अग्नि पुराण तीन सौ तिरपनवाँ अध्याय - Agni Purana 353 Chapter
अग्नि पुराण तीन सौ तिरपनवाँ अध्याय - नपुंसक शब्द सिद्ध रूपम्
स्कन्द उवाच
नपुंसके किं के कानि किं के कानि ततो जलं ।
सर्वं सर्वे च पूर्वाद्याः सोमपं सोमपानि च ।। १ ।।
ग्रामणि ग्राणणिनी च ग्रामणि ग्रामणीन्यपि ।
वारि वारिणी वारीणि वारिणां वारिणीदृशं ।। २ ।।
शुचये शुचिने देहि मृदुने मृदवे तथा ।
त्रपु त्रपुणि त्रपुणाञ्च चखलपूनि खलप्वि च ।। ३ ।।
कर्त्त्त्रा च कर्तृणे कर्त्त्त्रे अतिर्व्यतिरिणान्तथा ।
अभिन्यभिनिनी चैव सुवचांसि सुवाक्षु च ।। ४ ।।
यद्यत्त्विमे तत् कर्म्माणि इदञ्चेमे त्विमानि च ।
ईदृक्त्वदोऽमुनी अमूनि अमुना स्यादमीषु च ।। ५ ।।
अहमावां वयं मां वै आवामस्मान्मया कृतं ।
आवाभ्याञ्च तथास्माभिर्म्मह्यमस्मभ्यमेव च ।। ६ ।।
मदावाभ्यां मदस्मच्च पुत्रोऽयं मम चावयोः ।
अस्माकमपि चास्मासु त्वं युवां यूयंमीजिरे ।। ७ ।।
त्वां युवाञ्च युष्मांश्च त्वया युष्माभिरीरितं ।
तुभ्यं युवाभ्यां युष्मभ्यं त्वत् युवाभ्याञ्च युष्मत् ।। ८ ।।
तव युवयोर्युष्माकं त्वयि युष्मासु भारती ।
उपलक्षणमत्रैव अज्भ्क्तलन्ताश्च ते स्मृताः ।। ९ ।।
इत्यादिमहापुराणे आग्नेये व्याकरणे नपुंसकशब्दसिद्धरूपं नाम त्रिपञ्चाशदधिक त्रिशततमोऽध्यायः ॥
अग्नि पुराण - तीन सौ तिरपनवाँ अध्याय हिन्दी मे Agni Purana 353 Chapter In Hindi
तीन सौ तिरपनवाँ अध्याय - नपुंसकलिङ्ग शब्दों के सिद्ध रूप
भगवान् स्कन्द कहते हैं- नपुंसकलिङ्गमें 'किम्' शब्दके ये रूप होते हैं (प्रथमा) किम्, के, कानि। (द्वितीया) किम्, के, कानि। शेष रूप पुल्लिङ्गवत् हैं। जलम् (प्र० ए०), सर्वम् (प्र० ए०)। पूर्व, पर, अवर, दक्षिण, उत्तर, अपर, अधर, स्व और अन्तर-इन सब शब्दोंके रूप इसी प्रकार होते हैं। सोमपम् (प्र० द्वि० ए०), सोमपानि (प्र० द्वि० ब०) ये 'सोमप' शब्दके रूप हैं। 'ग्रामणी' शब्दके नपुंसकलिङ्गमें इस प्रकार रूप होते हैं-ग्रामणि (प्र० द्वि० ए०), ग्रामणिनी (प्र० द्वि०-द्वि०), ग्रामणीनि (प्र०, द्वि०-ब०)। इसी प्रकार 'वारि' शब्दके रूप होते हैं-वारि (प्र० द्वि० ए०), वारिणी (प्र०, द्वि० द्वि०), वारीणि (प्र० द्वि० ब०), वारीणाम् (ष० ब०), वारिणि (स० ए०)। शुचये- शुचिने (च० ए०) और मृदुने-मुदवे (च०-५०) ये क्रमसे 'शुचि' और 'मृदु' शब्दके रूप हैं। त्रपु (प्र०, द्वि० ए०), त्रपुणी (प्र०, द्वि०-द्वि०), त्रपूणाम् 'त्रपु' शब्दके कतिपय रूप हैं। 'खलपुनि' तथा 'खलग्वि'- ये दोनों नपुंसक 'खलपू' शब्दके सप्तमी, एकवचनके रूप हैं। कर्जा- कर्तृणा (तृ०-ए०), कर्तृणे- कर्जे (च० ए०) ये 'कर्तृ' शब्दके रूप हैं।
