अग्नि पुराण तीन सौ एकसठवाँ अध्याय - Agni Purana 361 Chapter

अग्नि पुराण तीन सौ एकसठवाँ अध्याय  - Agni Purana 361 Chapter

अग्नि पुराण तीन सौ एकसठवाँ अध्याय - अव्ययवर्गाः

अग्निरुवाच

आङीषदर्थेऽभिव्याप्तौ सीमार्थे धातुयोगजे ।
आ प्रगृह्यः स्मृतौ वाक्येऽप्यास्तु स्यात् कोपपीड़योः ।। १ ।।

पापकुत्‌सेषदर्थे कु धिग्‌जुगुप्सननिन्दयोः ।
चान्वाचयसमाहारेतरेतरसमुच्चये ।। २ ।।

स्वस्त्याशीः क्षएमपुण्यादौ प्रकर्षे लङ्घनेऽप्यति ।
स्वित्प्रश्ने च वितर्के च तु स्याद् भेदेऽवधारणे ।। ३ ।।

सकृत्सहैकवारे स्यादाराद्‌दूरसमीपयोः ।
प्रतीच्यां चरमे पश्चादुताप्यर्थविकल्पयोः ।। ४ ।।

पुनःसदार्थयोः शश्वत् साक्षात् प्रत्यक्षतुल्ययोः ।
खेदानुकम्पासन्तोषविस्मयामन्त्रणे वत ।। ५ ।।

हन्त हर्षेऽनुकम्पायां वाक्यारम्भविषादयोः ।
प्रति प्रतिनिधौ वीप्सालक्षणादौ प्रयोगतः ।। ६ ।।

इति हेतौ प्रकरणे प्रकाशादिसमाप्तिषु ।
प्राच्यां पुरस्तात् प्रथमे पुरार्थेऽग्रत इत्यपि ।। ७ ।।

यावत्तावच्च साकल्येऽवधौ मानेऽवदारणे ।
मङ्गलानन्तरारम्भप्रश्नकार्त्स्नेष्वऽथोथ च ।। ८ ।।

वृथा निरर्थकाविध्योर्नानाऽनेकोभयार्थयोः ।
नु पृच्छायां विकल्पे च पश्चात्सादृश्ययोरनु ।। ९ ।।

प्रश्नावधारणानुज्ञाऽनुनयामन्त्रणे ननु ।
गर्हासमुच्चयप्रश्नशङ्कासम्भावनास्वऽपि ।। १० ।।

उपमायां विकल्पे वा सामि त्वर्द्धे जुगुप्सिते ।
अमा सह समीपे च कं वारिणि च मूद्‌र्धनि ।। ११ ।।

इवेत्थमर्थयोरेवं नूनं तर्क्केऽर्थनिश्चये ।
तूष्णीमर्थे सुखे जोषं किम्पृच्छायां जुगुप्सने ।। १२ ।।

नाम प्राकाश्यसम्भाव्यक्रोधोपगमकुत्सने ।
अलं भूषणपर्य्याप्तिशक्तिवारणवाचकम् ।। १३ ।।

हुं वितर्क्के परिप्रश्ने समयाऽन्तिकमध्ययोः ।
पुनरप्रथमे भेदे निनिश्चयनिषेधयोः ।। १४ ।।

स्यात्प्रबन्धे चिरातीते निकटागामिके पुरा ।
उरर्थुरी चीररी च विस्तारेऽङ्गीकृते त्रयम् ।। १५ ।।

स्वर्गे परे च लोके स्वर्वार्त्तासम्भावयोः किल ।
निषेधवाक्यालङ्कारे जिज्ञासावसरे खलु ।। १६ ।।

समीपोभयतः शीघ्रसाकल्याभिमुखेऽभितः ।
नामप्रकाशयोः प्रादुर्मिथोऽन्योन्यं रहस्यपि ।। १७ ।।

तिरोऽन्तर्द्धौ तिर्यगर्थे हा विषादशुगर्त्तिषु ।
अहहेत्यद्‌भुते खेदे हि हेताववधारणे ।। १८ ।।

चिराय चिररात्राय चिरस्याद्याश्चिरार्थकाः ।
मुहुः पुनः पुनः शश्वद भीक्षणमसकृत् समाः ।। १९ ।।

स्राग्ज्ञटित्यञ्जसाह्राय सपदि द्राङ्‌मङ्क्षु च द्रुते ।
बलवत् सुष्ठु किमुत विकल्पे किं किमूत च ।। २० ।।

तु हि च स्म ह वै पादपूरणे पूजनेप्यति ।
दिवाह्नीत्यथ दोषा च नक्तञ्च रजनाविति ।। २१ ।।

