अग्नि पुराण तीन सौ अट्ठावनवाँ अध्याय - Agni Purana 358 Chapter
अग्नि पुराण तीन सौ अट्ठावनवाँ अध्याय - तिङ्विभक्ति सिद्ध रूपम्
कुमार उवाच
तिङ्विभक्तिं प्रवक्ष्यामि तथादेशं समासतः ।
तिङस्त्रिष्वपि वर्त्तन्ते भावे कर्म्मणि कर्त्तरि ।। १ ।।
सकर्म्मकाकर्म्मकाच्च कर्त्तरि द्विपदे स्मृताः ।
सकर्म्मकाकर्म्मणि च तदादेशस्तथेरितः ।। २ ।।
वर्त्तमाने लडाख्यातो विध्याद्यर्थे लिङीरितः ।
विध्यादौ लोडाशिषि च भूतानद्यतने च लङ् ।। ३ ।।
भूते लुङ् लिट् परोक्षेऽथ भाविन्यद्यतने च लुट् ।
लिङाशिषि च शेषेऽर्थे लृड् भविष्यति लृङ्भवेत् ।। ४ ।।
लिङ्निमित्ते क्रियातिपत्तौ परे नवात्मनेपदम् ।
पूर्व्वं न परस्मैपदन्तिप्तसन्तीति प्रथमः पुमान् ।। ५ ।।
सिप्थस्थ मध्यमनरो मिप्वस्मस्चोत्तमः पुमान् ।
त आतां अन्तात्मने मुख्यः थासाथां ध्वञ्च मध्यमः ।। ६ ।।
उत्तम इ वहि महि भूवाद्या धातवः स्मृताः ।
भुविरेधिः पचिर्नन्दिर्ध्वंसिः श्रंसिः पदिस्त्वदिः ।। ७ ।।
शीङः क्रीड़ो जुहोतिश्च जहातिश्च दधात्यपि ।
दीव्यतिः स्वपितिर्नहिः सुनोतिर्वसिरेच च ।। ८ ।।
तुदिर्मृशतिर्मुञ्चतिः रुधिर्भुजिस्त्यजिस्तनिः ।
शवादिके विकरणे मनिश्चैव करोत्यपि ।। ९ ।।
क्रीड़तिर्वृङो ग्रहिश्चोरिः पा नीरच्चिश्च नायकाः ।
भुवि स्यात् तिङ् भवति सः भवतस्तौ भवन्ति ते ।। १० ।।
भवसि त्वं युवां भवथो यूयं भवथ चाप्यहं ।
भवाम्यावां भवावश्च भवामो ह्येधते कुलं ।। ११ ।।
एधेते द्वे तथैधन्ते एधसे त्वं हि मेधया ।
एधेथे च समेधध्वे एधे ह्येधावहे धिया ।। १२ ।।
एधामहे हरेर्भक्त्या पचतीत्यादि पूर्व्ववत् ।
भूयतेऽनुभूयतेऽसौ भावे कर्म्मणि वै यकि ।। १३ ।।
वुभूषति सनीत्येवं णिचि बाचवयतीश्वरं ।
यङि वोभूयते वाद्यं वोभोति स्याच्च यङ्लुकि ।। १४ ।।
पुत्रीयति पुत्रकाम्यत्येवं पटपटायते ।
घटयत्यऽथ सनि णिचि बुभूषयति रूपकं ।। १५ ।।
भवेद्भवेताञ्च लिङि भवेयुश्च भवेः परे ।
भवेतञ्च भवेतैवं भवेयञ्च भवेव च भवेम च ।। १६ ।।
एधेत एधेयातामेधेरन् मनसा श्रिया ।
एधेथाश्च एधेयाथामेधेध्वमेधेय एधेवाहि एधेमहि ।। १७ ।।
अस्तु तावद्भवतां लोटि भवन्तु भवताद्भव ।
भवतं भवत् भवानि भवाव च भवाम् च ।। १८ ।।
एधतामेधेता मेधन्तामेधै पटावहै पचामहै ।
अभ्यनन्ददपचतामपचन्नपचस्तथा ।। १९ ।।
अभवतमभवतापचमपचावापचाम च ।
