अग्नि पुराण तीन सौ सत्तावनवाँ अध्याय - Agni Purana 357 Chapter

अग्नि पुराण तीन सौ सत्तावनवाँ अध्याय  - Agni Purana 357 Chapter

अग्नि पुराण तीन सौ सत्तावनवाँ अध्याय - उणादि सिद्ध रूपम्

कुमार उवाच

उणादयोऽभिधास्यन्ते प्रत्यया धातुतः परे ।
उणि कारुश्च शिल्पी स्यात् जायुर्म्मायुश्च पित्तकं ।। १ ।।

गोमायुर्वायुर्वेदेषु बहुलं स्युरुणादयः ।
आयुः स्वादुश्च हेत्वाद्याः किंशारुर्धान्यशूककः ।। २ ।।

कृकवाकुः कुक्कुटः स्याद् गुरुर्भर्त्ता मरुस्तथा ।
शयुश्चाजगरो ज्ञेयः स हरायुधमुच्यते ।। ३ ।।

स्वरुद्‌र्वज्रं त्रपुरुसि समसारं फल्गुरीरितं ।
गृध्रश्च क्रनि किरचि मन्दिरं तिमिरं तमः ।। ४ ।।

इलचि सलिलं वारि कल्याणं भण्डिलं स्मृतं ।
बुवो विद्वान् क्कसौ स्याच्च शिविरं गुप्तसंस्थितिः ।। ५ ।।

ओतुर्विडालश्च तुनि अभिधानादुगादयः ।
कर्णः कामी च गृहभूर्वास्तुर्जैवातृकः स्मृतः ।। ६ ।।

अनड्‌वान् वहतेर्विनि स्याज्जातौ जीवार्णवौषधं ।
नौ वह्निरिननि हरिणः मृगः कामी च भाजनम्१ ।। ७ ।।

कम्बोजो भाजनम्भाण्डं सरण्डश्च चतुष्पदः ।
तरुरेरण्डः सङ्घातो वरूड़ः साम निर्भरं ।। ८ ।।

स्फारं प्रभूतं स्यान्नान्तप्रत्यये चीरवल्कलं ।
कातरो भीरुरुग्रस्तु प्रचण्डो जवसं तृणं ।। ९ ।।

जगच्चैव तु भूर्लोको कृशानुर्ज्योतिरर्क्ककः ।
वर्व्वरः कुटिलो धूर्त्तश्चत्वरञ्च चतुष्पथं ।। १० ।।

चीवरं भिक्षुप्रावृत्तिरादित्यो मित्र ईरितः ।
पुत्रः सूनुः पिता तातः पृदाकुर्य्याघ्रवृश्चिके ।। ११ ।।

गर्त्तेऽवटोऽथ भरतो नटोऽपरेप्युणादयः ।। १२ ।।

इत्यादिमहापुराणे आग्नेये व्याकरणे उणादिसिद्धरूपं नाम सप्तपञ्चाशदधिकत्रिशततमोऽध्यायः॥

अग्नि पुराण - तीन सौ सत्तावनवाँ अध्याय हिन्दी मे Agni Purana 357 Chapter In Hindi

