श्री लक्ष्मी हृदय स्तोत्र (पीडीएफ)
हिन्दू धर्म में अत्यंत महत्वपूर्ण है, जो माता लक्ष्मी की कृपा और आशीर्वाद प्राप्त करने हेतु किया जाता है। यह स्तोत्र पवित्र मंत्रों और स्तुतियों से भरा हुआ है, जो भक्तों को धन, ऐश्वर्य और समृद्धि प्रदान करता है। इसके पाठ से घर में सुख-शांति और सकारात्मकता का वातावरण बना रहता है।
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लक्ष्मी हृदय स्तोत्रम् का महत्त्व
माता लक्ष्मी को धन, वैभव, और ऐश्वर्य की देवी माना जाता है। लक्ष्मी हृदय स्तोत्रम् का पाठ भक्तों के जीवन में आर्थिक समृद्धि, सुख-शांति और कल्याण का मार्ग खोलता है। यह स्तोत्र देवी लक्ष्मी के हृदय से प्रेरणा लेकर रचा गया है और इसे अत्यंत प्रभावशाली माना गया है। यह न केवल आर्थिक समृद्धि बल्कि आध्यात्मिक शांति और मानसिक संतुलन भी प्रदान करता है।
लक्ष्मी हृदय स्तोत्र का पाठ करने के लिए नीचे दिए गए निर्देशों का पालन करें:
1.
साफ और पवित्र स्थान: सबसे पहले, किसी साफ-सुथरे और
शुद्ध स्थान का चुनाव करें। हो सके तो उस स्थान पर दीपक जलाएं।
2.
स्नान और पवित्रता: स्तोत्र का पाठ करने से पहले स्नान कर लें और मानसिक रूप से
शांत रहें।
3.
माँ लक्ष्मी का ध्यान: लक्ष्मी हृदय स्तोत्र का पाठ करते समय माँ लक्ष्मी का ध्यान
करें। आप माँ लक्ष्मी के किसी चित्र या मूर्ति के सामने भी बैठ सकते हैं।
4.
विनियोग और ध्यान: पाठ शुरू करने से पहले विनियोग और ध्यान करें, जो स्तोत्र के प्रारंभ में दिया गया है।
यह देवी लक्ष्मी की उपासना के लिए आवश्यक है।
5.
शुद्ध उच्चारण: ध्यानपूर्वक, स्पष्ट और शुद्ध उच्चारण में स्तोत्र का पाठ करें। कोशिश
करें कि ध्यान विचलित न हो।
6.
मन में श्रद्धा और भक्ति: पाठ करते समय मन में श्रद्धा, भक्ति और विश्वास रखें। माँ लक्ष्मी का आह्वान करते हुए
स्तोत्र पढ़ें।
7.
अंत में आरती और प्रार्थना: पाठ समाप्त होने के बाद माँ लक्ष्मी की
आरती करें और अपने घर में सुख, समृद्धि, और शांति की कामना करें।
यदि आप चाहें तो एक निश्चित समय प्रतिदिन इस स्तोत्र का पाठ
कर सकते हैं, विशेष रूप से शुक्रवार के दिन इसे करने
से लाभकारी माना जाता है।
1.
स्थान और शुद्धि:
- एक साफ और
पवित्र स्थान चुनें। यदि घर में मंदिर है तो वहाँ बैठें।
- एक आसन (मूंज का आसन
सबसे अच्छा माना जाता है) पर बैठें।
- जगह को
गंगाजल या पानी छिड़क कर शुद्ध करें।
2.
स्नान और पवित्र वस्त्र:
- पहले स्नान
करें और पवित्र वस्त्र पहनें। विशेषकर सफेद या पीले वस्त्र पहनना उत्तम माना
जाता है।
- शांत और
ध्यान की स्थिति में आने की कोशिश करें।
3.
लक्ष्मी पूजन:
- माँ लक्ष्मी
का ध्यान करते हुए उनकी प्रतिमा या तस्वीर के सामने दीपक जलाएं।
- प्रतिमा को
हल्दी, चावल, और फूल चढ़ाएं।
- माँ लक्ष्मी
को गंध, अक्षत (चावल), पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य अर्पित
करें।
4.
ध्यान और विनियोग:
- ध्यान करें
और अपनी मनोकामना को माँ लक्ष्मी के चरणों में अर्पित करें।
- विनियोग
मंत्र से प्रारंभ करें, जो स्तोत्र के पाठ
की शुरुआत में आता है।
5.
लक्ष्मी हृदय स्तोत्र का पाठ:
- लक्ष्मी
हृदय स्तोत्र का पाठ शुद्ध उच्चारण के साथ करें।
- श्रद्धा और
भक्ति के साथ स्तोत्र का एकाग्र होकर पाठ करें।
- यह पाठ कम
से कम 3 बार करना चाहिए। यदि
संभव हो, तो 11 बार करें।
6.
