अग्नि पुराण तीन सौ अड़तालीसवाँ अध्याय - Agni Purana 348 Chapter

अग्नि पुराण तीन सौ अड़तालीसवाँ अध्याय Agni Purana 348 Chapter

अग्नि पुराणतीन 348 अध्याय - एकाक्षराभिधानम्

अग्निरुवाच

एकाक्षराभिधानञ्च मातृकान्तं वदामि ते ।
अ विष्णुः प्रतिषेधः स्यादा पितामहवाक्ययोः ।। १ ।।

सीमायामथाव्ययं आ भवेत्संक्रोधपीडयो ।
इः कामे रतिलक्ष्म्योरी उः शिवे रक्षकाद्य ऊः ।। २ ।।

ऋ शब्दे चादितौ ऋॄस्यात् लृ लॄ ते वै दितौ गुहे ।
ए देवी ऐ योगिनी स्यादो ब्रह्मा औ महेश्वरः ।। ३ ।।

अङ्कामः अः प्रशस्तः स्यात् को ब्रह्मादौ कु कुत्सिते ।
खं शून्येन्द्रियं खङ्गो गन्धर्व्वे च विनायके ।। ४ ।।

गङ्गीते गो गायने स्याद् घो घण्टा किङ्किणीमुखे ।
ताड़ने ङ्श्च विषयेस्पृहायाञ्चैव भैरवे ।। ५ ।।

चो दुर्जने निर्म्मले छश्छेदे जिर्ज्जयने तथा ।
जं गीते ज्ञः प्रशस्ते स्याद् बले ञो गायने च टः ।। ६ ।।

ठश्चन्द्रमण्डले शून्ये शिवे चोद्बन्धने मतः ।
डश्च रुद्रे ध्वनौ त्रासे ढक्कायां ढो ध्वनौ मतः ।। ७ ।।

णो निष्कर्षे निश्चये च तश्चौरे क्रोडपुच्छके ।
भक्षणे थश्छेदने दो धारणे शोभने मतः ।। ८ ।।

धो धातरि च धूस्तूरे नो वृन्दे सुगते तथा ।
प उपवने विख्यातः फश्च झञ्झानिले मतः ।। ९ ।।

फुः फुत्कारे निष्फले च विः पक्षी भञ्च तारके ।
मा श्रीर्म्मानञ्च माता स्याद्यागे यो यातृवीरणे ।। १० ।।

रो वह्नौ च लः शक्रे च लो विधातरि ईरितः ।
विश्लेषणे वो वरुणे शयने शश्च शं सुखे ।। ११ ।।

षः श्रेष्ठे सः परोक्षे च सा लक्ष्मीः सं कचे मतः ।
धारणे हस्तथा रुद्रे क्षः क्षत्त्त्रे चाक्षरे मतः ।। १२ ।।

क्षो नृसिंहे हरौ तद्वत् क्षेत्रपालकयोरपि ।
मन्त्र एकाक्षरो देवो भुक्तिमुक्तिप्रदायकः ।। १३ ।।

हैहयशिरसे नमः सर्व्वविद्याप्रदो मनुः ।
अकाराद्यास्तथा मन्त्रा मातृकामन्त्र उत्तमः ।। १४ ।।

एकपद्मेऽर्चयेदेतान्नव दुर्गाश्च पूजयेत् ।
भगवती कात्यायनी कौशिकी चाथ चण्डिका ।। १५ ।।

प्रचण्डा सुरनायिका उग्रा पार्व्वती दुर्गया ।
ओं चण्डिकायै विद्महे भगवत्यै धीमहि तन्नो दुर्गा प्रचोदयात् ।
क्रमादि तु षड़ङ्गं स्याद् गणो गुरुर्गुरुः क्रमात् ।। १६ ।।

अजितापराजिता चाथ जया च विजया ततः ।
कात्यायनी भद्रकाली मङ्गला सिद्धिरेवती ।। १७ ।।

सिद्दादिवटुकाः पूज्या हेतुकश्च कपालिकः ।
एकपादो भीमरूपो दिक्पालान्मध्यतो नव ।। १८ ।।

ह्रीं दुर्गे दुर्गे रक्षणि स्वाहा मन्त्रार्थसिद्धये ।
गौरी पूज्या च धर्म्मद्याः स्कन्दाद्याः शक्तयो यजेत् ।। १९ ।।

प्रज्ञा ज्ञाना क्रिया वाचा वागीशी ज्वालिनी तथा ।
कामिनी काममाला च इन्द्राद्याः शक्तिपूजनं ।। २० ।।

ओं गं स्वाहा मूलमन्त्रोऽयं गं वा गणपतये नमः ।
षड़ङ्गो रक्तशुक्लश्च कदन्कताक्षपरशूत्कटः ।। २१ ।।

समोदकोऽथ गन्धादिगन्धोल्कायेति च क्रमात् ।
गजो महागणपतिर्म्महो ल्कः पूज्य एव च ।। २२ ।।