तीन सौ सत्तावनवाँ अध्याय उणादिसिद्ध शब्दरूपों का दिग्दर्शन

कुमार स्कन्द कहते हैं कात्यायन। अब 'उणादि' प्रत्यय बताये जाते हैं, जो धातुसे परे होते हैं। 'कुवापाजिमिस्वदिसाध्य शूभ्य उण्।' (१)- इस सूत्रके अनुसार 'कृ' आदि धातुओंसे 'उण्' प्रत्यय होता है। 'करोतीति कारुः।' (जो शिल्पकर्म करता है, वह 'कारु' कहलाता है। लोकभाषामें उसे 'शिल्पी' या 'कारीगर' कहते हैं)। 'कृ' धातुसे 'उण्' प्रत्यय होनेपर अनुबन्धलोप, वृद्धि तथा विभक्तिकार्य किये जाते हैं। इससे 'कारुः' इस पदकी सिद्धि होती है। 'जि' धातुसे 'उण्' होनेपर 'जायुः' रूप बनता है। 'जायुः' का अर्थ है- औषध। इसकी व्युत्पत्ति इस प्रकार समझनी चाहिये 'जयति रोगान् इति जायुः'। 'मि' धातुसे वही (उण्) प्रत्यय करनेपर 'मायुः'- यह पद सिद्ध होता है। ' 'मायुः 'का अर्थ है- 'पित्त'। इसकी व्युत्पत्ति इस प्रकार है- 'मिनोति'- प्रक्षिपति देहे ऊष्माणम् इति मायुः।' इसी प्रकार 'स्वदते रोचते इति स्वादुः ।', 'साध्नोति परकार्यमिति साधुः।' इत्यादि प्रयोग सिद्ध होते हैं। गोमायुः, आयुः इत्यादि प्रयोग भी इसी तरह सिद्ध होते हैं। 'गोमायु' का अर्थ है-गीदड़ तथा 'आयुः' शब्द आयुर्वेदके लिये भी प्रयुक्त होता है। 'उणादयो बहुलम्।' (३।३।१) इस सूत्रके अनुसार 'उण्' आदि बाहुल्येन होते हैं। कहीं होते हैं, कहीं नहीं होते। 

'आयुः', 'स्वादुः' तथा 'हेतु' आदि शब्द भी उणादिसिद्ध हैं। 'किंशारु' नाम है- धान्यके शुकका। 'किं शृणातीति किंशारुः'। यहाँ 'किं' पूर्वक 'श्रृ' धातुसे 'गुण' होता है। 'ज्' तथा 'ण' अनुबन्ध हैं। किंभू+उठ। वृद्धि होकर 'किंशारुः' बनता है। 'कृकवाकुः' का अर्थ है-मुर्गा या मोर। 'कृकेन गलेन वक्तीति कृकवाकुः।' 'कृके वचः कश्च' - इस उणादिसूत्रसे 'जुण' प्रत्यय होनेपर कृक वच् जुण्- इस अवस्थामें अनुबन्धलोप, चकारको ककार और 'अत उपधायाः।' (पा० सू० ७।२।११६) से वृद्धि होती है। 'भरति विभर्ति वा भरुः।' 'भू' धातु से 'उ' प्रत्यय, गुण; विभक्तिकार्य भरुः। इसका अर्थ है-भर्त्ता (स्वामी)। मरुः जलहीन देश। मू+उ गुणादेश, विभक्तिकार्य मरुः। शी+उ-शयुः। इसका अर्थ है-सोया पड़ा रहनेवाला अजगर। त्सर-उ-त्सरुः अर्थात् खड्गकी मूठ। 'स्वर्यन्ते प्राणा अनेन' इस लौकिक विग्रहमें 'उ' प्रत्यय होता है। फिर गुण होकर 'स्वरुः' पद बनता है। स्वरु' का अर्थ है- वज्र। त्रप्-उ-त्रपु। 'त्रपु' नाम है शीशेका। फल्गू+उ-फल्गुः - सारहीन। अभिकाङ्क्षार्थक 'गृध्' धातुसे 'सुसुधागृधिभ्यः क्रन्', (१९२) इस सूत्रके अनुसार 'क्रन्' प्रत्यय होनेपर गृध् क्रन्, ककार-नकारको इत्संज्ञा गृधः अर्थात् गीध पक्षी। मदि-किरच् मन्दिरम्। तिमि किरच् तिमिरम्। 'मन्दिर' का अर्थ गृह तथा 'तिमिर' का अर्थ अन्धकार है।