अंतिम पूजा और आरती:
- पाठ समाप्त
होने पर माँ लक्ष्मी की आरती करें।
- घी का दीपक
जलाकर आरती गाएं और घर में समृद्धि, शांति, और सुख की कामना करें।
7.
प्रसाद वितरण:
- पूजा के बाद
नैवेद्य या प्रसाद सभी परिवार के सदस्यों में बाँटें और ग्रहण करें।
8.
विशेष दिन और समय:
- इसे
शुक्रवार के दिन करना विशेष फलदायी माना जाता है, लेकिन किसी भी शुभ मुहूर्त या विशेष दिन पर किया जा
सकता है।
- दिवाली, अक्षय तृतीया और धनतेरस पर इस स्तोत्र का पाठ करना
विशेष रूप से लाभकारी माना जाता है।
लक्ष्मी हृदय स्तोत्र का पाठ इस विधि से
करने से घर में माँ लक्ष्मी की कृपा बनी रहती है और धन-धान्य, समृद्धि, और
सुख-शांति का वास होता है।
1. धन-समृद्धि: लक्ष्मी हृदय स्तोत्र का पाठ माँ लक्ष्मी
को प्रसन्न करने का एक उत्तम उपाय है। इसके नियमित पाठ से घर में आर्थिक समृद्धि
और स्थिरता बनी रहती है।
2. कर्ज मुक्ति: जो व्यक्ति आर्थिक तंगी या कर्ज में डूबे
होते हैं, उनके लिए यह स्तोत्र विशेष लाभकारी होता
है। माँ लक्ष्मी की कृपा से धन संबंधी समस्याएं धीरे-धीरे कम होने लगती हैं।
3. व्यापार और व्यवसाय में वृद्धि: व्यापार या नौकरी में उन्नति और तरक्की
के लिए इस स्तोत्र का नियमित पाठ करना शुभ माना गया है। यह व्यापार में मुनाफा और
नौकरी में पदोन्नति दिला सकता है।
4. घर में सुख-शांति का वास: लक्ष्मी हृदय स्तोत्र का पाठ करने से घर
का वातावरण शुद्ध और सकारात्मक बनता है। यह परिवार में प्रेम, सौहार्द, और आपसी समझ को बढ़ाता है।
5. रोग और कष्टों से मुक्ति: माँ लक्ष्मी का आशीर्वाद स्वास्थ्य के
लिए भी लाभकारी होता है। इसके पाठ से कई प्रकार के रोग, शारीरिक कष्ट और मानसिक तनाव से मुक्ति
मिलती है।
6. अशुभ प्रभावों से सुरक्षा: लक्ष्मी हृदय स्तोत्र का पाठ करने से
नकारात्मक ऊर्जा, बाधाएं, और दुर्भाग्य के अशुभ प्रभाव कम हो जाते हैं। यह स्तोत्र
परिवार की सुरक्षा और सुख की कामना के लिए भी किया जाता है।
7. शुभ फल और मनोकामना पूर्ति: जिनकी मनोकामनाएं अधूरी रह गई हों, उनके लिए लक्ष्मी हृदय स्तोत्र का पाठ
बहुत शुभ माना गया है। यह स्तोत्र व्यक्ति की मनोकामनाओं को पूर्ण करता है और उसे
अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने में सहायक होता है।
8. पारिवारिक समृद्धि: इससे परिवार में धन-धान्य की कमी नहीं
होती और समृद्धि का वास बना रहता है।
लक्ष्मी हृदय स्तोत्र का नियमित पाठ श्रद्धा और आस्था के
साथ करने से व्यक्ति के जीवन में सौभाग्य, संपत्ति, और शांति बनी रहती
है।
लक्ष्मी हृदय स्तोत्रम्
अस्य श्री
महालक्ष्मीहृदयस्तोत्र महामन्त्रस्य भार्गव ऋषिः, अनुष्टुपादीनि नानाछन्दांसि, आद्यादि