ऐधतैधेतामैधध्वं ऐधे चैधामहीरितं ।। २० ।।
अभूदभूतामभूवनभूश्चभूवमेव लुङ् ।
ऐधिष्टैधिषातां नरावैधिष्ठा ऐधिषीदृशं ।। २१ ।।
लिटि बभूव बभूवतुः बभूवुश्च बभूविथ ।
बभूवथुर्बभूव च बभूविव वभूविम ।। २२ ।।
पेचे पेचाते पेचिरे त्वमेधाञ्चकृषे तथा ।
एधाञ्चक्राथे पेचिध्वे पेचे पेचिमहे तथा ।। २३ ।।
लुटि भविता भचवितारौ भवितारो हरादयः ।
भवितासि भवितास्थो भवितास्मस्तथा वयं ।। २४ ।।
पक्ता पक्तारौ पक्तारः पक्तासे त्वं शुभौदनं ।
पक्ताध्वे पक्ताहे चाहं पक्तास्महे हरेश्चरुं ।। २५ ।।
लिङाशिषि सुखं भूयात् भूयास्तां हरिशङ्करौ ।
भूयासुस्ते च भूयास्त्वं युवां भूयास्तमीश्वरौ ।। २६ ।।
भूयास्त यूयं भूयासमहं भूयास्म सर्व्वदा ।
यक्षीष्ट ह्येधिषीयास्तां यक्षीरन्नेधिषीय च ।। २७ ।।
यक्षीवह्येधिषीमहि लिङि चायक्ष्यतेति लृङ् ।
अयक्ष्येतामयक्ष्यन्तायक्ष्येऽयक्ष्येथां युवां ।। २८ ।।
अयक्षअयध्वमैधिष्यावह्यैधिष्यामह्यरेर्वयम् ।
लृटि स्याद्भविष्यतीति एधिष्यामह ईदृशम् ।। २९ ।।
एवं विभावयिष्यन्ति बोभविष्यति रूपकं ।
घटयेत् पटयेत्तद्वत् पुत्रीयति च काम्यति ।। ३० ।।
इत्यादि महा पुराणे आग्नेये व्याकरणे तिङ्विभक्तिसिद्धरूपं नामाष्टपञ्चाशदधिकत्रिशततमोऽध्यायः॥
अग्नि पुराण - तीन सौ अट्ठावनवाँ अध्याय हिन्दी मे Agni Purana 358 Chapter In Hindi
तीन सौ अट्ठावनवाँ अध्याय - तिङ्विभक्त्यन्त सिद्ध रूपों का वर्णन
कुमार कार्तिकेय कहते हैं- कात्यायन! अब मैं 'तिङ्-विभक्ति' तथा 'आदेश' का संक्षेपसे वर्णन करूँगा। तिङ्-प्रत्यय भाव, कर्म और कर्ता-तीनोंमें होते हैं। सकर्मक तथा अकर्मक धातुसे कर्तामें आत्मनेपद तथा परस्मैपद दोनों पदोंके 'तिङ्प्रत्यय' होते हैं। (सकर्मकसे कर्ता और कर्ममें तथा अकर्मकसे भाव और कर्तामें वे 'तिङ्' प्रत्यय हुआ करते हैं यह विवेक कर्तव्य है) 'तिङादेश' सकर्मक धातुसे कर्म तथा कर्तामें बताये गये हैं। वर्तमानकालकी क्रियाके बोधके लिये धातुसे 'लट्' लकारका विधान कहा गया है। विधि, निमन्त्रण, आमन्त्रण, अधीष्ट (सत्कारपूर्वक व्यापार), सम्प्रश्न तथा प्रार्थना आदि अर्थका प्रतिपादन अभीष्ट हो तो धातुसे 'लिङ्' लकार होता है। 'विधि' आदि अर्थोंमें तथा आशीर्वादमें भी 'लोट्' लकार का प्रयोग होता है।