'सलिकल्य- निमहिभडिभण्डिशण्डिपिण्डितुण्डिकुकिभूभ्य इलच्।' (५७)- इस उणादि सूत्रके अनुसार गत्यर्थक 'पल्' धातुसे 'इलच्' प्रत्यय करनेपर 'सलिलम्' यह रूप बनता है। 'सलति गच्छति निम्नमिति सलिलम्'- यह इसकी व्युत्पत्ति है। 'सलिल' शब्द वारि-जलका वाचक है। (इसी प्रकार उक्त सूत्रसे ही कलिलम्, अनिलः, महिला- पृषोदरादित्वात् महेला - इत्यादि शब्द निष्पन्न होते हैं।) भण्डि इलच् भण्डिलम् । इसका अर्थ है- कल्याण। 'भण्डिल' शब्द दूतके अर्थमें भी आता है। ज्ञानार्थक 'विद्' धातुसे औणादिक 'क्वसु' प्रत्यय होनेपर विद्-क्वसु- इस अवस्थामें 'लशक्कतद्धिते।' (१।३।८) से ककारकी इत्संज्ञा तथा 'उपदेशेऽजनुनासिक इत्।' (१।३।२) से उकारकी इत्संज्ञा होती है; तत्पश्चात् विभक्ति-कार्य करनेपर 'विद्वान्'- यह रूप बनता है। 'विद्वान्' का अर्थ है-बुध या पण्डित। 'शेरतेऽस्मिन् राजबलानि इति शिविरम्।' इस व्युत्पत्तिके अनुसार 'शी' धातुसे 'किरव्' प्रत्यय, 'शी' से 'वुक्' का आगम तथा 'शी' के दीर्घ ईकारके स्थानमें हस्व आदेश होनेपर 'शिविर' शब्दकी सिद्धि होती है। 'शिविर' कहते हैं- सेनाकी छावनीको अग्निपुराणके अनुसार गुप्त निवासस्थानको 'शिविर' कहते हैं॥ १-५ ॥ 

'अव्' धातुसे 'सितनिगमिमसि।' (७२) इत्यादि सूत्रके अनुसार 'तुङ्' प्रत्यय होनेपर वकारके स्थानमें 'ऊठ्' होकर गुण होनेसे 'ओतु' शब्दकी सिद्धि होती है। 'ओतु' कहते हैं- बिलावको। अभिधानमात्रसे उणादि प्रत्यय होते हैं। 'कृ' धातुसे 'न' प्रत्यय करनेपर गुण होता है और नकारका णकारादेश हो जानेपर 'कर्ण' शब्दको सिद्धि होती है। 'कर्ण'का अर्थ है- कान अथवा कन्यावस्थामें कुन्तीसे उत्पन्न सूर्यपुत्र कर्ण। 'वस्' धातुसे 'तुन्' प्रत्यय, अगार अर्थमें उसका 'णित्व' होकर वृद्धि होनेसे 'वास्तु' शब्द बनता है। 'वास्तु' का अर्थ है-गृहभूमि। 'जीव' शब्दसे 'आतृकन्' प्रत्यय और वृद्धि होकर 'जैवातृक' शब्दकी सिद्धि होती है। 'जैवातृक' का अर्थ है- चन्द्रमा। 'अनः शकटं वहति।' इस लौकिक विग्रहमें 'वह' धातुसे 'क्लिप्' प्रत्यय, 'अनस् 'के सकारका डकार आदेश तथा 'वह' के वकारका सम्प्रसारण होनेपर 'अनडुह' शब्द बनता है, उसके सुबन्तमें अनड्वान्, अनड्‌वाहाँ इत्यादि रूप होते हैं। 'जीव्' धातुसे 'जीवेरातुः'। (८२) इस सूत्रके अनुसार 'आतु' प्रत्यय करनेपर 'जीवातु' शब्दकी सिद्धि होती है। 