श्रीमहालक्ष्मीर्देवता, श्रीं बीजं, ह्रीं शक्तिः, ऐं कीलकं, आद्यादिमहालक्ष्मी
प्रसादसिद्ध्यर्थं जपे विनियोगः ॥
ऋष्यादिन्यासः –
ॐ भार्गवृषये नमः शिरसि ।
ॐ अनुष्टुपादिनानाछन्दोभ्यो नमो मुखे ।
ॐ आद्यादिश्रीमहालक्ष्मी देवतायै नमो हृदये ।
ॐ श्रीं बीजाय नमो गुह्ये ।
ॐ ह्रीं शक्तये नमः पादयोः ।
ॐ ऐं कीलकाय नमो नाभौ ।
ॐ विनियोगाय नमः सर्वाङ्गे ।
करन्यासः –
ॐ श्रीं अङ्गुष्ठाभ्यां नमः ।
ॐ ह्रीं तर्जनीभ्यां नमः ।
ॐ ऐं मध्यमाभ्यां नमः ।
ॐ श्रीं अनामिकाभ्यां नमः ।
ॐ ह्रीं कनिष्ठिकाभ्यां नमः ।
ॐ ऐं करतल करपृष्ठाभ्यां नमः ।
अङ्गन्यासः –
ॐ श्रीं हृदयाय नमः ।
ॐ ह्रीं शिरसे स्वाहा ।
ॐ ऐं शिखायै वषट् ।
ॐ श्रीं कवचाय हुम् ।
ॐ ह्रीं नेत्रत्रयाय वौषट् ।
ॐ ऐं अस्त्राय फट् ।
ॐ श्रीं ह्रीं ऐं इति दिग्बन्धः ।
अथ ध्यानम् ।
हस्तद्वयेन कमले धारयन्तीं
स्वलीलया ।
हारनूपुरसंयुक्तां लक्ष्मीं देवीं विचिन्तये ॥
कौशेयपीतवसनामरविन्दनेत्रां
पद्मद्वयाभयवरोद्यतपद्महस्ताम् ।
उद्यच्छतार्कसदृशीं
परमाङ्कसंस्थां
ध्यायेद्विधीशनतपादयुगां जनित्रीम् ॥
पीतवस्त्रां सुवर्णाङ्गीं
पद्महस्तद्वायान्विताम् ।
लक्ष्मीं ध्यात्वेति मन्त्रेण स भवेत्पृथिवीपतिः ॥
मातुलुङ्गं गदां खेटं पाणौ
पात्रं च बिभ्रती ।
नागं लिङ्गं च योनिं च बिभ्रतीं चैव मूर्धनि ॥
इति ध्यात्वा मानसोपचारैः
सम्पूज्य ।
शङ्खचक्रगदाहस्ते शुभ्रवर्णे सुवासिनी ।
मम देहि वरं लक्ष्मीः
सर्वसिद्धिप्रदायिनी ।
इति सम्प्रार्थ्य ॐ श्रीं
ह्रीं ऐं महालक्ष्म्यै कमलधारिण्यै सिंहवाहिन्यै स्वाहा इति मन्त्रं जप्त्वा पुनः
पूर्ववद्धृदयादि षडङ्गन्यासं कृत्वा स्तोत्रं पठेत् । ]
लक्ष्मी हृदय स्तोत्रम्
वन्दे लक्ष्मीं परमशिवमयीं
शुद्धजाम्बूनदाभां
तेजोरूपां कनकवसनां सर्वभूषोज्ज्वलाङ्गीम् ।
बीजापूरं कनककलशं हेमपद्मं दधाना-
-माद्यां शक्तिं सकलजननीं विष्णुवामाङ्कसंस्थाम् ॥ 1 ॥
श्रीमत्सौभाग्यजननीं स्तौमि
लक्ष्मीं सनातनीम् ।
सर्वकामफलावाप्तिसाधनैकसुखावहाम् ॥ 2 ॥
स्मरामि नित्यं देवेशि त्वया
प्रेरितमानसः ।
त्वदाज्ञां शिरसा धृत्वा भजामि परमेश्वरीम् ॥ 3 ॥
समस्तसम्पत्सुखदां महाश्रियं
समस्तसौभाग्यकरीं महाश्रियम् ।
समस्तकल्याणकरीं महाश्रियं
भजाम्यहं ज्ञानकरीं महाश्रियम् ॥ 4 ॥
विज्ञानसम्पत्सुखदां सनातनीं
विचित्रवाग्भूतिकरीं मनोहराम् ।
अनन्तसम्मोदसुखप्रदायिनीं
नमाम्यहं भूतिकरीं हरिप्रियाम् ॥ 5 ॥
समस्तभूतान्तरसंस्थिता त्वं
समस्तभोक्त्रीश्वरि विश्वरूपे ।
तन्नास्ति यत्त्वद्व्यतिरिक्तवस्तु
त्वत्पादपद्मं प्रणमाम्यहं श्रीः ॥ 6 ॥
दारिद्र्य दुःखौघतमोपहन्त्री
त्वत्पादपद्मं मयि सन्निधत्स्व ।
