अग्नि पुराण तीन सौ बयालीसवाँ अध्याय Agni Purana 342 Chapter !
अग्नि पुराण तीन सौ बयालीसवाँ अध्याय - अभिनयादिनि रूपणम्
अग्निरुवाच
आभिमुख्यन्नयन्नर्थान्विज्ञेयोऽभिनयो बुधैः ।
चतुर्द्धा सम्भवः सत्त्वावागङ्गाहरणाश्रयः ।। १ ।।
स्तम्भादिः सात्त्विको वागारम्भो वाचिक आङ्गिकः ।
शरीरारम्भ आहार्य्यो बुद्ध्यारम्भप्रवृत्तयः ।। २ ।।
रसादिविनियोगोऽथ कथ्यते ह्यभिमानतः ।
तमन्तरेण सर्व्वेषामपार्थैव स्वतन्त्रता ।। ३ ।।
सम्भोगो विप्रलम्भश्च श्रृङ्गारः स चतुर्विधः ।
पूर्व्वानुरागमानाख्यः प्रवासकरुणात्मकः ।। ४ ।।
विप्रलम्भाभिदानो यः श्रृङ्गार उपचीयते ।
आलम्वनविशेषैश्च तद्विशेषैर्न्निरन्तरः ।। ५ ।।
एतेभ्योऽन्यतरं जायमानसम्भोगलक्षणम् ।
विवर्त्तते चतुर्द्धैव न च प्रागतिवर्त्तते ।। ६ ।।
स्त्रीपुंसयोस्तदुदयस्तस्य निर्विर्त्तिकारतिः ।
निखिलाः सात्त्विकास्तत्र वैवर्ण्यप्रलयौ विना ।। ७ ।।
धर्म्मार्थकाममोक्षैश्च श्रृङ्गार उपचीयते ।
आलम्वनविशेषैश्च तद्विशेषैर्न्निरन्तरः ।। ८ ।।
श्रृङ्गारं द्विविधं विद्याद्वाङ्नेपथ्यक्रियात्मकम् ।
हासश्चतुर्व्विधोऽलक्षयदन्तः स्मित इतीरितः ।। ९ ।।
किञ्चिल्लक्षितदन्ताग्रं हसितं फुल्ललोचनम् ।
विहसितं सस्वनं स्याज्जिह्मोपहसितन्तु तत् ।। १० ।।
सशब्दं पापहसितमशब्दमतिहासितं ।
यश्चासौ करुणो नाम स रसस्त्रिविधो भवेत् ।। ११ ।।
धर्म्मोपघातजश्चित्तविलासजनितस्तथा ।
शोकः शोकाद्भवेत् स्थायीकः क्रोधः स्वेदो रोमाञ्चवेपथुः ।। १२ ।।
अङ्कनेपथ्यवाक्यैश्च रौद्रोऽपि त्रिविधो रसः ।
तस्य निर्वर्त्तकः क्रोधः स्वेदो रोमाञ्चवेपथुः ।। १३ ।।
दानवीरो धर्मवीरो युद्धवीर इति त्रयम् ।
वीरस्तस्य च निष्पत्तिहेतुरुत्साह इष्यते ।। १४ ।।
आरम्भेषु भवेद्यत्र वीरमेवानुवर्त्तते ।
भयानको नाम रसस्तस्य निर्वर्तकं भयं ।। १५ ।।
उद्वेजनः क्षोभणश्य वीभत्सो द्विविधः स्मृतः ।
उद्वेजनः स्यात् प्लुत्याद्यैः क्षोभणो रुधिरादिभिः ।। १६ ।।
जुगुप्सारम्भिका तस्य सात्त्विकांशो निवर्त्तते ।
काव्यशोभाकरान् धर्म्मानलङ्कारान् प्रचक्ष्यते ।। १७ ।।
अलङ्करिष्णवस्ते च शब्दमर्थमुभौ त्रिधा ।
ये व्युत्पत्त्यादिना शब्दमलङ्कर्त्तुमिह क्षमाः ।। १८ ।।
शब्दालङ्कारमाहुस्तान् काव्यमीमांसका विदः ।
छाया मुद्रा तथोक्तिश्च युक्तिर्गुम्फनया सह ।। १९ ।।
वाकोवाक्यमनुप्रासश्चित्रं दुष्करमेव च ।
क्षेया नवालङ्कृतयः शब्दानामित्यसङ्करात् ।। २० ।।
तत्रान्योक्तेरनुकृतिश्छाया सापि चतुर्व्विधा ।
लोकच्छेकार्भकोक्तीनामेकोक्तेरनुकारतः ।। २१ ।।
आभाणकोक्तिर्लोकोक्तिः सर्व्वसामान्य एव ताः ।
यानुधावति लोकोक्तिश्छायामिच्छन्ति तां बुधाः ।। २२ ।।
