अग्नि पुराण तीन सौ छाछठवाँ अध्याय - Agni Purana 366 Chapter
अग्नि पुराण तीन सौ छाछठवाँ अध्याय - क्षत्रविट्शूद्रबर्गाः
अग्निरुवाच
मूर्द्धाभिषिक्तो राजन्यो बाहुजः क्षत्रियो विराट् ।
राजा तु प्रणताशेपसामन्तः । स्यादधीश्वरः ।। १ ।।
चक्रवर्त्ती सार्वभौमो नृपोऽन्यो मण्डलेश्वरः ।
मन्त्री धीसचिवोऽमात्यो महामात्राः प्रधानकाः ।। २ ।।
द्रष्टरि व्यवहाराणां प्राड्विवाकाऽक्षदर्शकौ ।
भौरिकः कनकाध्यक्षोऽथाद्यक्षाधिकृतौ समौ ।। ३ ।।
अन्तःपुरे त्वधिकृतः स्यादन्तर्वंशिको जनः ।
सौविदल्लाः कञ्चुकिनः स्थापत्याः सौविदाश्च ते ।। ४ ।।
षण्डो वर्षवरस्तुल्याः सेवकार्थ्यनुजीविनः ।
विषयानन्तरो राजा शत्रुमित्रमतः परं ।। ५ ।।
उदासीनः परतरः पार्ष्णिग्राहस्तु पृष्ठतः ।
चरः स्पशः स्यात्प्रणिधिरुत्तरः काल आयतिः ।। ६ ।।
तत्कालस्तु तदात्वं स्यादुदर्कः फलमुत्तरं ।
अदृष्टं वह्नितोयादि दृष्टं स्वपरचक्रजम् ।। ७ ।।
भद्रकुम्भः पूर्णकुम्भो भृङ्गारः कनकालुका ।
प्रभिन्नो गर्जितो मत्तो वमथुः करशीकरः ।। ८ ।।
स्त्रियां श्रृणिस्त्वङ्कुशोऽस्त्री परिस्तोमः कुथो द्वयोः ।
कर्णीरथः प्रवहणं दोला प्रेङ्खादिका स्त्रियां ।। ९ ।।
आधोरणा हस्तिपका हस्त्यारोहा निषादिनः ।
भटा योधाश्च योद्धारः कञ्चुको वारणोऽस्त्रियां ।। १० ।।
शीर्षण्यञ्च शिरस्त्रेऽथ तनुत्रं वर्म्म दंशनं ।
आमुक्तः प्रतिमुक्तश्च पिनद्धश्चापिनद्धवत् ।। ११ ।।
व्यूहस्तु बलविन्यासश्चक्रञ्चानीकमस्त्रियां ।
एकेभैकरथा त्र्यश्वाः पत्तिः वञ्चपदातिकाः ।। १२ ।।
पत्त्यङ्गैस्त्रिगुणैः सर्वैः क्रमादाख्या यथोत्तरं ।
सेनामुखं गुल्मगणै वाहिनी पृतना चमूः ।। १३ ।।
अनीकिनी दशानीकिन्योऽक्षोहिण्यो गजीदिभिः ।
धनुः कोदण्डइष्वासौ कोटिरस्याटनी स्मृता ।। १४ ।।
नस्तकस्तु धनुर्मध्यं मौर्वी ज्या शिञ्जिनी गुणः ।
पृषत्कबाणविशिखा अजिह्मगखगाशुगाः ।। १५ ।।
तूणोपासङ्गतूणीरनिषङ्गा इषुधिर्द्वयोः।
असिर्ऋष्टिश्च निस्त्रिशः करवालः कृपाणवत् ।। १६ ।।
सरुः खङ्गस्य मुष्टौ स्यादीली तु करपालिका ।
द्वयोः कुठारः सुधितिः छुरिका चासिपुत्रिका ।। १७ ।।
प्रासस्तु कुन्तो विज्ञेयः सर्वला तोमरोऽस्त्रियां ।
वैतालिका बोधकरा मागधा वन्दिनस्तुतौ ।। १८ ।।
संशप्तकास्तु समयात्सङ्ग्ग्रामादनिवर्त्तिनः ।
पताका वैजयन्ती स्यात् केतनं ध्वजमस्त्रियां ।। १९ ।।
अहं पूर्वमहं पूर्व्वमित्यहंपूर्व्विका स्त्रियां ।
अहमहमिका सा स्याद्योऽहङ्कारः परस्परम् ।। २० ।।
शक्तिः पराक्रमः प्राणः शौर्य्यं स्थानसहोबलं ।
मूर्छा तु कश्मलं मोहोऽप्यवमर्द्दस्तु पीड़़नं ।। २१ ।।
अभ्यवस्कन्दनन्त्वभ्यासादनं विजयो जयः ।
निर्वासनं संज्ञपनं सारणं प्रतिघातनं ।। २२ ।।
स्यात्पञ्चता कालधर्भो दिष्टान्तः प्रलयोऽत्य्यः ।
