अग्नि पुराण तीन सौ चौवालीसवाँ अध्याय - Agni Purana 344 Chapter

अग्नि पुराण तीन सौ चौवालीसवाँ अध्याय - Agni Purana 344 Chapter

अग्नि पुराण तीन सौ चौवालीसवाँ अध्याय  - अर्थालङ्गाराः

अग्निरुवाच

अलङ्करणमर्थानामर्थालङ्कार इष्यते ।
तं विना शब्दसौन्दर्य्यमपि नास्ति मनोहरम् ।। १ ।।

अर्थालङ्काररहिता विधवेव सरस्वती ।
स्वरूपमथ सादृश्यमुतप्रेक्षातिशयावपि ।। २ ।।

विभावना विरोधश्च हेतुश्च सममष्टधा ।
स्वभाव एव भावानां स्वरूपमभिधीयते ।। ३ ।।

निजमागन्तुकञ्चेति द्विविधं तदुदाहृतम् ।
सांसिद्धिकं निजं नैमित्तिकमागन्तुकं तथा ।। ४ ।।

सादृश्यं धर्म्मसामान्यमुपमा रूपकं तथा ।
सहोक्त्यर्थान्तरन्यासाविति स्यात्तु चतुर्विधम् ।। ५ ।।

उपमा नाम सा यस्यामुपमानोपमेययोः ।
सत्ता चान्तरसामान्ययोगित्वेपि विवक्षितं ।। ६ ।।

किञ्चिदादाय सारूप्यं लोकयात्रा प्रवर्त्तते ।
समासेनासमासेन सा द्विधा प्रतियोगिनः ।। ७ ।।

विग्रहादभिधानश्य ससभासाऽन्यथोत्तरा ।
उपमाद्योतकपदेनोपमेयपदेन च ।। ८ ।।

ताभ्याञ्च विग्रहात् त्रेधा ससमासान्तिमात् त्रिधा ।
विशिष्यमाणा उपमा भवन्त्यष्टादश स्फुटाः ।। ९ ।।

यत्र साधारणो धर्म्मः कथ्यते गम्यतेऽपि वा ।
ते धर्म्मवस्तुप्राधान्याद्धर्म्मवस्तूपमे उभे ।। १० ।।

तुल्यमेवोपमीयेते यत्रान्योन्येन धर्म्मणौ ।
परस्परोपमा सा स्यात् प्रसिद्धेरन्यथा तयो ।। ११ ।।

विपरीतोपमा सा स्याद्व्यावृत्तेर्न्नियमोपमा ।
अन्यत्राप्यनुवृत्तेस्तु भवेदनियमोपमा ।। १२ ।।

समुच्यतेपमातोऽन्यधर्म्मवाहुल्यकीर्त्तनात् ।
वहोर्धर्म्मस्य साम्येपि वैलक्षण्यं विवक्षितं ।। १३ ।।

यदुच्यतेऽतिरिक्तत्वं व्यतिरेकोपमा तु सा ।
यत्रोपमा स्याद्वहुभिः सदृशैः सा बहूपमा ।। १४ ।।

धर्म्माः प्रत्युपमानञ्चेदन्ये मालोपमैव सा।
उपमानविकारेण लुलना विक्रियोपमा ।। १५ ।।

त्रैलोक्यासम्भवि किमप्यारोप्य प्रतियोगिनि ।
कविनोपमीयते या प्रथते साद्‌भुतोपमा ।। १६ ।।

प्रतियोगिनमारोष्य तदभेदेन कीर्त्तनम् ।
उपमेयस्य सा मोहोपमाऽसौ भ्रान्तिमद्वचः ।। १७ ।।

उभयोर्धर्म्मिणोस्तथ्यानिश्चयात् संशयोपमा ।
उपमेयस्य संशय्य निश्चयान्निश्चयोपमा ।। १८ ।।

वाक्यार्थेनैव वाक्यार्थोपमा स्यादुपमानतः ।
आत्मनोपमानादुपमा साधारण्यतिशायिनी ।। १९ ।।

उपमेयं यदन्यस्य तदन्यस्योपमा मता ।
यद्युत्तरोत्तरं याति तदाऽसौ गगनोपमा ।। २० ।।

प्रशंसा चैव निन्दा च कल्पिता सदृशो तथा ।
किञ्चिच्च सदृशी ज्ञेया उपमा पञ्चधा पुनः ।। २१ ।।

उपमानेन यत्तत्त्वमुपमेयस्य रूप्यते ।
गुणानां समतां दृष्ट्वा रूपकं नाम तद्विदुः ।। २२ ।।

उपमैव तिरोभूतभेदा रूपकमेव वा ।
सहोक्तिः सहभावेन कथनं तुल्यधर्म्मिणां ।। २३ ।।

भवेदर्थान्तरन्यासः सादृश्येनोत्तरेण सः ।
अन्यथोपस्थिता वृत्तिश्चेतन्स्येतरस्य च ।। २४ ।।

अन्यथा मन्यते यत्र तामुत्प्रेक्षआं प्रचक्षते ।
लोकसीमानिवृत्तस्य वस्तुधर्म्मस्य कीर्त्तनम् ।। २५ ।।

