अग्नि पुराणतीन सौ चालीसवाँ अध्याय ! Agni Purana 340 Chapter !

अग्नि पुराणतीन सौ चालीसवाँ अध्याय ! Agni Purana 340 Chapter !

अग्नि पुराणतीन सौ चालीसवाँ अध्याय - रीतिनिरूपणम्

अग्निरुवाच

वाग्विद्यासम्प्रतिज्ञने रीतिः सापि चतुर्विधा ।
पाञ्चली गौड़देशीया वैदर्भी लाटजा तथा ।। १ ।।

उपचारयुता मृद्वी पाञ्चाली ह्रस्वविग्रहा ।
अनवस्थितसन्दर्भा गौडीया दीर्घविग्रहा ।। २ ।।

उपचारैर्न्न बहुभिरुपचारैर्विवर्ज्जिता ।
नातिकोमलसन्दर्भा वैदर्भी मुक्तविंग्रहा ।। ३ ।।

लाजीया स्फुजसन्दर्भा नातिविस्फुरविग्राहा ।
परित्यक्तापि भूयोभिरुपचारैरुदाहृता ।। ४ ।।

क्रियास्वविषमा वृत्तिर्भारत्यारभटी तथा ।
कौशिकी सात्वती चैति सा चतुर्द्धा प्रतिष्ठिता ।। ५ ।।

वाक्‌प्रधाना नरप्राया स्त्रीयुक्ता प्राकृतोक्तिता ।
भरतेन प्रणीतत्वात् भारती रीतिरुच्यते ।। ६ ।।

चत्वार्य्यङ्गानि भारत्या वीथी प्रहसनन्तथा ।
प्रस्तावना नाटकादेर्व्वीथ्यङ्गाश्च त्रयोदश ।। ७ ।।

उद्‌घातकं तथैव स्याल्लपितं स्याद्‌द्वितीयकम् ।
असत्प्रलापो वाक्‌श्रेणी नांनिका विपणन्तथा ।। ८ ।।

व्याहारस्रिमतञ्चैव छलावस्कन्दिते तथा ।
गण्डोऽथ मृदवश्चैव त्रयोदशमथाचितम् ।। ९ ।।

तापसादेः प्रहसनं परिहासपरं वचः ।
मायेन्द्रजालयुद्धादिबहुलारभटी स्मृता ।। १० ।।

सङ्‌क्षिप्तकारपातौ च वस्तूत्थापनमेव च ।। ११ ।।

इत्यादिमहापुराणे आग्नेये रीतिनिरूपणं नाम चत्वारिंशदधिकत्रिशततमोऽध्यायः ।।

अग्नि पुराण - तीन सौ चालीसवाँ  अध्याय ! हिन्दी मे -Agni Purana 340 Chapter!-In Hindi

तीन सौ चालीसवाँ अध्याय रीति-निरूपण

अग्निदेव कहते हैं- वसिष्ठ! अब मैं 'वाग्विद्या' (काव्यशास्त्र) के सम्यक् परिज्ञानके लिये 'रीति'का वर्णन करता हूँ। उसके भी चार भेद होते हैं-पाञ्चाली, गौडी, वैदर्भी तथा लाटी। इनमें 'पाञ्चाली रीति' उपचारयुक्त, कोमल एवं लघु-समासोंसे समन्वित होती है। 'गौडी रीति में संदर्भकी अधिकता और लंबे-लंबे समासोंकी बहुलता होती है। वह अधिक उपचारोंसे युक्त नहीं होती। 'वैदर्भी रीति' उपचाररहित, सामान्यतः कोमल संदर्भोसे युक्त एवं समासवर्जित होती है। 'लाटी रीति' संदर्भकी स्पष्टतासे युक्त होती है, किंतु उसमें समास अत्यन्त स्पष्ट नहीं होते। वह यद्यपि अनेक विद्वानोंद्वारा परित्यक्त है, तथापि अतिबहुल उपचारयुक्त लाटी रीतिकी रचना उपलब्ध होती है ॥ १-४॥ 

(अब वृत्तियोंका वर्णन किया जाता है) जो क्रियाओंमें विषमताको प्राप्त नहीं होती, वह वाक्यरचना 'वृत्ति' कही गयी है। उसके चार भेद हैं- भारती, आरभटी, कैशिकी एवं सात्वती । 'भारती वृत्ति' वाचिक अभिनयकी प्रधानतासे युक्त होती है। यह प्रायः (नट) पुरुषके आश्रित होती है, किंतु कभी-कभी स्त्री (नटी) के आश्रित होनेपर यह प्राकृत उक्तियोंसे संयुक्त होती है। भरतके द्वारा प्रयुक्त होनेके कारण इसे 'भारती' कहा जाता है। भारतीके चार अङ्ग माने गये हैं- वीथी, प्रहसन, आमुख एवं नाटकादिकी प्ररोचना। वीथीके तेरह अङ्ग होते हैं- उद्धातक, लपित, असत्प्रलाप, वाक्श्रेणी, नालिका, विपण, व्याहार, त्रिगत, छल, अवस्यन्दित, गण्ड, मृदव एवं उचित। तापस आदिके परिहासयुक्त वचनको 'प्रहसन' कहते हैं। 'आरभटी वृत्ति 'में माया, इन्द्रजाल और युद्ध आदिकी बहुलता मानी गयी है। आरभटी वृत्तिके भेद निम्नलिखित हैं- संक्षिप्तकार, पात तथा वस्तूत्थापन ॥ ५-११॥

इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें 'रीतिनिरूपण' नामक तीन सौ चालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३४०॥

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