अग्नि पुराण तीन सौ चौसठवाँ अध्याय - Agni Purana 364 Chapter
अग्नि पुराण तीन सौ चौसठवाँ अध्याय - नृब्रह्मक्षत्रविट्शूद्रवर्गाः
अग्निरुवाच
नृब्रह्मक्षत्रविट्शूद्रवर्गान्वक्ष्येषऽय नामतः ।
नरः पञ्चजना मर्त्त्या यद्योषाऽवला वधूः ।। १ ।।
कान्तार्थिनी तु या याति सङ्केतं साऽभिसारिका ।
कुलटा पुंश्चल्यसती नग्निका स्त्री च कोटवी ।। २ ।।
कात्यायन्यर्द्धवृद्धा या सैरिन्ध्री परवेश्मगा ।
असिक्नी स्यादवृद्धा या मलिनी तु रजस्वला ।। ३ ।।
वारस्त्री गणिका वेश्या भ्रातृजायास्तु यातरः ।
ननान्दा तु स्वसा पत्युः सपिण्डास्तु सनाभयः ।। ४ ।।
समानोदर्य्यसोदर्य्यसगर्भसहजास्समाः ।
यगोत्रबन्धवज्ञातिबन्धुस्वस्वजनाः समाः ।। ५ ।।
दम्पती जम्पती भार्य्यापती जायापती च तौ ।
गर्भाशयो जरायुः स्यादुल्वञ्च कललोऽस्त्रियां ।। ६ ।।
गर्भो भ्रुण इमौ तुल्यौ क्लीवं शण्डो नपुंसकम् ।
स्यादुत्तानश्यो डिम्भो बालो माणवकः स्मृतः ।। ७ ।।
पिचिण्डिलो वृहत्कुक्षिरवभ्रटो नतनासिके ।
विकलाङ्गस्तु पोगण्ड आरोग्यं स्यादनामयम् ।। ८ ।।
स्यादेडे वधिरः कुब्जे गडुलः कुकरे कुनिः ।
क्षयः शोषश्च यक्ष्मा च प्रतिश्यायस्तु पीनसः ।। ९ ।।
स्त्री क्षुत्क्षुतं क्षयं पुंसि कासस्तु क्षवथुः पुमान् ।
शोथस्तु श्वयथुः शोफः पादस्फोटो विपादिका ।। १0 ।।
किलासं सिध्नकच्छान्तु पाम पामा विचर्च्चिका ।
कोठो मण्डलकं कुष्ठं श्वित्रो दुर्न्नामकार्शसी ।। ११ ।।
अनाहस्तु विबन्धः स्याद्ग्रहणी रुक्प्रवाहिका ।
वीजवीर्य्येन्द्रियं शुक्रं पललं क्रव्यमामिषं ।। १२ ।।
वुक्काऽग्रमांसं हृदयं हृन्मेदस्तु वपा वसा ।
पश्चाद्ग्रीवा शिरा मन्या नाडी तु धमनिः शिरा ।। १३ ।।
तिलकं क्लोम मस्तिष्कं दूषिका नेत्रयोर्मलम् ।
अन्त्रं पुरी तद्गुल्मस्तु प्लीहा पुंस्यऽथ वस्नसा ।। १४ ।।
स्नायुः स्रियां कालखण्डयकृती तु ऽसमे इमे ।
स्यात् कर्पूरः कपालोऽस्त्री कीकसङ्कुल्यमस्थि च ।। १५ ।।
स्याच्छरीरास्थिन कङ्कालः पृष्ठास्थिन तु कशेरुका ।
शिरोऽल्थनि करोटिः स्त्री पार्श्वास्थनि तु पर्शुका ।। १६ ।।
अङ्गं प्रतीकोऽवयवः शरीरं वर्ष्म विग्रहः ।
कटो ना श्रोणिफलकं कटिः श्रोणिः ककुद्मती ।। १७ ।।
पश्चान्नितम्वः स्त्रीकट्याः क्लीवे तु जघनं पुरः ।
कूपकौ तु नितम्बस्थौ द्वयहीने ककुन्दरे ।। १८ ।।
स्त्रियां स्पिचौ कटिप्रोथावुपस्थो वक्ष्यमाणयोः ।
भगं योनिर्द्वयोः शिश्नो मेढ्रो मेहनशेफसी ।। १९ ।।