दीनार्तिविच्छेदनहेतुभूतैः
कृपाकटाक्षैरभिषिञ्च मां श्रीः ॥ 7 ॥
अम्ब प्रसीद
करुणासुधयार्द्रदृष्ट्या
मां त्वत्कृपाद्रविणगेहमिमं कुरुष्व ।
आलोकय प्रणतहृद्गतशोकहन्त्री
त्वत्पादपद्मयुगलं प्रणमाम्यहं श्रीः ॥ 8 ॥
शान्त्यै नमोऽस्तु
शरणागतरक्षणायै
कान्त्यै नमोऽस्तु कमनीयगुणाश्रयायै ।
क्षान्त्यै नमोऽस्तु दुरितक्षयकारणायै
दात्र्यै नमोऽस्तु धनधान्यसमृद्धिदायै ॥ 9 ॥
शक्त्यै नमोऽस्तु
शशिशेखरसंस्तुतायै
रत्यै नमोऽस्तु रजनीकरसोदरायै ।
भक्त्यै नमोऽस्तु भवसागरतारकायै
मत्यै नमोऽस्तु मधुसूदनवल्लभायै ॥ 10 ॥
लक्ष्म्यै नमोऽस्तु
शुभलक्षणलक्षितायै
सिद्ध्यै नमोऽस्तु शिवसिद्धसुपूजितायै ।
धृत्यै नमोऽस्त्वमितदुर्गतिभञ्जनायै
गत्यै नमोऽस्तु वरसद्गतिदायिकायै ॥ 11 ॥
देव्यै नमोऽस्तु दिवि
देवगणार्चितायै
भूत्यै नमोऽस्तु भुवनार्तिविनाशनायै ।
धात्र्यै नमोऽस्तु धरणीधरवल्लभायै
पुष्ट्यै नमोऽस्तु पुरुषोत्तमवल्लभायै ॥ 12 ॥
सुतीव्रदारिद्र्यविदुःखहन्त्र्यै
नमोऽस्तु ते सर्वभयापहन्त्र्यै ।
श्रीविष्णुवक्षःस्थलसंस्थितायै
नमो नमः सर्वविभूतिदायै ॥ 13 ॥
जयतु जयतु लक्ष्मीर्लक्षणालङ्कृताङ्गी
जयतु जयतु पद्मा पद्मसद्माभिवन्द्या ।
जयतु जयतु विद्या विष्णुवामाङ्कसंस्था
जयतु जयतु सम्यक्सर्वसम्पत्करी श्रीः ॥ 14 ॥
जयतु जयतु देवी
देवसङ्घाभिपूज्या
जयतु जयतु भद्रा भार्गवी भाग्यरूपा ।
जयतु जयतु नित्या निर्मलज्ञानवेद्या
जयतु जयतु सत्या सर्वभूतान्तरस्था ॥ 15 ॥
जयतु जयतु रम्या
रत्नगर्भान्तरस्था
जयतु जयतु शुद्धा शुद्धजाम्बूनदाभा ।
जयतु जयतु कान्ता कान्तिमद्भासिताङ्गी
जयतु जयतु शान्ता शीघ्रमागच्छ सौम्ये ॥ 16 ॥
यस्याः कलायाः कमलोद्भवाद्या
रुद्राश्च शक्र प्रमुखाश्च देवाः ।
जीवन्ति सर्वेऽपि सशक्तयस्ते
प्रभुत्वमाप्ताः परमायुषस्ते ॥ 17 ॥
लिलेख निटिले विधिर्मम लिपिं
विसृज्यान्तरं
त्वया विलिखितव्यमेतदिति तत्फलप्राप्तये ।
तदन्तरफलेस्फुटं कमलवासिनी श्रीरिमां
समर्पय समुद्रिकां सकलभाग्यसंसूचिकाम् ॥ 18 ॥
कलया ते यथा देवि जीवन्ति
सचराचराः ।
तथा सम्पत्करे लक्ष्मि सर्वदा सम्प्रसीद मे ॥ 19 ॥
यथा विष्णुर्ध्रुवे नित्यं
स्वकलां सन्न्यवेशयत् ।
तथैव स्वकलां लक्ष्मि मयि सम्यक् समर्पय ॥ 20 ॥
सर्वसौख्यप्रदे देवि
भक्तानामभयप्रदे ।
अचलां कुरु यत्नेन कलां मयि निवेशिताम् ॥ 21 ॥
मुदास्तां मत्फाले परमपदलक्ष्मीः
स्फुटकला
सदा वैकुण्ठश्रीर्निवसतु कला मे नयनयोः ।
वसेत्सत्ये लोके मम वचसि लक्ष्मीर्वरकला
श्रियः श्वेतद्वीपे निवसतु कला मे स्वकरयोः ॥ 22 ॥
तावन्नित्यं ममाङ्गेषु
क्षीराब्धौ श्रीकला वसेत् ।
सूर्याचन्द्रमसौ यावद्यावल्लक्ष्मीपतिः श्रियाः ॥ 23 ॥
सर्वमङ्गलसम्पूर्णा