भवेदतिशयो नाम सम्भवासम्भवाद् द्विधा ।
गुणजातिक्रियादीनां यत्र वैकल्यदर्शनं ।। २६ ।।

विशेषदर्शनायैव सा विशेषोक्तिरुच्यते ।
प्रसिद्धहेतुव्यावृत्या यत् किञ्चित् कारणआन्तरम् ।। २७ ।।

यत्र स्वाभाविकत्वं वा विभाव्यं सा विभावना ।
सङ्गतीकरणं युक्त्या यदसंगच्छमानयोः ।। २८ ।।

विरोधपूर्वकत्वेन तद्विरोध इति स्मृतं ।
सिसाधयिषितार्थस्य हेतुर्भवति साधकः ।। २९ ।।

कारको ज्ञापक इति द्विधा सोऽप्युपजायते ।
प्रवर्त्तते कारकाख्यः प्राक् पश्चात् कार्य्यजन्मनः ।। ३० ।।

पूर्व्वशेष इति ख्यातस्तयोरेव विशेषयोः ।
कार्य्यकारणभावद्वा स्वभावाद्वा नियामकात् ।। ३१ ।।

ईपकाख्यस्य भेदोऽस्ति नदीपूरादिदर्शनात् ।
अविनाभावनियमो ह्यविनाभावदर्शनात् ।। ३२ ।।

इत्यादिमहापुराणे आग्नेये अलङ्कारे अर्थालङ्कारनिरूपणं नाम चतुश्चत्वारिंशदधिकत्रिशततमोऽध्यायः ।।

अग्नि पुराण - तीन सौ चौवालीसवाँ अध्याय हिन्दी मे Agni Purana 344 Chapter In Hindi

तीन सौ चौवालीसवाँ अध्याय अर्थालंकारोंका निरूपण

अग्निदेव कहते हैं- वसिष्ठ! अर्थोंका अलंकरण 'अर्थालंकार' कहा जाता है। उसके बिना शब्द-सौन्दर्य भी मनको आकर्षित नहीं करता है। अर्थालंकारसे हीन सरस्वती विधवाके समान शोभाहीन है। अर्थालंकारके आठ भेद माने गये हैं- स्वरूप, सादृश्य, उत्प्रेक्षा, अतिशय, विभावना, विरोध, हेतु और सम। पदार्थोंके स्वभावको 'स्वरूप' कहते हैं। उसके दो भेद बतलाये गये हैं- 'निज' एवं 'आगन्तुक'। सांसिद्धिकको 'निज' तथा नैमित्तिकको 'आगन्तुक' कहा जाता है। धर्मकी समानताको 'सादृश्य' कहते हैं। वह भी उपमा, रूपक, सहोक्ति तथा अर्थान्तरन्यासके भेदसे चार प्रकारका होता है। जिसमें भेद और सामान्यधर्मके साथ उपमान एवं उपमेयकी सत्ता हो, उसको 'उपमा" कहते हैं; क्योंकि यत्किचिद्विवक्षित सारूप्यका आश्रय लेकर ही लोकयात्रा प्रवर्तित होती है। प्रतियोगी (उपमान) के समस्त और असमस्त होनेसे उपमा दो प्रकारकी मानी गयी है- 'ससमासा' एवं 'असमासा'। 'घन इव श्यामः' इत्यादि पदोंमें समासके कारण वाचक शब्दके लुप्त होनेसे 'ससमासा उपमा' कही गयी है, इससे भिन्न प्रकारकी उपमा असमासा' है। कहीं उपमाद्योतक 'इवादि' पद, कहीं उपमेय और कहीं दोनोंके विरहसे 'ससमासा' उपमाके तीन भेद होते हैं। इसी प्रकार 'असमासा' उपमाके भी तीन भेद हैं। विशेषणसे युक्त होनेपर उपमाके अठारह भेद होते हैं। जिसमें साधारण धर्मका कथन या ज्ञान होता है-उपमाके उस भेदविशेषको धर्म या वस्तुकी प्रधानताके कारण 'धर्मोपमा एवं 'वस्तूपमा" कहा जाता है। जिसमें उपमान और उपमेयकी प्रसिद्धिके अनुसार परस्पर तुल्य उपमा दी जाती है, वह 'परस्परोपमा होती है। प्रसिद्धिके विपरीत उपमान और उपमेयकी विषमतामें जब उपमा दी जाती है, तब वह 'विपरीतोपमा कहलाती है। उपमा-जहाँ एक वस्तुसे ही उपमा देकर अन्य उपमानोंका व्यावर्तन-निराकरण किया जाता है, वहाँ 'नियमोपमा होती है। यदि उपमेयके गुणादि धर्मकी अन्य उपमानोंमें भी अनुवृत्ति हो तो उसे 'अनियमोपमा कहते हैं॥१-१२॥