पिचिण्डकुक्षी जठरोदरं तुन्दं कुचौ स्तनौ ।
चूचुकन्तु कुचाग्रं स्यान्न ना क्रोडं भुजान्तरम् ।। २0 ।।
स्कन्धो भुजशिरोंऽशोऽस्त्री सन्धी तस्यैव जत्रुणी ।
पुनर्भवः कररुहो नखोऽस्त्री नखरोऽस्त्रियां ।। २१ ।।
प्रादेशतालगोकर्णास्तर्जन्यादियुते तते ।
अङ्गुष्ठे सकनिष्ठो स्याद्वितस्तिर्द्वादशाङ्गुलः ।। २२ ।।
पाणौ चपेटप्रतलप्रहस्ता विस्तृताङ्गुलौ ।
बद्धमुष्टिकरो रत्निररत्निः स कनिष्ठवान् ।। २३ ।।
कम्बुग्रीवा त्रिरेखा साऽवटुर्घाटा कृकाटिका ।
अधः स्याच्चिवुकञ्चौष्ठादथ गण्डौ गलो हनुः ।। २४ ।।
अपाङ्गौ नेत्रयोरन्तौ कटाक्षोऽपाङ्गदर्शने ।
चिकुरः कुन्तलो बालः प्रतिकर्म प्रसाधनम् ।। २५ ।।
आकल्पवेशौ नेपथ्यं प्रत्यक्षं खेलयोगजम् ।
चूड़ामणिः शिरोरत्नं तरलो हारमध्यगः ।। २६ ।।
कर्णिका तालपत्रं स्याल्लम्बनं स्याल्ललन्तिका ।
मञ्जीरो नूपुरं पादे किङ्गिणी क्षुद्रघण्टिका ।। २७ ।।
दैर्घ्यमायाम आरोहः परिणाहो विशालता ।
पटच्चरं जीर्णवस्त्रं संव्यानञ्चोत्तरीयकम् ।। २८ ।।
रचना स्यात् परिस्पन्द आभोगः परिपूर्णता ।
समुद्गकः सम्पुटकः प्रतिग्राहः पतद्ग्रहः ।। २९ ।।
इत्यादिमहापुराणे आग्नेये नृवर्गो नाम चतुःषष्ट्यधिकत्रिशततमोऽध्यायः ॥
अग्नि पुराण -तीन सौ चौसठवाँ अध्याय हिन्दी मे Agni Purana 364 Chapter In Hindi
तीन सौ चौसठवाँ अध्याय मनुष्य-वर्ग
अग्निदेव कहते हैं- अब मैं नाम-निर्देशपूर्वक मनुष्यवर्ग, ब्राह्मण-वर्ग, क्षत्रिय वर्ग, वैश्य वर्ग और शूद्रवर्गका क्रमशः वर्णन करूँगा। ना, नर, पञ्चजन और मर्त्य- ये मनुष्य एवं पुरुषके वाचक हैं। स्त्रीको योषित्, योषा, अबला और वधू कहते हैं। जो अपने अभीष्ट कामी पुरुषके साथ समागमकी इच्छासे किसी नियत संकेत- स्थानपर जाती है, उसे अभिसारिका कहते हैं। कुलटा, पुंवली और असती- ये व्यभिचारिणी स्त्रीके नाम हैं। नग्निका और कोटवी शब्द नंगी स्त्रीका बोध करानेवाले हैं। (रजोधर्म होनेके पूर्व अवस्थावाली कन्याको भी 'नग्निका' कहते हैं।) अर्धवृद्धा (अधबुढ़) स्वीको (जो गेरुआँ वस्त्र धारण करनेवाली और पति-विहीना हो) कात्यायनी कहते हैं। दूसरेके घरमें रहकर (स्वाधीन वृत्तिसे केश-प्रसाधन आदि कलाके द्वारा) जीवन निर्वाह करनेवाली स्त्रीका नाम सैरन्ध्री है। अन्तःपुरकी वह दासी, जो अभी बूढ़ी न हुई हो-जिसके सिरके बाल सफेद न हुए हों, असिक्नी कहलाती है।
