अग्नि पुराण तीन सौ छप्पनवाँ अध्याय - Agni Purana 356 Chapter

अग्नि पुराण तीन सौ छप्पनवाँ  अध्याय  - Agni Purana 356 Chapter

अग्नि पुराण तीन सौ छप्पनवाँ अध्याय  - तद्धितम्

स्कन्द उवाच

तद्धितं त्रिविधं वक्ष्ये सामान्यवृत्तिरीदृशी ।
ल व्यंसलो वत्सलः स्यादिलचि स्यात्तू फेनिलं ।। १ ।।

लोमशः से पामनो ने इलचि स्यात्तु पिच्छिलं ।
अणि प्राज्ञ आर्च्चकः स्यात् दन्तादुरचि दन्तुरः ।। २ ।।

रे स्याम्मधुरं सुशिरं रे स्यात् केशर ईदृशः ।
हिरण्यं ये मालवो वे वलचि स्याद्रजस्वलः ।। ३ ।।

इनो धनो करी हस्ती धनिकं टिकनोरितं ।
पयस्वी विनि मायावी ऊर्णायुर्युचि ईरितं ।। ४ ।।

वाग्मी मिनि आलचि स्याद्वाचालश्चाटचीरितं ।
फलिनो वर्हिणः केकी वृन्दारकस्तया कनि ।। ५ ।।

आलुचि शीतन्न सहते शीतालुः श्वालुरीदृशः ।
हिमालुरालुचि स्याच्च हिमं न सहते तथा ।। ६ ।।

रूपं वातादुलचि स्याद् वातुलश्चानपत्यके ।
वाशिष्ठः कौरवो वासः पाञ्चालः सोस्य वासकः ।। ७ ।।

तत्र वासो माथुरः स्याद्वेत्त्यधीते च चान्द्रकः ।
व्युत्‌क्रमं वेत्ति क्रमकः नरश्चक्राम कौशकः ।। ८ ।।

प्रियङ्गूनां भवं क्षेत्रं प्रैयङ्गवीनकं खञि ।
मौद्‌गीनं सौद्रवीणञ्च वैदेहश्चानपत्यके ।। ९ ।।

इञि दाक्षिर्दाशरथिः कचि नारायणादिकं ।
आश्वायनः स्याच्च फञि यचि गार्ग्यश्च वात्सकः ।। १० ।।

ढकि स्याद्वैनतेयादिश्चाटकेरस्तथैरकि ।
ढ्रकि गौधेरको रूपं गौवारश्चारकीरितं ।। ११ ।।

क्षत्रियो घे कुलीनः खे ण्ये कौरव्यादयः स्मृताः ।
यति मूर्द्धन्यमुख्यादिः सुगन्धिरिति रूपकं ।। १२ ।।

तारकादिभ्य इतचि नभस्तारकितादयः ।
अनङि स्याच्च कुण्डाध्नी पुष्पधन्वसुधनवनी ।। १३ ।।

चञ्चुपि वित्तचञ्चुः स्याद्वित्तमस्य च शब्दके ।
चणपि स्यात् केशचणः रूपे स्यात् पटरूपकम् ।। १४ ।।

ईयसौ च पटीयान् स्यात् तरप्यक्षतरादिकम् ।
पचतितराञ्च तरपि तमप्यटतितमामपि ।। १५ ।।

मृद्वीतमा कल्पपि स्यादिन्द्रकल्पोऽर्ककल्पकः ।
राजदेशीयो देशीये देश्ये देश्यादिरूपकम् ।। १६ ।।

पटुजातीयो जातीये जानुमात्रञ्च मात्रचि ।
ऊरुद्वयसो द्वयसचि ऊरुदघ्नञ्च दघ्नचि ।। १७ ।।

तयटि स्यात् पञ्चतयः दौवारिकष्ठकीरितं ।
सामान्यवृत्तिरुक्ताऽअव्याख्यश्च तद्धितः ।। १८ ।।

यस्माद्यतस्तसिलि च यत्र तत्र त्रलीरितं ।
अस्मिन् काले ह्यधुना स्यादिदानीञ्चैव दान्यपि ।। १९ ।।

सर्वस्मिन् सर्व्वदा दा स्यात्तस्मिन्काले र्हिलीरितं ।
तर्हि होऽस्भिन् काल इह कर्हि सस्मिंश्च कालके ।। २० ।।

यथा थालि थमि कथं पूर्व्वस्यान्दिशि सञ्चयेत् ।
अस्ताति चैव पूर्व्वस्याः पूर्व्वादिग्रामणीयकाः ।। २१ ।।

पुरस्तात् सञ्चरेद् गच्छेत् सद्यस्तुल्येऽहनीरितं ।
उतिपूर्व्वाब्दे च परुत् पूर्व्वतरे परार्य्यपि ।। २२ ।।

ऐषमोऽस्मिन् संवत्सरे रूपं समसि चेरितं ।
एद्यवौ परेद्यवि स्यात् परस्मिन्नहनीरितं ।। २३ ।।

अद्यास्मिन्नहनि द्ये स्यात् पूर्व्वेद्युश्च तथैद्युसि ।
दक्षिणस्यान्दिशि वसेत् दक्षिणाद्दक्षइणा द्युभौ ।। २४ ।।

उत्तरस्यान्दिशि वसेदुत्तरादुत्तराद्युभौ ।
उपरि वसैदुपरिष्टाद् भवेद्रिष्टाति ऊद्‌र्ध्वकात् ।। २५ ।।

उत्तरेण च पित्रोक्तं आचि च स्याच्च दक्षिणा ।
आहौ दक्षिणाहि वसेद् द्विप्रकारं द्विधा च धा ।। २६ ।।

ध्यमुञि चैकध्यं कुरु त्वं द्वैधन्धमुञि चेदृशं ।
द्वौ प्र्कारौ द्विधा धाचि१ यथा२ ।। २७ ।।

निपातास्तद्धिताः प्रोक्ताः तद्वितो भाववाचकः ।
पटोर्भावः पटुत्वन्त्वे पटुता तलि चेरितं ।। २८ ।।

