अग्नि पुराण तीन सौ उनतालीसवाँ अध्याय Agni Purana 339 Chapter
अग्नि पुराण तीन सौ उनतालीसवाँ अध्याय - शृङ्गारादिरसनिरूपणम्
अग्निरुवाच
अक्षरं परमं ब्र्ह्म सनातनमजं विभुं ।
वेदान्तेषु वदन्त्येकं चैतन्यं ज्योतिरीश्वरम् ।। १ ।।
आनन्दः सहजस्तस्य व्यज्यते स कदाचन ।
व्यक्तिः सा तस्य चैतन्यचमत्काररसाह्वया ।। २ ।।
आद्यस्तस्य विकारो यः सोऽहङ्कार इति स्मृतः ।
ततोऽभिमानस्तत्रेदं समाप्तं भुवनत्रयं ।। ३ ।।
अभिमानाद्रतिः सा च परिपोषमुपेयुषी ।
व्यभिचार्य्यादिसामान्यात् श्रृङ्गार इति गीयते ।। ४ ।।
तद्भेदाः काममितरे हास्याद्या अप्यनेकशः ।
स्वस्वस्थादिविशेषोत्थपरिघोषस्वलक्षणाः ।। ५ ।।
सत्त्वादिगुणसन्तानाज्जायन्ते परमात्मनः ।
रागाद्बवति श्रृङ्गारो रौद्रस्तैक्षणात् प्रजायते ।। ६ ।।
वीरोऽवष्टम्भजः सङ्कोचभूर्व्वीभत्स इष्यते ।
श्रृङ्गारहास्यकरुणा रौद्रवीरभयानकाः ।। ७ ।।
वीराच्चाद्भुतनिष्पत्तिः स्याद्वीभत्साद्भयानकः ।
श्रृङ्गारहास्यकरुणा रौद्रवीरभयानकाः ।। ८ ।।
वीभत्साद्भुतशान्ताख्याः स्वभावाच्चतुरो रसाः ।
लक्ष्मीरिव विना त्यागान्न वाणी भाति नीरसा ।। ९ ।।
अपारे काव्यसंसारे कविरेव प्रजापतिः ।
यथा वै रोचते विश्वं तथेवं परिवर्त्तते ।। १० ।।
अपारे काव्यसंसारे कविरेव प्रजापतिः ।
यथा वै रोचते विश्वं तथेदं परिवर्त्तते ।। ११ ।।
न भावहीनोऽस्ति रसो न भावो रसवर्ज्जितः ।
भावयन्ति रसानेभिर्भाव्यन्ते च रसा इति ।। १२ ।।
स्थायितनोऽष्टौ रतिमुखाः स्तम्भाद्या व्यभिचारिणः ।
मनोऽनुकूलेऽनुभवः सुखस्य रतिरिष्य्ते ।। १३ ।।
हर्वादिभिश्च मनसो विकाशो हास उच्यते ।
चित्रादिदर्शनाच्चेतोवैक्लव्यं ब्रुवते भयम् ।। १४ ।।
जुगुप्सा च पदार्थानां निन्दा दौर्भाग्यवाहिनां ।
विस्मयोऽतिशयेनार्थदर्शनाच्चित्तविस्तृतिः ।। १५ ।।
अष्टौ स्तम्भादयः सत्त्वाद्रजसस्तमसः परम् ।
स्तम्भश्चेष्टाप्रतीघातो भयरागाद्युपाहितः ।। १६ ।।
श्रमरागाद्युपेतान्तःक्षोभजन्म वपुर्ज्जलं ।
स्वेदो हर्षादिभिर्द्देहोच्छासाऽन्तःपुलकोद्गमः ।। १७ ।।
हर्षादिजन्मवाक्सङ्गः स्वरभेदो भयादिभिः ।
मनोवैक्लव्यमिच्छन्ति शोकमिष्टक्षयादिभिः ।। १८ ।।
क्रोधस्तैक्ष्णप्रबोधश्च प्रतिकू लानुकारिणि ।
पुरुषार्थसमाप्त्यार्थो यः स उत्साह उच्यते ।। १९ ।।
चित्तक्षोभभवोत्तम्भो वेपथुः परिकीर्त्तितः ।
वैवर्ण्यञ्च विचषादादिजन्मा कान्तिविपर्य्ययः ।। २० ।।
दुःखानन्दादिजन्नेत्रजलमश्रु च विश्रुतम् ।
इन्द्रियाणामस्तमयः प्रलयो लङ्घनादिभिः ।। २१ ।।