रजस्वला स्वीको मलिनी कहते हैं। वारस्त्री, गणिका और वेश्या ये रंडियोंके नाम हैं। भाइयोंकी स्त्रियाँ परस्पर याता कहलाती हैं। पतिकी बहनको ननान्दा कहते हैं। सात पौड़ीके अंदरके मनुष्य सपिण्ड और सनाभि कहे जाते हैं। समानोदर्य, सोदर्य, सगर्भ और सहज-ये समानार्थक शब्द सगे भाईका बोध करानेवाले हैं। सगोत्र, बान्धव, ज्ञाति, बन्धु, स्व तथा स्वजन ये भी समान अर्थके बोधक हैं। दम्पती, जम्पती, भार्यापती, जायापती ये पति-पत्नीके वाचक हैं। गर्भाशय, जरायु, उल्व और कलल ये चार शब्द गर्भको लपेटनेवाली झिल्लीके नाम हैं। कलल शब्द पुल्लिङ्ग और नपुंसकलिङ्ग दोनोंमें आता है। (यह शुक्र और शोणितके संयोगसे बने हुए गर्भाशयके मांस-पिण्डका भी वाचक है।) गर्भ और भ्रूण- ये दोनों शब्द गर्भस्थ बालकके लिये प्रयुक्त होते हैं। क्लीब, शण्ड (पण्ड) और नपुंसक- ये पर्यायवाची शब्द हैं। डिम्भ-शब्द उत्तान सोनेवाले नवजात शिशुओंके अर्थमें आता है। बालकको माणवक कहते हैं। लंबे पेटवाले पुरुषके अर्थमें पिचण्डिल और बृहत्कुक्षि शब्दोंका प्रयोग होता है।
जिसकी नाक कुछ झुकी हुई हो उसको अवभ्रट कहते हैं। जिसका कोई अङ्ग कम या विकृत हो वह विकलाङ्ग और पोगण्ड कहलाता है। आरोग्य और अनामय- ये नीरोगताके वाचक हैं। बहरेको एड और वधिर तथा कुबड़ेको कुब्ज और गडुल कहते हैं। रोग आदिके कारण जिसका हाथ खराब हो जाय, उसको तथा लूले मनुष्यको कुनि (या कुणि) कहा जाता है। क्षय, शोष और यक्ष्मा ये राजयक्ष्मा (थाइसिस, टीबी या तपेदिक) के नाम हैं। प्रतिश्याय और पीनस- ये जुकामके अर्थमें आते हैं। स्त्रीलिङ्ग-भुत, पुलिङ्ग-क्षव और नपुंसक क्षुत शब्द छींकके अर्थमें प्रयुक्त होते हैं। कास और क्षवधु-ये खाँसीके नाम हैं। इनका प्रयोग पुल्लिङ्गमें होता है। शोथ, श्रययु और शोफ ये सूजनके अर्थमें आते हैं। पादस्फोट और विपादिका ये बिवाईके नाम हैं। किलास और सिध्म सेहुएँको कहते हैं। कच्छु, पाम, पामा और विवर्षिका ये खुजलीके वाचक हैं। कोठ और मण्डलक उस कोढ़को कहते हैं, जिसमें गोलाकार चकत्ते पड़ जाते हैं। सफेद कोड़को कुष्ठ और श्वित्र कहते हैं। दुर्नामक और अर्शस् ये बवासीरके नाम हैं।
