिरमित्रः स्थिरोत्साहः स्थिराङ्गो द्रविणान्वितः ।
स्वप्ने जलसितालोकी बहुश्लेष्मा नरो भवेत् ।। ३९ ।।
रसस्तु प्राणिनां देहे जीवनं रुधिरं तथा ।
लेपनञ्च तथा मांसमेहस्नेहकरन्तु तत् ।। ४० ।।
धारणन्त्वऽस्थि मज्जा स्यात्पूरणं वीर्य्यवर्धनं ।
शुक्रवीर्यकरं ह्योजः प्राणकृज्जीवसंस्थितिः ।। ४१ ।।
ओजः शुक्रात् सारतरमापीतं हृकदयोपगं ।
षडङ्गशक्थिनी बाहुर्मूर्धा जठरमीरितं ।। ४२ ।।
षटत्वचा वाह्यतो यद्वदन्या रुधिरधारिका ।
विलासधारिणी चान्या चतुर्थी कुण्डधारिणी ।। ४३ ।।
पञ्चमी विद्रधिस्थानं षष्ठी प्राणधरा मता ।
कला सप्तमी मांसधरा द्वितीया रक्तधारिणी ।। ४४ ।।
यकृत्प्लीहाश्रया चान्या मेदोधराऽस्थिधारिणी ।
मज्जाश्लेष्मपुरीषाणां धरा पक्काशयस्थिता ।।
षष्ठी पित्तधरा शुक्रधरा शुक्राशयाऽपरा ।। ४५ ।।
इत्यादिमहापुराणे आग्नेये आत्यन्तिकलयगर्भोत्पत्तिनिरूपणं नामोनसप्तत्यधिकत्रिशततमोऽध्यायः ।।
अग्नि पुराण - तीन सौ उनहत्तरवाँ अध्याय हिन्दी मे Agni Purana 369 Chapter In Hindi
तीन सौ उनहत्तरवाँ अध्याय - आत्यन्तिक प्रलय एवं गर्भकी उत्पत्तिका वर्णन
अग्निदेव कहते हैं- वसिष्ठजी! अब मैं 'आत्यन्तिक प्रलय' का वर्णन करूँगा। जब जगत्के आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक संतापोंको जानकर मनुष्यको अपनेसे भी वैराग्य हो जाता है, उस समय उसे ज्ञान होता है और ज्ञानसे इस सृष्टिका आत्यन्तिक प्रलय होता है (यही जीवात्माका मोक्ष है)। आध्यात्मिक संताप 'शारीरिक' और 'मानसिक' भेदसे दो प्रकारका होता है। ब्रह्मन् ! शारीरिक तापके भी अनेकों भेद हैं, उन्हें श्रवण कीजिये। जीव भोगदेहका परित्याग करके अपने कर्मोंके अनुसार पुनः गर्भमें आता है। वसिष्ठजी! एक 'आतिवाहिक' संज्ञक शरीर होता है, वह केवल मनुष्योंको मृत्युकाल उपस्थित होनेपर प्राप्त होता है। विप्रवर। यमराजके दूत मनुष्यके उस आतिवाहिक शरीरको यमलोकके मार्गसे ले जाते हैं। मुने। दूसरे प्राणियोंको न तो आतिवाहिक शरीर मिलता है और न वे यमलोकके मार्गसे ही ले जाये जाते हैं। तदनन्तर यमलोकमें गया हुआ जीव कभी स्वर्गमें और कभी नरकमें जाता है। जैसे रहट नामक यन्त्रमें लगे हुए घड़े कभी पानीमें डूबते हैं और कभी ऊपर आते हैं, उसी तरह जीवको कभी स्वर्ग और कभी नरकमें चक्कर लगाना पड़ता है। ब्रह्मन् ।
यह लोक कर्मभूमि है और परलोक फलभूमि। यमराज जीवको उसके कर्मानुसार भिन्न-भिन्न योनियों तथा नरकोंमें डाला करते हैं। यमराज ही जीवोंद्वारा नरकोंको परिपूर्ण बनाये रखते हैं। यमराजको ही इनका नियामक समझना चाहिये। जीव वायुरूप होकर गर्भमें प्रवेश करते हैं। यमदूत जब मनुष्यको यमराजके पास ले जाते हैं, तब वे उसकी ओर देखते हैं। (उसके कर्मोंपर विचार करते हैं- यदि कोई धर्मात्मा होता है तो उसकी पूजा करते हैं और यदि पापी होता है तो अपने घरपर उसे दण्ड देते हैं। चित्रगुप्त उसके शुभ और अशुभ कर्मोंका विवेचन करते हैं। धर्मके ज्ञाता वसिष्ठजी! जबतक बन्धु-बान्धवोंका अशीच निवृत्त नहीं होता, तबतक जीव आतिवाहिक शरीरमें ही रहकर दिये हुए पिण्डोंको भोजनके रूपमें अपने साथ ले जाता है। तत्पश्चात् प्रेतलोकमें पहुँचकर प्रेतदेह (आतिवाहिक शरीर) का त्याग करता है और दूसरा शरीर (भोगदेह) पाकर वहाँ भूख- प्याससे युक्त हो निवास करता है। उस समय उसे वही भोजनके लिये मिलता है, जो श्राद्धके रूपमें उसके निमित्त कच्चा अन्न दिया गया होता है। प्रेतके निमित्त पिण्डदान किये बिना उसको आतिवाहिक शरीरसे छुटकारा नहीं मिलता, वह उसी शरीरमें रहकर केवल पिण्डोंका भोजन करता है। सपिण्डीकरण श्राद्ध करनेपर एक वर्षके पश्चात् वह प्रेतदेहको छोड़कर भोगदेहको प्राप्त होता है। 'भोगदेह' दो प्रकारके बताये गये हैं- शुभ और अशुभ।