अनद्यतन भूतकालका बोध करानेके लिये 'लङ्' लकार प्रयुक्त होता है। सामान्य भूतकालमें 'लुङ्', परोक्ष-भूतमें 'लिट्' अनद्यतन भविष्यमें 'लुट्' आशीर्वादमें 'लिङ्' शेष अर्थमें अर्थात् सामान्य भविष्यत् अर्थक बोधके लिये धातुसे 'लुट्' लकार होता है- क्रियार्था क्रिया हो तो भी, न हो तो भी। हेतुहेतुमद्भाव आदि 'लिङ्' का निमित्त होता है; उसके होनेपर भविष्यत् अर्थका बोध करानेके लिये धातुसे 'लुङ्' लकार होता है- क्रियाकी अतिपत्ति (असिद्धि) गम्यमान हो, तब। 'तङ्' प्रत्यय तथा 'शानच्', 'कानच्' इनकी आत्मनेपद संज्ञा होती है। 'तिङ्' विभक्तियाँ अठारह हैं। इनमें पूर्वकी नौ विभक्तियाँ 'परस्मैपद' कही जाती हैं। वे प्रथमपुरुष आदिके भेदसे तीन भागोंमें बँटी हैं। 'तिप् तस् अन्ति' ये तीन प्रथमपुरुष हैं। 'सिप्, थस्, थ'- ये तीन मध्यमपुरुष है। तथा 'मिए, वस्, मस्'- ये उत्तमपुरुष कहे गये हैं॥१-५॥
'त, आताम्, झ'- ये आत्मनेपदके प्रथमपुरुषसम्बन्धी प्रत्यय हैं। 'थास्, आथाम्, ध्वम्'- ये मध्यमपुरुष हैं। 'इ, वहि, महिङ' ये उत्तमपुरुष हैं। आत्मनेपदके नौ प्रत्यय 'तङ्' कहलाते हैं और दोनों पदंकि प्रत्यय 'तिङ्' शब्दसे समझे जाते हैं। क्रियावाची 'भू', वा आदि धातु कहे गये हैं। भू, एथ्, पच, नन्द्, ध्वंस्, स्त्रंस्, पद्, अद्, शीङ, क्रीड, हु, हा, था, दिव्, स्वप्, नह, पूज्, तुद, मृश, मुच, रुध्, भुज, त्यज, तन, मन और कु-ये सब धातु शप् आदि विकरण होनेपर क्रियार्थबोधक होते हैं। 'क्रीड, वृद्ध, ग्रह, चुर, पा, नी तथा अचि- ये तथा उपर्युक्त धातु 'नायक' (प्रधान) हैं। इन्होंके समान अन्य धातुओंके भी रूप होते हैं। 'भू' धातुसे क्रमशः 'तिङ्' प्रत्यय होनेपर 'भवति, भवतः, भवन्ति' इत्यादि रूप होते हैं। इनका वाक्यमें प्रयोग इस प्रकार समझना चाहिये 'स भवति। ती भवतः । ते भवन्ति। त्वं भवसि। युवां भवथः। यूयं भवथ। अहं भवामि। आवां भवावः। वयं भवामः।' ये 'भू' धातुके 'लट्' लकारमें परस्मैपदी रूप हैं। 'भू' धातुका अर्थ है-'होना'। 'एथ्' धातु 'वृद्धि' अर्थमें प्रयुक्त होता है।
