अग्नि पुराणतीन सौ पचपनवाँ अध्याय - Agni Purana 355 Chapter
अग्नि पुराणतीन सौ पचपनवाँ अध्याय - समासः
स्कन्ध उवाच
षोढ़ा समासं वक्ष्यामि अष्टाविंशातिधा पुनः ।
नित्यानित्यविभागेन लुगलोपेन च द्विधा ।। १ ।।
कुम्भकारश्च नित्यः स्याद्धेमकारादिकस्तथा ।
राज्ञः पुमान्राजपुमान् नित्योऽयञ्च समासकः ।। २ ।।
कष्टश्रितो लुक्समासः कण्ठेकालादिकस्त्वलुक् ।
स्यादष्टधा तत्पुरुषः प्रथमाद्यसुपा सह ।। ३ ।।
प्रथमातत्पुरुषोऽयं पूर्व्वं कायस्य विग्रहे ।
पूर्वकायोऽपरकायो ह्यधरोत्तरकायकः ।। ४ ।।
अर्द्धं कणाया अर्द्धकणा भिक्षातुर्य्यमथेदृशम् ।
आपन्नजीविकस्तद्वत् द्वितीया चाधराश्रितः ।। ५ ।।
वर्षम्भोग्यो वर्षभोग्यो धान्यार्थश्च तृतीयया ।
चतुर्थो स्याद्विषणुबलिर्वृकभीतिश्च पञ्चमी ।। ६ ।।
राज्ञः पुमान् राजपुमान् षष्ठी वृक्षफलं तथा ।
सप्तमी चाक्षशौण्डोऽयमहितो नञ्समासकः ।। ७ ।।
कर्मधारयः सप्तधा नीलोत्पलमुखाः स्मृताः ।
विशेषणपूर्व्वपदो विशेष्योत्तरतस्तथा ।। ८ ।।
वैयाकरणखसूचिः शीतोष्णं द्विपदं शुभम् ।
उपमानपूर्वपदः शङ्खपाण्डर इत्यपि ।। ९ ।।
उपमानोत्तरपदः पुरुषव्याघ्र इत्यपि ।
सम्भावनापूर्वपदो गुणवृद्धिरितीदृशम् ।। १० ।।
गुण इति वृद्धिर्वाच्या सुहृदेव सुबन्धुकः ।
सवधारणपूर्वपदो बहुव्रीहिश्च सप्तधा ।। ११ ।।
द्विपदश्च बहुव्रीहिरारूढ़भवनो नरः ।
अर्च्चिताशेषपूर्व्वोऽयं बह्वङ्घ्रिः परिकीर्त्तितः ।। १२ ।।
एते विप्राश्चोपदशाः सङ्ख्योत्तरपदस्त्वयम् ।
सङ्ख्योभयपदो यद्वद्द्वित्रा द्व्येकत्रयो नरः ।। १३ ।।
सहपूर्षपदोऽयं स्यात् समूलोद्धृतकस्तरुः ।
व्यतिहारलक्षणार्थः केशाकेशि नखानखि ।। १४ ।।
दिग्लक्ष्या स्याद्दक्षिणपूर्व्वा द्विगुराभाषितो द्विधा ।
एकवद्भावि द्विश्रृङ्गं पञ्चमूली त्वनेकधा ।। १५ ।।
द्वन्द्वः समासो द्विविखधो हीतरेतरयोगकः ।
रुद्रविष्णू समाहारो भेरीपटहमीदृशम् ।। १६ ।।
द्विधाख्यातोऽव्ययीभावो नामपूर्वपदो यथा ।
शाकस्य मात्रा शाकप्रति यथाऽव्ययपूर्व्यकः ।। १७ ।।
उपकुम्भञ्चोपरथ्यं प्राधान्येन चतुर्विंधः ।
उत्तरपदार्थमुख्यो द्वन्द्वश्चोभयमुख्यकः ।।
पूर्वार्थेशोऽव्ययीभावो बहुव्रीहिश्च वाह्यगः ।। १८ ।।
इत्यादिमहापुराणे आग्नेये व्याकरणे समासो नाम पञ्चपञ्चाशदधिकत्रिशततमोऽध्यायः ॥
अग्नि पुराण - तीन सौ पचपनवाँ अध्याय हिन्दी मे Agni Purana 355 Chapter In Hindi
तीन सौ पचपनवाँ अध्याय - समास-निरूपण
भगवान् कार्त्तिकेय कहते हैं- कात्यायन! मैं छः प्रकारके 'समास' बताऊँगा। फिर अवान्तर- भेदोंसे 'समास' के अट्ठाईस भेद हो जाते हैं। समास 'नित्य' और 'अनित्य' के भेदसे दो प्रकारका है तथा 'लुक्' और 'अलुक्' के भेदसे भी उसके दो प्रकार और हो जाते हैं। कुम्भकार और हेमकार 'नित्य समास' हैं। (क्योंकि विग्रह वाक्यद्वारा ये शब्द जातिविशेषका बोध नहीं करा सकते।) 'राज्ञः पुमान् राजपुमान्'- यह षष्ठी- तत्पुरुष समास स्वपदविग्रह होनेके कारण' अनित्य' है। कष्टश्रितः (कष्टं श्रितः) इसमें 'लुक्' समास है; क्योंकि 'कष्ट' पदके अन्तमें स्थित द्वितीया विभक्तिका 'लुक्' (लौप) हो जाता है। 'कण्ठेकालः' आदि 'अलुक्' समास हैं; क्योंकि इसमें कण्ठशब्दोत्तरवर्तिनी सप्तमी विभक्तिका 'लुक्' नहीं होता। तत्पुरुष समास आठ प्रकारका होता है।