विशो भूमिस्पृशो वैश्या वृत्तिर्वर्तनजीवने ।। २३ ।।
कृष्यादिवृत्तयो ज्ञेयाः कुसीदं वृद्धिजीविका ।
उद्धारोऽर्थप्रयोगः स्यात्कणिशं सस्यमञ्जरी ।। २४ ।।
सिंशारुः सस्यशूकं स्यात् स्तम्बो गुत्सस्तृणादिनः ।
धान्यं व्रीहिः स्तम्बकरिः कड़ङ्गरो वुषं स्मृतं ।। २५ ।।
माषादयः शमीधान्ये शुकधान्ये यवादयः ।
तृणधान्यानि नीवाराः शूर्पं प्रस्फोटनं स्मृतं ।। २६ ।।
स्यूतप्रसेवौ कण्डोलपिटौ कटकिनिञ्जकौ ।
समानौ रसवत्यान्तु पाकस्थानमहानसे ।। २७ ।।
पौरोगवस्तदध्यक्षः सूपकारास्तु वल्लवाः ।
आरालिका आन्धसिकाः सूदा औदनिका गुणाः ।। २८ ।।
क्लीवेऽग्वरीषं भ्राष्टो ना कर्कर्य्यालुर्गलन्तिका ।
आलिञ्जरः स्यान्मणिकं सुषवी कृष्णजीरके ।। २९ ।।
आरनालस्तु कुल्माषं वाह्लीकं हिङ्गु रामठं ।
निशा हरिद्रा पीता स्त्री खण्डे मत्स्यण्डिफाणिते ।। ३० ।।
कूर्चिका क्षीरविकृतिः स्निग्धं मसृणचिक्कणं ।
पृथुकः स्याच्चिपिटको धाना भ्रष्टयवास्त्रियः ।। ३१ ।।
जेमनं लेप आहारो माहेयी सौरभी च गौः ।
युगादीनाञ्च वोढारो युग्यप्रासङ्ग्यशाटकाः ।। ३२ ।।
चिरसूता वष्कयणी धेनुः स्यान्नवसूतिका ।
सन्धिनी वृषभाक्रान्ता वेहद्गर्भोपघातिनी ।। ३३ ।।
पण्याजीवो ह्यापणिको न्यासश्चोपनिधिः पुमान् ।
विपणो विक्रयः सङ्ख्या सङ्ख्येये ह्यादश त्रिषु ।। ३४ ।।
विंशत्याद्याः सदैकत्वे सर्व्वाः संख्येयसंख्ययोः ।
संख्यार्थे द्विबहुत्वे स्तस्तासु चानवतेः स्त्रियः ।। ३५ ।।
पङ्क्तेः शतसहस्रादि क्रममाद्दशगुणोत्तरं ।
मानन्तुलाङ्गुलिप्रस्थैर्गुञ्जाः पञ्चाद्यमाषकः ।। ३६ ।।
ते षोड़शाक्षः कर्षोऽस्त्री पलं कर्षचतुष्टयम् ।
सुवर्णविस्तौ हेम्नोऽक्षे कुरुविस्तस्तु तत्पले ।। ३७ ।।
तला स्त्रियां पलशतं भारः स्याद्विंशतिस्तुलाः ।
कार्षापणः कार्षिकः स्यात् कार्षिके ताम्रिके पणः ।। ३८ ।।
द्रव्यं वित्तं स्वापतेयं रिक्थमृक्थं धनं वसु ।
रीतिः स्त्रियामारकूटो न स्त्रियामथ ताम्रकम् ।। ३९ ।।
शुल्वमौदुम्बरं लौहे तीक्ष्णं कालायसायसी ।
क्षारं काचोऽथ चपलो रसः सूतश्च पारदे ।। ४० ।।
गरलं माहिषं श्रृङ्गं त्रपुसीसकपिच्चटं ।
हिण्डीरोऽब्धिकफः फेणो मधूच्छिष्टन्तु सिक्थकम् ।। ४१ ।।
रङ्गवङ्गे पिचुस्थूलो कूलटी तु मनःशिला ।
यवक्षारश्च पाक्यः स्यात् त्वक्क्षीरा वंशलोचना ।। ४२ ।।
वृषला जघन्यजाः शूद्राश्चाण्डालान्त्याश्च शङ्कराः ।
कारुः शिल्पी संहतैस्तैर्द्वयोः श्रेणिः सजातिभिः ।। ४३ ।।
रङ्गाजीवश्चित्रकरस्त्वष्टा तक्षा च वर्धकिः ।
नाडिन्धमः स्वर्णकारो नापितान्तावसायिनः ।। ४४ ।।
जावालः स्यादजाजीवो देवाजीवस्तु देवलः ।
जायाजीवास्तु शैलूषा भृतको भृतिभुक्तथा ।। ४५ ।।
विवर्णः पामरो नीचः प्राकृतश्च पृथग्जनः ।
विहीनोपसदो जाल्मो भृत्ये दासेरचेटकाः ।। ४६ ।।