यह आत्मनेपदी धातु है। इसका 'लट्' लकारमें प्रथमपुरुषके एकवचनमें 'एधते' रूप बनता है। वाक्यमें प्रयोग - 'एधते कुलम्।' (कुलको वृद्धि होती है) इस प्रकार होता है। 'लट्' लकारमें 'ए' धातुके शेष रूप इस प्रकार होते हैं-'द्वे एधेते'। (दो बढ़ते हैं)। यह द्विवचनका रूप है। बहुवचनमें 'एधन्ते' रूप होता है। इस प्रकार प्रथमपुरुषके एकवचन, द्विवचन और बहुवचनान्त रूप बताये गये। अब मध्यम और उत्तम पुरुषोंके रूप प्रस्तुत किये जाते हैं- 'एधसे' यह मध्यमपुरुषका एकवचनान्त रूप है। वाक्यमें इसका प्रयोग इस प्रकार हो सकता है- 'त्वं हि मेधया एधसे।' (निश्चय ही तुम बुद्धिसे बढ़ते हो।) 'एधेये, एधध्वे' ये दोनों मध्यमपुरुषके क्रमशः द्विवचनान्त और बहुवचनान्त रूप हैं। 'एधे, एधावहे, एधामहे' ये उत्तमपुरुषमें क्रमशः एकवचन, द्विवचन और बहुवचनान्त रूप हैं। वाक्यमें प्रयोग 'अहं धिया एधे।' (मैं बुद्धिसे बढ़ता हूँ।) 'आवां मेधया एधावहे।'
(हम दोनों मेधासे बढ़ते हैं।) 'वयं हरेर्भकत्या एधामहे।' (हम श्रीहरिकी भक्तिसे बढ़ते हैं।) 'पाक' अर्थमें 'पन्' धातुका प्रयोग होता है। उसके 'पचति' इत्यादि रूप पूर्ववत् ('भू' धातुके समान) होते हैं। 'भू' धातुसे भावमें और 'अनुभू' धातुसे कर्ममें 'यक्' प्रत्यय होनेपर क्रमशः 'भूयते' और 'अनुभूयते' रूप होते हैं। भावमें प्रत्यय होनेपर क्रिया केवल एकवचनान्त ही होती है और सभी पुरुषोंमें कर्ता तृतीयान्त होनेके कारण एक ही क्रिया सबके लिये प्रयुक्त होती है। यथा- 'त्वया मया अन्यैश्च भूयते।' जहाँ कर्ममें प्रत्यय होता है, वहाँ कर्म उक्त होनेके कारण उसमें प्रथमा विभक्ति होती है और तदनुसार सभी पुरुषों तथा सभी वचनोंमें क्रियाके रूप प्रयोगमें लाये जाते हैं। यथा-'असी अनुभूयते। तौ अनुभूयेते। ते अनुभूयन्ते। त्वम् अनुभूयसे। युवाम् अनुभूयेथे। यूयम् अनुभूयध्वे। अहम् अनुभूये। आवाम् अनुभूयावहे। वयम् अनुभूयामहे ॥ ६-१३॥
अर्थविशेषको लेकर धातुसे 'णिच्', 'सन्', 'यङ्' तथा 'यलुक्' होते हैं। इन्हें क्रमसे 'ण्यन्त', 'सन्नन्त', 'यडन्त' और 'बड्लुगन्त' कहते हैं। जहाँ किसी क्रियाके कर्ताका कोई प्रेरक या प्रयोजक कर्ता होता है, वहाँ प्रयोजक कर्ताकी 'हेतु' संज्ञा होती है और प्रयोज्य कर्ता 'कर्म' बन जाता है। प्रयोजकके व्यापार प्रेषण आदि वाच्य हों तो धातुसे 'णिय्' प्रत्यय होता है। उसके होनेपर 'भू' धातुके 'लट्' लकारमें 'भावयति' इत्यादि रूप होते हैं। उदाहरणके लिये 'ईश्वरो भवति, तं यज्ञदत्तो ध्यानादिना प्रेरयति इत्यस्मिन्नर्थे यज्ञदत्त ईश्वरं भावयति इति प्रयोगो भवति' (ईश्वर होता है और यज्ञदत्त उसको ध्यानादिके द्वारा प्रेरित करता है इस अर्थको व्यक्त करनेके लिये 'यज्ञदत्त ईश्वरं भावयति' यह प्रयोग बनता है)।' जहाँ कोई धातु इच्छाक्रियाका कर्म बनता है तथा इच्छाक्रियाका कर्ता ही उस धातुका भी कर्ता होता है, वहाँ उस धातुसे इच्छाकी अभिव्यक्तिके लिये 'सन्' प्रत्यय होता है।