प्रथिमा चेमनि पृथोः सौख्यं सुखात् ष्यञीरितम् ।
स्तेयं यति च स्येनस्य ये सख्युः सख्यमीरितं ।। २९ ।।

कपेर्भावश्च कापेयं सैन्यं पथ्यं यकीरितं ।
आश्वं कौमारकं चाणि रूपं चाणि च यौवनम् ।।
आचार्य्यकं कणि प्रोक्तमेवमन्येपि तद्धिताः ।। ३० ।।

इत्यादिमहापुराणे आग्नेये व्याकरणे तद्धितसिद्दरूपं नाम षट्‌पञ्चाशदधिकत्रिशततमोऽध्यायः ॥

अग्नि पुराण - तीन सौ छप्पनवाँ अध्याय हिन्दी मे Agni Purana 356 Chapter In Hindi

तीन सौ छप्पनवाँ अध्याय - त्रिविध तद्धित-प्रत्यय

कुमार स्कन्ध कहते हैं- कात्यायन। अब त्रिविध 'तद्धित' का वर्णन करूँगा। 'तद्धित 'के तीन भेद हैं- सामान्यावृत्ति तद्धित, अव्यय तद्धित तथा भाववाचक तद्धित। 'सामान्यावृत्ति तद्धित' इस प्रकार है' अंस' शब्दसे 'लच्' प्रत्यय होनेपर 'अंसलः' बनता है; इसका अर्थ है- बलवान्। 'वत्स' शब्दसे 'लच्' प्रत्यय होनेपर 'वत्सलः' रूप होता है, इसका अर्थ स्नेहवान् है। 'फेन' शब्दसे 'इलच्' प्रत्यय होनेपर 'फेनिलम्" रूप होता है, इसका अर्थ है- फेनयुक्त जल। लोमादिगणसे 'श' प्रत्यय होता है, (विकल्पसे 'मतुप्' भी होता है) इस नियमके अनुसार 'श' प्रत्यय होनेपर 'लोमशः प्रयोग बनता है। ('मतुप्' होनेपर 'लोमवान्' होता है। इसी तरह 'रोमशः, रोमवान्'- ये प्रयोग सिद्ध होते हैं।) पामादि शब्दोंसे 'न' होता है- इस नियमके अनुसार 'पाम' शब्दसे 'न' होनेपर 'पामनः' 'अङ्गात् कल्याणे।' इस वार्तिकके अनुसार 'कल्याण' अर्थमें 'अङ्ग' शब्दसे 'न' होनेपर 'लक्ष्मणः' (उत्तम लक्षणोंसे युक्त) ये रूप बनते हैं। वैकल्पिक 'मतुप्' होनेपर तो 'पामवान्' आदि रूप होंगे। जिसे खुजली हुई हो, वह 'पामन' या 'पामवान्' है। इसी तरह पिच्छादि शब्दोंसे 'इलच्' होता है-इस नियमके अनुसार 'इलच्' होनेपर 'पिच्छिलः', 'पिच्छवान्'; 'उरसिलः', 'उरस्वान्' इत्यादि रूप होते हैं। 'पिच्छिलः' का अर्थ 'पंखवान्' होता है। मार्गका विशेषण होनेपर यह फिसलनयुक्तका बोधक होता है-यथा 'पिच्छिलः पन्थाः।' 'उरस्वान्' का अर्थ 'मनस्वी' समझना चाहिये। ['प्रज्ञाश्रद्धार्चाभ्यो णः।' (५।२। १०१)- इस पाणिनि सूत्रके अनुसार] 'ण' प्रत्यय करनेपर 'प्रज्ञा' शब्दसे 'प्राज्ञः' (प्रज्ञावान्), 'श्रद्धा' शब्दसे 'श्राद्धः' (श्रद्धावान्) और 'अर्चा' शब्दसे 'आर्चः' (अर्थावान्) रूप बनते हैं। वाक्यमें प्रयोग- 'प्राज्ञो व्याकरणे।' स्त्रीलिङ्गमें 'प्राज्ञा' (प्रज्ञावती) रूप होगा। 'ण' प्रत्यय होनेसे अणन्तत्वप्रयुक्त 'डीप्' प्रत्यय यहाँ नहीं होगा। यद्यपि 'प्रकर्षेण जानातीति प्रज्ञः स एव प्रज्ञावान् ।' प्रज्ञ एव प्राज्ञः । (स्वार्थे अण प्रत्ययः) इस प्रकार भी 'प्राज्ञः' की सिद्धि तो होती है, तथापि इससे स्त्रीलिङ्गमें 'प्राज्ञी' रूप बनेगा, 'प्राज्ञा' नहीं। 'वृत्ति' शब्दसे भी 'ण' प्रत्यय होता है 'वार्तः' (वृत्तिमान्)। 'वार्ता' विद्या इत्यादि। ऊँचे दाँत हैं इसके इस अर्थमें 'दन्त' शब्दसे 'उरच्' प्रत्यय होनेपर 'दन्तुरः'- यह रूप होता है। 'दन्त उन्नत उरन्।' (५।२।१०६)- इस पाणिनि-सूत्रसे उक्त अर्थमें 'दन्तुरः' इस पदकी सिद्धि होती है। 'मधु' शब्दसे 'र' प्रत्यय होनेपर 'मधुरम्", 'सुषि' शब्दसे 'र' प्रत्यय होनेपर 'सुषिरम्', 'केश' शब्दसे 'व' प्रत्यय होनेपर 'केशवः" 'हिरण्य' तथा 'मणि' शब्दोंसे 'व' प्रत्यय होनेपर 'हिरण्यवमणि वः ये प्रयोग सिद्ध होते हैं। 'रजस्' शब्दसे 'वलच्' प्रत्यय होनेपर 'रजस्वलम्" पदकी सिद्धि होती है। १-३। 'धन', 'कर' तथा 'हस्त' इन शब्दोंसे 'इनि' प्रत्यय होनेपर क्रमशः 'धनी', 'करी' और 'हस्ती' ये पद सिद्ध होते हैं। 'धन' शब्दसे 'ठन्' प्रत्यय होनेपर 'धनिकं कुलम्' या 'धनिकः पुरुषः'- ये प्रयोग सिद्ध होते हैं। 'पयस्' तथा 'माया' शब्दोंसे 'विनि' प्रत्यय होनेपर 'पयस्वी', 'मायावी' ये रूप बनते हैं। 'ऊर्णा' शब्दसे मत्वर्थीय 'युस्' प्रत्यय होनेपर 'ऊर्णायुः' पदको सिद्धि बतायी गयी है।' 'वाच्' शब्दसे 'ग्मिनि' प्रत्यय होनेपर 'वाग्मी' तथा 'आलच्' प्रत्यय होनेपर 'वाचालः'- ये रूप बनते हैं। उसीसे 'आटच्' प्रत्यय होनेपर 'बाचाटः' रूप बनता है। 'फल' तथा 'बर्ह' शब्दोंसे 'इनच्' प्रत्यय होनेपर क्रमशः 'फलिनः', 'बर्हिणः'- ये रूप बनते हैं। 'वृन्द' शब्दसे 'आरकन्' प्रत्यय होनेपर 'वृन्दारकः' इस पदकी सिद्धि होती है ॥ ४-५ ॥