सर्वैश्वर्यसमन्विता ।
आद्यादि श्रीर्महालक्ष्मी त्वत्कला मयि तिष्ठतु ॥ 24 ॥
अज्ञानतिमिरं हन्तुं
शुद्धज्ञानप्रकाशिका ।
सर्वैश्वर्यप्रदा मेऽस्तु त्वत्कला मयि संस्थिता ॥ 25 ॥
अलक्ष्मीं हरतु क्षिप्रं तमः
सूर्यप्रभा यथा ।
वितनोतु मम श्रेयस्त्वत्कला मयि संस्थिता ॥ 26 ॥
ऐश्वर्यमङ्गलोत्पत्तिस्त्वत्कलायां
निधीयते ।
मयि तस्मात्कृतार्थोऽस्मि पात्रमस्मि स्थितेस्तव ॥ 27 ॥
भवदावेशभाग्यार्हो
भाग्यवानस्मि भार्गवि ।
त्वत्प्रसादात्पवित्रोऽहं लोकमातर्नमोऽस्तु ते ॥ 28 ॥
पुनासि मां त्वत्कलयैव यस्मा-
-दतः समागच्छ ममाग्रतस्त्वम् ।
परं पदं श्रीर्भव सुप्रसन्ना
मय्यच्युतेन प्रविशादिलक्ष्मीः ॥ 29 ॥
श्रीवैकुण्ठस्थिते लक्ष्मि
समागच्छ ममाग्रतः ।
नारायणेन सह मां कृपादृष्ट्याऽवलोकय ॥ 30 ॥
सत्यलोकस्थिते लक्ष्मि त्वं
ममागच्छ सन्निधिम् ।
वासुदेवेन सहिता प्रसीद वरदा भव ॥ 31 ॥
श्वेतद्वीपस्थिते लक्ष्मि
शीघ्रमागच्छ सुव्रते ।
विष्णुना सहिते देवि जगन्मातः प्रसीद मे ॥ 32 ॥
क्षीराम्बुधिस्थिते लक्ष्मि
समागच्छ समाधवा ।
त्वत्कृपादृष्टिसुधया सततं मां विलोकय ॥ 33 ॥
रत्नगर्भस्थिते लक्ष्मि
परिपूर्णे हिरण्मये ।
समागच्छ समागच्छ स्थित्वाऽऽशु पुरतो मम ॥ 34 ॥
स्थिरा भव महालक्ष्मि निश्चला
भव निर्मले ।
प्रसन्ने कमले देवि प्रसन्नहृदया भव ॥ 35 ॥
श्रीधरे श्रीमहाभूते
त्वदन्तःस्थं महानिधिम् ।
शीघ्रमुद्धृत्य पुरतः प्रदर्शय समर्पय ॥ 36 ॥
वसुन्धरे श्रीवसुधे
वसुदोग्ध्रि कृपामये ।
त्वत्कुक्षिगतसर्वस्वं शीघ्रं मे सम्प्रदर्शय ॥ 37 ॥
विष्णुप्रिये रत्नगर्भे
समस्तफलदे शिवे ।
त्वद्गर्भगतहेमादीन् सम्प्रदर्शय दर्शय ॥ 38 ॥
रसातलगते लक्ष्मि शीघ्रमागच्छ
मे पुरः ।
न जाने परमं रूपं मातर्मे सम्प्रदर्शय ॥ 39 ॥
आविर्भव मनोवेगाच्छीघ्रमागच्छ
मे पुरः ।
मा वत्स भैरिहेत्युक्त्वा कामं गौरिव रक्ष माम् ॥ 40 ॥
देवि शीघ्रं समागच्छ
धरणीगर्भसंस्थिते ।
मातस्त्वद्भृत्यभृत्योऽहं मृगये त्वां कुतूहलात् ॥ 41 ॥
उत्तिष्ठ जागृहि त्वं मे
समुत्तिष्ठ सुजागृहि ।
अक्षयान् हेमकलशान् सुवर्णेन सुपूरितान् ॥ 42 ॥
निक्षेपान्मे समाकृष्य
समुद्धृत्य ममाग्रतः ।
समुन्नतानना भूत्वा समाधेहि धरान्तरात् ॥ 43 ॥
मत्सन्निधिं समागच्छ
मदाहितकृपारसात् ।
प्रसीद श्रेयसां दोग्ध्री लक्ष्मीर्मे नयनाग्रतः ॥ 44 ॥
अत्रोपविश लक्ष्मि त्वं
स्थिरा भव हिरण्मये ।
सुस्थिरा भव सम्प्रीत्या प्रसीद वरदा भव ॥ 45 ॥
आनीतांस्तु तथा देवि निधीन्मे
सम्प्रदर्शय ।
अद्य क्षणेन सहसा दत्त्वा संरक्ष मां सदा ॥ 46 ॥
मयि तिष्ठ तथा नित्यं
यथेन्द्रादिषु तिष्ठसि ।
अभयं कुरु मे देवि महालक्ष्मीर्नमोऽस्तु ते ॥ 47 ॥
समागच्छ महालक्ष्मि
शुद्धजाम्बूनदप्रभे ।