छेका विदग्धा वैदग्धयं कलासु कुशला मतिः ।
तामुल्लिखन्ती छेकोक्तिश्छाया कविभिरिष्यते ।। २३ ।।
अव्युत्पन्नोक्तिरखिलैरर्भकोक्त्योपलक्ष्यते ।
तेनार्भकोक्तिश्छाया तन्मात्रोक्तिमनुकुर्व्यती ।। २४ ।।
विप्लुताक्षरमश्लीलं वचो मत्तस्य तादृशी ।
या सा भवति मत्तोक्तिश्छायोक्ताप्यतिशोभते ।। २५ ।।
अभिप्रायविशेषेण कविशक्तिं विवृण्वती ।
मुत्प्रदायिनीति सा मुद्रा सैव शय्यापि नो मते ।। २६ ।।
उक्तिः सा कथ्यते यस्वामर्थकोऽप्युपपत्तिमान् ।
लोकयात्रार्थविधिना धिनोति हृदयं सतां ।। २७ ।।
उभौ विधिनिषेधौ च नियमानियमावपि ।
पिकल्पपरिसङ्ख्ये च तदीयाः पड़थोक्तयः ।। २८ ।।
अयुक्तयोरिव मिथो वाच्यवाचकयोर्द्वयोः ।
योजनायै कल्प्यमाना युक्तिरुत्ता मनीषिभिः ।। २९ ।।
पदञ्चैव पदार्थश्च वाक्यार्थमेव च ।
विष्योऽस्याः प्रकारणं प्रपञ्चश्चेति षड्विधः ।। ३० ।।
गुम्फना रचनाचर्य्या शब्दार्थक्रमगोचरा ।
शब्दानुकारादर्थानुपूर्व्वार्थेयं क्रमात्त्रिधा ।। ३१ ।।
उक्तिपत्युक्तिमद्वाक्यं वाकोवाक्यं द्विधैव तत् ।
ऋजुवक्रोक्तिभेदेन तत्राद्यं सहजं वचः ।। ३२ ।।
सा पूर्व्वप्रश्निका प्रश्नपूर्विकेति द्विधा भवेत् ।
वक्रोक्तिम्तु भवेद्भङ्ग्या काकुस्तेन कृता द्विधा ।। ३३ ।।
इत्यादिमहापुराणे आग्नेये अलङ्कारे अभिनयादिनिरूपणं नाम द्विचत्वारिशदधिकत्रिशततमोऽध्यायः ।।
अग्नि पुराण तीन सौ बयालीसवाँ अध्याय हिन्दी मे -Agni Purana 342 Chapter In Hindi
तीन सौ बयालीसवाँ अध्याय अभिनय और अलंकारोंका निरूपण
अग्निदेव कहते हैं- वसिष्ठ। 'काव्य' अथवा 'नाटक' आदिमें वर्णित विषयोंको जो अभिमुख कर देता सामने ला देता, अर्थात् मूर्तरूपसे प्रत्यक्ष दिखा देता है, पात्रोंके उस कार्यकलापको विद्वान् पुरुष 'अभिनय' मानते या कहते हैं। वह चार प्रकारसे सम्भव होता है। उन चारों अभिनयोंके नाम इस प्रकार हैं- सात्त्विक, वाचिक, आङ्गिक और आहार्य। स्तम्भ, स्वेद आदि 'सात्त्विक अभिनय' हैं; वाणीसे जिसका आरम्भ होता है, वह 'वाचिक अभिनय' है; शरीरसे आरम्भ किये जानेवाले अभिनयको 'आङ्गिक' कहते हैं तथा जिसका आरम्भ बुद्धिसे किया जाता है, वह 'आहार्य अभिनय' कहा गया है॥ १-२॥
रसादिका आधान अभिमानकी सत्तासे होता है। उसके बिना सबकी स्वतन्त्रता व्यर्थ ही है। 'सम्भोग' और 'विप्रलम्भ 'के भेदसे शृङ्गार दो प्रकारका माना जाता है। उनके भी 'प्रच्छन्न' एवं 'प्रकाश' दो भेद होते हैं। विप्रलम्भ शृङ्गारके चार भेद माने जाते हैं- पूर्वानुराग, मान, प्रवास एवं करुणात्मक ॥ ३-५॥