'शीतं न सहते', 'हिमं न सहते'- इस विग्रहमें 'शीत' तथा 'हिम' शब्दोंसे 'आलुच्' प्रत्यय करनेपर 'शीतालुः' तथा 'हिमालुः' रूप बनते हैं। 'वात' शब्दसे 'उलच्' प्रत्यय होनेपर 'वातुलः' रूप बनता है। 'अपत्य' अर्थमें 'अण्' प्रत्यय होता है। 'वसिष्ठस्यापत्यं पुमान् वासिष्ठः ।', 'कुरोरपत्यं पुमान् कौरवः।' (वसिष्ठकी संतान 'वासिष्ठ' कहलाती है तथा कुरुकी संतति 'कौरव') 'वहाँ उसका निवास है' इस अर्थमें सप्तम्यन्त 'समर्थ' शब्दसे 'अण्' प्रत्यय होता है। यथा 'मथुरायां वासोऽस्येति माथुरः।' (मथुरामें निवास है इसका, इसलिये यह 'माथुर' है।) 'सोऽस्य वासः।'- वह इसका वासस्थान है, इस अर्थमें भी प्रथमान्त 'समर्थसे' 'अण्' प्रत्यय होता है। 'उसको जानता और उसे पढ़ता है' इस अर्थमें द्वितीयान्त 'समर्थ' पदसे 'अण्' प्रत्यय होता है। 'चान्द्रं व्याकरणमधीते तद् वेद वा इति चान्द्रः।' (चान्द्र एव चान्द्रकः स्वार्थे कप्रत्ययः)। 'क्रमादि' शब्दोंसे 'वुन्' प्रत्यय होता है ('वु'के स्थानमें 'अक' आदेश होता है।) 'क्रर्म वेत्ति इति क्रमकः'- जो क्रमपाठको जानता है, वह 'क्रमक' है। इसी तरह 'पदकः', 'शिक्षकः', 'मीमांसकः' इत्यादि पद बनते हैं। 'कोशम् अधीते वेद वा।'- जो कोशको जानता या पढ़ता है, वह 'कौशक' है॥ ६-८ ॥

'धान्यानां भवने क्षेत्रे खञ्।' (पा०सू० २।१)- इस सूत्रके अनुसार धान्योंकी उत्पत्तिके आधारभूत क्षेत्रके अर्थमें षष्ठधन्त समर्थ धान्य वाचक शब्दसे 'खञ्' प्रत्यय होता है। (स्कन्दने कात्यायनको जिसका उपदेश किया, उस कौमार व्याकरणमें भी यह नियम देखा जाता है।) इसके अनुसार प्रियंगोर्भवनं क्षेत्रं प्रैयंगवीनम् प्रियंगु (कैगनी) की उत्पत्तिके आधारभूत क्षेत्रका बोध करानेके लिये 'खञ्' प्रत्यय होनेपर ('ख' के स्थानपर 'ईन्' आदेश हो जानेपर) 'प्रियंगवीनम्' यह पद बनता है। इसका अर्थ 'प्रियंगु है- (कैगनी) की उपज देनेवाला खेत'। इसी तरह ' मूँग, कोदो आदिकी उत्पत्तिके उपयुक्त खेतको 'मौद्रीन' तथा 'कौद्रवीण' कहते हैं। यहाँ ' 'मुद्दङ्ग' शब्दसे 'खञ्' होनेपर 'मौट्रीन' शब्द और 'कोद्रव' शब्दसे 'खञ्' होनेपर 'कौद्रवीण' शब्दकी सिद्धि होती है। 'विदेहस्यापत्यम्' (विदेहका पुत्र)- इस अर्थमें 'विदेह' शब्दसे 'अण्' प्रत्यय होनेपर 'वैदेहः' पदकी सिद्धि होती है। (इन सबमें आदि स्वरकी वृद्धि होती है।) अकारान्त शब्दसे 'अपत्य' अर्थमें 'अण्' का बाधक 'इ' प्रत्यय होता है। आदि स्वरकी वृद्धि तथा अन्तिम स्वरका लोप। 'दक्षस्यापत्यं दाक्षिः, दशरथस्यापत्यं दाशरथिः।' इत्यादि पद बनते हैं। 'नडादिभ्यः फक्।' (४।१।९९)- इस सूत्रके नियमानुसार 'नड' आदि शब्दोंसे 'फक्' प्रत्यय होता है। 'फ' के स्थानमें 'आयन' होता है। अतएव 'नडस्य गोत्रापत्यं नाडायनः, चरस्य गोत्रापत्यं चारायणः।' इत्यादि प्रयोग सिद्ध होते हैं। ('कित्' होनेके कारण आदि वृद्धि हो जाती है।) इसी तरह 'अश्वस्य गोत्रापत्यम्, आश्वायनः' होता है। इसमें 'अश्वादिभ्यः फञ्।' (४। १। ११०)- इस सूत्रके अनुसार 'फञ् प्रत्यय होता है। ('गोत्रे कुञ्जादिभ्यः फञ्।' ४।