वैराग्यादिर्म्मनः खेदो निर्वेद इति कथ्यते ।
मनः पीड़दिजन्मा च सादो ग्लानिः शरीरगा ।। २२ ।।
शङ्कानिष्टागमोत्प्रेक्षा स्यादसूया च मत्सरः ।
मदिराद्युपयोगोत्थं मनः संमोहनं मदः ।। २३ ।।
क्रियातिशयजन्मान्तःशरीरोत्थक्लमः श्रमः ।
श्रृङ्गारादिक्रियाद्वेषश्चित्तस्यालस्यमुच्यते ।। २४ ।।
दैन्यं सत्त्वादपभ्रंशश्चिन्तार्थपरिभावनं ।
इतिकर्त्तव्यतोपायादर्शनं मोह उच्यते ।। २५ ।।
स्मृतिः स्यादनुभूतस्य वस्तुनः प्रतिविम्बनं ।
मतिरर्थपरिच्छेदस्तत्त्वज्ञानोपनायितः ।। २६ ।।
व्रीडानुरागादिभवः सङ्कोचः कोपि चेतसः ।
भवेच्चपलताऽस्थैर्यं हर्षश्चित्तप्रसन्नता ।। २७ ।।
आवेशश्च प्रतीकारः शयो वैधुर्य्यमात्मनः ।
कर्त्तव्ये प्रतिभाभ्रंशो जड़तेत्यभिधीयते ।। २८ ।।
इष्टप्राप्तेरुपचितः सम्पदाभ्युदयो धृतिः ।
गर्व्वः परेष्ववज्ञानमात्मन्युत्कर्षभावाना ।। २९ ।।
भवेद्विषादो दैवादेर्विघातोऽभीष्टवस्तुनि ।
औस्सुक्यमीष्सिताप्राप्तेर्वाञ्छया तरला स्थितिः ।। ३० ।।
चित्तेन्द्रियाणां स्तैमित्यमपस्मारोऽचला स्थितिः ।
युद्धे बाधादिभीस्त्रासो वीप्सा चित्तचमत्कृतिः ।। ३१ ।।
क्रोधस्याप्रशमोऽमर्षः प्रबोधश्तेचनोदयः ।
अवहित्थं भवेद्गुप्तिरिङ्गिताकारगोचरा ।। ३२ ।।
रोषतो गुरुवाग्दण्डपारुष्यं विदुरुग्रतां ।
ऊहो वितर्कः स्याद्व्याधिर्मनोवपुरवग्रहः ।। ३३ ।।
अनिबद्धप्रलापादिरुन्मादो मदनादिभिः ।
तत्वज्ञानादिना चेतःकषायोपरमः शमः ।। ३४ ।।
कविभिर्योजनीया वै भावाः काव्यादिके रसाः ।
विभाव्यते हि रत्यादिर्यत्र येन विभाव्यते ।। ३५ ।।
विभावो नाम स द्वेधालम्बनोद्दीपनात्मकः ।
रत्यादिभाववर्गोऽयं यमाजीव्योपजायते ।। ३६ ।।
आलम्बनविभावोऽसौ नायकादिभवस्तथा ।
धीरोदात्तो धीरोद्धतः स्याद्धीरललितस्तथा ।। ३७ ।।
धीरप्रशान्त इत्येवं चतुर्द्धा नायकः स्मृतः ।
अनुकूलो दक्षइणश्च शठो धृष्टः प्रवर्त्तितः ।। ३८ ।।
पीठमर्द्दो विटश्चैव विदूषक इति त्रयः ।
श्रृड्गारे नर्म्मसचिवा नायकस्यानुनायका ।। ३९ ।।
पीठमर्द्दः सम्बलकः श्रीमांस्तद्वेशजो विटः ।
विदूषको वैहसिकस्त्वष्टनायकनायिकाः ।। ४० ।।
स्वकीया परकीया च पुनर्भूरिति कौशिकाः ।
सामान्या न पुनर्भूरिरित्याद्या बहुभेदतः ।। ४१ ।।
उद्दीपनविभावास्ते संस्कारैर्विविधैः स्थितैः ।
आलम्बनविभावेषु भावानुद्दीपयन्ति ये ।। ४२ ।।
चतुःषष्टिकला द्वेधा कर्म्माद्यैर्गीतिकादिभिः ।
कुहकं स्मृतिरप्येषां प्रायो हासोपहारकः ।। ४३ ।।
आलम्बनविभावस्य भावैरुद्वुद्धसंस्कृतैः ।
मनोवाग्बुद्धिवपुषां स्मृतीच्छाद्वेषयत्नत ।। ४४ ।।