भोगदेहके द्वारा कर्मजनित बन्धनोंको भोगनेके पश्चात् जीव मत्र्यलोकमें गिरा दिया जाता है। उस समय उसके त्यागे हुए भोगदेहको निशाचर खा जाते है। ब्रह्मन् । यदि जीव भोगदेहके द्वारा पहले पुण्यके फलस्वरूप स्वर्गका सुख भोग लेता है और पाप भोगना शेष रह जाता है तो वह पापियोंके अनुरूप दूसरा भोगशरीर धारण करता है। परंतु जो पहले पापका फल भोगकर पीछे स्वर्गका सुख भोगता है, वह भोग समाप्त होनेपर स्वर्गसे भ्रष्ट होकर पवित्र आचार-विचारवाले धनवानोंके घरमें जन्म लेता है। वसिष्ठजी! यदि जीव पुण्यके रहते हुए पहले पाप भोगता है तो उसका भोग समाप्त होनेपर वह पुण्यभोगके लिये उत्तम (देवोचित) शरीर धारण करता है। जब कर्मका भोग थोड़ा-सा ही शेष रह जाता है तो जीवको नरकसे भी छुटकारा मिल जाता है। नरकसे निकला हुआ जीव पशु-पक्षी आदि तिर्यग्योनिमें ही जन्म लेता है; इसमें तनिक भी संदेह नहीं है॥ १-१८॥
(मानवयोनिके) गर्भमें प्रविष्ट हुआ जीव पहले महीनेमें कलल (रज-वीर्यके मिश्रित बिन्दु)- के रूपमें रहता है, दूसरे महीनेमें वह घनीभूत होता हैं (कठोर मांसपिण्डका रूप धारण करता है और) तीसरे महीने शरीरके अवयव प्रकट हो जाते हैं। चौथे महीनेमें हड्डी, मांस और त्वचाका प्राकट्य होता है। पाँचवेंमें रोएँ निकल आते हैं। छठे महीनेमें उसके भीतर चेतना आती है और सातवेंसे वह दुःखका अनुभव करने लगता है। उसका सारा शरीर झिल्लियोंमें लिपटा होता है और मस्तकके पास उसके जुड़े हुए हाथ बँधे रहते हैं। यदि गर्भका बालक नपुंसक हो तो वह उदरके मध्यभागमें रहता है, कन्या हो तो वामभागमें और पुत्र हो तो दायें भागमें रहा करता है। पेटके विभिन्न भागोंमें रहकर वह पीठकी ओर मुँह किये रहता है। जिस योनिमें वह रहता है, उसका उसे अच्छी तरह ज्ञान होता है, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। इतना ही नहीं, वह मनुष्यजन्मसे लेकर वर्तमान जन्मतकके अपने सभी वृत्तान्तोंका स्मरण करता है। गर्भके उस अन्धकारमें जीवको बड़े कष्टका अनुभव होता है। सातवें महीनेमें वह माताके खाये पीये हुए पदार्थोंका रस पीने लगता है। आठवें और नवें महीनेमें उसको गर्भके भीतर बड़ा उद्वेग होता है। मैथुन होनेपर तो उसे और भी वेदना होती है। माताके अधिक परिश्रम करनेपर भी गर्भके बालकको कष्ट होता है। यदि माँ रोगिणी हो जाय तो बालकको भी रोगका कष्ट भोगना पड़ता है। उसके लिये एक मुहूर्त (दो घड़ी) भी सौ वर्षोंके समान हो जाता है ॥ १९-२५ ॥
जीव अपने कर्मों के अनुसार गर्भमें संतप्त होता है। फिर वह ऐसे मनोरथ करने लगता है, मानो गर्भसे निकलते ही मोक्षके साधनभूत ज्ञानके प्रयत्नमें लग जायगा। प्रसूति वायुकी प्रेरणासे उसका सिर नीचेकी ओर हो जाता है और वह योनियन्त्रसे पीड़ित होता हुआ गर्भसे बाहर निकल आता है। बाहर आनेपर एक महीनेतक उसकी ऐसी स्थिति रहती है कि कोई हाथसे छूता है तो भी उसे कष्ट होता है। 