।१।९८ यह भी फञ्-विधायक सूत्र है। ब्रघ्न शङ्ख, शकट आदि शब्द कुञ्जदिके अन्तर्गत हैं, अतएव 'शाङ्खायनः', 'शाकटायनः' आदि प्रयोग सिद्ध होते हैं।) 'गर्गादिभ्यो यञ्' (४। १। १०५)- इस सूत्रके अनुसार गर्ग, वत्स आदि शब्दोंसे गोत्रापत्यार्थक 'बञ्' प्रत्यय होनेपर 'गाग्र्ग्यः', 'वात्स्यः' इत्यादि रूप बनते हैं। 'स्वीभ्यो ढक् ।' (४।१।१२०) के नियमानुसार स्त्रीप्रत्ययान्त शब्दोंसे 'अपत्य' अर्थमें 'ढक्' प्रत्यय होता है। फिर उसके स्थानमें 'एय' होता है। जैसे 'विनतायाः पुत्रः' (विनताका पुत्र) वैनतेय' कहलाता है। 'सुमित्रा' आदि शब्द बाह्वादिगणमें पठित हैं, अतः उनसे अपत्यार्थमें इञ्' प्रत्यय होता है। अतएव 'सौमित्रेयः' न होकर 'सौमित्रिः' रूप बनता है। 'चटका' शब्दसे 'चटकाया ऐरक्।' (४।१।१२८)- इस सूत्रके विधानानुसार 'ऐरक्' प्रत्यय होनेपर 'चटकाया अपत्यं पुमान्' (चटकाका नर पुत्र) 'चाटकैर' कहलाता है। 'गोधा' शब्दसे 'ढुक्' का विधान है। 'गोधाया ड्रक्।' (४। १। १२९) अतः गोधाका अपत्य 'गोधेर' कहलाता है। 'आरगुदीचाम्।' (४।१।१३०) के नियमानुसार 'आरक्' प्रत्यय होनेपर 'गौधारः' रूप बनता है। ऐसा वैयाकरणोंने बताया है ॥ ९-११ ॥ 

क्षत्र' शब्दसे 'घ' प्रत्यय होनेपर 'घ' के स्थानमें 'इय' होनेके कारण 'क्षत्रिय' शब्द सिद्ध होता है। 'क्षत्राद् घः।' (४। १। १३८)- 'जाति' बोधक 'घ' प्रत्यय होनेपर ही 'क्षत्रियः' रूप बनता है। अपत्यार्थमें तो 'इन्' होकर 'क्षत्रस्यापत्यं पुमान् क्षात्रिः'- यही रूप बनेगा। 'कुलात् खः।' (४। १। १३९) के अनुसार 'कुल' शब्दसे 'ख' प्रत्यय और 'ख' के स्थानमें 'ईन' आदेश होनेपर 'कुलीनः' इस पदकी सिद्धि होती है। 'कुर्वादिभ्यो ण्यः।' (४। १। १५१) के अनुसार अपत्यार्थमें 'कुरु' शब्दसे 'ण्य' प्रत्यय होनेपर आदिवृद्धिपूर्वक गुण-वान्तादेश होकर 'कौरव्यः' इत्यादि प्रयोग बनते हैं। 'शरीरावयवाद् यत्।' (५।१।६) के नियमानुसार शरीरावयववाचक शब्दोंसे 'यत्' प्रत्यय होनेपर 'मूर्धन्य' तथा 'मुख्य' आदि शब्द सिद्ध होते हैं। 'सुगन्धिः' 'शोभनो गन्धो यस्य सः' इस लौकिक विग्रहमें बहुव्रीहि समास करनेके पश्चात् 'गन्धस्येदुत्यूतिसुसुरभिभ्यः।' (५।४। १३५) इस सूत्रके अनुसार अन्तमें 'इ' हो जानेसे 'सुगन्धिः' इस शब्दरूपकी सिद्धि होती है ॥ १२॥

'तदस्य संजातं तारकादिभ्य इतच् ।' (५। २। ३६) - तारकादिगणसे 'इतच्' प्रत्यय होता है, इस नियमके अनुसार 'तारकाः संजाता अस्य' (तारे उग आये हैं, इसके) इस अर्थमें 'तारका' शब्दसे 'इतच्' प्रत्यय होनेपर 'तारकितं नभः' इत्यादि प्रयोग सिद्ध होते हैं। 'कुण्डमिव ऊधो यस्याः सा' (कुण्डाके समान है थन जिसका, वह)- इस लौकिक विग्रहमें बहुब्रीहि समास होनेपर 'ऊधसोऽनङ्।' (५।४। १३१) इस सूत्रके अनुसार ऊधोऽन्त बहुब्रीहिसे स्त्रीलिङ्गमें 'अनङ्' होता है। इस प्रकार 'अनङ्' होनेपर 'बहुव्रीहेरूधसो डीष्।' (४।१।२५) - इस सूत्रसे 'डीष्' प्रत्यय होता है। तत्पश्चात् अन्यान्य प्रक्रियात्मक कार्य होनेके बाद 'कुण्डोध्नी' पदकी सिद्धि होती है। 'पुष्पं धनुर्यस्य स पुष्पधन्वा' (कामदेवः), 'सुष्ठु धनुर्यस्य स सुधन्वा' (श्रेष्ठ धनुष धारण करनेवाला योद्धा)- इन दोनों बहुब्रीहि पदोंमें 'धनुषश्च।' (५।४। १३२) इस सूत्रसे 'अनङ्' होता है। तत्पश्चात् सुबादि कार्य होनेपर 'पुष्पधन्वा' तथा 'सुधन्वा'- ये दोनों पद सिद्ध होते हैं ॥ १३ ॥

