अग्नि पुराण तीन सौ अड़सठवाँ अध्याय - Agni Purana 368 Chapter

अग्नि पुराण तीन सौ अड़सठवाँ अध्याय  - Agni Purana 368 Chapter

अग्नि पुराण तीन सौ अड़सठवाँ अध्याय - नित्यनैमित्तिकप्राकृतप्रलयाः

अग्निरुवाच

चतुर्विधस्तु प्रलयो नित्यो यः प्राणिनां लयः ।
सदा विनाशो जातानां ब्राह्मो नैमित्तिको लयः ।। १ ।।

चतुर्यगसहस्त्रान्ते प्राकृतः प्राकृतो लयः
लय आत्यन्तिको ज्ञानादात्मनः परमात्मनि ।। २ ।।

नैमित्तिकस्य कल्पान्ते वक्ष्ये रूपं लयस्य ते ।
चतुर्युगसहस्नान्ते क्षीणप्राये महीतले ।। ३ ।।

अनावृष्टिरतीवोग्रा जायते शतवार्षिकी ।
ततः सत्त्वक्षयः स्याच्च ततो विष्णुर्जगत्पतिः ।। ४ ।।

स्थितो जलानि पिवति भानोः सप्तसु रश्मिषु ।
भूपार्तालसमुद्रादितोयं नयति संक्षयं ।। ५ ।।

ततस्तस्यानुभावेन तोयाहारोपबृंहिताः ।
त एव रश्मयः सप्त जायन्ते सप्त भास्कराः ।। ६ ।।

दहन्त्यऽशेषं त्रैलोक्यं सपातालतलं द्विज।
सूर्म्मपृष्ठसमा भूः स्यात्ततः कालाग्निरुद्रकः ।। ७ ।।

शेषाहिश्वाससम्बातात् पातालानि दहत्यधः ।
पातालेभ्यो भुवं विष्णुर्भुवः स्वर्गं दहत्यतः ।। ८ ।।

अम्बरी षमिवाभाति त्रैलोक्यामखिलं तथा ।
ततस्तापपरीतास्तु लोकद्वयनिवासिनः ।। ९ ।।

गच्छन्ति ते महर्लोकं महर्लोकाज्जनं ततः ।
रुद्ररूपी जगद्दग्ध्वा मुखनिश्वासतो हरेः ।। १० ।।

उत्तिष्ठन्ति ततो मेघा नानारूपाः सविद्युतः ।
शतं वंर्षाणि वर्षन्तः शमयन्त्यग्निमुत्थितम् ।। ११ ।।

सप्तर्षिस्थानमाक्रम्य स्थितेऽम्भसि शतं मरुत् ।
मुखनिश्वासतो विष्णोर्नाशं नयति तान् घनान् ।। १२ ।।

वायुं पीत्वा हरिः शेषे शेते चैकार्णवे प्रमुः ।
ब्रह्मरूपधऱः सिद्धैर्जलगैर्मुनिभिस्तुतः ।। १३ ।।

आत्ममायामयीं दिव्यां योगनिद्रां समास्थितः ।
आत्मानं वासुदेवाख्यां चिन्तयन्मधुसूदनः ।। १४ ।।

कल्पं शेते प्रबुद्धोऽथ ब्रह्मरूपी सृजत्यऽसौ ।
द्विपरार्धन्ततो व्यक्तं प्रकृतौ लीयते द्विज ।। १५ ।।

स्थानात् स्थानं दशगुणमेकस्माद् गुण्यते स्थले ।
ततोऽष्टादशमे भागे परार्द्धमभिधीयते ।। १६ ।।

परार्धं द्विगुणं यत्तु प्राकृतः प्रलयः स्मृतः ।
अनावृष्ट्याऽग्निसम्पर्कात् कृते संज्वलने द्विज ।। १७ ।।

महदादेर्विकारस्य विशेषान्तस्य संक्षये ।
कृष्णेच्छाकारिते तस्मिन् सम्प्राप्ते प्रतिसञ्चरे ।। १८ ।।

आपो ग्रसन्ति वै पूर्ब्वं भूमेर्गन्धादिकं गुणं ।
आत्मगन्धात्ततो भूमिः प्रलयत्वाय कल्पते ।। १९ ।।

रसात्मिकाश्च तिष्ठन्ति ह्यापस्तासां रसो गुणः ।
पीयते ज्योतिषा तासु नष्टास्वग्निश्च दीप्य्ते ।। २० ।।

ज्योतिषोऽपि गुणं रूपं वायुर्ग्रसति भास्करं ।
नष्टे ज्योतिषि वायुश्च बली दोधूयते महान् ।। २१ ।।

वायोरपि गुणं स्पर्शमाकाशं ग्रसते ततः ।
वायौ नष्टे तु चाकाशन्नीरवं तिष्ठति द्विज ।। २२ ।।