इन पूर्वानुरागादिसे 'सम्भोग' शृङ्गारकी उत्पत्ति होती है। वह भी चार भागोंमें विभाजित होता है एवं पूर्वका अतिक्रमण नहीं करता। यह स्त्री और पुरुषका आश्रय लेकर स्थित होता है। उस शृङ्गारकी साधिका अथवा अभिव्यञ्जिका 'रति' मानी गयी है। उसमें वैवर्ण्य और प्रलयके सिवा अन्य सभी सात्त्विक भावोंका उदय होता है। धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष- इन चारों पुरुषार्थोसे,आलम्बन-विशेषसे तथा आलम्बन विशेषके वैशेषिकसे शृङ्गाररस निरन्तर उपचय (वृद्धि) को प्राप्त होता है। 'अभिनेय' शृङ्गारके दो भेद और जानने चाहिये- 'वचनक्रियात्मक' तथा 'नेपध्यक्रियात्मक' ॥ ६-८३॥
हास्यरस स्थायीभाव-हासके छः भेद माने गये हैं-स्मित, हसित, विहसित, उपहसित, अपहसित और अतिहसित। जिसमें मुस्कुराहटमात्र हो, दाँत न दिखायी दें ऐसी हँसीको 'स्मित' कहते हैं। जिसमें दन्ताग्र कुछ दीख पड़ें और नेत्र प्रफुल्लित हो उठें, वह 'हसित' कहा जाता है। यह उत्तम पुरुषोंकी हँसी है। ध्वनियुक्त हासको 'विहसित' तथा कुटिलतापूर्ण दृष्टिसे देखकर किये गये अट्टहासको 'उपहसित' कहते हैं। यह मध्यम पुरुषोंकी हँसी है। बेमौके जोर-जोरसे हँसना (और नेत्रोंसे आँसूतक निकल आना) यह 'अपहसित' है और बड़े जोरसे ठहाका मारकर हँसना 'अतिहसित' कहा गया है'। (यह अधम जनोंकी हँसी है) ॥९-१० ॥
जो 'करुण' नामसे प्रसिद्ध रस है, वह तीन प्रकारका होता है। 'करुण' नामसे प्रसिद्ध जो रस है, उसका स्थायी भाव 'शोक' है। वह तीन हेतुओंसे प्रकट होनेके कारण 'त्रिविध' माना गया है-१-धर्मोपघातजनित, २-चित्तविलासजनित और ३-शोकदायकघटनाजनित। (प्रश्न) शोकजनित शोकमें कौन स्थायी भाव है? (उत्तर) जो पूर्ववर्ती शोकसे उद्भुत हुआ है, वह ॥ ११-१२॥
अङ्गकर्म, नेपथ्यकर्म और वाक्कर्म-इनके द्वारा रौद्ररसके भी तीन भेद होते हैं। उसका स्थायी भाव 'क्रोध' है। इसमें स्वेद, रोमाञ्च और वेपथु आदि सात्विक भार्वोका उदय होता है ॥ १३॥
दानवीर, धर्मवीर एवं युद्धवीर ये तीन 'वीररसके' भेद हैं। वीररसका निष्मादक हेतु 'उत्साह' माना गया है। जहाँ प्रारम्भमें वीरका ही अनुसरण किया जाता है, परंतु जो आगे चलकर भयका उत्पादक होता है, वहा 'भयानक रस' है। उसका निष्पादक 'भय' नामक स्थायी भाव है। बीभत्सरसके 'उद्वेजन' और 'क्षोभण'- दो भेद माने गये हैं। पूति (दुर्गन्ध) आदिसे 'उद्वेजन' तथा रुधिरक्षरण आदिसे 'क्षोभण' होता है। 'जुगुप्सा' इसका स्थायी भाव है और सात्त्विक भावका इसमें अभाव होता है ॥ १४-१६ ॥