'वित्तेन वित्तः इति वित्तचुञ्चुः ।' जो धन वैभवके द्वारा प्रसिद्ध हो, वह 'वित्तचुञ्चः' है। शब्दशास्त्र में जिस की प्रसिद्धि है, वह 'शब्दचुञ्च' कहलाता है। ये दोनों शब्द 'चुञ्चप्' प्रत्यय होनेपर निष्पन्न होते हैं। इसी अर्थमें 'चणप्' प्रत्यय भी होता है। यथा 'केशचणः। जो अपने केशोंसे विदित है, वह 'केशचणः' कहा गया है। (इन प्रत्ययोंका विधान 'तेन वित्तश्चुञ्चप्रचणपौ।' (५। २। २६) इस सूत्रके अनुसार होता है। 'पटु' शब्दसे 'प्रशस्त' अर्थमें 'रूप' प्रत्यय होनेपर 'पटुरूपः' पद बनता है। 'प्रशस्तः पटुः-पटरूपः।' जो प्रशस्त पटु है, वह 'पटुरूप' कहा जाता है। यह 'रूप' प्रत्यय 'सुबन्त' और 'तिङन्त'- दोनों प्रकारके शब्दोंसे होता है। 'तिङन्त' शब्दसे इस प्रकार होता है-प्रशस्तं पचति इति 'पचतिरूपम्।' 'पचतिरूपम्' का अर्थ है- अच्छी तरह पकाता है। अतिशयार्थ-द्योतनके लिये 'तमप्', 'इष्ठन्', 'तरप्' और 'ईयसुन्'- ये प्रत्यय होते हैं। इनमेंसे 'तरप्' और 'ईयसुन्'- ये दोनों दोमेंसे एककी श्रेष्ठताका प्रतिपादन करते हैं और 'तमप्' तथा 'इष्ठन्'- ये दोनों बहुतोंमेंसे एककी श्रेष्ठता बताते हैं। पाणिनिने इसके लिये दो सूत्रोंका उल्लेख किया है- 'अतिशायने तमबिष्ठनौ।' (५। ३। ५५) तथा 'द्विवचनविभज्योत्तरपदे तरबीयसुनौ।' (५।३।५७)। इसके सिवा, यदि किसी द्रव्यका प्रकर्ष न बताना हो तो 'तरप्' 'तमप्' प्रत्ययोंसे परे 'आम्' हो जाता है। यह 'आम्' 'किम्' शब्द, 'एदन्त' शब्द, तिङन्त पद तथा अव्यय पदसे भी होते हैं। इन सब नियमोंके अनुसार 'अयम् अनयोरतिशयेन पटुः।' (यह इन दोनोंमें अधिक पटु है)- इस अर्थको बतानेके लिये 'पटु' शब्दसे 'ईबसुन्' प्रत्यय करनेपर विभक्तिकार्यपूर्वक 'पटीयान्' रूप होता है। 'अक्ष' शब्दसे 'तरप्' प्रत्यय होनेपर 'अक्षतर' और 'पटु' आदि शब्दोंसे उक्त प्रत्यय होनेपर 'पटुत्तरः' आदि रूप बनते हैं। तिङन्तसे 'तरप्' प्रत्यय करके अन्त में 'आम्' करनेपर 'पचतितराम्' रूप बनता है। 'तमप्' और 'आम्' प्रत्यय होनेपर 'अटतितमाम्' इत्यादि उदाहरण उपलब्ध होते हैं॥ १४-१५॥

किंचित् न्यूनता तथा असमाप्तिका भाव प्रकट करनेके लिये 'सुबन्त' और 'तिङन्त' शब्दोंसे 'कल्पय्', 'देश्य' तथा 'देशीयर्' प्रत्यय होते हैं। 'ईषदसमाप्ती कल्पब्देश्यदेशीयरः' (५। ३। ६७)- इस सूत्रके अनुसार 'मृदु' शब्दसे 'कल्पप्' प्रत्यय होनेपर 'मृदुकल्पः' प्रयोग बनता है। इसका अर्थ हुआ कुछ कम मृदु या कोमल'। 'ईषदूनः इन्द्रः इन्द्रकल्पः। ईषदुनः अर्कः- अर्ककल्पः।' इत्यादि उदाहरण इसी तरह जाननेयोग्य हैं। 'ईषदूनः राजा' इस अर्थमें 'राजन्' शब्दसे 'देशीयर्' प्रत्यय करनेपर 'राजदेशीयः' तथा 'देश्य' प्रत्यय करनेपर 'राजदेश्यः' ये रूप बनते हैं। इसी तरह 'पटु' शब्दसे 'जातीय' प्रत्यय करनेपर 'पटुजातीयः' पद बनता है। इसका अर्थ है- पटुप्रकार- पटुके प्रकारका। 'थल्' प्रत्यय प्रकारमात्रका बोधक है, किंतु 'जातीयर्' प्रत्यय 'प्रकारवान्' का बोध कराता है। [इसका विधायक पा० सू० है- 'प्रकारवचने जातीयम्।' ५। ३। ६९] 'प्रमाणे द्वयसज्दनमात्रचः ।' (५।२।३७) इस सूत्रके अनुसार 'जल' आदिका प्रमाण बतानेके लिये 'सुबन्त' शब्दोंसे 'द्वयसय् 'दध्नच्' तथा 'मात्रच्' प्रत्यय होते हैं। इस नियमसे 'मात्रच्' प्रत्यय होनेपर 'जानुमात्रम्' पद बनता है। इसका अर्थ है-घुटनेतक (पानी है)। 'ऊरु' शब्दसे 'द्वयसच्' प्रत्यय करनेपर 'ऊरुद्वयसम्' तथा 'दघ्नन्' प्रत्यय करनेपर 'ऊरुदनम्'- ये प्रयोग बनते हैं ॥ १६-१७ ॥ 'संख्याया अवयवे तयप्।' (पा०सू० ५।२। ४२)- इस सूत्रके अनुसार 'पञ्चावयवा यस्य तत्' (पाँच अवयव हैं, जिसके वह) इस अर्थमें 'पञ्चन्' शब्दसे 'तयप्' प्रत्यय करनेपर 'पञ्चतयम्'- यह रूप बनता है। 'द्वारं रक्षति, द्वारे नियुक्तो वा दौवारिकः'- जो द्वारकी रक्षा करता है, अथवा द्वारपर रक्षाके लिये नियुक्त है, वह 'दौवारिक' है। 'रक्षति।' (पा० सू० ४।४। ३३) अथवा 'तत्र नियुक्तः।' (पा०सू० ४।४। ६९) सूत्रसे यहाँ 'ठक्' प्रत्यय हुआ है। 'ठ' के स्थानमें 'इक' आदेश हो जाता है तथा 'द्वारादीनां च।' (७।३।४) इस सूत्रसे 'ऐ' का आगम होता है। फिर विभक्तिकार्य होनेपर 'दौवारिकः' इस पदकी सिद्धि होती है। इस प्रकार 'ठक्' प्रत्यय होनेपर 'दौवारिक' शब्दकी सिद्धि बतायी गयी है। यहाँतक 'तद्धितकी सामान्यवृत्ति' कही गयी। अब 'अव्ययसंज्ञक तद्धित' का निरूपण किया जाता है॥ १८॥ 