'भू' धातुके सत्रन्तमें 'बुभूषति' इत्यादि रूप होते हैं। यथा- 'भवितुम् इच्छति बुभूषति।' (होना चाहता है।) वक्ता चाहे तो 'बुभूषति' कहे अथवा 'भवितुम् इच्छति' इस वाक्यका प्रयोग करे। यह स्मरणीय है कि 'सन्' और 'यङ्' प्रत्यय परे रहनेपर धातुका द्वित्व हो जाता है। शेष कार्य व्याकरणकी प्रक्रियाके अनुसार होते हैं। जहाँ क्रियाका समभिहार हो, अर्थात् पुनः पुनः या अतिशयरूपसे क्रियाका होना बताया जाय, वहाँ उक्त अभिप्रायका द्योतन या प्रकाशन करनेके लिये धातुसे 'यङ्' प्रत्यय होता है। 'बङ्' और 'यङ्लुगन्त' में धातुका द्वित्व होनेपर पूर्वभागके, जिसे 'अभ्यास' कहते हैं, 'इक्' का 'गुण' हो जाता है। 'भू' धातुके 'यडन्त' में 'बोभूयते' इत्यादि रूप होते हैं। 'पुनः पुनः अतिशयेन वा भवति' इस अर्थमें 'बोभूयते' क्रियाका प्रयोग होता है। यथा 'वाद्यं बोभूयते।' (वाद्यवादन बार-बार या अधिक मात्रामें होता है)। 'यङ्लुगन्त' में 'भू' धातुके 'बोभोति' इत्यादि रूप होते हैं। अर्थ वही है, जो 'यङन्त' क्रियाका होता है। 'यङन्त' में आत्मनेपदीय प्रत्यय होते हैं और 'यङ्लुगन्त' में परस्मैपदीय ॥ १४ ॥
कहीं-कहीं 'नाम' या 'सुबन्त' शब्दसे 'क्यच्' आदि प्रत्यय होनेपर उस शब्दकी 'धातु' संज्ञा होती है और उसके धातुके ही समान रूप चलते हैं। ऐसे प्रकरणको 'नामधातु' कहते हैं। जो इच्छाका कर्म हो और इच्छा करनेवालेका सम्बन्धी हो, ऐसे 'सुबन्त' से इच्छा अर्थमें विकल्पसे 'क्यच्' प्रत्यय होता है। 'आत्मनः पुत्रम् इच्छति।' (अपने लिये पुत्र चाहता है)- इस अर्थमें 'पुत्रम्' इस 'सुबन्त' पदसे 'क्यच्' प्रत्यय हुआ। अनुबन्धलोप होनेपर 'पुत्र अम् य' हुआ। 'सनाद्यन्ता धातवः।' (३।१।३२) से धातुसंज्ञा होकर 'सुपो धातुप्रातिपदिकयोः ।' (२।४।७०) से 'अम्' का लोप हो गया। पुत्र-य-इस स्थितिमें 'क्यचि च।' (७।४।३३) - इस सूत्रके अनुसार 'अकार 'के स्थानमें 'ईकार' हो गया। इस प्रकार 'पुत्रीय' से 'तिप्' 'शष्' आदि कार्य होनेपर 'पुत्रीयत्ति' इत्यादि रूप होते हैं। इसी अर्थमें 'काम्यच्' प्रत्यय भी होता है और 'पुत्र' शब्दसे 'काम्यच्' प्रत्यय होनेपर 'पुत्रकाम्यति' इत्यादि रूप होते हैं।