पटुस्तु पेशलो दक्षे मृगयुर्लुब्धकः स्मृतः ।
चण्डालस्तु दिवाकीर्त्तिः पुस्तं लेप्यादिकर्म्मणि ।। ४७ ।।
पञ्चालिका पुत्रिका स्याद्वर्करस्तरुणः पशुः ।
मञ्जूषा पेटकः पेडा तुल्यसाधारणौ समौ ।।
प्रतिमा स्यात् प्रतिकृतिर्वर्गा ब्रह्मादयः स्मृताः ।। ४८ ।।
इत्यादिम्हापुराणे आग्नेये क्षत्रविट्शूद्रवर्गा नाम षट्षष्ट्यधिकत्रिशततमोऽध्यायः ॥
अग्नि पुराण - तीन सौ छाछठवाँ अध्याय हिन्दी मे Agni Purana 366 Chapter In Hindi
तीन सौ छाछठवाँ अध्याय क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र-वर्ग
अग्निदेव कहते हैं- मूर्धाभिषिक्त, राजन्य बाहुज, क्षत्रिय और विराट्- ये क्षत्रियके वाचक हैं। जिस राजाके सामने सभी सामन्त नरेश मस्तक झुकाते हैं, उसे अधीश्वर कहते हैं। जिसका समुद्रपर्यन्त समूची भूमिपर अधिकार हो, उस सम्राट्का नाम चक्रवर्ती और सार्वभौम है तथा दूसरे राजाओंको (जो छोटे-छोटे मण्डलोंके शासक हैं, उन्हें) मण्डलेश्वर कहते हैं। मन्त्रीके तीन नाम हैं-मन्त्री, धीसचिव और अमात्य। महामात्र और प्रधान- ये सामान्य मन्त्रियोंके वाचक हैं। व्यवहारके द्रष्टा अर्थात् मामले मुकदमेमें फैसला देनेवालेको प्राड्विवाक और अक्षदर्शक कहते हैं। सुवर्णकी रक्षा जिसके अधिकारमें हो वह भौरिक और कनकाध्यक्ष कहलाता है। अध्यक्ष और अधिकृत- ये अधिकारीके वाचक हैं। इन दोनोंका समान लिङ्ग है। जिसे अन्तःपुरकी रक्षाका अधिकार सौंपा गया हो, उसका नाम अन्तर्वशिक है। सौविदल्ल, कञ्जुकी, स्थापत्य और सौविद- ये रनिवासकी रक्षामें नियुक्त सिपाहियोंके नाम हैं। अन्तः पुरमें रहनेवाले नपुंसकोंको षण्ढ और वर्षवर कहते हैं। सेवक, अर्थी और अनुजीवी- ये सेवा करनेवालेके अर्थमें आते हैं। अपने राज्यकी सीमापर रहनेवाला राजा शत्रु होता है और शत्रुकी राज्य-सीमापर रहनेवाला नरेश अपना मित्र होता है। शत्रु और मित्र दोनोंकी राज्यसीमाओंके बाद जिसका राज्य हो, वह (न शत्रु, न मित्र) उदासीन होता है। विजिगीषु राजाके पृष्ठभागमें रहनेवाले राजाको पाणिग्राह कहते हैं। चर, स्पश और प्रणिधि- ये गुप्तचरके नाम हैं। भविष्यकालको आयति कहते हैं। तत्काल और तदात्व- ये वर्तमान कालके वाचक हैं। भावी कर्मफलको उदर्क कहते हैं। आग लगने या पानीकी बाढ़ आदिके कारण होने वाले भयको अदृष्टभय कहते हैं। अपने या शत्रुके राज्यमें रहनेवाले सैनिकों या चोरों आदिके कारण जो संकट उपस्थित होता है, उसका नाम दृष्टभय है। भरे हुए घड़ेको भद्रकुम्भ और पूर्णकुम्भ कहते हैं। सोनेके गडुए या झारीका नाम भृङ्गार और कनकालुका है। मतवाले हाथीको प्रभिन्न, गर्जित और मत्त कहते हैं।