काव्य-सौन्दर्यकी अभिवृद्धि करनेवाले धर्मोको 'अलंकार' कहते हैं। वे शब्द, अर्थ एवं शब्दार्थ इन तीनोंको अलंकृत करनेसे तीन प्रकारके होते हैं। जो अलंकार काव्यमें व्युत्पत्ति आदिसे शब्दोंको अलंकृत करनेमें सक्षम होते हैं, काव्यशास्त्रकी मीमांसा करनेवाले विद्वान् उनको 'शब्दालंकार' कहते हैं। छाया, मुद्रा, उक्ति, युक्ति, गुम्फना, वाकोवाक्य, अनुप्रास, चित्त और दुष्कर- ये संकरको छोड़कर शब्दालंकारके नौ भेद हैं। दूसरोंकी उक्तिके अनुकरणको 'छाया' कहते हैं। इस छायाके भी चार भेद जानने चाहिये। लोकोक्ति, छेकोक्ति, अर्भकोक्ति एवं मत्तोक्तिका अनुकरण। आभाणक (कहावत) को 'लोकोक्ति' कहते हैं। ये उक्तियाँ सर्वसाधारणमें प्रचलित होती हैं। जो रचना लोकोक्तिका अनुसरण करती है, विद्वज्जन उसको 'लोकोक्ति छाया' कहते हैं। विदग्ध (नागरिक) को 'छेक' कहा जाता है। कलाकुशल बुद्धिको 'वैदग्ध्य' कहते हैं। उल्लेख करनेवाली रचनाको कविजन 'छेकोक्ति-छाया' मानते हैं। 'अर्भकोक्ति' सब विद्वानोंकी दृष्टिसे अव्युत्पन्न (मूढ़) पुरुषोंकी उक्तिका उपलक्षण मात्र है, अतः केवल उन मूढ़ोंकी उक्तिका अनुकरण करनेवाली रचना 'अर्भकोक्तिछाया' कही जाती है। मत्त (पागल) की जो वर्णक्रमहीन अश्लीलतापूर्ण उक्ति होती है, उसको 'मत्तोक्ति' कहते हैं। उसका अनुकरण करनेवाली रचना 'मत्तोक्ति- छाया' मानी गयी है। यह यथावसर वर्णित होनेपर अत्यन्त सुशोभित होती है॥ १७-२५॥
जो विशेष अभिप्रायोंके द्वारा कवित्वशक्तिको प्रकाशित करती हुई सहृदयोंको प्रमोद प्रदान करती है, वह 'मुद्रा' कही जाती है। हमारे मतसे वही 'शय्या' भी कही जाती है। जिसमें युक्तियुक्त अर्थविशेषका कथन हो तथा जो लोकप्रचलनके प्रयोजनकी विधिसे सामाजिकके हृदयको संतर्पित करे, उसको 'उक्ति' कहते हैं। उक्तिके अवान्तर भेदोंमें विधि-निषेध, नियम-अनियम तथा विकल्प- परिसंख्यासे सम्बद्ध छः प्रकारकी उक्तियाँ होती हैं। परस्पर पृथग्भूतके समान स्थित वाच्य और वाचक-दोनोंकी योजनाके लिये जो समर्थ हो, मनीषीजन उसे 'उक्ति' कहते हैं। युक्तिके विषय छः हैं-पद, पदार्थ, वाक्य, वाक्यार्थ, प्रकरण और प्रपञ्छ। 'गुम्फना' कहते हैं- रचनाचर्याको। वह 'शब्दार्थक्रमगोचरा', 'शब्दानुकारा' तथा 'अर्थानु पूर्वार्धा' - इन तीन भेदोंसे युक्त है॥ २६-३१॥
जिस वाक्यमें 'उक्ति' और 'प्रत्युक्ति' (प्रश्न और उत्तर) दोनों हों, उसे 'वाकोवाक्य' कहते हैं। उसके भी दो भेद हैं- 'ऋजूक्ति' और 'वक्रोक्ति'। इनमें पहली जो 'ऋजूक्ति' है, वह स्वाभाविक कथनरूपा है। ऋजूक्तिके भी दो भेद हैं- 'अप्रश्नपूर्विका' और 'प्रश्नपूर्विका'। वक्रोक्तिके भी दो भेद हैं- 'भङ्ग वक्रोक्ति' और 'काकु- वक्रोक्ति' ॥ ३२-३३॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें 'अभिनय और अलंकारोंका निरूपण' नामक तीन सौ बयालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥ ३४२॥
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