'यस्मादिति यतः', 'तस्मादिति ततः' यहाँ 'पञ्चम्यास्तसिल्।' (५।३।७) सूत्रके अनुसार 'तसिल्' प्रत्यय होता है। इकार और लकारकी इत्संज्ञा होकर उनका लोप हो जाता है। 'तसिल्' प्रत्यय विभक्तिसंज्ञक होनेके कारण 'त्यदादीनामः ।' (७।२।१०२) के नियमानुसार अकारान्तादेश हो जाता है। अतः, 'यत्' की जगह 'य' और तत् की जगह 'त' होनेसे 'यतः', 'तत्तः' ये रूप बनते हैं। 'तसिलादयः प्राक् पाशयः।' ('तसिल्' आदिसे लेकर 'पाशप्' प्रत्ययके पूर्वतक जितने प्रत्यय विहित या अभिहित हुए हैं, उन सबकी 'अव्ययसंज्ञा' होती है)- इस परिगणनाके अनुसार 'यतः', 'ततः' आदि शब्द 'अव्यय' माने गये है। 'तसिल्' आदिमें 'लू' प्रत्यय भी आता है। इसका विधायक पाणिनिसूत्र है- 'सप्तम्यास्वत्।' (५। ३।१०)। 'यस्मिन्निति यत्र', 'तस्मिन्निति तत्र' इस लौकिक विग्रहमें 'जल्' प्रत्यय होनेपर 'यस्मिन् त्र', 'तस्मिन् त्र।' इस अवस्थामें 'कृत्तद्धितसमासाश्च' (१।२।४६) से प्रातिपदिक संज्ञा, 'सुपो धातुप्रातिपदिकयोः ।' (२।४।७१) सूत्रसे विभक्तिका लोप और 'त्यदादीनामः।' (७। २। १०२) सूत्रसे अकारान्तादेश होनेपर 'यत्र, तन्त्र' इन पदोंकी सिद्धि बतायी गयी है। 'अस्मिन् काले'- इस लौकिक विग्रहमें 'अधुना।' (५। ३। १७) सूत्रसे 'अधुना' प्रत्यय होने 'अस्मिन् अधुना' इस अवस्थामें विभक्तिलोप, 'इदम्' के स्थानमें 'इश्' अनुबन्धलोप तथा 'यस्येति च।' (६।४। १४८) से इकारलोप होनेपर 'अधुना' की सिद्धि हुई। इसी अर्थमें 'दानीम्' प्रत्यय होनेपर 'इदम्' के स्थानमें 'इ' होकर 'इदानीम्' रूप बनता है। 'सर्वस्मिन् काले'- इस विग्रहमें 'सर्वेकान्यकिंयत्तदः काले दा' (५। ३। १५) इस सूत्रसे 'दा' प्रत्यय होनेपर 'सर्वदा' रूप बनता है। 'तस्मिन् काले तर्हि', 'कस्मिन् काले कर्हि' यहाँ 'तत्' और 'किम्' शब्दोंसे 'काल' अर्थमें 'अनद्यतने र्हिलन्यतरस्याम्।' (५। ३। २१) इस सूत्रसे 'हिल्' प्रत्यय हुआ। फिर पूर्ववत् प्रातिपदिकावयव विभक्तिका लोप होकर 'त्वदादीनामः।' (७।२। १०२)- इस सूत्रसे 'तत्' के स्थानपर 'त' और 'किमः कः।' (७।२।१०३) सूत्रसे 'किम्' के स्थानमें 'क' होनेपर 'तर्हि' और 'कर्हि' इन पदोंकी सिद्धि कही गयी है। 'अस्मिन्' इस विग्रहमें 'अन्' प्रत्ययकी प्राप्ति हुई, किंतु उसे बाधित करके 'इदमो हः।' (५।३।११) - इस सूत्रसे 'हः' प्रत्यय हो गया। फिर 'इदम्' के स्थानमें इकार होनेपर 'इह' रूपकी सिद्धि हुई ॥ १९-२० ॥