हाथीकी सूँड़से निकलनेवाले जलकणको वमधु और करशीकर कहते हैं। सृणि और अङ्कुश ये दो हाथीको हाँकनेके काममें लाये जानेवाले लोहेके काँटेका बोध कराते हैं। इनमें सृणि तो स्त्रीलिङ्ग और अङ्कुश पुँल्लिङ्ग एवं नपुंसकलिङ्ग है। परिस्तोम और कुथ हाथीकी गद्दी और झुलके वाचक हैं। स्त्रियोंके बैठनेयोग्य पर्देवाली गाड़ीको कर्णीरथ और प्रवहण कहते हैं। दोला और प्रेङ्खा- ये झूला अथवा डोलीके नाम हैं। इनका स्त्रीलिङ्गमें प्रयोग होता है। आधोरण, हस्तिपक, हस्त्यारोह और निषादी- ये हाथीवानके अर्थमें आते हैं। लड़नेवाले सिपाहियोंको भट और योद्धा कहते हैं। कञ्चुक और वारण ये कवच (बख्तर) के नाम हैं। इनका प्रयोग स्त्रीलिङ्गके सिवा अन्य लिङ्गोंमें होता है।
शीर्षण्य और शिरस्त्र- ये सिरपर रखे जानेवाले टोपके नाम हैं। तनुत्र, वर्म और दंशन ये भी कवचके अर्थमें आते हैं। आमुक्त, प्रतिमुक्त, पिनद्ध और अपिनद्ध-ये पहने हुए कवचके वाचक हैं। सेनाकी मोर्चाबंदीका नाम व्यूह और बल-विन्यास है। चक्र और अनीक ये नपुंसकलिङ्ग शब्द सेनाके वाचक हैं। जिस सेनामें एक हाथी, एक रथ, तीन घोड़े और पाँच पैदल हों, उसे पत्ति कहते हैं। पत्तिके समस्त अङ्गोंको लगातार सात बार तीन गुना करते जायें तो उत्तरोत्तर उसके ये नाम होंगे-सेनामुख, गुल्म, गण, वाहिनी, पृतना, चमू और अनीकिनी। हाथी आदि सभी अङ्गॉसे युक्त दस अनीकिनी सेनाको अक्षौहिणी कहते हैं। धनुष, कोदण्ड और इष्वास ये धनुषके नाम हैं। धनुषके दोनों कोणोंको कोटि और अटनी कहते हैं। उसके मध्य भागका नाम नस्तक (या लस्तक) है। प्रत्यञ्चाको मौर्वी, ज्या, शिञ्जिनी और गुण कहते हैं। पृषत्क, बाण, विशिख, अजिह्मग, खग और आशुग-ये वाचक पर्याय शब्द हैं ॥ १-१६ ॥
तूण, उपासङ्ग, तूणीर, निषङ्ग और इषुधि- ये तरकसके नाम हैं। इनमें इषुधि शब्द पुल्लिङ्ग और स्त्रीलिङ्ग दोनों लिङ्गोंमें आता है। असि, ऋष्टि, निस्त्रिंश, करवाल और कृपाण - ये तलवारके वाचक हैं। तलवारकी मुष्टिको सरु कहते हैं। ईली और करपालिका (करवालिका) - ये गुप्तीके नाम हैं। कुठार और सुधिति (या स्वधिति) - ये कुल्हाड़ीके अर्थमें आते हैं। इनमें कुठार शब्दका प्रयोग पुल्लिङ्ग और नपुंसकलिङ्ग- दोनोंमें होता है। छुरीको क्षुरिका और असिपुत्रिका कहते हैं। प्रास और कुन्त भालेके नाम हैं। सर्वला और तोमर गँड़ासेके अर्थमें आते हैं। तोमर शब्द पुल्लिङ्ग और नपुंसकलिङ्ग- दोनोंमें प्रयुक्त होता है। (यह बाण-विशेषका भी बोधक है)। जो प्रातःकाल मङ्गल-गान करके राजाको जगाते हैं, उन्हें वैतालिक और बोधकर कहते हैं। स्तुति करनेवालोंका नाम मागध और वन्दी है। जो शपथ लेकर संग्रामसे पीछे पैर नहीं हटाते, उन योद्धाओंको संशप्तक कहते हैं। पताका और वैजयन्ती- ये पताकाके नाम हैं। केतन और ध्वज-ये ध्वजाके वाचक हैं और इनका प्रयोग नपुंसकलिङ्ग तथा पुल्लिङ्गमें भी होता है। 