अग्नि पुराण तीन सौ छियालीसवाँ अध्याय Agni Purana 346 Chapter
अग्नि पुराण तीन सौ छियालीसवाँ अध्याय - काव्यगुणविवेकः ।
आपके हृदय में अलंकृतमपि आनंद ।
वपुष्य ललिते धारा हरो भारयते परम ।। 1 ।।
न च वाच्यं गुणो दोषो भव एव भविष्यति ।
गुणः श्लेषादयो दोषा गूढ़ार्थद्यः पृथक कृतः ।। 2 ।।
यः काव्ये महतिं छायामनुगृह्नात्यसौ गुणाः ।
संभवत्येष समान्यो वैशेषिक इति द्विधा ।। 3 ।।
सर्ववंशसाधारणिभूतः समान्य इति मन्यते ।
शब्दमार्थमुभौ प्राप्तः समान्यो भवति त्रिधा ।। 4 ।।
शब्दमाश्रयते काव्यं शरीरं यः स तद्गुणः ।
श्लाशो लालित्यगंभिर्यसाकुमार्यमदारत ।। 5 ।।
गुणदेशादिना पूर्वं पादसंबद्धमक्षरम् ।
यत्र संधियते नैव तल्लालित्यमुदहृतम् ।। 7 ।।
विजुअलएक्शनमैथमैटिक्सडिक्शनरी ।
गंभीर्यं कथयन्त्यर्यस्तदेवन्येषु शब्दताम् ।। 8 ।।
अनिष्टुराक्षरप्रयशब्दता सुकुमारता ।
उत्तानपादतौदार्ययुतश्लाघ्यैरविशेषणैः ।। 9 ।।
उच्यमानस्य शब्देन येन केनापि वस्तुनः ।
उत्कर्षमावहन्नर्थो गुण इत्यबिधीयते ।। 11 ।।
माधुर्यं संबिधानञ्च कोमलत्वमुदारत ।
प्रौधाः समयिकत्वञ्च तद्भेदः षष्टचकाशति ।। 12 ।।
यत्कथिण्यादिनिर्मुक्तसंनिवेविशेषता ।
क्रिएटिव मर्चेंडाइज ब्लैडर अनुकूलता के साथ ।। 14 ।।
लक्ष्य्यते स्थूललक्षत्वप्रवृत्तित्र लक्षणम् ।
गुणवत् तदुदारत्वमस्सायत्सवम् ।। 15 ।।
अभिप्रेतं प्रति यतो निर्ववाहस्योपपादिचः ।
युक्तयो हेतुगर्भिन्यः प्रौधाप्रौधिरुदाहृता ।। 16 ।।
आवागमन की स्वतंत्रता और परस्पर निर्भरता ।
इस सन्दर्भ में तत्र व्युत्पत्तिरार्थस्य ।। 17 ।।
शब्दार्थवुपकुर्ववाणो नाम्नोभयगुणः स्मृतः ।
तस्य प्रसादः सौभाग्यं यथासांख्यं प्रशस्तता ।। 18 ।।
कोरा राग इकाति प्रज्ञैः षशत् प्रपंचविपञ्चितः । पाको राग लघु प्रज्ञैः पथभेदः ।
सुप्रसिद्धार्थपादता प्रसाद इति गीयते ।। 19 ।।
उत्कर्षवान् गुणः कश्चिद्यस्मिन्नुक्तेप्रत्यते ।
तत्सौभाग्यमुदारत्वं प्रवदन्ति मनीषिणः ।। 20 ।।
यथासांख्यमनुद्देशः सामान्यमतिदिष्यते ।
समये वर्णनीयस्य दारुणस्यापि वस्तुनः ।। 21 ।।
अदारुणेन शब्देन प्रशस्त्यमुपवर्णन ।
उच्चैः परिणतिः कपि पाक इत्यभिधीयते ।। 22 ।।
मृद्विकानारीकेलाम्बुपाकभेदाचतुव्विधः ।
अदावन्ते च सौरस्यं मृद्विकापाक एव सः ।। 23 ।।
काव्येच्चय विशेष रूप से इस राग के लिए ।
अभ्यासोहितः कान्तिं सह्ययीमपि वर्तते ।। 24 ।।
हरिद्राश्चैव कौसुम्भो नीला गाउन स त्रिधा ।
वैशेषिकः परिज्नेयो यः स्वलक्षणगोचरः ।। 25 ।।
अग्नि पुराण -तीन सौ छियालीसवाँ अध्याय हिन्दी मे Agni Purana 346 Chapter In Hindi
तीन सौ छियालीसवाँ अध्याय काव्य गुण-विवेक
अग्निदेव कहते हैं- द्विजश्रेष्ठ ! गुणहीन काव्य अलंकारयुक्त होने पर भी सहृदय के लिये प्रीतिकारक नहीं होता, जैसे नारीके यौवनजनित लालित्यसे रहित शरीरपर हार भी भारस्वरूप हो जाता है। यदि कोई कहे कि 'गुणनिरूपणकी क्या आवश्यकता है? दोषों का अभाव ही गुण हो जायगा' तो उसका ऐसा कथन उचित नहीं है; क्योंकि 'श्लेष' आदि गुण और 'गूढार्थत्व' आदि दोष पृथक् पृथक् कहे गये हैं। जो काव्यमें महती शोभाका आनयन करता है, उसको 'गुण' कहा जाता है। यह सामान्य और वैशेषिकके भेद से दो प्रकार का हो जाता है। जो गुण सर्वसाधारण हो, उसे 'सामान्य' कहा जाता है। सामान्य गुण शब्द, अर्थ और शब्दार्थको प्राप्त होकर तीन प्रकार का हो जाता है। जो गुण काव्य-शरीरमें शब्दके आश्रित होता है, वह 'शब्दगुण' कहलाता है। शब्दगुणके सात' भेद होते हैं-श्लेष, लालित्य, गाम्भीर्य, सौकुमार्य, उदारता, ओज और यौगिकी (समाधि)। शब्दों का सुश्लिष्ट संनिवेश 'श्लेष" कहा जाता है।