मल-मूत्रके निरोधको अनाह और विबन्ध कहते हैं। ग्रहणी और प्रवाहिका ये संग्रहणी रोगके नाम हैं। बीज, वीर्य, इन्द्रिय और शुक्र ये वीर्यके पर्याय हैं। पलल, क्रव्य और आमिष ये मांसके अर्थमें आते हैं। बुक्का और अग्रमांस- ये छातीके मांस (हृत्पिण्ड) का बोध करानेवाले हैं। ('बुक्का' शब्द केवल हृदयका भी वाचक है।) हृदय और इत्-ये मनके पर्याय हैं। मेदस्, वपा और वसा-ये मेदाके नाम हैं। गलेके पीछेकी नाड़ीको मन्या कहते हैं। नाडी, धमनि और शिरा ये नाड़ीके वाचक हैं। तिलक और क्लोम ये शरीरमें रहनेवाले काले तिलके अर्थमें आते हैं। मस्तिष्क दिमागको और दूषिका आँखोंकी कीचड़को कहते हैं। अन्त्र और पुरीतत्- ये आँतके अर्थमें आते हैं। गुल्म और प्लीहा बरवट (तिल्ली) को कहते हैं। प्लीहा 'प्लीहन्' शब्दका पुल्लिङ्गरूप है। अङ्ग प्रत्यङ्गकी संधियोंके बन्धनको स्नायु और वस्त्रसा कहते हैं। कालखण्ड और यकृत् जिगर या कलेजेके नाम हैं। कर्पर और कपाल शब्द ललाटके वाचक हैं। 'कपाल' शब्द पुल्लिङ्ग और नपुंसकलिङ्ग-दोनोंमें आता है। कीकस, कुल्य और अस्थि-ये हड्डीके नाम हैं। रक्त मांससे रहित शरीरकी हड्डीको कङ्काल कहते हैं। पीठकी हड्डी (मेरुदण्ड) का नाम कशेरुका है।
'करोटि' शब्द स्त्रीलिङ्ग है और यह मस्तककी हड्डी (खोपड़ी) के अर्थमें आता है। पैसलीकी हड्डीको पर्शका कहते हैं। अङ्ग, प्रतीक, अवयव, शरीर, वष्र्म्म तथा विग्रह- ये शरीरके पर्याय हैं। कट और श्रोणिफलक ये चूतड़के अर्थमें आते हैं। 'कट' शब्द पुल्लिङ्ग है। कटि, श्रोणि और ककुद्यती-ये कमरका बोध करानेवाले हैं। (किन्हीं किन्होंके मतमें उपर्युक्त पाँचों ही शब्द पर्यायवाची हैं।) स्त्रीको कमरके पिछले भागको नितम्ब और अगले भागको जघन कहते हैं। 'जघन' शब्द नपुंसकलिङ्ग है। नितम्बके ऊपर जो दो गड्ढे से होते हैं, उन्हें कूपक एवं ककुन्दर कहते हैं। 'ककुन्दर' शब्द केवल नपुंसकलिङ्ग है। कटिके मांस-पिण्डका नाम स्फिच् और कटिप्रोध है। 'स्फिच्' शब्दका प्रयोग स्त्रीलिङ्गमें होता है। नीचे बताये जानेवाले भग और लिङ्ग-दोनोंको उपस्थ कहा जाता है।
भग और योनि-ये स्त्री-चिह्नके बोधक पर्यायवाची शब्द हैं। शिश्र, मेढू, मेहन और शेफस् ये पुरुषचिह्न (लिङ्ग) के वाचक हैं। पिचण्ड, कुक्षि, जठर, उदर और तुन्द-ये पेटके अर्थमें आते हैं। कुच और स्तन पर्यायवाची शब्द हैं। कुचोंके अग्रभागका नाम चूचुक है। नपुंसकलिङ्ग क्रोड तथा भुजान्तर शब्द गोदीके वाचक हैं। स्कन्ध, भुजशिरस् और अंस ये कंधेके अर्थमें आते हैं। 