अग्नि पुराण तीन सौ उनसठवाँ अध्याय - Agni Purana 359 Chapter

अग्नि पुराण तीन सौ उनसठवाँ अध्याय  - Agni Purana 359 Chapter

अग्नि पुराण तीन सौ उनसठवाँ अध्याय - कृत्‌सिद्धरूपम्

कुमार उवाच

कृतस्त्रिष्वपि विज्ञेया भावे कर्म्मणि कर्त्तरि ।
अज्ल्युट् क्तिन् घञो भावे युजकारत एव च ।। १ ।।

अचि धर्म्मस्य विनय उत्करः प्रकरस्तथा ।
देवो भद्रः श्रीकरश्च त्लुटि रूपन्तु शोभनम् ।। २ ।।

क्तिनि वृद्धिस्तुतिमतो घञि बावोऽथ युच्यपि ।
कारणा भावनेत्यादि अकारे च चिकित्सया ।। ३ ।।

तथा तव्यो ह्यनीयश्च कर्त्तव्यं करणीयकम् ।
देयं ध्येयञ्चैव यति ण्यति कार्य्यञ्च कृत्यकाः ।। ४ ।।

कर्त्तरि क्तादयो ज्ञेया भावे कर्म्मणि च क्कचित् ।
गतो ग्रामं गतो ग्रम आश्लिष्टश्च गुरुस्त्बया ।। ५ ।।

शतृङ्‌शानचौ भवन् एधमानो भवन्त्यपि ।
पुण् तृचौ सर्व्बधातुभ्यो भावको भविता तथा ।। ६ ।।

क्किबन्तश्च स्वयम्भूश्च भूते लिटः क्कन्सु कान च ।
बभूविवान् पेचिवांश्च पेचानः श्रद्दधानकः ।। ७ ।।

अणि स्युः कुम्भकाराद्या भूतेप्युणादयः स्मृताः ।
वायुः पायुश्च कारुः स्याद्वहुलं छन्दसीरितं ।। ८ ।।

इत्यादिमहापुराणे आग्नेये व्याकरणे कृत्‌सिद्धरूपं नामोनषष्ट्यधिकत्रिशततमो।ध्यायः ।

अग्नि पुराण - तीन सौ उनसठवाँ अध्याय हिन्दी मे Agni Purana 359 Chapter In Hindi

तीन सौ उनसठवाँ अध्याय कृदन्त शब्दों के सिद्ध रूप

कुमार कार्तिकेय कहते हैं- कात्यायन। यह जानना चाहिये कि 'कृत्' प्रत्यय भाव, कर्म तथा कर्ता-तीनों में होते हैं। वे इस प्रकार हैं- 'अच्', 'अप्', 'ल्युट्', 'क्तिन्', भावार्थक 'घञ्' करणार्थक 'घञ,', 'युच्', 'अ' तथा 'तव्य' आदि। 'अच्' प्रत्यय होने पर 'विनी अच्' (गुण, अयादेश और विभक्तिकार्य) विनयः। (ऋदोरप्) उत्कृअप्-उत्करः। प्रकृ अप्-प्रकरः । दिव अच् देवः। भद्र अच्-भद्रः। श्रीकृ अप् श्रीकरः।' इत्यादि रूप होते हैं। 'स्युद्' प्रत्यय होनेपर शुभ-ल्युट् (लकार, टकारकी इत्संज्ञा, लघूपध गुण) 'युवोरनाकौ।' (७।१।१) से अनादेश 'शोभनम्' इस रूपकी सिद्धि होती है। 'वृध्' धातुसे 'क्तिन्' प्रत्यय करनेपर 'वृध्-क्ति (ककारकी इत्संज्ञा, तकारका धकारादेश, पूर्व धकारका जश्त्वेन दकार और विभक्तिकार्य) 'वृद्धिः'। स्तु-क्तिन् 'स्तुतिः'। मन्-क्तिन् 'मतिः'- ये पद सिद्ध होते हैं। 

'भू' धातुसे 'घञ्' प्रत्यय होनेपर भू-घञ्' भावः' यह पद बनता है। णिजन्त 'कृ' धातुसे 'ण्यासश्रन्धो युच्।' (३।३।१०७)- इस सूत्रके अनुसार 'युच्' प्रत्यय करनेपर कारि-यु (णिलोप, अनादेश) 'कारणा।' 'भावि-युच्' 'भावना' इत्यादि पद सिद्ध होते हैं। प्रत्ययान्त धातुसे स्त्रीलिङ्गमें 'अ' प्रत्यय होता है। उसके होनेपर 'चिकित्स अ, चिकीर्ष-अ- चिकित्सा, चिकीर्षा' इत्यादि पद सिद्ध होते हैं। धातुसे 'तव्य' और 'अनीय' प्रत्यय भी होते हैं। कृतव्य कर्तव्यम्। कृ अनीय करणीयम् - इत्यादि पदोंकी सिद्धि होती है। 'अचो यत्।' (३।१।९७) सूत्रके अनुसार 'अजन्त' धातुसे 'यत्' प्रत्यय होता है। उसके होनेपर दान्यत् ('ईद्यति।' सूत्रसे 'आ' के स्थानमें 'ईकारादेश', गुण और विभक्तिकार्य) देयम्। ध्यै यत् ('आदेच उपदेशेऽशिति।' से 'ऐ' के स्थानमें आ, 'ईद्यति' से 'आ' के स्थानमें 'ई' (विभक्तिकार्य) ध्येयम्- ये पद सिद्ध होते हैं। 'ऋहलोण्र्ण्यत्' (३।१।१२४) - इस सूत्रके अनुसार ण्यत् प्रत्यय होनेपर कृण्यत् ('चुटू' १।३।७१) सूत्रसे णकारकी तथा 'हलन्त्यम्।' (१।३।३) सूत्रसे तकारको इत्संज्ञा। 'अच्चोऽञ्णिति।' (७।२।११५) से 'वृद्धि' तथा विभक्तिकार्य) 'कार्यम्'- यह पद सिद्ध होता है। यहाँतक 'कृत्यसंज्ञक' प्रत्यय कहे गये हैं॥१-४॥