प्रथमान्त आदि शब्द सुबन्तके साथ समस्त होते हैं। 'पूर्वकायः' इस तत्पुरुषसमासमें जब 'पूर्व कायस्य' ऐसा विग्रह किया जाता है, तब यह 'प्रथमा-तत्पुरुष' समास कहा जाता है। इसी प्रकार 'अपरकायः' कायस्य अपरम्, इस विग्रहमें, 'अधरकायः' कायस्य अधरम्- इस विग्रहमें और 'उत्तरकायः' कायस्योत्तरम् इस विग्रहमें भी प्रथमा-तत्पुरुष समास कहा जाता है। ऐसे ही 'अर्द्धकणा' इसमें अर्द्धम् कणायाः- ऐसा विग्रह होनेसे प्रथमा तत्पुरुष समास होता है एवं 'भिक्षातुर्यम्' इसमें तुर्य भिक्षायाः- ऐसा विग्रह होनेसे तुर्यभिक्षा और पक्षान्तरमें 'भिक्षातुर्यम्'- ऐसा षष्ठी-तत्पुरुष होता है। ऐसे ही 'आपन्नजीविकः' यह द्वितीया तत्पुरुष समास है। इसका विग्रह इस प्रकार होता है- 'आपत्रो जीविकाम्।' पक्षान्तरमें 'जीविकापन्नः' ऐसा रूप होता है। इसी प्रकार 'माधवाश्रितः' यह द्वितीया-समास है; इसका विग्रह 'माधवम् आश्रितः' इस प्रकार है। 'वर्षभोग्यः' यह द्वितीया-तत्पुरुष समास है- इसका विग्रह है 'वर्ष भोग्यः। "धान्यार्थः' यह तृतीया-समास है। इसका विग्रह 'धान्येन अर्थः' इस प्रकार है। 'विष्णुबलिः' यहाँ 'विष्णवे बलिः' इस विग्रहमें चतुर्थी- तत्पुरुष समास होता है। 'वृकभीतिः' यह पञ्चमी तत्पुरुष है।
इसका विग्रह 'वृकाद् भीतिः' इस प्रकार है। 'राजपुमान्'- यहाँ 'राज्ञः पुमान्' इस विग्रहमें षष्ठी-तत्पुरुष समास होता है। इसी प्रकार 'वृक्षस्य फलम्-वृक्षफलम्' यहाँ षष्ठी तत्पुरुष समास है। 'अक्षशीण्डः' (द्यूतक्रीडामें निपुण) इसमें सप्तमी-तत्पुरुष समास है। अहितः जो हितकारी न हो, वह इसमें 'नञ्समास' है॥१-७॥ 'नीलोत्पल' आदि जिसके उदाहरण हैं, वह 'कर्मधारय' समास सात प्रकारका होता है १-विशेषणपूर्वपद (जिसमें विशेषण पूर्वपद हो और विशेष्य उत्तरपद अथवा)। इसका उदाहरण है- 'नीलोत्पल' (नीला कमल)। २-विशेष्योत्तर- विशेषणपद- इसका उदाहरण है- 'वैया- करणखसूचिः' (कुछ पूछनेपर आकाशकी ओर देखनेवाला वैयाकरण)। ३-विशेषणोभयपद (अथवा विशेषणद्विपद) जिसमें दोनों पद विशेषणरूप ही हों। जैसे- शीतोष्ण (ठंडा- गरम)। ४-उपमानपूर्वपद। इसका उदाहरण है- शङ्खपाण्डुरः (शङ्खके समान सफेद)। ५-उपमानोत्तरपद- इसका उदाहरण है-'पुरुष- व्याघ्रः' (पुरुषो व्याघ्र इव)। ६-सम्भावना- पूर्वपद (जिसमें पूर्वपद सम्भावनात्मक हो) उदाहरण- गुणवृद्धिः (गुण इति वृद्धिः स्यात्। अर्थात् 'गुण' शब्द बोलनेसे वृद्धिकी सम्भावना होती है)। तात्पर्य यह है कि 'वृद्धि हो'- यह कहनेकी आवश्यकता हो तो 'गुण' शब्दका ही उच्चारण करना चाहिये। ७-अवधारणपूर्वपद- [जहाँ पूर्वपदमें 'अवधारण' (निश्चय) सूचक शब्दका प्रयोग हो, वह]। जैसे 'सुहृदेव सुबन्धुकः (सुहृद् ही सुबन्धु है)। बहुव्रीहिसमास भी सात प्रकारका ही होता है॥८-११॥