कुष्माण्डाय एकदन्तत्रिपुरान्तकाय श्यामदन्तविकटहरहासाय ।
लम्वनाशाननाय पद्मदंष्ट्राय मेघोल्काय धूमोल्काय ।
वक्रतुण्डाय विघ्नेश्वराय विकटोत्कटाय गजेन्द्रगमनाय ।। २३ ।।

वक्रतुण्डाय विघ्नेश्वराय विकटोत्कटाय गजेन्द्रगमनाय ।
भुजगेन्द्रहाराय शशाङ्कधराय गणाधिपतये स्वाहा ।। २४ ।।

एतैर्म्मनुभिः स्वाहान्तैः पूज्य तिलहोमादिनार्थभाक् ।
काद्यैर्वा वीजसंयुक्तैराद्यैश्च नमोऽन्तकैः ।। २५ ।।

मन्त्राः पृथक् पृथग्वा स्युर्द्विरेफद्विर्मुखाक्षिणः ।
कात्यायनं स्कन्द आह यत्तद्व्याकरणं वदे ।। २६ ।।

इत्यादिमहापुराणे आग्नेये एकाक्षराभिधानं नामाष्टचत्वारिंशदधिकत्रिशततमोऽध्यायः ॥

अग्नि पुराण - तीन सौ अड़तालीसवाँ अध्याय हिन्दी मे Agni Purana 348 Chapter In Hindi

तीन सौ अड़तालीसवाँ अध्याय - एकाक्षर कोष

अग्निदेव कहते हैं- अब मैं तुम्हें'एकाक्षराभिधान' तथा मातृकाओंके नाम एवं मन्त्र बतलाता हूँ। सुनो 'अ' नाम है भगवान् विष्णुका। 'अ' निषेध अर्थमें भी आता है। 'आ' ब्रह्माजीका बोध कराता है। वाक्य प्रयोगमें भी उसका उपयोग होता है। 'सीमा' अर्थमें 'आ' अव्ययपद है। क्रोध और पीड़ा अर्थमें भी उसका प्रयोग किया जाता है। 'इ' काम-अर्थमें प्रयुक्त होता है। 'ई' रति और लक्ष्मीके अर्थमें आता है। 'उ' शिवका वाचक है। 'ऊ' रक्षक आदि अर्थोंमें प्रयुक्त होता है। 'ऋ' शब्दका बोधक है। 'ऋ' अदितिके अर्थमें प्रयुक्त होता है। 'लू', 'लू'- ये दोनों अक्षर दिति एवं कुमार कार्तिकेयके बोधक हैं। 'ए' का अर्थ है-देवी। 'ऐ' योगिनीका वाचक है। 'ओ' ब्रह्माजी का और 'औ' महादेव जी का बोध करानेवाला है। 'अं' का प्रयोग काम अर्थमें होता है। 'अः' प्रशस्त (श्रेष्ठ) का वाचक है। 'क' ब्रह्मा आदिके अर्थमें आता है। 'कु' कुत्सित (निन्दित) अर्थमें प्रयुक्त होता है। 'खं'- यह पद शून्य, इन्द्रिय और मुखका वाचक है। 

'ग' अक्षर यदि पुल्लिङ्गमें हो तो गन्धर्व, गणेश तथा गायकका वाचक होता है। नपुंसकलिङ्ग 'ग' गीत अर्थमें प्रयुक्त होता है। 'घ' घण्टा तथा करधनीके अग्रभागके अर्थ में आता है। 'ताडन' अर्थमें भी 'घ' आता है। 'ड' अक्षर विषय, स्पृहा तथा भैरवका वाचक है। 'च' दुर्जन तथा निर्मल-अर्थमें प्रयुक्त होता है। 'छ'का अर्थ छेदन है। 'जि' विजेयके अर्थ में आता है। 'ज' पद गीतका वाचक है। 'झ'का अर्थ प्रशस्त, 'ज'का बल तथा 'ट' का गायन है। 'ठ' का अर्थ चन्द्रमण्डल, शून्य, शिव तथा उद्बन्धन है। 'ड' अक्षर रुद्र, ध्वनि एवं त्रासके अर्थमें आता है। ढक्का और उसकी आवाजके अर्थमें 'ढ'का प्रयोग होता है। 'ण' निष्कर्ष एवं निश्चयके अर्थमें आता है। 'त'का अर्थ है तस्कर (चोर) और सूअरकी पूँछ। 'थ' भक्षणके और 'द' छेदन, धारण तथा शोभनके अर्थमें आता है। 'ध' धाता (धारण करनेवाले या ब्रह्माजी) तथा धूस्तूर (धतूरे) के अर्थमें प्रयुक्त होता है। 'न'का अर्थ समूह और सुगत (बुद्ध) है। 'प' उपवनका और 'पूः' झंझावातका बोधक है। 'फु' फूंकने तथा निष्फल होनेके अर्थमें आता है। 'बि' पक्षी तथा 'भ' ताराओंका बोधक है। 'मा'का अर्थ है-लक्ष्मी, मान और माता। 'य' योग, याता (यात्री अथवा दयादिन) तथा 'इंरिण' नामक वृक्षके अर्थमें आता है ॥ १-१०॥