'मैं पहले "मैं पहले' ऐसा कहते हुए जो योद्धाओंकी युद्ध आदिमें प्रवृत्ति होती है, उसे अहम्पूर्विका कहते हैं। इसका प्रयोग स्त्रीलिङ्गमें होता है। 'मैं समर्थ हैं' ऐसा कहकर जो परस्पर अहंकार प्रकट किया जाता है, उसका नाम अहमहमिका है। शक्ति, पराक्रम, प्राण, शौर्य, स्थान (स्थामन्) सहस् और बल- ये सभी शब्द बलके वाचक हैं। मृच्छकि तीन नाम हैं- मूर्च्छा, कश्मल और मोह। विपक्षीको अच्छी तरह रगड़ने या कष्ट पहुँचानेको अवमर्द तथा पीडन कहते हैं। शत्रुको धर दबानेका नाम अभ्यवस्कन्दन तथा अभ्यासादन है। जीतको विजय और जय कहते हैं। निर्वासन, संज्ञपन, मारण और प्रातिघातन ये मारनेके नाम हैं। पञ्चता और कालधर्म- ये मृत्युके अर्थमें आते हैं। दिष्टान्त, प्रलय और अत्यय- इनका भी वही अर्थ है॥ १७-२२ ॥
विश्, भूमिस्पृश् और वैश्य ये शब्द वैश्यजातिका बोध करानेवाले हैं। वृत्ति, वर्तन और जीवन-ये जीविकाके वाचक हैं। कृषि, गोरक्षा और वाणिज्य ये वैश्यकी जीविका वृत्तियाँ हैं। ब्याज (सूद) से चलायी जानेवाली जीविकाका नाम कुसीद-वृत्ति है। ब्याजके लिये धन देनेको उद्धार और अर्थप्रयोग कहते हैं। अनाजकी बालका नाम 'कणिश' है। जी आदिके तीखे अग्रभागको किशारु तथा सस्यशूक कहते हैं। तृण आदिके गुच्छका नाम स्तम्ब है। धान्य, ब्रीहि और स्तम्बकरि-ये अनाजके वाचक हैं। अनाजके डंठलोंसे होनेवाले भूसेको कडंगर और बुष कहते हैं। शमीधान्य अर्थात् फली या छीमीसे निकलनेवाले अनाजके अंदर उड़द, चना और मटर आदिकी गणना है तथा शुकधान्यमें जी आदिकी गिनती है। तृणधान्य अर्थात् तीनाको नीवार कहते हैं। सूपका नाम है- शूर्प और प्रस्फोटन। सन या वस्त्रके बने हुए झोले अथवा थैलेको स्यूत और प्रसेव कहते हैं। कण्डोल और पिट टोकरीके तथा कट और किलिञ्जक चटाईके नाम हैं। इन दोनोंका एक ही लिङ्ग है। रसवती, पाकस्थान और महानस ये रसोईघरके अर्थमें आते हैं। रसोईके अध्यक्षका नाम पौरोगव है। रसोई बनानेवालेको सूपकार, बल्लव, आरालिक, आन्धसिक, सूद, औदनिक तथा गुण कहते हैं। नपुंसकलिङ्ग अम्बरीष तथा पुलिङ्ग भ्राष्ट्रशब्द भाड़के वाचक हैं। कर्करी, आलु तथा गलन्तिका - ये कठौतेके नाम हैं। बड़े घड़े या माटको आलिञ्जर एवं मणिक कहते हैं। काले जीरेका नाम सुषवी है। आरनाल और कुल्माष- ये काँजीके नाम हैं। वाहीक, हिङ्गु तथा रामठ- ये हींगके अर्थमें आते हैं। निशा, हरिद्रा और पीता-ये हल्दीके वाचक हैं। खाँड़को मत्स्यण्डि तथा फाणित कहते हैं। दूधके विकार अर्थात् खोवा या मावाका नाम कूचिका और क्षीरविकृति है। स्निग्ध, मसूण और चिक्कण- ये तीनों शब्द चिकनेके अर्थमें आते हैं। पृथुक और चिपिटक- ये चिउड़ाके