तिर्यगर्थे साचि तिरोऽप्यथ सम्बोधनार्थकाः ।
स्युः प्याट्‌पाडङ्ग हे है भोः समया निकषा हिरुक् ।। २२ ।।

अतर्किते तु सहसा स्यात् पुरः पुरतोऽग्रतः ।
स्वाहा देवहविर्दाने श्रौषट् वौषट् वषट् स्वधा ।। २३ ।।

किञ्चिदीषन्मनागल्पे प्रेत्याऽमुत्र भवान्तरे ।
यथा तथा चैव साम्ये अहो ही इति विस्मये ।। २४ ।।

मौने तु तूष्णीं तूष्णीकं सद्यः सपदि तत्क्षणे ।
दिष्ट्या शमुपयोषञ्चेत्यानन्देऽथान्तरेऽन्तरा ।। २५ ।।

अन्तरेण च मध्ये स्युः प्रसह्य तु हठार्थकम् ।
युक्ते द्वे साम्प्रतं स्थानेऽभीक्ष्‌णं शश्वदनारते ।। २६ ।।

अभावे नह्यनो नापि मास्म मालञ्च वारणे ।
पक्षान्तरे चेद्यदि च तत्त्वे त्वऽद्धाऽञ्चसा द्वयम् ।। २७ ।।

प्राकाश्ये प्रादुराविः स्यादोमेवं परमं मते ।
समन्ततस्तु परितः सर्वतो विश्वगित्यपि ।। २८ ।।

अकामानुमतौ काममसूयोपगमेऽस्तु च ।
ननु च स्याद्विरोधोक्तौ क्कच्चित् कामप्रवेदने ।। २९ ।।

निःषमं दुःषमं गर्ह्ये यथास्वलन्तु यथायथं ।
मृषा मिथ्या च वितथे यथार्थन्तु यथातथं ।। ३० ।।

स्युरेवन्तु पुनर्वैवेत्यवधारणवाचकाः ।
प्रागतीतार्थकं नूनमवश्यं निश्चये द्वयं ।। ३१ ।।

संवद्वर्षेऽवरे त्वर्वागामेवं स्वयमात्मना ।
अल्पे नीचैर्महत्युच्चैः प्रायोभूम्न्यऽद्रुते शनैः ।। ३२ ।।

सना नित्ये वहिर्वाह्ये स्मातीतेऽस्तमदर्शने ।
अस्ति सच्चवे रुषोक्तावूमुं प्रश्नेऽनुनये त्वयि ।। ३३ ।।

हूं तर्के स्यादुषा रात्रेकरवसाने नमो नतौ ।
पुनरर्थेऽङ्गनिन्दायां दुष्ठु सुष्ठु प्रशंसने ।। ३४ ।।

सायं साये प्रगे प्रातः प्रभाते निकषाऽन्तिके ।
परुत्परार्य्यैषमोऽब्दे पूर्वे पूर्वतरे यति ।। ३५ ।।

अद्यात्राह्न्यऽथ पूर्वलह्नीत्यदौ पूर्वोत्तरा परात् ।
तथाऽधरान्यान्यतरेतरात्पूर्व्वोदुरादयः ।। ३६ ।।

उभयद्युश्चोभयेद्युः परे त्वह्नि परेद्यवि ।
ह्यो गतेऽनागतेऽह्नि स्वः परश्वः श्वः परेऽहनि ।। ३७ ।।

तदा तदानीं युगपदेकदा सर्वदा सदा ।
पतर्हि सम्प्रतीदानीमधुना साम्प्रतन्तथा ।। ३८ ।।