'अंस' शब्द पुल्लिङ्ग और नपुंसकलिङ्ग है। कंधेकी संधियों अर्थात् हँसलीकी हड्डीको जत्रु कहते हैं। पुनर्भव, कररुह, नख और नखर-ये नखोंके नाम हैं। इनमें 'नखर' और 'नख' शब्द स्त्रीलिङ्गके सिवा अन्य दो लिङ्गोंमें प्रयुक्त होते हैं। अँगूठेसे लेकर तर्जनीतक फैलाये हुए हाथको प्रादेश, अँगूठेसे मध्यमातकको ताल और अनामिकातक फैलाये हुए हाथको गोकर्ण कहते हैं। इसी प्रकार अँगूठेसे कनिष्ठिका अँगुलीतक फैले हुए हाथका नाम वितस्ति (बालिस्त या बित्ता) है। इसकी लंबाई बारह अंगुलकी होती है। जब हाथकी सभी अँगुलियाँ फैली हों, तब उसे चपेट, तल और प्रहस्त कहते हैं। मुट्ठी बँधे हुए हाथका नाम रत्नि है। (कोहनीसे लेकर मुट्ठी बँधे हुए हाथतकके मापको भी 'रत्नि' कहते हैं।) कोहनीसे कनिष्ठा अँगुलीतककी लंबाईका नाम अरत्नि है। शङ्खके समान आकारवाली ग्रीवाका नाम कम्बुग्रीवा और त्रिरेखा है। गलेकी घाँटीको अवटु, घाटा और कृकाटिका कहते हैं। ओठसे नीचेके हिस्सेका नाम चिबुक है। गण्ड और गल्ल गालके वाचक हैं। गालोंके निचले भागको हनु कहते हैं। नेत्रोंक दोनों प्रान्तोंको अपाङ्ग कहा जाता है। उन्हें दिखानेकी चेष्टाको कटाक्ष कहा जाता है।
चिकुर, कुन्तल और वाल-ये केशके वाचक हैं। प्रतिकर्म और प्रसाधन शब्द सँवारने और शृङ्गार करनेके अर्थमें आते हैं। आकल्प, वेश और नेपथ्य- ये शब्द प्रत्यक्ष नाटक आदिके खेलमें भिन्न-भिन्न वेष धारण करनेके अर्थमें आते हैं। मस्तकपर धारण किये जानेवाले रत्नका नाम चूडामणि और शिरोरत्न है। हारके बीच- बीचमें पिरोये हुए रत्नको तरल कहते हैं। कर्णिका और तालपत्र- ये कानके आभूषणके नाम हैं। लम्बन और ललन्तिका गलेमें नीचेतक लटकनेवाले हारको कहते हैं। मञ्जीर और नूपुर-ये पैरके आभूषण हैं। किङ्किणी और क्षुद्रघण्टिका घुँघुरूके नाम हैं। दैर्घ्य, आयाम और आनाह- ये वस्त्र आदिकी लंबाईके बोधक हैं। परिणाह और विशालता ये चौड़ाई (पनहा या अर्ज) के अर्थमें आते हैं। पुराने वस्त्रको पटच्चर कहते हैं। संख्यान और उत्तरीय- ये चादर या दुपट्टेके अर्थमें आते हैं। फूल आदिसे बालोंका शृङ्गार करने या कपोल आदिपर पत्रभङ्ग आदि बनानेको रचना और परिस्पन्द कहते हैं। प्रत्येक उपचारकी पूर्णताका नाम आभोग है। ढक्कनदार पेटीको समुद्गक और सम्पुटक कहते हैं। प्रतिग्राह और पतग्रह- ये पीकदानके नाम हैं ॥ १-२९॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें 'कोशगत मनुष्य वर्गका वर्णन' नामक तीन सौ चौसठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३६४॥
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