आकाशस्याथ वै शब्दं भूतादिर्ग्रसते च खं ।
अबिमानात्मकं खञ्च भूतादि ग्रसते महान् ।। २३ ।।

भूमिर्याति लयञ्चाप्सु आपो ज्योतिषि तद्‌व्रजेत् ।
वायौ वायुश्च खे खञ्च अहङ्कारे लयं स च ।। २४ ।।

महत्तत्त्वे महान्तञ्च प्रकृतिर्ग्रसते द्विज ।
व्यक्ताऽव्यक्ता च प्रकृतिर्व्यक्तस्याव्यक्तके लयः ।। २५ ।।

पुमानेकाक्षरः शुद्धः सोऽप्यंशः परमात्मनः ।
प्रकृतिः पुरुषशचैचौ लीयेते परमात्मनि ।। २६ ।।

न सन्ति यत्र सर्वेशे नामजात्यादिकल्पनाः ।
सत्तामात्रात्मके ज्ञेये ज्ञानात्मन्यात्मनः परे ।। २७ ।।

इत्यादिमहापुराणे आग्नेये नित्यनैमित्तिकप्राकृतप्रलया नामाष्टषष्ट्यधिकत्रिशततमोऽध्यायः॥

अग्नि पुराण - तीन सौ अड़सठवाँ अध्याय हिन्दी मे Agni Purana 368 Chapter In Hindi

तीन सौ अड़सठवाँ अध्याय नित्य, नैमित्तिक और प्राकृत प्रलयका वर्णन

अग्निदेव कहते हैं- मुनिवर! 'प्रलय' चार प्रकारका होता है-नित्य, नैमित्तिक, प्राकृत और आत्यन्तिक। जगत्में उत्पन्न हुए प्राणियोंकी जो सदा ही मृत्यु होती रहती है, उसका नाम 'नित्य प्रलय' है। एक हजार चतुर्युग बीतनेपर जब ब्रह्माजीका दिन समाप्त होता है, उस समय जो सृष्टिका लय होता है, वह 'ब्राह्म लय'के नामसे प्रसिद्ध है। इसीको 'नैमित्तिक प्रलय' भी कहते हैं। पाँचों भूतोंका प्रकृतिमें लीन होना 'प्राकृत प्रलय' कहलाता है तथा ज्ञान हो जानेपर जब आत्मा परमात्माके स्वरूपमें स्थित होता है, उस अवस्थाका नाम 'आत्यन्तिक प्रलय' है। कल्पके अन्तमें जो नैमित्तिक प्रलय होता है, इसके स्वरूपका मैं आपसे वर्णन करता हूँ। जब चारों युग एक हजार बार व्यतीत हो जाते हैं, उस समय यह भूमण्डल प्रायः क्षीण हो जाता है, तब सौ वर्षोंतक यहाँ बड़ी भयंकर अनावृष्टि होती है। 

उससे भूतलके सम्पूर्ण जीव-जन्तुओंका विनाश हो जाता है। तदनन्तर जगत्के स्वामी भगवान् विष्णु सूर्यको सात किरणोंमें स्थित होकर पृथ्वी, पाताल और समुद्र आदिका सारा जल पी जाते हैं। इससे सर्वत्र जल सूख जाता है। तत्पश्चात् भगवान्‌की इच्छासे जलका आहार करके पुष्ट हुई वे ही सातों किरणें सात सूर्यके रूपमें प्रकट होती हैं। वे सातों सूर्य पातालसहित समस्त त्रिलोकीको जलाने लगते हैं।' उस समय यह पृथ्वी कछुएको पीठके समान दिखायी देती है। फिर भगवान् शेषके श्वासोंसे 'कालाग्नि रुद्र'का प्रादुर्भाव होता है और वे नीचेके समस्त पातालोंको भस्म कर डालते हैं। पातालके पश्चात् भगवान् विष्णु भूलोकको, फिर भुवर्लोकको तथा सबके अन्तमें स्वर्गलोकको भी दग्ध कर देते हैं। उस समय समस्त त्रिभुवन जलते हुए भाड़-सा प्रतीत होता है। तदनन्तर भुवोंक और स्वर्ग- इन दो लोकोंके निवासी अधिक तापसे संतप्त होकर 'महलोंक' में चले जाते हैं तथा महर्लोकसे जनलोकमें जाकर स्थित होते हैं। शेषरूपी भगवान् विष्णुके मुखोच्छ्‌वाससे प्रकट हुए कालाग्निरुद्र जब सम्पूर्ण जगत्‌को जला डालते हैं, तब आकाशमें नाना प्रकारके रूपवाले बादल उमड़ आते हैं, उनके साथ बिजलीकी गड़गड़ाहट भी होती है। 