'येन प्रकारेण यथा, केन प्रकारेण कथम्'- इन स्थलोंपर 'प्रकारवचने थाल्।' (५।३।२३) के अनुसार 'थाल्' प्रत्यय होनेपर 'यथा', 'तथा' आदि रूप होते हैं। 'किम्' शब्दसे 'किमश्च।' (५।३।२५) के अनुसार 'थम्' प्रत्यय होता है। अतः 'कथम्' इस रूपकी सिद्धि होती है। जो शब्द दिशाके अर्थमें रूढ़ होते हैं, ऐसे 'दिशा', 'देश' और 'काल' अर्थमें प्रयुक्त शब्दोंसे स्वार्थमें 'अस्ताति' प्रत्यय होता है। श्लोकमें 'पूर्वस्याम्' यह सप्तमी विभक्तिका, 'पूर्वस्याः' यह पञ्चमी विभक्तिका तथा 'पूर्वा' यह प्रथमा विभक्तिका प्रतिरूप है। अर्थात् उक्त शब्द यदि सप्तम्यन्त, पञ्चम्यन्त और प्रथमान्त हों, तभी उनसे 'अस्ताति' प्रत्यय होता है। 'पूर्व', 'अधर' और 'अवर' शब्दोंके स्थानमें क्रमशः 'पुर' 'अध' और 'अव' आदेश होते हैं। 'अस्ताति' के स्थानमें 'असि' प्रत्ययका भी विधान होता है। इन निर्दिष्ट नियमोंके अनुसार 'पूर्वस्यां दिशि', 'पूर्वस्याः दिशः 'पूर्वा वा दिक्- इन लौकिक विग्रहोंमें 'पुरः', 'पुरस्तात्' ये रूप होते हैं। उसी प्रकार 'अधः, अधस्तात्' 'अवः, अवस्तात्' इत्यादि रूप जानने चाहिये। इनके वाक्यप्रयोग 'पुरस्तात् संचरेद्', 'पुरस्ताद् गच्छेत्' इत्यादि रूपमें होते हैं। 'समाने अहनि' इस अर्थमें 'सद्यः' इस शब्दका प्रयोग होता है। 'समान'का 'स' और 'अहनि' के स्थानमें 'डास्' निपातित होकर 'सद्यः' इस पदकी सिद्धि होती है। 'पूर्वस्मिन् वर्षे परुत्' पूर्वतरवर्षे परारि' इति (पूर्व वर्षमें- इस अर्थको बतानेके लिये 'परुत्' शब्दका प्रयोग होता है तथा पूर्वसे पूर्व वर्षमें- इस अर्थका बोध करानेके लिये 'परारि' शब्दका प्रयोग होता है।) पहलेमें 'पूर्व' शब्दके स्थानमें 'घर' आदेश होता है और उससे 'उत्' प्रत्यय किया जाता है। दूसरेमें 'आरि' प्रत्यय होता है और 'पूर्व' के स्थानमें 'पर' आदेश। 'अस्मिन् संवत्सरे' (इस वर्षमें) इस अर्थका बोध करानेके लिये 'ऐषमः' पदका प्रयोग होता है। इसमें 'इदम्' शब्दके स्थानमें 'इकार' आदेश और उससे परे 'समसण' प्रत्ययका निपातन होता है। अकार-णकारकी इत्संज्ञा हो जानेपर 'इ-समः' इस अवस्था में आदिवृद्धि और सकारके स्थानमें मूर्धन्यादेश होनेपर 'ऐषमः' रूपकी सिद्धि होती है। ' 'परस्मित्रहनि' (दूसरे दिन) के अर्थमें 'घर' शब्दसे 'एद्यवि' प्रत्यय करनेपर 'परेद्यवि' यह ' रूप होता है। 'अस्मिन्त्रहनि' (आजके दिन) इस अर्थमें 'इदम्' शब्दसे 'छ' प्रत्यय होता है और 'इदम्' के स्थानमें 'अ' हो जाता है। इस प्रकार 'अद्य'- यह रूप बनता है। 'पूर्वस्मिन् दिने' (पहले दिन)- इस अर्थमें 'पूर्व' शब्दसे 'एद्युस्' प्रत्यय होता है तो 'पूर्वेद्युः' यह रूप बनता है। इसी प्रकार 'परस्मिन् दिने' 'परेद्युः', 'अन्यस्मिन् दिने'- 'अन्येद्युः' इत्यादि प्रयोग जानने चाहिये। 'दक्षिणस्यां दिशि वसेत्' (दक्षिण दिशामें निवास करे।)- इस अर्थमें 'दक्षिणा' और 'दक्षिणाहि' ये रूप बनते हैं। पहलेमें 'दक्षिणादाच्' (५।२। ३६)-इस सूत्रसे 'आच्' प्रत्यय होता है और दूसरेमें 'आहि च दूरे।' (५। ३। ३७) इस सूत्रसे 'आहि' प्रत्यय किया गया है। 'दक्षिणाहि ' वसेत्' का अर्थ हुआ 'दक्षिण दिशामें दूर निवास करे।' 'दक्षिणोत्तराभ्यामतसुच्।' (५। ३। २८) तथा 'उत्तराधरदक्षिणादातिः।' (५। ३। ३४)- इन सूत्रोंके अनुसार 'दक्षिणतः', 'दक्षिणात्', 'उत्तरतः', 'उत्तरात्'- ये दो रूप भी बनते हैं। 'उत्तरस्यां दिशि वसेत्' (उत्तर दिशामें निवास करे) इस अर्थमें 'उत्तराच्च।' (५।३।३८)- इस सूत्रके अनुसार 'आ' और 'आहि' प्रत्यय होनेपर 'उत्तरा' तथा 'उत्तराहि' ये दोनों रूप सिद्ध होते हैं। 'अस्ताति' प्रत्ययके विषयभूत 'ऊर्ध्व' शब्दसे 'रिल्' और 'रिष्टातिल्' प्रत्यय होते हैं तथा 'ऊर्ध्व' के स्थानमें 'उप' आदेश हो जाता है। इस प्रकार 'उपरि वसेत्', 'उपरिष्टाद् भवेत्' इत्यादि प्रयोग सिद्ध होते हैं। 'उत्तर' शब्दसे 'एनए' प्रत्यय होनेपर 'उत्तरेण' होता है। पूर्वोक्त 'दक्षिणा' शब्दकी सिद्धि आच्' प्रत्यय होनेसे होती है इसका निर्देश पहले किया जा चुका है। 'आहि' प्रत्यय होनेपर दक्षिणाहि' पद बनता है-यह भी कहा जा चुका है। 'दक्षिणाहि वसेत्' इसका अर्थ भी दिया जा चुका है। 'संख्याया विधार्थेधा।' (५। ३।४२)- इस सूत्रके अनुसार संख्यावाची शब्दोंसे 'धा' प्रत्यय करनेपर द्विधा, त्रिधा, चतुर्धा, पञ्चधा इत्यादि रूप होते हैं। 'द्विधा' का अर्थ है-दो प्रकारका। 'एक' शब्दसे प्रकार अर्थमें पूर्वोक्त नियमानुसार जो 'धा' प्रत्यय होता है, उसके स्थानमें 'ध्यमुञ्' हो जाता है। 'उज्' की इत्संज्ञा हो जाती है। 'ध्यम्' शेष रह जाता है। यथा ऐकध्यम्, 'एकधा' (दृष्टव्य पा० सू० ५। ३।४४)। 'ऐकध्यं कुरु त्वम्' इस वाक्यका अर्थ है- 'तुम एक ही प्रकारसे कर्म करो।' इसी प्रकार 'द्वि' और 'त्रि' शब्दसे 'धा' के स्थानमें धमुञ्' होता है। विकल्पसे (द्रष्टव्य-पा० सू० ५।३।४५)। 'धमु' होनेपर 'द्वैधम्', त्रैधम्' रूप होते हैं और 'धमुञ्' न होनेपर 'द्विधा', 'त्रिधा'। 'द्वि', 'त्रि' शब्दोंसे सम्बद्ध 'था' के स्थानमें 'एधाच्' भी होता है। यथा-द्वेधा, त्रेधा। ये सभी प्रयोग सुष्ठतर हैं॥ २१-२७॥