प्रसीद पुरतः स्थित्वा प्रणतं मां विलोकय ॥ 48 ॥
लक्ष्मीर्भुवं गता भासि यत्र
यत्र हिरण्मयी ।
तत्र तत्र स्थिता त्वं मे तव रूपं प्रदर्शय ॥ 49 ॥
क्रीडन्ती बहुधा भूमौ
परिपूर्णकृपामयि ।
मम मूर्धनि ते हस्तमविलम्बितमर्पय ॥ 50 ॥
फलद्भाग्योदये लक्ष्मि
समस्तपुरवासिनी ।
प्रसीद मे महालक्ष्मि परिपूर्णमनोरथे ॥ 51 ॥
अयोध्यादिषु सर्वेषु नगरेषु
समास्थिते ।
वैभवैर्विविधैर्युक्तैः समागच्छ मुदान्विते ॥ 52 ॥
समागच्छ समागच्छ ममाग्रे भव
सुस्थिरा ।
करुणारसनिष्यन्दनेत्रद्वय विलासिनी ॥ 53 ॥ [निष्पन्न]
सन्निधत्स्व महालक्ष्मि
त्वत्पाणिं मम मस्तके ।
करुणासुधया मां त्वमभिषिञ्च्य स्थिरं कुरु ॥ 54 ॥
सर्वराजगृहे लक्ष्मि समागच्छ
बलान्विते । [मुदान्विते]
स्थित्वाऽऽशु पुरतो मेऽद्य प्रसादेनाऽभयं कुरु ॥ 55 ॥
सादरं मस्तके हस्तं मम त्वं
कृपयार्पय ।
सर्वराजगृहे लक्ष्मि त्वत्कला मयि तिष्ठतु ॥ 56 ॥
आद्यादि श्रीमहालक्ष्मि
विष्णुवामाङ्कसंस्थिते ।
प्रत्यक्षं कुरु मे रूपं रक्ष मां शरणागतम् ॥ 57 ॥
प्रसीद मे महालक्ष्मि
सुप्रसीद महाशिवे ।
अचला भव सम्प्रीत्या सुस्थिरा भव मद्गृहे ॥ 58 ॥
यावत्तिष्ठन्ति वेदाश्च
यावच्चन्द्रदिवाकरौ ।
यावद्विष्णुश्च यावत्त्वं तावत्कुरु कृपां मयि ॥ 59 ॥
चान्द्रीकला यथा शुक्ले वर्धते
सा दिने दिने ।
तथा दया ते मय्येव वर्धतामभिवर्धताम् ॥ 60 ॥
यथा वैकुण्ठनगरे यथा वै
क्षीरसागरे ।
तथा मद्भवने तिष्ठ स्थिरं श्रीविष्णुना सह ॥ 61 ॥
योगिनां हृदये नित्यं यथा
तिष्ठसि विष्णुना ।
तथा मद्भवने तिष्ठ स्थिरं श्रीविष्णुना सह ॥ 62 ॥
नारायणस्य हृदये भवती यथास्ते
नारायणोऽपि तव हृत्कमले यथास्ते ।
नारायणस्त्वमपि नित्यमुभौ तथैव
तौ तिष्ठतां हृदि ममापि दयान्वितौ श्रीः ॥ 63 ॥
विज्ञानवृद्धिं हृदये कुरु
श्रीः
सौभाग्यवृद्धिं कुरु मे गृहे श्रीः ।
दयासुवृद्धिं कुरुतां मयि श्रीः
सुवर्णवृद्धिं कुरु मे गृहे श्रीः ॥ 64 ॥
न मां त्यजेथाः
श्रितकल्पवल्लि
सद्भक्तचिन्तामणिकामधेनो ।
विश्वस्य मातर्भव सुप्रसन्ना
गृहे कलत्रेषु च पुत्रवर्गे ॥ 65 ॥
आद्यादिमाये त्वमजाण्डबीजं
त्वमेव साकारनिराकृतिस्त्वम् ।
त्वया धृताश्चाब्जभवाण्डसङ्घा-
-श्चित्रं चरित्रं तव देवि विष्णोः ॥ 66 ॥
ब्रह्मरुद्रादयो देवा
वेदाश्चापि न शक्नुयुः ।
महिमानं तव स्तोतुं मन्दोऽहं शक्नुयां कथम् ॥ 67 ॥
अम्ब त्वद्वत्सवाक्यानि
सूक्तासूक्तानि यानि च ।
तानि स्वीकुरु सर्वज्ञे दयालुत्वेन सादरम् ॥ 68 ॥
भवतीं शरणं गत्वा कृतार्थाः
स्युः पुरातनाः ।
इति सञ्चिन्त्य मनसा त्वामहं शरणं व्रजे ॥ 69 ॥
अनन्ता
नित्यसुखिनस्त्वद्भक्तास्त्वत्परायणाः ।
इति वेदप्रमाणाद्धि देवि त्वां शरणं व्रजे ॥ 70 ॥