'पटत् भवति इति पटपटायते।' यहाँ 'अव्यक्तानुकरणादद्व्यजवरार्धादनितौ डाच्।' (५।४।५७) इस सूत्रके अनुसार 'भू' के योगमें 'डाच्' प्रत्यय होनेपर 'पटत् डा' इस स्थितिमें 'डाचि विवक्षिते द्वे बहुलम्।' इस वार्तिकसे द्वित्व होकर 'नित्यमाभ्रेडितं डाचि।' इस वार्तिकसे पररूप हुआ तो टि-लोपके अनन्तर 'पटपटा भू'- यह अवस्था प्राप्त हुई। इसके बाद 'लोहितादिडाभ्यः क्यष्।' (३।१।१३) - इस सूत्रसे 'भवत्ति' इस अर्थमें 'क्यष्' प्रत्यय हुआ तो 'पटपटा क्यष्' बना। फिर अनुबन्धलोप, धातु संज्ञा तथा धातुसम्बन्धी कार्य होनेसे 'पटपटायते'- यह रूप सिद्ध हुआ। इसका अर्थ है कि 'पटपट' की आवाज होती है। 'घर्ट करोति।'- इस अर्थमें 'तत्करोति तदाचष्टे' के अनुसार 'घटयति' रूप बनता है। 'सन्नन्त' से 'णिच्' प्रत्यय किया जाय तो 'भू' धातुके सन्नन्त रूप 'बुभूषति' की जगह 'बुभूषयति' रूप बनेगा। प्रयोग 'गुरुः शिष्यं बुभूषयति ॥ १५॥
'भू' धातुके 'विधिलिङ्' लकारमें क्रमशः ये रूप होते हैं- 'भवेत्, भवेताम्, भवेयुः। भवेः, भवेतम्, भवेत। भवेयम्, भवेव, भवेम'। 'एध' धातुके 'विधिलिङ्' में इस प्रकार रूप बनते हैं-एधेत, एधेयाताम्, एधेरन्। एधेथाः, एधेयाथाम्, एधेध्वम्। एधेय, एधेवहि, एधेमहि।' वाक्यप्रयोग- 'ते मनसा एधेरन्' (वे मनसे बढ़ें- उन्नति करें)। 'त्वं श्रिया एधेथाः।' (तुम लक्ष्मीके द्वारा बढ़ो इत्यादि)। 'भू' धातुके 'लोट्' लकारमें ये रूप होते हैं- 'भवतु, भवतात्, भवताम्, भवन्तु। भव-भवतात्, भवतम्, भवत। भवानि, भवाव, भवाम।' 'एथ्' धातुके 'लोट्' लकारमें ये रूप जानने चाहिये- 'एधताम्, एधेताम्, एधन्ताम्। एधस्व, एधेथाम्, एधध्वम्। एवै, एधावहै, एधामहै।' 'पच्' धातुके भी आत्मनेपदमें ऐसे ही रूप होते हैं। यथा उत्तमपुरुषमें 'पथै, पचावहै, पचामहै।' 'अभि' पूर्वक 'नदि' धातुका 'लङ्' लकारमें प्रथमपुरुषके एकवचनमें 'अभ्यनन्दत्' यह रूप होता है। 'पछ्' धातुके 'लङ्' लकारमें 'अपचत्, अपचताम्, अपचन्' इत्यादि रूप होते हैं। 'भू' धातुके 'लङ् लकारमें 'अभवत्, अभवताम्, अभवन्' इत्यादि रूप होते हैं।