इत्यादिमहापुराणे आग्नेये अव्ययवर्गानाम एकषष्ट्यथिकत्रिशततमोऽध्यायः॥

अग्नि पुराण - तीन सौ एकसठवाँ अध्याय हिन्दी मे Agni Purana 361 Chapter In Hindi

तीन सौ एकसठवाँ अध्याय - अव्यय-वर्ग

अग्निदेव कहते हैं- वसिष्ठजी!' आङ्' अव्यय ईषत् (स्वल्प), अभिव्याप्ति तथा मर्यादा (सीमा) अर्थमें प्रयुक्त होता है। साथ ही धातुसे उसका संयोग होनेपर जो विभिन्न अर्थ प्रकाशित होते हैं, उन सभी अर्थोंमें उसका प्रयोग समझना चाहिये। 'आ' प्रगृहासंज्ञक अव्यय है। इसका वाक्य और स्मरण अर्थमें प्रयोग होता है। 'आः' अव्यय कोप और पीड़ाका भाव द्योतित करनेके लिये प्रयुक्त होता है। 'कु' पाप, कुत्सा (घृणा) और ईषत् अर्थमें तथा 'धिक्' फटकार और निन्दाके अर्थमें आता है। 'च' अव्ययका प्रयोग समुच्चय, समाहार' अर्थमें होता है। अन्वाचय, इतरेतरयोग और 'स्वस्ति' आशीर्वाद, क्षेम और पुण्य आदिके अर्थमें तथा 'अति' अधिकता एवं उल्लङ्घनके अर्थमें आता है। 'स्वित्' प्रश्न और वितर्कका भाव व्यक्त करनेमें तथा 'तु' भेद और निश्चयके अर्थमें प्रयुक्त होता है। 'सकृत् ‌का एक ही साथ और एक बारके अर्थमें तथा 'आरात् 'का दूर और समीपके अर्थमें प्रयोग होता है।

'पश्चात्' अव्यय पश्चिम दिशा और पीछेके अर्थमें तथा 'उत' शब्द 'अपि 'के अर्थ (समुच्चय और प्रश्न) में एवं विकल्प अर्थमें आता है। 'शश्वत्' पुनः और सदाके अर्थमें तथा 'साक्षात्' प्रत्यक्ष एवं तुल्यके अर्थमें प्रयुक्त होता है। 'बत' अव्ययका प्रयोग खेद, दया, संतोष, विस्मय और सम्बोधनका भाव व्यक्त करनेमें होता है। 'हन्त' पद हर्ष, अनुकम्पा, वाक्यके आरम्भ और विषादके अर्थमें आता है। 'प्रति' का प्रतिनिधि, वीप्सा एवं लक्षण आदिके अर्थमें प्रयोग किया जाता है। 'इति' शब्द हेतु, प्रकरण, प्रकाश आदि और समाप्तिके अर्थमें प्रयुक्त होता है। 'पुरस्तात्' पद पूर्व दिशा, प्रथम और पुरा (पूर्वकाल) के अर्थमें आता है। 'अग्रतः' (आगे) के अर्थमें भी इसका प्रयोग होता है। 'यावत्' और 'तावत्' पद समग्र, अवधि (सीमा), माप और अवधारणके अर्थमें आते हैं। 'अथो' एवं 'अथ' शब्दका प्रयोग मङ्गल, अनन्तर, आरम्भ, प्रश्न और समग्रताके अर्थमें होता है। 'वृथा' शब्द निरर्थक और अविधि अर्थका द्योतक है। 'नाना' शब्द अनेक और उभय अर्थमें आता है। 'नु' प्रश्न और विकल्पमें तथा 'अनु' पश्चात् एवं सादृश्यके अर्थमें प्रयुक्त होता है। 'ननु' शब्द प्रश्न, निश्चय, अनुज्ञा, अनुनय और सम्बोधनमें तथा 'अपि' शब्द निन्दा, समुच्चय, प्रश्न, शङ्का तथा सम्भावनामें प्रयुक्त होता है। 'वा' शब्द उपमा और विकल्पमें तथा 'सामि' पद आधे एवं निन्दाके अर्थमें आता है। 'अमा' शब्द साथ एवं समीपका तथा 'कम्' जल और मस्तकका बोध करानेवाला है। 