'र'का अर्थ है-अग्नि, बल और इन्द्र। 'ल'का विधाता, 'व'का विश्लेषण (वियोग या बिलगाव) और वरुण तथा 'श' का अर्थ शयन एवं सुख है। 'ष' का अर्थ श्रेष्ठ, 'स' का परोक्ष, 'सा' का लक्ष्मी, 'स' का बाल, 'ह'का धारण तथा रुद्र और 'क्ष' का क्षेत्र, अक्षर, नृसिंह, हरि, क्षेत्र तथा पालक है। एकाक्षरमन्त्र देवतारूप होता है। वह भोग और मोक्ष देनेवाला है। 'क्षौं हयशिरसे नमः' यह सब विद्याओंको देनेवाला मन्त्र है। अकार आदि नौ अक्षर भी मन्त्र हैं; उन्हें उत्तम 'मातृका मन्त्र' कहते हैं। इन मन्त्रोंको एक कमलके दलमें स्थापित करके इनकी पूजा करे। इनमें नौ दुर्गाओंकी भी पूजा की जाती है। भगवती, कात्यायनी, कौशिकी, चण्डिका, प्रचण्डा, सुरनायिका, उग्रा, पार्वती तथा दुर्गाका पूजन करना चाहिये। 'ॐ चण्डिकायै विद्यहे भगवत्यै धीमहि तन्नो दुर्गा प्रचोदयात्'- यह दुर्गा-मन्त्र है। षडङ्ग आदिके क्रमसे पूजन करना उचित है। अजिता, अपराजिता, जया, विजया, कात्यायनी, भद्रकाली, मङ्गला, सिद्धि, रेवती, सिद्ध आदि वटुक तथा एकपाद, भीमरूप, हेतुक, कापालिकका पूजन करे। मध्यभागमें नौ दिक्पालोंकी पूजा करनी चाहिये। मन्त्रार्थकी सिद्धिके लिये 'ह्रीं दुर्गे रक्षिणि स्वाहा' - इस मन्त्रका जप करे। गौरीकी पूजा करे; धर्म आदिका, स्कन्द आदिका तथा शक्तियोंका यजन करे। 

प्रज्ञा, ज्ञानक्रिया, वाचा, वागीशी, ज्वालिनी, वामा, ज्येष्ठा, रौद्रा, गौरी, ही तथा पुरस्सरा देवीका 'ह्रींः सः महागौरि रुद्रदयिते स्वाहा'- इस मन्त्रसे महागौरीका तथा ज्ञानशक्ति, क्रियाशक्ति, सुभगा, ललिता, कामिनी, काममाला और इन्द्रादि शक्तियोंका पूजन भी एकाक्षर मन्त्रोंसे होता है। गणेश- पूजनके लिये 'ॐ गं स्वाहा' 'यह मूलमन्त्र है। अथवा 'गं गणपतये नमः।' से भी उनकी पूजा होती है। रक्त, शुक्ल, दन्त, नेत्र, परशु और मोदक यह 'घडङ्ग' कहा गया है। 'गन्धोल्काय नमः।' से क्रमशः गन्ध आदि निवेदन करे। गज, महागणपति तथा महोल्क भी पूजनके योग्य हैं। 'कूष्माण्डाय, एकदन्ताय, त्रिपुरान्तकाय, श्यामदन्तविकटहरहासाय, लम्बनासाननाय, पद्मद्रंष्ट्राय, मेघोल्काय, धूमोल्काय, वक्रतुण्डाय, विघ्नेश्वराय, विकटोत्कटाय, गजेन्द्रगमनाय, भुजगेन्द्रहाराय, शशाङ्कधराय, गणाधिपतये स्वाहा।' इन मन्त्रोंके आदिमें 'क' आदि एकाक्षर बीज मन्त्र लगाये और अन्तमें 'नमः' एवं 'स्वाहा' शब्दका प्रयोग करे। फिर इन्हीं मन्त्रोंद्वारा तिलोंसे होम आदि करके मन्त्रार्थभूत देवताका पूजन करे। अथवा द्विरेफ, द्विर्मुख एवं द्वयक्ष आदि पृथक् पृथक् मन्त्र हो सकते हैं। अब कुमार कार्तिकेयजीने कात्यायन को जिसका उपदेश किया था, वह व्याकरण बतलाऊँगा ॥ ११-२८ ॥

इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें 'एकाक्षराधिधान' नामक तीन सी अड़तालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३४८ ॥

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