वे बादल लगातार सौ वर्षोंतक वर्षा करके बढ़ी हुई आगको शान्त कर देते हैं। जब सप्तर्षियोंके स्थानतक पानी पहुँच जाता है, तब विष्णुके मुखसे निकली हुई साँससे सौ वर्षोंतक प्रचण्ड वायु चलती रहती है, जो उन बादलोंको नष्ट कर डालती है। फिर ब्रह्मरूपधारी भगवान् उस वायुको पौकर एकार्णवके जलमें शयन करते हैं। उस समय सिद्ध और महर्षिगण जलमें स्थित होकर भगवान्‌की स्तुति करते हैं और भगवान् मधुसूदन अपने 'वासुदेव' संज्ञक आत्माका चिन्तन करते हुए, अपनी ही दिव्य मायामयी योगनिद्राका आश्रय ले एक कल्पतक सोते रहते हैं। तदनन्तर जागनेपर वे ब्रह्माके रूपमें स्थित होकर पुनः जगत्‌को सृष्टि करते हैं। इस प्रकार जब ब्रह्माजीके दो परार्द्धकी आयु समाप्त हो जाती है, तब यह सारा स्थूल प्रपञ्च प्रकृतिमें लीन हो जाता है॥ १-१५॥

इकाई-दहाईके क्रमसे एकके बाद दसगुने स्थान नियत करके यदि गुणा करते चले जायें तो अठारहवें स्थानतक पहुँचनेपर जो संख्या बनती है, उसे 'परार्द्ध' कहते हैं। परार्द्धका दूना समय व्यतीत हो जानेपर 'प्राकृत प्रलय' होता है। समय वर्षाके एकदम बंद हो जाने और सब प्रचण्ड अग्नि प्रज्वलित होनेके कारण सब भस्म हो जाता है। महत्तत्त्वसे लेकर विशेषपर्यन्त सभी विकारों (कार्यों) का नाश हो जाता है भगवान्‌के संकल्पसे होनेवाले उस प्राकृत प्रलयके प्राप्त होनेपर जल पहले पृथ्वीके गन्ध आदि गुणको ग्रस लेता है- अपनेमें लीन कर लेता है तब गन्धहीन पृथ्वीका प्रलय हो जाता है-उस समय जलमें घुल-मिलकर वह जलरूप हो जाती है। उसके बाद रसमय जलकी स्थिति रहती है। फिर तेजस्तत्व जलके गुण रसको पी जाता है। इससे जलका लय हो जाता है जलके लीन हो जानेपर अग्नितत्त्व प्रज्वलित होता रहता है। तत्पश्चात् तेजके प्रकाशमय गुण रूपको वायुत्तत्त्व ग्रस लेता है। 

इस प्रकार तेजके शान्त हो जानेपर अत्यन्त प्रबल एवं प्रचण्ड वायु बड़े वेगसे चलने लगती है। फिर वायुके गुण स्पर्शको आकाश अपनेमें लीन कर लेता है गुणके साथ ही वायुका नाश होनेपर केवल नीरव आकाशमात्र रह जाता है। तदनन्तर भूतादि (तामस अहंकार) आकाशके गुण शब्दको ग्रस लेता है तथा तैजस अहंकार इन्द्रियों को अपने में लीन कर लेता है। इसके बाद महत्तत्त्व अभिमान स्वरूप भूतादि एवं तैजस अहंकारको ग्रस लेता है। इस तरह पृथ्वी जलमें लीन होती है, जल तेजमें समा जाता है, तेजका वायुमें, वायु का आकाशमें और आकाशका अहंकारमें लय होता है। फिर अहंकार महत्तत्त्वमें प्रवेश कर जाता है। ब्रह्मन् ! उस महत्तत्त्वको भी प्रकृति ग्रस लेती है। प्रकृतिके दो स्वरूप हैं-'व्यक्त' और 'अव्यक्त'। इनमें व्यक्त प्रकृतिका अव्यक्त प्रकृतिमें लय होता है। एक, अविनाशी और शुद्धस्वरूप जो पुरुष है, वह भी परमात्माका ही अंश है, अतः अन्तमें प्रकृति और पुरुष ये दोनों परमात्मामें लीन हो जाते हैं। परमात्मा सत्स्वरूप ज्ञेय और ज्ञानमय है। वह आत्मा (बुद्धि आदि) से सर्वथा परे है। वही सबका ईश्वर 'सर्वेश्वर' कहलाता है। उसमें नाम और जाति आदिकी कल्पनाएँ नहीं हैं॥ १६-२७॥

इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें 'नित्य, नैमित्तिक तथा प्राकृत प्रलयका वर्णन' नामक तीन सौ अड़सठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३६८ ॥

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