अतिरि (प्र० द्वि० ए०), अतिरिणी (प्र०, द्वि०-द्वि०) - ये 'अतिरि' शब्दके रूप हैं। अभिनि (प्र०, द्वि०- ए०), अभिनिनी (प्र०, द्वि०-द्वि०)- ये' अभिनि' शब्दके रूप हैं। सुवचांसि (प्र०, द्वि०-ब०), यह 'सुवचस्' शब्दका रूप है। सुवाक्षु (स०-ब०) यह 'सुवाच्' शब्दका रूप है। 'यत्' शब्दके दो यत्-यद् (प्र० द्वि० ए०) हैं। 'तत्' शब्दके 'तत् तद् (प्र०, द्वि० ए०), 'कर्म' शब्दके कर्माणि (प्र० द्वि०-ब०), 'इदम्' शब्दके इदम् (प्र० द्वि० ए०), इमे (प्र० द्वि०-द्वि०), इमानि (प्र०, द्वि०-ब०)- ये रूप हैं। ईदृक्-इंदुम् (प्र०, द्वि० ए०)- यह 'ईदृश्' शब्दका रूप है। अदः (प्र०, द्वि० ए०), अमुनी (प्र०, द्वि०-द्वि०), अमूनि (प्र०, द्वि०-ब०)। अमुना , अमीषु (स० ब०) - अदस्' शब्दके ये रूप भी पूर्ववत् सिद्ध होते हैं। 'युष्मद्' और 'अस्मद्' शब्दके रूप इस प्रकार होते हैं- अहम् (प्र०-ए०), आवाम् (प्र०-द्वि०), वयम् (प्र० ब०)। माम् (द्वि०-ए०), आवाम् , अस्मान् (द्वि० ब०)। मया आवाभ्याम् (तृ०, च०-द्वि०), अस्माभिः महाम् (च० ए०), अस्मभ्यम् (च०-ब०)। मत् (प० ए०), आवाभ्याम् (प०-द्वि०), अस्मत् (प०-ब०)। ममआवयोः (प०, , स०-द्वि०), अस्माकम् अस्मासु (स०ब०) ये 'अस्मद्' शब्दके रूप हैं। त्वम् (प्र० ए०), युवाम् (प्र०-द्वि०) यूयम् (प्र०- ब०)। त्वाम् (द्वि० ए०), युवाम् (द्वि०-द्वि०), युष्मान् (द्वि०-३०)। त्वया (तू०-ए०), युष्माभिः (तृ०ब०)। तुभ्यम् (च०-१०), युवाभ्याम् (तृ०, च०-द्वि०), युष्मभ्यम् (च०-३०)। त्वत् (प० ए०) युवाभ्याम् (प० द्वि०) युष्मत् (प०- ब०)। तव (१० ए०), युवयोः (ष०, स०- द्वि०), युष्माकम् (प०-६०)। त्वयि (स०ए०), युष्मासु (स० ब०) ये 'युष्मद्' शब्दके रूप हैं। यहाँ' अजन्त' और 'हलन्त' शब्दोंका दिग्दर्शन- मात्र कराया गया है॥ १-९॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें 'नपुंसकलिङ्ग शब्दोंके सिद्ध रूपोंका वर्णन' नामक तीन सौ तिरपनवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३५३॥
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