जहाँ गुणादेश आदिके द्वारा पूर्वपदसम्बद्ध अक्षर संधिको प्राप्त नहीं होता, वहाँ 'लालित्य गुण माना गया है। विशिष्ट लक्षणके अनुसार उल्लेखनीय उच्चभावव्यञ्जक शब्दसमूहको श्रेष्ठ पुरुष 'गाम्भीर्य" कहते हैं। वही अन्यत्र 'उत्तान शब्दक' या 'शब्दत्व' नामसे प्रसिद्ध है। जिसमें निश्वरतारहित कोमल अक्षरोंका बाहुल्य हो, उस शब्दसमूहको 'सौकुमार्य गुणविशिष्ट माना गया है। जहाँ श्लाघ्य विशेषणोंसे युक्त उत्कृष्ट पदका प्रयोग हो वहाँ औदार्य गुण माना जाता है। समासोंका बाहुल्य 'ओज कहलाता है। यह गद्य-पद्यारूप काव्यका प्राण है। ब्रह्मासे लेकर तृणपर्य्यन्त जो कोई भी प्राणी हैं, उनके 'पौरुष 'का वर्णन एकमात्र 'ओज' गुणविशिष्ट पदावलीसे ही होता है। जिस किसी भी शब्दके द्वारा वर्ण्यमान वस्तुका उत्कर्ष वहन करनेवाला गुण 'अर्थगुण' कहा जाता है। अर्थगुणके छः भेद प्रकाशित होते हैं-माधुर्य, संविधान, कोमलता, उदारता, प्रौढि एवं सामयिकता। क्रोध और ईष्यांमें भी आकारकी गम्भीरता तथा धैर्यधारणको 'माधुर्य कहते हैं। अपेक्षित कार्यकी सिद्धिके लिये उद्योग 'संविधान' माना गया है। जो कठिनता आदि दोषोंसे रहित है तथा संनिवेश विशेषका तिरस्कार करके मृदुरूपमें ही भासित होता है, वह गुण 'कोमलता' के नामसे प्रसिद्ध है॥१-१४॥
जिसमें स्थूललक्ष्यत्वकी प्रवृत्तिका लक्षण लक्षित होता है, आशय अत्यन्त सुन्दररूपमें प्रकट होता है, वह 'उदारता" नामक गुण है। इच्छित अर्थके प्रति निर्वाहका उपपादन करनेवाली हेतुगर्भिणी युक्तियोंको 'प्रौढ़ि कहते हैं। स्वतन्त्र या परतन्त्र कार्यके बाह्य एवं आन्तरिक संयोगसे अर्थकी जो व्युत्पत्ति होती है, उसको 'सामयिकता' कहते हैं। जो शब्द एवं अर्थ-दोनोंको उपकृत करता है, वह 'उभयगुण' (शब्दार्थगुण) कहलाता है। साहित्यशास्त्रियोंने इसका विस्तार छः भेदोंमें किया है-प्रसाद, सौभाग्य, यथासंख्य, प्रशस्तता, पाक और राग। सुप्रसिद्ध अर्थसे समन्वित पदोंका संनिवेश 'प्रसाद" कहा जाता है। जिसके उक्त होनेपर कोई गुण उत्कर्षको प्राप्त हुआ प्रतीत होता है, विद्वान् उसको 'सौभाग्य' या 'औदार्य बतलाते हैं। तुल्य वस्तुओंका क्रमशः कथन 'यथासंख्य" माना जाता है। समयानुसार वर्णनीय दारुण वस्तुका भी अदारुण शब्दसे वर्णन 'प्राशस्त्य' कहलाता है। किसी पदार्थकी उच्च परिणतिको 'पाक' कहते हैं। 'मृद्धीकापाक' एवं 'नारिकेलाम्बुपाक' के भेदसे 'पाक' दो प्रकारका होता है। आदि और अन्तमें भी जहाँ सौरस्य हो, वह 'मृद्धीकापाक' है। काव्यमें जो छायाविशेष (शोभाधिक्य) प्रस्तुत किया जाय, उसे 'राग' कहते हैं। यह राग अभ्यासमें लाया जानेपर सहज कान्तिको भी लाँघ जाता है, अर्थात् उसमें और भी उत्कर्ष ला देता है। जो अपने विशेष लक्षणसे अनुभवमें आता हो, उसे 'वैशेषिक गुण' जानना चाहिये। यह राग तीन प्रकारका होता है- हारिद्रराग, कौसुम्भराग और नीलीराग। (यहाँतक सामान्य गुणका विवेचन हुआ)। अब 'वैशेषिक' का परिचय देते हैं। वैशेषिक उसको जानना चाहिये, जो स्वलक्षणगोचर हो- अनन्यसाधारण हो ॥ १५-२६ ॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें 'काव्यगुणविवेककथन' नामक तीन सी छियालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३४६ ॥
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