एकसे भिन्न धर्मोंके बाहुल्यका कीर्तन होनेसे 'समुच्चयोपमा होती है। जहाँ अनेक धर्मोकी समानता होनेपर भी उपमानसे उपमेयकी विलक्षणता विवक्षित हो और इसके कारण जो अतिरिक्तत्वका कथन होता है, उसे 'व्यतिरेकोपमा" कहते हैं। जहाँ बहुसंख्यक सदृश उपमानोंद्वारा उपमा दी जाय, उसे 'बहूपमा" माना गया है। यदि उनमेंसे प्रत्येक उपमान भिन्न-भिन्न साधारण धर्मोंसे युक्त हो तो उसे 'मालोपमा" कहा जाता है। उपमेयको उपमानका विकार बताकर तुलना की जाय तो 'विक्रियोपमा होती है। यदि कवि उपमानमें किसी ऐसे वैशिष्ट्यका, जो तीनों लोकोंमें असम्भव हो, आरोप करके उसके द्वारा उपमा देता है, तो वह 'अद्भुतोपमा कही जाती है। उपमानको आरोपित करके उससे अभित्ररूपमें जो उपमेयका कीर्तन होता है और उससे जो भ्रम होनेका वर्णन किया जाता है, उसे 'मोहोपमा कहा जाता है। दो धर्मियोंमेंसे किसी एकका यथार्थ निश्चय न होनेसे 'संशयोपमा तथा पहले संशय होकर फिर निश्चय होनेसे 'निश्चयोपमा होती है। जहाँ वाक्यार्थको उपमान बनाकर उससे ही वाक्यार्थकी उपमा दी जाय, उसको 'वाक्यार्थोपमा कहते हैं। यह उपमा अपने उपमानकी दृष्टिसे दो प्रकारको होती है- 'साधारणी' और 'अतिशायिनी'। जो एकका उपमेय है, वही दूसरेका उपमान हो,  अर्थात् दोनों एक-दूसरेके उपमान उपमेय कहे गये हों तो उसे 'अन्योन्योपमा" कहते हैं। इस प्रकार यदि उत्तरोत्तर क्रम चलता जाय तो उसको 'गमनोपमा" कहा जाता है। इसके सिवा उपमाके और भी पाँच भेद होते हैं- 'प्रशस्त" 'निन्दा" 'कल्पिता" 'सदृशी" एवं 'किंचित्सदृशी"। गुणोंकी समानता देखकर उपमेयका जो तत्त्व उपमानसे रूपित अभेदेन प्रतिपादित होता है, उसे 'रूपक" मानते हैं। अथवा भेदके तिरोहित होनेपर उपमा ही 'रूपक' हो जाती है। तुल्यधर्मसे युक्त दो पदार्थोंका एक साथ रहनेका वर्णन 'सहोक्ति" कहा जाता है॥ १३-२३ ॥

पूर्ववर्णित वस्तुके समर्थनके लिये साधर्म्य अथवा वैधर्म्यसे जो अर्थान्तरका उपन्यास किया जाता है, उसे 'अर्थान्तरन्यास कहते हैं। जिसमें चेतन या अचेतन पदार्थकी अन्यथास्थित परिस्थितिको दूसरी तरहसे माना जाता है, उसको 'उत्प्रेक्षा" कहते हैं। लोकसीमातीत वस्तु-धर्मका कीर्तन 'अतिशयालंकार कहलाता है। यह 'सम्भव' और 'असम्भव 'के भेदसे दो प्रकारका माना जाता है। जिसमें विशेष्यदर्शनके लिये गुण, जाति एवं क्रियादिकी विकलताका प्रदर्शन- अनपेक्षताका प्रकाशन हो, उसको 'विशेषोति" कहा जाता है। जिसमें प्रसिद्ध हेतुकी व्यावृत्तिपूर्वक (अर्थात् उसका अभाव दिखाते हुए) अन्य किसी कारणको उद्भावना की जाय अथवा स्वाभाविकता स्वीकार की जाय अर्थात् बिना किसी कारणके ही स्वाभाविक रूपसे कार्यकी उत्पत्ति मानी जाय, उसे विभावना' कहते हैं। परस्पर असंगत पदार्थोंका जहाँ युक्तिके द्वारा विरोधपूर्वक संगतिकरण किया जाय, वह 'विरोधालंकार" होता है। जिसकी सिद्धि अभिलषित हो, ऐसे अर्थका साधक 'हेतु" अलंकार कहलाता है। उस 'हेतु' अलंकारके भी 'कारक' एवं 'ज्ञापक'- ये दो भेद हो जाते हैं। इनमें कारक हेतु कार्य-जन्मके पूर्वमें और पश्चात् भी रहनेवाला है, जो 'पूर्वशेष' कहा जाता है और उन्हीं भेदोंमें कार्य-कारणभावसे अथवा किसी नियामक स्वभावसे या अविनाभावके दर्शनसे जो अविनाभावका नियम होता है, वह ज्ञापक हेतुका भेद है। 'नदीपूर' आदिका दर्शन ज्ञापकका उदाहरण है ॥ २४-३२ ॥

इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें 'अर्थालंकारका वर्णन' नामक तीन सौ चौवालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३४४॥

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