'जीवातु' नाम है- संजीवन औषधका। प्रापणार्थक 'वह' धातुसे 'वहिअिश्रुयुहुग्लाहात्वरिभ्यो नित्।' (५०१) इस सूत्रके अनुसार 'नित्' प्रत्यय करनेपर विभक्तिकार्यके पश्चात् 'वह्निः' इस रूपकी सिद्धि होती है। (इसी प्रकार श्रेणिः, श्रोणिः, योनिः, द्रोणिः, ग्लानिः, हानिः, तूर्णिः बाहुलकात् म्लानिः- इत्यादि पदोंकी सिद्धि होती है।) 'ह' धातुसे 'इनच्' प्रत्यय होनेपर और अनुबन्धभूत चकारका लोप कर देनेपर 'ह-इन', गुण तथा । विभक्ति-कार्य हरिणः- इस रूपकी सिद्धि होती है। 'श्यास्त्याहृञ्विभ्य इनच्।' (२१३)- इस औणादिक सूत्रसे यहाँ 'इनच्' प्रत्यय हुआ है। 'हरिण' कहते हैं- मृगको। यह शब्द कामी तथा पात्रविशेषके लिये भी प्रयुक्त होता है। 'अण्डन् कृसुभृवृञः।' (१३४) - इस सूत्रके अनुसार 'कृ' आदि धातुओंसे 'अण्डन्' प्रत्यय करनेपर क्रमशः - करण्डः, सरण्डः, भरण्डः, वरण्डः- ये रूप सिद्ध होते हैं। 'करण्ड' शब्द भाजन और भाण्डका वाचक है। मेदिनीकोशके अनुसार यह शहदके छत्तेके लिये भी प्रयुक्त होता है। 'सरण्ड' शब्द चौपायेका वाचक है। कुछ विद्वान् 'सरण्ड' का अर्थ पक्षी मानते हैं। 'बाहुलकात् तृ प्लवनतरणयोः।' इस धातुसे भी 'अण्डन्' प्रत्यय होकर 'तरण्ड' पदकी सिद्धि होती है। 'तरण्ड' शब्द काठके बेड़ेके लिये प्रयुक्त होता है। कुछ लोग मछली फँसानेके लिये बनायी गयी बंसीके डोरेको भी 'तरण्ड' कहते हैं। 'वरण्ड' शब्द सामवेदके लिये प्रयुक्त होता है। कुछ लोग 'साम' और 'यजुष्'- दो वेदोंके लिये इसका प्रयोग मानते हैं। कुछ लोगोंके मतमें 'वरण्ड' शब्द मुखसम्बन्धी रोगका वाचक है। 'स्फायितञ्चिवञ्चि० (१७८)।' 

इत्यादि सूत्रसे वृद्धधर्थक 'स्फायि' धातुसे 'रक्' प्रत्यय होनेपर 'स्फार' पदकी सिद्धि होती है। 'स्फार' शब्दका अर्थ होता है- प्रभूत अर्थात् अधिक। 'मेदिनीकोश 'के अनुसार 'स्फार' शब्द विकट अर्थमें आता है और करका या करवा आदि पात्रके भरते समय पानीमें जो बुलबुले उठते हैं, उनका वाचक भी 'स्फार' शब्द है। 'शुसिचिमीनां दीर्घश्च (१९३)।' इस सूत्रसे 'क्रन्' प्रत्यय और पूर्व हस्वस्वरके स्थानमें दीर्घ कर देनेपर क्रमशः शूरः, सीरं, चीरं, मीरः- ये प्रयोग बनते हैं। 'चीर' शब्द गायके धन, वस्त्रविशेष तथा वल्कलके अर्थमें प्रयुक्त होता है। 'भी' धातुसे 'भियः कुकन्' (१९९) इस सूत्रसे 'क्रुकन्' प्रत्यय करनेपर 'भीरुकः' इस पदकी सिद्धि होती है। इसके पर्यायवाची शब्द हैं-' भीरु' और 'कातर'। 'उच समवाये' इस ' धातुसे 'रन्' प्रत्यय करनेपर 'उम्रः' पदकी सिद्धि होती है। 'उग्रः' का अर्थ है-प्रचण्ड। 'बहियूभ्यां णित्।' इस सूत्रके अनुसार 'णित् असच्' प्रत्यय करनेपर 'वाहसः', 'यावसः' ये दो रूप सिद्ध होते हैं। 'वाहसः' का अर्थ है-अजगर और 'यावसः 'का अर्थ है- तृणसमूह। 'वर्तमाने पृषद्धृहन्महद्धगच्छत्रिवच्च।' इस सूत्रके अनुसार 'गम्' धातुसे 'अत्' प्रत्ययका निपातन हुआ। 