'एवम्' पद इव और इत्थंके अर्थमें तथा 'नूनम्' तर्क तथा वस्तुके निश्चय करनेमें प्रयुक्त होता है। 'जोषम् 'का अर्थ है मौन और सुख। 'किम्' अव्यय प्रश्न और निन्दाके अर्थमें आता है। 'नाम' पद प्राकाश्य (प्रकाशित होने), सम्भावना, क्रोध, स्वीकार तथा निन्दा अर्थमें प्रयुक्त होता है। 'अलम्' शब्द भूषण, पर्याप्ति, सामर्थ्य तथा निवारणका वाचक है। 'हुम्' वितर्क और प्रश्न अर्थमें तथा 'समया' निकट और मध्यके अर्थमें आता है। 'पुनर्' अव्यय प्रथमको छोड़कर द्वितीय, तृतीय आदि जितनी बार कोई कार्य हो, उन सबके लिये प्रयुक्त होता है। साथ ही भेद अर्थमें भी इसका प्रयोग देखा जाता है। 'निर्' निश्चय और निषेधके अर्थमें आता है। 'पुरा' शब्द बहुत पहलेकी बोती हुई तथा निकट भविष्यमें आनेवाली बातको व्यक्त करनेके लिये प्रयुक्त होता है। 'उररी', 'ऊरी', 'ऊररी'- ये तीन अव्यय विस्तार और अङ्गीकारके अर्थमें आते हैं। 'स्वर्' अव्यय स्वर्ग और परलोकका वाचक है। 'किल'का प्रयोग वार्ता और सम्भावनाके अर्थमें आता है। मना करने, वाक्यको सजाने तथा जिज्ञासाके अवसरपर 'खलु 'का प्रयोग होता है। 'अभितस्' अव्यय समीप, दोनों ओर, शीघ्र, सम्पूर्ण तथा सम्मुख अर्थका बोध कराता है। 'प्रादुस्' शब्द नाम अव्ययके अर्थमें तथा व्यक्त या प्रकट होनेमें प्रयुक्त होता है। 'मिथस्' शब्द परस्पर तथा एकान्तका वाचक है। 'तिरस्' शब्द अन्तर्धान होने तथा तिरछे चलनेके अर्थमें आता है। 'हा' पद विषाद, शोक और पीड़ाको व्यक्त करने वाला है। 'अहह' अथवा 'अहहा' अद्भुत एवं खेदके अर्थमें तथा हेतु और निश्चय अर्थमें प्रयुक्त होता है॥ १-१८ ॥ 

चिराय, चिररात्राय और चिरस्य इत्यादि अव्यय चिरकालके बोधक हैं। मुहुः, पुनः पुनः, शश्वत्, अभीक्ष्ण और असकृत्- ये सभी अव्यय समान अर्थके वाचक हैं- इन सबका बारंबारके अर्थमें प्रयोग होता है। स्राक्, झटिति, अञ्जसा, अह्वाय, सपदि, द्राक् और मक्षु ये शीघ्रताके अर्थमें आते हैं। बलवत् और सुप्नु- ये दोनों शब्द अतिशय तथा शोभन अर्थके वाचक हैं। किमुत, किम् और किम्भूत- ये विकल्पका बोध करानेवाले हैं। तु, हि, च, स्म, ह, वै-ये पादपूर्तिके लिये प्रयुक्त होते हैं। अतिका प्रयोग पूजनके अर्थमें भी आता है। दिवा शब्द दिनका वाचक है तथा दोषा और नक्तम् शब्द रात्रिके अर्थमें आते हैं। साचि और तिरस् पद तिर्यक् (तिरछे) अर्थमें प्रयुक्त होते हैं। प्याद, पाट्, अङ्ग, हे, है, भोः- ये सभी शब्द सम्बोधनके अर्थमें आते हैं। समया, निकषा और हिरुक् ये तीनों अव्यय समीप अर्थके वाचक हैं। सहसा अतर्कित अर्थमें आता है। (अर्थात् जिसके बारेमें कोई सम्भावना न हो, ऐसी वस्तु जब एकाएक सामने उपस्थित होती है तो उसे सहसा उपस्थित हुई कहते हैं। ऐसे ही स्थलोंमें सहसाका प्रयोग होता है।) पुरः, पुरतः और अग्रतः ये सामनेके अर्थमें आते हैं। स्वाहा पद देवताओंको हविष्य अर्पण करनेके अर्थमें आता है। 'श्रौषट्' और 'वौषट्'का भी यही अर्थ है। 'वषट्' शब्द इन्द्रका और स्वधा शब्द पितरोंका भाग अर्पण करनेके लिये प्रयुक्त होता है। किंचित्, ईषत् और मनाक्-ये अल्प अर्थके वाचक हैं। प्रेत्य और अमुत्र ये दोनों जन्मान्तरके अर्थमें आते हैं। यथा और तथा समताके एवं अहो और हो ये आश्चर्यके बोधक हैं। तूष्णीम् और तूष्णीकम् पद मौन अर्थमें, सद्यः और सपदि शब्द तत्काल अर्थमें, दिष्ट्या और समुपजोषम्- ये आनन्द अर्थमें तथा अन्तरा शब्द भीतरके अर्थमें आता है। अन्तरेण पद भी मध्य अर्थका वाचक है। प्रसह्य शब्द हठका बोध कराने वाला है। 