तव प्रतिज्ञा मद्भक्ता न
नश्यन्तीत्यपि क्वचित् ।
इति सञ्चिन्त्य सञ्चिन्त्य प्राणान् सन्धारयाम्यहम् ॥ 71 ॥
त्वदधीनस्त्वहं
मातस्त्वत्कृपा मयि विद्यते ।
यावत्सम्पूर्णकामः स्यात्तावद्देहि दयानिधे ॥ 72 ॥
क्षणमात्रं न शक्नोमि जीवितुं
त्वत्कृपां विना ।
न जीवन्तीह जलजा जलं त्यक्त्वा जलग्रहाः ॥ 73 ॥
यथा हि पुत्रवात्सल्याज्जननी
प्रस्नुतस्तनी ।
वत्सं त्वरितमागत्य सम्प्रीणयति वत्सला ॥ 74 ॥
यदि स्यां तव पुत्रोऽहं माता
त्वं यदि मामकी ।
दयापयोधरस्तन्यसुधाभिरभिषिञ्च माम् ॥ 75 ॥
मृग्यो न गुणलेशोऽपि मयि
दोषैकमन्दिरे ।
पांसूनां वृष्टिबिन्दूनां दोषाणां च न मे मतिः ॥ 76 ॥
पापिनामहमेवाग्र्यो दयालूनां
त्वमग्रणीः ।
दयनीयो मदन्योऽस्ति तव कोऽत्र जगत्त्रये ॥ 77 ॥
विधिनाहं न सृष्टश्चेन्न
स्यात्तव दयालुता ।
आमयो वा न सृष्टश्चेदौषधस्य वृथोदयः ॥ 78 ॥
कृपा मदग्रजा किं ते अहं किं
वा तदग्रजः ।
विचार्य देहि मे वित्तं तव देवि दयानिधे ॥ 79 ॥
माता पिता त्वं गुरुसद्गतिः
श्री-
-स्त्वमेव सञ्जीवनहेतुभूता ।
अन्यं न मन्ये जगदेकनाथे
त्वमेव सर्वं मम देवि सत्ये ॥ 80 ॥
आद्यादिलक्ष्मीर्भव
सुप्रसन्ना
विशुद्धविज्ञानसुखैकदोग्ध्री ।
अज्ञानहन्त्री त्रिगुणातिरिक्ता
प्रज्ञाननेत्री भव सुप्रसन्ना ॥ 81 ॥
अशेषवाग्जाड्यमलापहन्त्री
नवं नवं स्पष्टसुवाक्प्रदायिनी ।
ममेह जिह्वाग्र सुरङ्गनर्तकी [नर्तिनी]
भव प्रसन्ना वदने च मे श्रीः ॥ 82 ॥
समस्तसम्पत्सुविराजमाना
समस्ततेजश्चयभासमाना ।
विष्णुप्रिये त्वं भव दीप्यमाना
वाग्देवता मे नयने प्रसन्ना ॥ 83 ॥
सर्वप्रदर्शे सकलार्थदे त्वं
प्रभासुलावण्यदयाप्रदोग्ध्री ।
सुवर्णदे त्वं सुमुखी भव श्री-
-र्हिरण्मयी मे नयने प्रसन्ना ॥ 84 ॥
सर्वार्थदा सर्वजगत्प्रसूतिः
सर्वेश्वरी सर्वभयापहन्त्री ।
सर्वोन्नता त्वं सुमुखी भव श्री-
-र्हिरण्मयी मे नयने प्रसन्ना ॥ 85 ॥
समस्तविघ्नौघविनाशकारिणी
समस्तभक्तोद्धरणे विचक्षणा ।
अनन्तसौभाग्यसुखप्रदायिनी
हिरण्मयी मे नयने प्रसन्ना ॥ 86 ॥
देवि प्रसीद दयनीयतमाय मह्यं
देवाधिनाथभवदेवगणाभिवन्द्ये ।
मातस्तथैव भव सन्निहिता दृशोर्मे
पत्या समं मम मुखे भव सुप्रसन्ना ॥ 87 ॥
मा वत्स
भैरभयदानकरोऽर्पितस्ते
मौलौ ममेति मयि दीनदयानुकम्पे ।
मातः समर्पय मुदा करुणाकटाक्षं
माङ्गल्यबीजमिह नः सृज जन्म मातः ॥ 88 ॥
कटाक्ष इह कामधुक्तव मनस्तु
चिन्तामणिः
करः सुरतरुः सदा नवनिधिस्त्वमेवेन्दिरे ।
भवे तव दयारसो मम रसायनं चान्वहं
मुखं तव कलानिधिर्विविधवाञ्छितार्थप्रदम् ॥ 89 ॥
यथा रसस्पर्शनतोऽयसोऽपि
सुवर्णता स्यात्कमले तथा ते ।
कटाक्षसंस्पर्शनतो जनाना-
-ममङ्गलानामपि मङ्गलत्वम् ॥ 90 ॥
देहीति नास्तीति वचः प्रवेशा-