वाचक हैं। भूने हुए जौको धाना कहते हैं। यह स्त्रीलिङ्ग शब्द है। जेमन, लेह (लेप) और आहार- ये भोजनका बोध करानेवाले हैं। माहेयी, सौरभी और गौ-ये गायके पर्याय हैं। कंधेपर जुआ ढोनेवाले बैलको युग्य और प्रासङ्गत्य तथा गाड़ी खींचनेवालेको शाकट कहते हैं। बहुत दिनोंकी ब्यायी हुई गायका नाम वष्कयणी (बकेना) तथा थोड़े दिनोंकी व्यायी हुईका नाम धेनु है। साँड़से लगी हुई गौको संधिनी कहते हैं। गर्भ गिरानेवाली गायकी 'बेहद' संज्ञा है ॥ २३-३३॥
पण्याजीव तथा आपणिक व्यापारीके अर्थमें आते हैं। न्यास और उपनिधि ये धरोहरके वाचक हैं। ये दोनों शब्द पुल्लिङ्ग हैं। बेचनेका नाम है विपण और विक्रय। संख्यावाचक शब्द एकसे लेकर 'दश' शब्दके श्रवण होनेतक (अर्थात् एकसे अष्टादशतक) केवल संख्येय द्रव्यका बोध करानेके लिये प्रयुक्त होते हैं, अतः उनका तीनों लिङ्गोंमें प्रयोग होता है। जैसे एकः पटः, एका स्त्री, एकं पुष्यम् इत्यादि; परंतु 'पञ्चन् 'से 'दशन्' शब्दतकके रूप तीनों लिङ्गोंमें समान होते हैं। यथा-दश स्त्रियः, दश पुरुषाः, दश पुष्पाणि इत्यादि। इसी प्रकार अष्टादशतक समझना चाहिये। संख्यामात्रका बोध करानेके लिये इन शब्दोंका प्रयोग नहीं होता; अतएव 'विप्राणां शतम्' इत्यादिके समान 'विप्राणां दश' यह प्रयोग नहीं हो सकता। विंशति आदि सभी संख्यावाची शब्द संख्या और संख्येय दोनों अर्थोंमें आते हैं तथा वे नित्य एक वचनान्त माने जाते हैं। (यथा संख्येयमें विंशतिः पटाः। संख्यामात्रमें- विंशतिः पटानाम् इत्यादि। परंतु इनकी एकवचनान्तता केवल संख्येय अर्थमें ही मानी गयी है।) संख्यामात्रमें ये द्विवचन और बहुवचन भी होते हैं (यथा दो बीस, तीन बीस आदिके अर्थमें-द्वे विंशती, त्रयो विंशतयः इत्यादि)। ऊनविंशतिसे लेकर नवनवतितक सभी संख्याशब्द स्त्रीलिङ्ग हैं (अतएव 'विंशत्या पुरुषैः' इत्यादि प्रयोग होते हैं)। 'पङ्गि' से लेकर शत, सहस्त्र आदि शब्द क्रमशः दसगुने अधिक है (यथा पङ्किः (१०), शतम् (१००), सहस्त्रम् (१०००), अयुतम् (१००००) इत्यादि)। मान तीन प्रकारके होते हैं-तुलामान, अङ्गुलिमान और प्रस्थमान। पाँच गुंजे (रत्ती) का एक माषक (माशा) होता है॥ ३४-३६॥
सोलह माषकका एक अक्ष होता है, इसीको कर्ष भी कहते हैं। कर्ष पुल्लिङ्ग भी है और नपुंसकलिङ्ग भी। चार कर्षका एक पल होता है। एक अक्ष सोनेको 'सुवर्ण' और बिस्त कहते हैं तथा एक पल सुवर्णका नाम 'कुरुविस्त' है। सी पलकी एक 'तुला' होती है, यह स्वीलिङ्ग शब्द है। बीस तुलाको 'भार' कहते हैं। चाँदीके रुपयेका नाम कार्षापण और कार्षिक है। ताँबेके पैसेको 'पण' कहते हैं। द्रव्य, वित्त, स्वापतेय, रिक्थ, ऋक्थ, धन और वसु-ये धनके वाचक हैं। स्त्रीलिङ्ग रीति शब्द और