साम्प्रतम् और स्थाने शब्द उचितके अर्थमें तथा 'अभीक्ष्णम्' और शश्वत् पद सर्वदा-निरन्तरके अर्थमें प्रयुक्त होते हैं। नहि, अ, नो और नये अभाव अर्थके बोधक हैं। मास्म, मा और अलम् इनका निषेधके अर्थमें प्रयोग होता है। चेत् और यदि पद दूसरा पद उपस्थित करनेके लिये प्रयुक्त होते हैं तथा अद्धा और अञ्जसा ये दोनों पद वास्तवके अर्थमें आते हैं। प्रादुस् और आविर्- इनका अर्थ है प्रकट होना। ओम्, एवम् और ' परमम् ये शब्द स्वीकृति या अनुमति देनेके अर्थमें प्रयुक्त होते हैं। समन्ततः, परितः, सर्वतः और विष्वक्-इनका अर्थ है चारों ओर। 'कामम्' शब्द अकाम अनुमतिके अर्थमें आता है। 'अस्तु' पद असूया (दोषदृष्टि) तथा स्वीकृतिका भाव सूचित करनेवाला है। किसी बातके ' विरोधमें कुछ कहना हो तो वहाँ 'ननु 'का प्रयोग होता है। 'कच्चित्' शब्द किसीकी अभीष्ट वस्तुको जिज्ञासाके लिये प्रश्न करनेके अवसरपर प्रयुक्त होता है। निःषमम् और दुःषमम् ये दोनों पद निन्द्य अर्थका बोध कराते हैं। यथास्वम् और यथायथम् पद यथायोग्य अर्थके वाचक हैं। मृषा एवं मिथ्या शब्द असत्यके और यथातथम् पद सत्यके अर्थमें आता है। एवम्, तु, पुनः, वै और वा-ये निश्चय अर्थके वाचक हैं। 'प्राक्' शब्द बीती बातका बोध करानेवाला है। नूनम् और अवश्यम्-ये दो अव्यय निश्चयके अर्थमें प्रयुक्त होते हैं। 'संवत्' शब्द वर्षका, 'अर्वाक् शब्द पश्चात् कालका, आम् और एवम् शब्द हामी भरनेका तथा स्वयम् पद अपनेसे इस अर्थका बोध करानेवाला है। 'नीचैस्' अल्प अर्थमें, 'उच्चैस्' महान् अर्थमें, 'प्रायस्' बाहुल्य अर्थमें तथा 'शनैस्' मन्द अर्थमें आता है। 'सना' शब्द नित्यका, 'बहिस्' शब्द बाह्यका, 'स्म' शब्द भूतकालका, 'अस्तम्' शब्द अदृश्य होनेका, 'अस्ति' शब्द सत्ताका, 'क' क्रोधभरी उक्तिका तथा 'अपि' शब्द प्रश्न तथा अनुनयका बोधक है। 'उम्' तर्कका, 'उषा' रात्रिके अन्तका, 'नमस्' प्रणामका, 'अङ्ग' पुन-अर्थका, दुष्टु' निन्दाका तथा 'सुष्ठ' शब्द प्रशंसाका वाचक है। 

'सायम्' शब्द संध्याकालका, 'प्रगे' और 'प्रातर्' शब्द प्रभातकालका, 'निकषा' पद समीपका, 'ऐषमः' शब्द वर्तमान वर्षका, 'परुत्' शब्द गतवर्षका और 'परारि' शब्द उसके भी पहलेके गतवर्षका बोध करानेवाला है। आजके दिन' इस अर्थमें 'अद्य 'का प्रयोग देखा जाता है। पूर्व, उत्तर, अपर, अधर, अन्य, अन्यतर और इतर शब्दसे 'पूर्वेऽह्नि' (पहले दिन) आदिके' अर्थमें 'पूर्वेद्युः आदि' अव्ययपद निष्पन्न होते हैं। 'उभयद्युः' और 'उभयेद्युः'- ये 'दोनों दिन 'के अर्थमें आते हैं। 'परस्मिन्नहनि' (दूसरे दिन) के अर्थमें 'परेद्यवि'का प्रयोग होता है। 'हास्' बीते हुए दिनके अर्थमें, 'श्वस्' आगामी दिनके अर्थमें तथा 'परश्वस्' शब्द उसके बाद आनेवाले दिनके अर्थमें प्रयुक्त होता है। 'तदा' 'तदानीम्' शब्द 'तस्मिन् काले' (उस समय) के अर्थमें आते हैं। 'युगपत्' और 'एकदा' का अर्थ है-एक ही समयमें। ' सर्वदा' और 'सदा'- ये हमेशाके अर्थमें आते हैं । एतर्हि, सम्प्रति, इदानीम्, अधुना तथा साम्प्रतम् इन पदोंका प्रयोग 'इस समय 'के अर्थमें होता है ॥ १९-३८ ॥ 
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें कोशविषयक 'अव्ययवर्गका वर्णन' नामक तीन सौ एकसठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३६१ ॥

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