'पच्' धातुके 'लङ्' लकारके उत्तमपुरुषमें 'अपचम्, अपचाव, अपचाम' ये रूप होते हैं। 'एध्' धातुके 'लङ् लकारमें- ऐधत, ऐधेताम्, ऐधन्त। ऐधथाः, ऐधेथाम्, ऐधष्वम्। ऐधे, ऐधावहि, ऐधामहि-ये रूप होते हैं। 'भू' धातुके 'लुङ' लकारमें अभूत्, अभूताम्, अभूवन्। अभूः, अभूतम्, अभूत। अभूवम्, अभूव, अभूम'- ये रूप होते हैं। 'एधू' धातुके 'लुङ्' लकारमें ऐधिष्ट, ऐधिषाताम्, ऐधिषत। ऐधिष्ठाः, ऐधिषाधाम्, ऐधिव्वम्। ऐधिषि, ऐधिष्वहि, ऐधिष्महि' ये रूप जानने चाहिये। वाक्यप्रयोग 'नरौ ऐधिषाताम्' (दो मनुष्य बढ़े)। 'भू' धातुके 'परोक्षलिट्' में 'बभूव, बभूवतुः, बभूवुः। बभूविध, बभूवधुः, बभूव। बभूव, बभूविव, बभूविम।' ये रूप होते हैं। 'पच्' धातुके आत्मनेपदी 'लिट्' लकारमें प्रथमपुरुषके रूप इस प्रकार हैं- 'पेचे, पेचाते, पेचिरे। 'एथ्' धातुके 'लिट्' लकारमें इस प्रकार रूप समझने चाहिये 'एधाञ्चक्रे, एधाञ्चक्राते, एधाञ्चक्रिरे। एधाञ्चकृषे, एधाञ्चक्राथे, एधाञ्चकृध्वे।
एधाञ्चके, एधाञ्चकृवहे, एधाञ्चकृमहे।' 'पच्' धातुके 'परोक्षलिट्' में प्रथमपुरुषके रूप बताये गये हैं। मध्यम और उत्तम पुरुषके रूप इस प्रकार होते हैं 'पेचिषे, पेचाथे पेचिच्वे। पेचे, पेचिवहे, पेचिमहे। "भू' धातुके 'अनद्यतन भविष्य लुट्' लकारमें इस प्रकार रूप जानने चाहिये- 'भविता, भवितारी, भवितारः। भवितासि, भवितास्थः, भवितास्थ। भवितास्मि, भवितास्वः, भवितास्मः ।' वाक्यप्रयोग 'हरादयो भवितारः।' (हर आदि होंगे।) 'वयं भवितास्मः।' (हम होंगे।) 'पच्' धातुके 'लुट्' लकारमें 'परस्मैपदीय' रूप इस प्रकार हैं- 'पक्ता, पक्तारी, पक्तारः, पक्तासि। (शेष भूधातुकी तरह)। वाक्यप्रयोग - 'त्वं शुभौदनं पक्तासि।' (तुम अच्छा भात राँघोगे।) 'पच्' धातुके 'लुट्' लकारमें 'आत्मनेपदीय' रूप इस प्रकार हैं- प्रथमपुरुषमें तो 'परस्मैपदीय' रूपके समान ही होते हैं, मध्यम और उत्तम पुरुषमें- 'पक्तासे, पक्तासाचे, पक्ताच्वे। पक्ताहे, पक्तास्वहे, पक्तास्महे।' वाक्यप्रयोग 'अहं पक्ताहे।' (मैं पकाऊँगा।) 'वयं हरेश्चरु पक्तास्महे।' (हम बौहरिके लिये चरु पकावेंगे या तैयार करेंगे।) 'आशीलिङ् में 'भू' धातुके रूप इस प्रकार जानने चाहिये 'भूयात्, भूयास्ताम्, भूयासुः। भूयाः, भूयास्तम्, भूयास्त।