१-द्विपद, २-बहुपद, ३-संख्योत्तरपद, ४- संख्योभयपद, ५-सहपूर्वपद, ६-व्यतिहारलक्षणार्थ तथा ७ दिग्लक्षणार्थ। 'द्विपद बहुव्रीहि' में दो ही पदोंका समास होता है। यथा- आरूडभवनो नरः। (आरूढं भवनं येन सः- इस विग्रहके अनुसार जो भवनपर आरूढ हो गया हो, उस मनुष्यका बोध कराता है।) 'बहुपद बहुव्रीहि' में दोसे अधिक पद समासमें आबद्ध होते हैं। इसका उदाहरण है- 'अयम् अर्चिताशेषपूर्वः ।' (अर्चिता अशेषाः पूर्वा यस्य सोऽयम् अर्चिताशेषपूर्वः।) अर्थात् जिसके सारे पूर्वज पूजित हुए हों, वह 'अर्चिताशेषपूर्व' है। इसमें 'अर्चित' 'अशेष' तथा 'पूर्व' ये तीनों पद समासमें आबद्ध हैं। ऐसा समास 'बहुपद' कहा गया है। 'संख्योत्तरपद' का उदाहरण है- 'एते विप्रा उपदशाः' ये ब्राह्मण लगभग दस हैं। इसमें 'दस' संख्या उत्तरपदके रूपमें प्रयुक्त है। 'द्वित्राः द्वयेकत्रयः' इत्यादि संख्योभयपद के उदाहरण हैं। 'सहपूर्वपद' का उदाहरण 'समूलोद्धतकः तरुः' (सह मूलेन उद्धृतं कं शिखा यस्य सः। अर्थात् जडसहित उखड़ गयी है शिखा जिसकी, वह वृक्ष) यहाँ पूर्वपदके स्थानमें 'सह' (स) का प्रयोग हुआ है। व्यतिहार लक्षणका उदाहरण है- केशाकेशि, नखानखि युद्धम् (आपसमें झोंटा-झुटौअल, परस्पर नखोंसे बकोटा-बकोटीपूर्वक कलह) ॥ १२-१४॥
दिग्लक्षणार्थका उदाहरण- उत्तरपूर्वा (उत्तर और पूर्वके अन्तरालकी दिशा)। 'द्विगु' समास दो प्रकारका बताया गया है। 'एकवद्भाव' तथा 'अनेकधा' स्थितिको लेकर ये भेद किये गये हैं। संख्या पूर्वपदवाला समास 'द्विगु' है। इसे कर्मधारयका ही एक भेदविशेष स्वीकार किया गया है। 'एकवद्भाव' का उदाहरण है- द्विशृङ्गम् (दो सींगोंका समाहार)। 'पञ्चमूली' भी इसीका उदाहरण है। 'अनेकधा' या 'अनेकवद्भाव' का उदाहरण है- सप्तर्षयः इत्यादि। 'पञ्च ब्राह्मणाः 'में समास नहीं होगा; क्योंकि यहाँ संज्ञा नहीं है॥ १५॥
'द्वन्द्व' समास भी दो ही प्रकारका होता है- १- 'इतरेतरयोगी' तथा २' समाहारवान्'। प्रथमका उदाहरण है- 'रुद्रविष्णू (रुद्रश्च विष्णुश्च-रुद्र तथा विष्णु)। यहाँ इतरेतर योग है। समाहारका उदाहरण है- भेरीपटहम् (भेरी च पटहश्च, अनयोः समाहारः- अर्थात् भेरी और पटहका समाहार)। यहाँ 'तुर्याङ्ग' होनेसे इनका एकवद्भाव होता है। अव्ययीभाव समास भी दो तरहका होता है- १-'नामपूर्वपद' और २-('यथा' आदि) अव्यय- पूर्वपद। प्रथमका उदाहरण है- शाकस्य मात्रा- शाकप्रति। यहाँ 'शाक' पूर्वपद है और मात्रार्थक 'प्रति' अव्यय उत्तरपद। दूसरेका उदाहरण- 'उपकुमारम् उपरथ्यम्' इत्यादि हैं। समासको प्रायः चार प्रकारोंमें विभक्त किया जाता है-१- उत्तरपदार्थकी प्रधानतासे युक्त (तत्पुरुष), २- उभयपदार्थ-प्रधान द्वन्द्व समास, ३-पूर्वपदार्थ- प्रधान 'अव्ययीभाव' तथा ४-अन्य अथवा बाह्यपदार्थ प्रधान 'बहुव्रीहि ' ॥ १६-१९ ॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें 'समासविभागका वर्णन' नामक तीन सौ पचपनवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३५५ ॥
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