अग्नि पुराण तीन सौ इकतालीसवाँ अध्याय ! Agni Purana 341 Chapter !

अग्नि पुराण तीन सौ इकतालीसवाँअध्याय Agni Purana 341 Chapter

अग्नि पुराण तीन सौ इकतालीसवाँ अध्याय - नृत्यादावङ्गकर्म्मनिरूपणम्

अग्निरुवाच

चेष्टाविशेषमप्यङ्गप्रत्यङ्गे कर्म्म चानयोः ।
शरीरारम्भमिच्छन्ति प्रायः पूर्व्वोऽवलाश्रयः ।। १ ।।

लीला विलासो विच्छित्तिर्विभ्रमं किलकिञ्चितं ।
मोट्टायितं कुट्टमितं विव्वोको ललितन्तथा ।। २ ।।

विकृतं क्रीड़ितं केलिरिति द्वादशधैव सः ।
लीलेष्टजनचेष्टानुकरणं संवृतक्षये ।। ३ ।।

विशेषान् दर्शयन् किञ्चिद्विलासः सद्भिरिष्यते ।
हसितक्रन्दितादीनां सङ्करः किलकिञ्चितं ।। ४ ।।

विकारः कोपि विव्वोको ललितं सौकुमार्य्यतः ।
शिरः पाणिरुपः पार्श्वङ्गटिरङ्‌घ्रिरिति क्रमात् ।। ५ ।।

अङ्गनि भ्रूलतादीनि प्रत्यङ्गान्यभिजानते ।
अड्गप्रत्यङ्गयोः कर्म्म प्रयलजनितं विना ।। ६ ।।

न प्रयोगः क्कचिन्मुख्यन्तिरश्चीनञ्च तत् क्कचिच् ।
आकम्पितं कम्पितञ्च१ धूतं विधूतमेव च ।। ७ ।।

परिवाहिनमाधूतमवधूतमथाचितं ।
निकुञ्चितं परवृत्तमुत्‌क्षिप्तञ्चाप्यधोगतम् ।। ८ ।।

ललितञ्चेति विज्ञेयं त्रयोदशविधं शिरः ।
भ्रूकर्म्म सप्तधा ज्ञेयं पातनं भ्रूकुटीमुखं ।। ९ ।।

दृष्टिस्त्रिधा रसस्थायिसञ्चारिप्रतिबन्धना ।
षट्‌त्रिंशद्‌भेदविधुरा रसजा तत्र चाष्टधा ।। १० ।।

नवधा तारकाकर्म्म भ्रमणञ्चलनादिकं ।
षोढ़ा च नासिका ज्ञेया निश्वासो नवदा मतः ।। ११ ।।

षोढौष्ठकर्म्मकं पापं सप्तधा चिवुकक्रिया ।
कलुषादिमुखं षोढ़ा ग्रीवा नवविधा स्मृता ।। १२ ।।

असंयुतः संयुतश्च भूम्ना हस्तः प्रमुच्यते ।
पताकस्त्रिपताकश्च तथा वै कर्त्तरीमुखः ।। १३ ।।

अर्द्धचन्द्रोत्करालश्च शुक्तुण्डस्तथैव च ।
मुष्टिश्च शिखरश्चैव कपित्थः खेटकामुखः ।। १४ ।।

सूच्यास्यः पद्मकोषो हि शिराः समृगशीर्षकाः ।
कांमूलकालपद्मौ च चतुरभ्रमरौ तथा ।। १५ ।।

हंसास्यहंसपक्षौ च सन्दंशमुकुलौ तथा ।
उर्णनाभस्तात्रचूडश्चतुर्विंशतिरित्यमी ।। १६ ।।

असंयुतकराः प्रोक्ताः संयुतास्तु त्रयोदश ।
अञ्जलिश्च कपोतश्च कर्कटः स्वस्तिकस्तथा ।। १७ ।।

कटको वर्द्धमानश्चाप्यसङ्गो निषधस्तथा ।
दोलः पुष्पपुटश्चैव तथा मकर एव च ।। १८ ।।

गजदन्तो वहिस्तम्भो वर्द्धमानोऽपरे कराः ।
उरः पञ्चविधं स्यात्तु आभुग्ननर्त्तनादिकम् ।। १९ ।।

उदरन्दुरतिक्षामं खण्डं पूर्णमिति त्रिधा ।
पार्श्वयोः पञ्चकर्म्माणि जङ्घाकर्म च पञ्चवा ।। २० ।।

अनेकधा पादकर्म्म नृत्यादौ नाटके स्मृतम् ।।

इत्यादिमहापुराणे आग्नेये नृत्यादावङ्गकर्म्मनिरूपणं नामएकचत्वारिंशदधिकत्रिशततमोऽध्यायः ।।

अग्नि पुराण तीन सौ इकतालीसवाँ अध्याय हिन्दी मे - Agni Purana 341 Chapter In Hindi