'गम्' के स्थानमें 'जग्' आदेश हुआ। इस प्रकार 'जगत्' शब्दकी सिद्धि हुई। 'जगत्' का अर्थ है-भूलोक। 'ऋतन्यञ्जिवन्यञ्यर्षि०' इत्यादि (४५०) सूत्रके अनुसार 'कृश' धातुसे 'आनुक्' प्रत्यय करनेपर 'कृशानुः' इस पदकी सिद्धि होती है। 'कृशानुः 'का अर्थ है-अग्नि। द्योतते इति ज्योतिः। 'द्युतेरिसिन्नादेशश्च जः।' (२७५) इस सूत्रके अनुसार 'द्युत्', धातुसे 'इसिन्' प्रत्यय, ह्यकारका जकारादेश तथा गुण होनेपर 'ज्योतिः' इस पदकी सिद्धि होती है। 'ज्योतिः' का अर्थ है-अग्नि और सूर्य। 'अर्च' धातुसे' कृदाधारार्षिकलिभ्यः।' ' (३२७)- इस सूत्रके अनुसार 'क' प्रत्यय ' होनेपर 'अर्कः' पदकी सिद्धि होती है। 'अर्क एवं अर्ककः'। स्वार्थे कः । 'अर्कः' पद सूर्यका वाचक है। 'कृगृशृवृञ्चतिभ्यः ष्वरच्।' (२८६) इस सूत्रके अनुसार वरणार्थक 'वृ' धातुसे तथा याचनार्थक 'चते' धातुसे 'ष्वरच्' प्रत्यय करनेपर क्रमशः 'वर्बरः', 'चत्वरम्' - इन दो पदोंकी सिद्धि होती है। 

'वर्षर' का अर्थ है- प्राकृत जन अथवा कुटिल मनुष्य। 'हसिमृग्रिण्वाऽमिदमिलूपूधूर्विभ्यस्तन् ।' (३७३) इस सूत्रके अनुसार हिंसार्थक 'धूर्वि' धातुसे 'तन्' प्रत्यय करनेपर 'धूर्त्तः' - इस पदकी सिद्धि होती है। 'धूर्त्त' शब्दका अर्थ है- शठ। 'चत्वरम्'का अर्थ है- चौराहा। लित्वरचत्वरधीवर' इत्यादि औणादिक सूत्रसे 'चीवरम्' इस पदका निपातन हुआ है। 'चीवरम्' का अर्थ है-चिथड़ा अथवा भिक्षुकका वस्त्र। स्नेहनार्थक 'जिमिदा' अथवा 'मिद्' धातु से 'अमिचिमिदिशसिभ्यः काः।' (६१३)- इस सूत्रके अनुसार 'क्त्र' प्रत्यय हुआ। ककारका इत्यसंज्ञालोप हुआ 'मिद-त्र-मित्र। विभक्ति-कार्य करनेपर 'मित्रः' इस पदकी सिद्धि हुई। 'मित्र' का अर्थ है- सूर्य। नपुंसकलिङ्गमें इसका अर्थ- सुहृद् होता है। 'कुवोह्रस्वश्च।' इस सूत्रके अनुसार 'पुनातीति' इस लौकिक विग्रहमें 'पू' धातुसे 'क्त्र' प्रत्यय और दीर्घके स्थानमें ह्रस्व होनेपर 'पुत्र' शब्दकी सिद्धि होती है। 'पुत्र' का अर्थ है- बेटा। 'सुवः कित्।' (३२८)- इस सूत्रके अनुसार प्राणिप्रसवार्थक 'चूङ्ङ' धातुसे 'नु' प्रत्यय होता है और वह 'कित्' माना जाता है। धातुके आदि षकारको सकारादेश हो जाता है। इस प्रकार 'सूनु' शब्दकी सिद्धि होती है। विभक्तिकार्य होनेपर 'सूनुः' पद बनता है। 'विश्वकोश' के अनुसार इसका अर्थ पुत्र और सूर्य है।