यहाँतक 'निपातसंज्ञक तद्धित' (अथवा अव्ययतद्धित) प्रत्यय बताये गये। अब 'भाववाचक तद्धितका' वर्णन किया जाता है। 'तस्य भावस्त्वतली।' (५।११। ११९) इस सूत्रके अनुसार भावबोधक प्रत्यय दो हैं-'त्व' और 'तल्'। प्रकृतिजन्य बोधमें जो प्रकार होता है, उसे 'भाव' कहते हैं। 'पटु' शब्दसे 'पटोर्भावः'- इस अर्थमें 'त्व' प्रत्यय होनेपर 'पटुत्वम्' रूप होता है और 'तलू' प्रत्यय होनेपर 'पटुत्ता'। 'पृथोर्भावः' (पृथुका भाव)- इस अर्थमें 'पृथ्वादिभ्य इमनिज्वा।' (५। १। १२२) इस सूत्रसे वैकल्पिक 'इमनिच्' प्रत्यय होनेपर 'प्रश्चिमा'- यह रूप बनता है। 'प्रथिमा' का अर्थ है- मोटापन। 'सुखस्य भावः कर्म वा' (सुखका भाव या कर्म)- इस अर्थमें 'गुणवचनब्राह्मणादिभ्यः कर्मणि च।' (५। १। १२४)- इस सूत्रके अनुसार 'व्यञ्' प्रत्यय होनेपर 'सौख्यम्' इस पदकी सिद्धि कहो गयी है। 'स्तेनस्य भावः कर्म वा' (स्तेन चोरका भाव या कर्म)- इस अर्थमें 'स्तेन' शब्दसे 'यत्' प्रत्यय और 'न' इस समुदायका लोप हो जाता है। (द्रष्टव्य-पा० सू० ५।१। १२५)। इस प्रकार 'स्तेय' शब्दको सिद्धि होती है। इसी प्रकार 'सख्युर्भावः कर्म वा' (सखाका भाव या कर्म)- इस अर्थमें 'य' प्रत्यय होनेपर 'सख्यम्' इस पदकी सिद्धि कही गयी है। यहाँ 'सख्युर्यः।' (५। १। १२६) इस सूत्रसे 'य' प्रत्यय होता है। 'कपेर्भावः कर्म वा' इस अर्थमें 'कपिज्ञात्योर्डक्।' (५।१। १२७) इस सूत्रसे 'ढक्' प्रत्यय होनेपर 'कापेयम्' पदकी सिद्धि होती है। 'सेना एव सैन्यम्'- यहाँ 'चतुर्वर्णादीनां स्वार्थ उपसंख्यानम्' इस वार्तिकके अनुसार स्वार्थमें 'घ्यञ्' प्रत्यय होता है। 'शास्त्रीयात् पथः अनपेतम्' (शास्त्रीय पथसे जो भ्रष्ट नहीं हुआ है, वह)- इस अर्थमें 'धर्मपथ्यर्थन्यायादनपेते।' (४।४। ९२)- इस सूत्रके अनुसार 'पथिन्' शब्दसे 'यत्' प्रत्यय होनेपर 'पथ्यम्'- यह रूप होता है। 'अश्वस्य भावः कर्म वा आश्वम्'- यहाँ 'अश्व' शब्दसे 'अञ्' हुआ है। ('उष्टस्य भावः कर्म वा औष्ठम्'- यहाँ भी 'अञ्' प्रत्यय हुआ है।) 'कुमारस्य भावः कर्म वा कौमारम्'- इसमें भी 'कुमार' शब्दसे 'अञ्' प्रत्यय हुआ। 'यूनोर्भावः कर्म वा यौवनम्' यहाँ भी पूर्ववत् 'युवन्' शब्दसे 'अञ्' प्रत्यय हुआ है। इन सबमें 'अञ्' प्रत्यय विधायक सूत्र है 'प्राणभृज्जातिवयोवचनोगात्रादिभ्योऽज्' (५।१। १२९)। 'आचार्य' शब्दसे 'कन्' प्रत्यय होनेपर 'आचार्यकम्' यह रूप बनता है। इसी तरह अन्य भी बहुत से तद्धित प्रत्यय होते हैं, (उन्हें अन्य ग्रन्थोंसे जानना चाहिये) ॥ २८-३० ॥

इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें 'तद्धितान्त शब्दोंके रूपका कथन' नामक तीन सौ छप्पनवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३५६ ॥

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