पुल्लिङ्ग आरकूट ये पीतलके अर्थमें प्रयुक्त होते हैं। ताँवाका नाम ताम्रक, शुल्ब तथा औदुम्बर है। तीक्ष्ण, कालायस और आयस- ये लोहेके अर्थमें आते हैं। क्षार और काँच-ये काँचके नाम हैं। चपल, रस, सूत और पारद-ये पाराके वाचक हैं। भैंसेके सींगका नाम गरल (या गवल) है। त्रपु, सीसक और पिच्चट-ये सीसाके अर्थमें प्रयुक्त होते हैं। हिण्डीर, अब्धिकफ तथा फेन-ये समुद्रफेनके वाचक हैं। मधूच्छिष्ट और सिक्थक- ये मोमके नाम हैं। रंग और वंग- राँगाके, पिचु और तूल-रुईके तथा कूलटी (कुनटी) और मनःशिला-मैनसिलके नाम हैं। यवक्षार और पाक्य-पर्यायवाची शब्द हैं। त्वक्क्षीरा और वंशलोचना-वंशलोचनके वाचक हैं॥ ३७-४२ ॥
वृषल, जघन्यज और शूद्र-ये शूद्रजाति के नाम हैं। चाण्डाल एवं अन्त्यज जातियाँ वर्णसंकर कहलाती हैं। शिल्पकर्मके ज्ञाताको कारु और शिल्पी कहते हैं (इनमें बढ़ई, थवई आदि सभी आ जाते हैं।) समान जातिके शिल्पियोंके एकत्रित हुए समुदायको श्रेणि कहते हैं। यह स्त्रीलिङ्ग और पुल्लिङ्ग दोनोंमें प्रयुक्त होता है। चित्र बनानेवालेको रङ्गाजीव और चित्रकार कहते हैं। त्वष्टा, तक्षा और वर्धकि ये बढ़ईके नाम हैं। नाडिन्धम और स्वर्णकार ये सुनारके वाचक हैं। नाई (हजाम) का नाम है नापित तथा अन्तावसायी। बकरी बेंचनेवाले गडरियेका नाम जाबाल और अजाजीव है। देवाजीव और देवल-ये देवपूजासे जीविका चलानेवालेके अर्थमें आते हैं। अपनी स्त्रियोंके साथ नाटक दिखाकर जीवन-निर्वाह करनेवाले नटको जायाजीव और शैलूष कहते हैं। रोजाना मजदूरी लेकर गुजर करनेवाले मजूरेका नाम भृतक और भृतिभुक् है। विवर्ण, पामर, नीच, प्राकृत, पृथग्जन, विहीन, अपसद और जाल्म ये नीचके वाचक हैं। दासको भृत्य, दासेर और चेटक भी कहते हैं। पटु, पेशल और दक्ष ये चतुरके अर्थमें आते हैं। मृगयु और लुब्धक ये व्याधके नाम हैं। चाण्डालको चाण्डाल और दिवाकीर्ति कहते हैं। पुताई आदिके काममें पुस्त शब्दका प्रयोग होता है। पञ्चालिका और पुत्रिका-पे पुतली या गुडियाके नाम हैं। वर्कर शब्द जवान पशुमात्रके अर्थमें आता है (साथ ही वह बकरेका भी वाचक है)। गहना रखनेके डब्बेको या कपड़े रखनेकी पेटीको मञ्जूषा, पेटक तथा पेड़ा कहते हैं। तुल्य और साधारण ये समान अर्थके वाचक हैं। इनका सामान्यतः तीनों लिङ्गोंमें प्रयोग होता है। प्रतिमा और प्रतिकृति- ये पत्थर आदिकी मूर्तिके वाचक हैं। इस प्रकार ब्राह्मण आदि वर्गोंका वर्णन किया गया ॥ ४३-४९ ॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें 'कोशगत क्षत्रिय, वैश्य और शुद्रवर्गका वर्णन' नामक तीन सौ छाछठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥ ३६६ ॥
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