भूयासम्, भूयास्व, भूयास्म। वाक्यप्रयोग 'सुखं भूयात्।' (सुख हो।) 'हरिशङ्करी भूयास्ताम्।' (विष्णु और शिव हों।) 'ते भूयासुः।' (वे हों।) 'त्वं भूयाः।' (तुम होओ।) 'युवाम् ईश्वरौ भूयास्तम्।' (तुम दोनों ईश्वर- ऐश्वर्यशाली होओ।) 'यूयं भूयास्त।' (तुम सब होओ।) 'अहं भूयासम्।' (मैं होऊँ।) 'वयं सर्वदा भूयास्म।' 'यक्ष' धातुके आत्मनेपदीय आशिष् लिङ् में इस प्रकार रूप होते हैं- 'यक्षीष्ट, यक्षीयास्ताम्, यक्षीरन्। यक्षीष्ठाः, यक्षीयास्थाम्, यक्षीध्वम्। यक्षीय, यक्षीवहि, यक्षीमहि।' इसी प्रकार 'एध्' धातुके 'आशीलिङ्' में ये रूप जानने चाहिये 'एधिषीष्ट, एधिषीयास्ताम्, एधिषीरन्। एधिषीष्ठाः, एधिषीयास्थाम्, एधिषीध्वम्। एधिषीय, एधिषीवहि, एधिषीमहि। 'यत्' धातुके 'लृङ्' लकारमें ये रूप होते हैं' अयक्ष्यत, अयक्ष्येताम्, अयक्ष्यन्त। अयक्ष्यथाः, अयक्ष्येथाम्, अयक्ष्यध्वम्। अयक्ष्ये, अयक्ष्यावहि, अयक्ष्यामहि। "एथ्' धातुके 'लृङ्' लकारके रूप इस प्रकार हैं- 'ऐधिष्यत ऐधिष्येताम्, ऐधिष्यन्त। ऐधिष्यथाः, ऐधिष्येथाम्, ऐधिष्यध्वम्। ऐधिष्ये, ऐधिष्यावहि, ऐधिष्यामहि।' वाक्यप्रयोग- काचिद् बाधा नाभविष्यच्चेद् वयम् अरेः ऐधिष्यामहि। (यदि कोई बाधा न पड़े तो हम अवश्य शत्रुसे बढ़ जायें।) 'भू' धातुके 'लुट्' लकारमें 'भविष्यति, भविष्यतः, भविष्यन्ति'- इत्यादि रूप होते हैं। 'एथ्' धातुके 'लुट्' लकारमें - 'एधिष्यते, एधिष्येते, एधिष्यन्ते। एधिष्यसे, एधिष्येथे, एधिष्यध्वे। एधिष्ये, एधिष्यावहे, एधिष्यामहे।' ये रूप होते हैं॥ १६-२९॥
इसी प्रकार 'णिजन्त' वि-पूर्वक 'भू' धातुके 'लुट्' लकारमें 'विभावयिष्यति, विभावयिष्यतः, विभावयिष्यन्ति' इत्यादि रूप होते हैं। 'यङ्लुगन्त' 'भू' धातुके 'लूट्' लकारमें 'बोभविष्यति' इत्यादि रूप होते हैं। 'नामधातु' में घटं करोति, पर्ट करोति' इत्यादि अर्थमें जिनके 'घटयति, पटयति' इत्यादि रूप कह आये हैं, उन्होंके 'विधिलिङ्' में 'घटयेत्, पटयेत्' इत्यादि रूप होते हैं। इसी तरह 'पुत्रीयति' और 'पुत्रकाम्यति' इत्यादि नामधातु सम्बन्धिनी क्रियाओंके रूपोंकी ऊहा कर लेनी चाहिये ॥ ३० ॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें 'तिङ् विभक्त्यन्त सिद्ध रूपोंका वर्णन' नामक तीन सौ अट्ठावनवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३५८ ॥
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