-द्भीतो रमे त्वां शरणं प्रपद्ये ।
अतः सदाऽस्मिन्नभयप्रदा त्वं
सहैव पत्या मयि सन्निधेहि ॥ 91 ॥
कल्पद्रुमेण मणिना सहिता
सुरम्या
श्रीस्ते कला मयि रसेन रसायनेन ।
आस्तां यतो मम शिरःकरदृष्टिपाद-
-स्पृष्टाः सुवर्णवपुषः स्थिरजङ्गमाः स्युः ॥ 92 ॥
आद्यादिविष्णोः
स्थिरधर्मपत्नी
त्वमेव पत्या मयि सन्निधेहि ।
आद्यादिलक्ष्मि त्वदनुग्रहेण
पदे पदे मे निधिदर्शनं स्यात् ॥ 93 ॥
आद्यादिलक्ष्मीहृदयं पठेद्यः
स राज्यलक्ष्मीमचलां तनोति ।
महादरिद्रोऽपि भवेद्धनाढ्य-
-स्तदन्वये श्रीः स्थिरतां प्रयाति ॥ 94 ॥
यस्य स्मरणमात्रेण तुष्टा
स्याद्विष्णुवल्लभा ।
तस्याभीष्टं ददत्याशु तं पालयति पुत्रवत् ॥ 95 ॥
इदं रहस्यं हृदयं
सर्वकामफलप्रदम् ।
जपः पञ्चसहस्रं तु पुरश्चरणमुच्यते ॥ 96 ॥
त्रिकालमेककालं वा नरो
भक्तिसमन्वितः ।
यः पठेच्छृणुयाद्वापि स याति परमां श्रियम् ॥ 97 ॥
महालक्ष्मीं समुद्दिश्य निशि
भार्गववासरे ।
इदं श्रीहृदयं जप्त्वा पञ्चवारं धनी भवेत् ॥ 98 ॥
अनेन हृदयेनान्नं गर्भिण्या
अभिमन्त्रितम् ।
ददाति तत्कुले पुत्रो जायते श्रीपतिः स्वयम् ॥ 99 ॥
नरेण वाऽथवा नार्या
लक्ष्मीहृदयमन्त्रिते ।
जले पीते च तद्वंशे मन्दभाग्यो न जायते ॥ 100 ॥
य आश्विने मासि च शुक्लपक्षे
रमोत्सवे सन्निहिते सुभक्त्या ।
पठेत्तथैकोत्तरवारवृद्ध्या
लभेत्स सौवर्णमयीं सुवृष्टिम् ॥ 101 ॥
य एकभक्तोऽन्वहमेकवर्षं
विशुद्धधीः सप्ततिवारजापी ।
स मन्दभाग्योऽपि रमाकटाक्षा-
-द्भवेत्सहस्राक्षशताधिकश्रीः ॥ 102 ॥
श्रीशाङ्घ्रिभक्तिं
हरिदासदास्यं
प्रसन्नमन्त्रार्थदृढैकनिष्ठाम् ।
गुरोः स्मृतिं निर्मलबोधबुद्धिं
प्रदेहि मातः परमं पदं श्रीः ॥ 103 ॥
पृथ्वीपतित्वं पुरुषोत्तमत्वं
विभूतिवासं विविधार्थसिद्धिम् ।
सम्पूर्णकीर्तिं बहुवर्षभोगं
प्रदेहि मे लक्ष्मि पुनः पुनस्त्वम् ॥ 104 ॥
वादार्थसिद्धिं बहुलोकवश्यं
वयः स्थिरत्वं ललनासुभोगम् ।
पौत्रादिलब्धिं सकलार्थसिद्धिं
प्रदेहि मे भार्गवि जन्मजन्मनि ॥ 105 ॥
सुवर्णवृद्धिं कुरु मे गृहे
श्रीः
सुधान्यवृद्धिं कुरू मे गृहे श्रीः ।
कल्याणवृद्धिं कुरु मे गृहे श्रीः
विभूतिवृद्धिं कुरु मे गृहे श्रीः ॥ 106 ॥
ध्यायेल्लक्ष्मीं
प्रहसितमुखीं कोटिबालार्कभासां
विद्युद्वर्णाम्बरवरधरां भूषणाढ्यां सुशोभाम् ।
बीजापूरं सरसिजयुगं बिभ्रतीं स्वर्णपात्रं
भर्त्रायुक्तां मुहुरभयदां मह्यमप्यच्युतश्रीः ॥ 107 ॥
गुह्यातिगुह्यगोप्त्री त्वं
गृहाणास्मत्कृतं जपम् ।
सिद्धिर्भवतु मे देवि त्वत्प्रसादान्मयि स्थिता ॥ 108 ॥
इति श्रीअथर्वणरहस्ये श्रीलक्ष्मीहृदयस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥
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