'क्त' आदि प्रत्यय कर्तामें होते हैं- यह जाननेयोग्य बात है। वे कहीं-कहीं भाव और कर्ममें भी होते हैं। कर्तामें 'गम्' धातुसे 'क्त' प्रत्यय होनेपर 'गतः' यह रूप बनता है। प्रयोगमें ('स ग्रामं गतः, स ग्रामे गतः।' इत्यादि वाक्य होते हैं। इस वाक्यका अर्थ है- वह गाँवको गया)। कर्ममें 'क्त' प्रत्ययका उदाहरण है-'त्वया गुरुः आश्लिष्टः।' (तुमने गुरुका आलिङ्गन किया।) यहाँ कर्ममें प्रत्यय होनेसे कर्मभूत 'गुरु' उक्त हो गया। अतः उसमें प्रथमा विभक्ति हुई। 'त्वम्' यह कर्ता अनुक्त हो गया। अतः उसमें तृतीया विभक्ति हुई। 'आश्लिष् क्त' (ककारकी इत्संज्ञा, 'त' के स्थानमें 'ष्टुत्व' के नियमसे 'टकार' हुआ। तदनन्तर विभक्तिकार्य करनेपर)' आश्लिष्टः' पद सिद्ध हुआ। वर्तमानार्थबोधक 'लट् लकारमें धातुसे 'शतृ' और 'शानच्' प्रत्यय भी होते हैं। परस्मैपदमें 'शतृ' और आत्मनेपदमें 'शानच्' होता है। 'भू' धातुसे 'शतु' प्रत्यय करनेपर 'भवन्' और 'एथ्' धातुसे 'शानच्' प्रत्यय करनेपर 'एधमानः' ये पद सिद्ध होते हैं। 

सम्पूर्ण धातुओंसे 'बुलू' और 'तृच्' प्रत्यय होते हैं। 'भू' धातुसे कर्ता अर्थमें 'ण्बुल्' करनेपर 'भावकः' और 'तृच्' प्रत्यय करनेपर 'भविता'- ये पद सिद्ध होते हैं। 'भू' धातुसे 'क्रिप्' प्रत्यय भी हुआ करता है। 'स्वयम् भू-क्लिप् स्वयम्भूः '- इस पदकी सिद्धि होती है। भूतार्थ-बोधके लिये 'लिट्' लकारमें धातुसे 'क्रसु' और 'कानच्' प्रत्यय होते हैं। परस्मैपदमें 'क्रसु' और आत्मनेपदमें 'कानच्' होता है। 'भू' धातुसे 'क्कसु' करनेपर 'बभूविवान्' और 'पच्' धातुसे 'सु' प्रत्यय करनेपर 'पेचिवान्' ये पद सिद्ध होते हैं। इन शब्दोंकी व्युत्पत्ति इस प्रकार है- 'स बभूव इति बभूविवान्।' (वह हुआ था।) 'स पपाच इति पेचिवान्।' (उसने पकाया था।) 'आत्मनेपदीय पच्' धातुसे 'कानच्' प्रत्यय करनेपर 'पेचानः' पद बनता है। 'श्रद्धा'- इस धातुसे 'लिट्' लकार में 'कानच्' प्रत्यय करनेपर 'श्रद्दधानः'- यह पद सिद्ध होता है। 'स पेचे इति पेचानः। स श्रद्दधे इति अद्धानः'। 'कर्मण्यण' से 'अण्' प्रत्यय करनेपर 'कुम्भकारः' आदि पद सिद्ध होते हैं। भूत और वर्तमान अर्थमें भी 'उणादि' प्रत्यय होते हैं। 'ववौ वाति इति वा वायुः। वा-उण् (युगागम एवं विभक्तिकार्य) वायुः। 'पा-उण्-पायुः।' 'कृ उण् कारुः।' इत्यादि पद सिद्ध होते हैं। 'बहुलं छन्दसि' इस नियमके अनुसार सभी 'कृत्' प्रत्यय वेदमें बाहुल्येन उपलब्ध होते हैं। वहाँ कहीं प्रवृत्ति, कहीं अप्रवृत्ति, कहीं वैकल्पिक विधान और कहीं कुछ और ही विधि दृष्टिगोचर होती है॥ ५-८॥

इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में 'कृदन्त शब्दों के सिद्ध रूपों का संक्षिप्त वर्णन' नामक तीन सौ उनसठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३५९॥

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