तीन सौ इकतालीसवाँ अध्याय नृत्य आदि में उपयोगी आङ्गिक कर्म

अग्निदेव कहते हैं- वसिष्ठ! अब मैं 'अभिनय' में नृत्य आदिके समय शरीरसे होनेवाली विशेष चेष्टाको तथा अङ्ग प्रत्यङ्गके कर्मको बताता हूँ। इसे विद्वान् पुरुष 'आङ्गिक कर्म' मानते हैं। यह सब कुछ प्रायः अबलाजनोंके आश्रित होनेपर 'विच्छित्ति' विशेषका पोषक होता है। लीला, विलास, विच्छित्ति, विभ्रम, किलकिञ्चित, मोट्टायित, कुट्टमित, बिब्बोक, ललित, विह्नत, क्रीडित तथा केलि ये नायिकाओंके यौवनकालमें सहजभावसे प्रकट होनेवाले बारह अलंकार हैं। आवरणसे आवृत स्थानमें प्रियजनोंकी चेष्टाके अनुकरणको 'लीला' कहते हैं। प्रियजनके दर्शन आदिसे जो मुख और नेत्र आदिकी चेष्टाओंमें कुछ विशेष चमत्कार लक्षित होता है, उसको सहृदयजन 'विलास' कहते हैं। हर्षसे होनेवाले हास और शुष्क रुदन आदिके मिश्रणको 'किलकिञ्चित' माना गया है। चित्तके किसी गर्वयुक्त विकारको 'बिब्बोक' कहते हैं। (इस भावके उदय होनेपर अभीष्ट वस्तुमें भी अनादर प्रकट किया जाता है।) सौकुमार्य्यजनित चेष्टा-विशेषको 'ललित' कहते हैं। सिर, हाथ, वक्षःस्थल, पार्श्वभाग- ये क्रमशः अङ्ग हैं। भूलता (भौंह) आदिको प्रत्यङ्ग या 'उपाङ्ग' जाना जाता है। 

अङ्ग प्रत्यङ्गकि प्रयत्नजनित कर्म (चेष्टाविशेष) के बिना नृत्य आदिका प्रयोग सफल नहीं होता। वह कहीं मुख्यरूपसे और कहीं वक्ररूपसे साधित होता है। आकम्पित, कम्पित, धुत, विद्युत, परिवाहित, आधूत, अवधूत, अश्चित, निहञ्चित, परावृत, उत्क्षिप्त, अधोगत एवं लोलित- ये तेरह प्रकारके शिरः कर्म जानने चाहिये। भ्रूकर्म सात' प्रकारका होता है। भूसंचालनके कर्मोंमें पातन आदि कर्म मुख्य हैं। रस, स्थायी भाव एवं संचारी भावके सम्बन्धसे दृष्टि'का 'अभिनय' तीन प्रकारका होता है। उसके भी छत्तीस भेद होते हैं जिनमें दस भेद रससे प्रादुर्भूत होते हैं। कनीनिकाका कर्म भ्रमण एवं चलनादिके भेदसे नौ प्रकारका माना गया है। मुखके छः तथा नासिकाकर्मके छः एवं निःश्वासके नौ भेद माने जाते हैं। ओष्ठकर्मके छः, पादकर्मके छः चिबुक क्रियाके सात एवं ग्रीवाकर्मके नौ भेद बताये गये हैं। हस्तका अभिनय प्रायः 'असंयुत' तथा 'संयुत' दो प्रकारका होता है। पताक, त्रिपताक, कर्तरीमुख, अर्द्धचन्द्र, उत्कराल, शुकतुण्ड, मुष्टि, शिखर, कपित्थ, कटकामुख, सूच्यास्य, पद्मकोष, अतिशिरा, मृगशीर्षक, कामूल, कालपद्म, चतुर, भ्रमर, हंसास्य, हंसपक्ष, संदेश, मुकुल, ऊर्णनाभ एवं ताम्रचूड' असंयुत हस्त 'के ये चौबीस भेद कहे गये हैंः ॥१-१६ ॥ 

'संयुत हस्त' के तेरह भेद माने जाते हैं- अञ्जलि, कपोत, कर्कट, स्वस्तिक, कटक, वर्धमान, असङ्ग, निषध, दोल, पुष्पपुट, मकर, गजदन्त एवं बहिः स्तम्भ। संयुत करके परिवर्द्धनसे इसके अन्य भेद भी होते हैं ॥ १७-१८ ॥

वक्षःस्थलका अभिनय आभुग्ननर्तन आदि भेदोंसे पाँच प्रकारका होता है। उदरकर्म अनतिक्षाम, खल्व तथा पूर्ण- तीन प्रकारके होते हैं। पार्श्वभागोंके पाँच' कर्म तथा जङ्घाके भी पाँच ही कर्म होते हैं। नाट्य-नृत्य आदिमें पादकर्मके अनेक भेद होते हैं ॥ १९-२१ ॥

इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में 'नृत्य आदिमें उपयोगी विभिन्न अङ्गोंकी क्रियाओंका निरूपण'नामक तीन सौ इकतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३४१ ॥

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