नष्ठनेष्टत्वष्टहोतृ० (२६०) इत्यादि सूत्रके अनुसार पितृ' शब्द निपातित होता है। 'पातीति पिता'। 'पा' धातुसे 'तृच्' होकर आकारके स्थानमें इकार हो जाता है। पिता, पितरौ, पितरः इत्यादि इसके रूप हैं। जन्मदाता या बापको 'पिता' कहते हैं। विस्तारार्थक 'तन्' धातुसे 'वुतनिभ्यां दीर्घश्च।' इस सूत्रके अनुसार 'तन्' प्रत्यय तथा हस्वके स्थानमें दीर्घ होनेपर 'तात' शब्दकी सिद्धि होती है। यहाँ अनुनासिक लोप हुआ है। 'तात शब्द कृपापात्र तथा पिताके लिये प्रयुक्त होता है। कुत्सितशब्दार्थक 'पर्द' धातुसे 'काकु' प्रत्यय होता है और वह 'नित्' माना जाता है। धातुके रेफका सम्प्रसारण और अकारका लोप हो जाता है। जैसा कि सूत्र है-'पर्दैर्नित् सम्प्रसारणमल्लोपश्च।' (३६७) 'काकु' प्रत्ययके आदि ककारका 'लशक्कतद्धिते।' (१।३।८)- इस सूत्रसे लोप हो जाता है। इस प्रक्रियासे 'पृदाकु' शब्दकी सिद्धि होती है। पर्दते कुत्सितं 'शब्दं करोति इति पृदाकुः।' इसका अर्थ है-सर्प, बिच्छू या व्याघ्र। 'हसिमृग्रिण्वाऽमिद-मिलूपूधूर्विभ्यस्तन् ।' (३७३) इस सूत्रके द्वारा 'गृ' धातुसे 'तन्' प्रत्यय  और गुणादेश करनेपर 'गर्त्त' शब्दकी सिद्धि होती है। यह 'अवट' अर्थात् गड्डेका वाचक है। 'भृमृशितृ०' इत्यादि (७) सूत्रके अनुसार 'भृ' धातुसे 'अतन्' प्रत्यय तथा गुणादेश करनेपर 'भरत' शब्द निष्पन्न होता है। जो भरण-पोषण करे, वह 'भरत' है। 'नमतीति नटः' इस व्युत्पत्तिके अनुसार 'जनिदाच्युस्वृमदि०' इत्यादि (५५४) सूत्रके द्वारा 'नम' धातुसे 'डद्' प्रत्यय करनेपर 'टि' लोप होनेके पश्चात् 'नट' शब्द बनता है। इसका अर्थ है- वेषधारी अभिनेता। ये थोड़े-से उणादि प्रत्यय यहाँ प्रदर्शित किये गये। इनके अतिरिक्त भी बहुत-से उणादि प्रत्यय होते हैं॥ ६-१२॥

इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें 'उणादिसिद्ध रूपोंका वर्णन' नामक तीन सौ सत्तावनवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३५७॥

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