'ख' शब्दवाच्य आकाशसे शरीरके भीतर छोटे-छोटे छेद, कान तथा शून्यता (अवकाश आदि) उत्पन्न होते हैं। श्वासोच्छ्वास, गति और अङ्गोंको टेढ़ा- मेढ़ा करके किसीका स्पर्श करना- ये सब वायुके कार्य हैं। रूप, नेत्र, गर्मी, पाचन क्रिया, पित्त, मेधा, वर्ण, बल, छाया, तेज और शौर्य- ये शरीरमें अग्नितत्त्वसे प्रकट होते हैं। पसीना, रसना (स्वादका अनुभव करनेवाली जिह्वा), क्लेद (गलना), वसा (चर्बी), रसा (रस- ग्रहणकी शक्ति), शुक्र (वीर्य), मूत्र और कफ आदिका जो देहमें प्रादुर्भाव होता है, वह जलका कार्य है। प्राणेन्द्रिय, केश, नख और शिराएँ (नाड़ियाँ) भूमितत्त्वसे प्रकट होती हैं। शरीरमें जो कोमल पदार्थ त्वचा, मांस, हृदय, नाभि, मज्जा, मल, मेदा, क्लेदन और आमाशय आदि हैं, वे माताके रजसे उत्पन्न होते हैं। शिरा, स्नायु और शुक्रका प्रादुर्भाव पितासे होता है तथा काम, क्रोध, भय, हर्ष, धर्माधर्ममें प्रवृत्ति, आकृति, स्वर, वर्ण और मेहन (मूत्रादिकी क्रिया) आदि जीवके शरीरमें स्वतः प्रकट होते हैं (ये दोष और गुण उसके अपने हैं)। अज्ञान, प्रमाद, आलस्य, क्षुधा, तृषा, मोह, मात्सर्य, वैगुण्य, शोक, आभास और भय आदि भाव तमोगुणसे होते हैं। महामुने। काम, क्रोध, शौर्य, यज्ञकी अभिलाषा, बहुत बोलनेकी आदत, अहंकार तथा दूसरोंका अनादर करना- ये रजोगुणके कार्य हैं। धर्मकी अभिलाषा, मोक्षकी आकाङ्क्षा, भगवान् विष्णुमें पराभक्तिका होना, उदारता और उद्योगशीलता- इन्हें सत्वगुणसे उत्पन्न समझना चाहिये ॥ २६-३६ ॥
चञ्चल, क्रोधी, डरपोक, अधिक बातूनी, कलहमें रुचि रखनेवाला तथा स्वप्नमें आकाश-मार्गसे उड़नेवाला मनुष्य अधिक वातवाला होता है-उसमें वातकी प्रधानता होती है। जिसके असमयमें ही बाल सफेद हो जायें, जो क्रोधी, महाबुद्धिमान् और युद्धको पसंद करनेवाला हो, जिसे सपनेमें प्रकाशमान वस्तुएँ अधिक दिखायी देती हों, उसे पित्तप्रधान प्रकृतिका मनुष्य समझना चाहिये। जिसकी मैत्री, उत्साह और अङ्ग सभी स्थिर हों, जो धन आदिसे सम्पन हो तथा जिसे स्वप्नमें जल एवं श्वेत पदार्थोंका अधिक दर्शन होता हो, उस मनुष्यमें कफकी प्रधानता है। प्राणियोंके शरीरमें रस जीवन देनेवाला होता है, रक्त लेपनका कार्य करता है तथा मांस मेहन एवं स्नेहन क्रियाका प्रयोजक है। हड्डी और मज्जाका काम है शरीरको धारण करना। वीर्यकी वृद्धि शरीरको पूर्ण बनानेवाली होती है। ओज शुक्र एवं वीर्यका उत्पादक है; वही जीवकी स्थिति और प्राणकी रक्षा करनेवाला है।
ओज शुक्रकी अपेक्षा भी अधिक सार वस्तु है। वह हृदयके समीप रहता है और उसका रंग कुछ-कुछ पीला होता है। दोनों जंघे (ये समस्त पैरके उपलक्षण हैं), दोनों भुजाएँ, उदर और मस्तक ये छः अङ्ग बताये गये हैं। त्वचाके छः स्तर हैं। एक तो वही है, जो बाहर दिखायी देती है। दूसरी वह है, जो रक्त धारण करती है। तीसरी किलास (धातुविशेष) और चौथी कुण्ड (धातुविशेष) को धारण करनेवाली है। पाँचवीं त्वचा इन्द्रियोंका स्थान है और छठी प्राणोंको धारण करनेवाली मानी गयी है। कला भी सात प्रकारकी है- पहली मांस धारण करनेवाली, दूसरी रक्तधारिणी, तीसरी जिगर एवं प्लीहाको आश्रय देनेवाली, चौथी मेदा और अस्थि धारण करनेवाली, पाँचवीं मज्जा, श्लेष्मा और पुरीषको धारण करनेवाली, जो पक्वाशयमें स्थित रहती है, छठी पित्त धारण करनेवाली और सातवीं शुक्र धारण करनेवाली है। वह शुक्राशयमें स्थित रहती है ॥ ३७-४५॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महात्पुराणमें 'आत्यन्तिक प्रलय तथा गर्भकी उत्पत्तिका वर्णन' नामक तीन सी उनहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ॥ ३६९॥
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