आरम्भ एव विदुषामनुभाव इति स्मृतः ।
स चानुभूयते चात्र भवत्युत निरुच्यते ।। ४५ ।।
मनोव्यापारभूयिष्ठो मन आरम्भ उच्यते ।
द्विविधः पौरुषस्त्रैण ईट्टशोऽपि प्रसिध्यति ।। ४६ ।।
शोभा विलासो माधुर्य्यं स्थैर्य्यं गाम्भीर्य्यमेव च ।
ललितञ्च तथौदार्य्यन्तेजोऽष्टाविति पौरुषाः ।। ४७ ।।
नीचनिन्दोत्तमस्पर्द्धा शौर्य्यं दाक्षादिकारणं ।
मनोधर्म्मे भवेच्छोभा शोभते भवनं यथा ।। ४८ ।।
भावो हावश्च हेला च शोभा कान्तिस्तथैव च ।
दीप्तिर्म्माधुर्य्यशौर्य्ये च प्रागलूभ्यं स्यादुदारता ।। ४९ ।।
स्थैर्य्यं गम्भीरता स्त्रीणां विभावा द्वादशेरिताः ।
भावो विलासो हावः स्याद्भावः किञ्चिच्च हर्षजः ।। ५० ।।
वाचो युक्तिर्भवेद्वागारम्भो द्वादश एव सः ।
तत्राभाषणमालापः प्रलापो वचनं वहु१ ।। ५१ ।।
विलापो दुःखवचनमनुलापोऽसकृद्वचः ।
संलाप उक्तप्रत्युक्तमपलापोऽन्यथावचः ।। ५२ ।।
वार्त्ताप्रयाणं सन्देशो निर्देशः प्रतिपादनम् ।
तत्त्वदेशोऽतिदेशोऽयमपदेशोऽन्यवर्णनम् ।। ५३ ।।
उपदेशश्च शिक्षावाक् व्याजोक्तिर्व्यपदेशकः ।
वोधाय एष व्यापारः सुबुद्ध्यारम्भ इष्यते ।। ५४ ।।
तस्य भेदास्त्रयस्ते च रीतिवृत्तिप्रवृत्तयः ।। ५५ ।।
इत्यादिमहापुराणे आग्नेये श्रृङ्गारादिरसनिरूपणं नामोनचत्वारिंशदधिकत्रिशततमोऽध्यायः ।।
अग्नि पुराण तीन सौ उनतालीसवाँ अध्याय ! हिन्दी मे Agni Purana 339 Chapter In Hindi
तीन सौ उनतालीसवाँ अध्याय - शृङ्गारादि रस, भाव तथा नायक आदिका निरूपण
अग्निदेव कहते हैं- वसिष्ठ! वेदान्तशास्त्रमें जिस अक्षर (अविनाशी), सनातन, अजन्मा और व्यापक परब्रह्म परमेश्वरको अद्वितीय, चैतन्यस्वरूप और ज्योतिर्मय कहते हैं, उसका सहज (स्वरूपभूत) आनन्द कभी-कभी व्यञ्जित होता है, उस आनन्दकी अभिव्यक्तिका ही 'चैतन्य', 'चमत्कार' और 'रस 'के नामसे वर्णन किया जाता है। आनन्दका जो प्रथम विकार है, उसे 'अहंकार' कहा गया है। अहंकारसे 'अभिमान'का प्रादुर्भाव हुआ। इस अभिमानमें ही तीनों लोकोंकी समाप्ति हुई है ॥ १-३॥ अभिमानसे रतिकी उत्पत्ति हुई और वह व्यभिचारी आदि भाव-सामान्यके सहकारसे पुष्ट होकर 'शृङ्गार 'के नामसे गायी जाती है। शृङ्गारके इच्छानुसार हास्य आदि अनेक दूसरे भेद प्रकट हुए हैं। उनके अपने-अपने विशेष स्थायी भाव होते हैं, जिनका परिपोष (अभिव्यक्ति) ही उन उन रसोंका लक्षण है ॥ ४-५ ॥
वे रस परमात्माके सत्त्वादि गुणोंके विस्तारसे प्रकट होते हैं। अनुरागसे शृङ्गार, तीक्ष्णतासे रौद्र, उत्साहसे वीर और संकोचसे बीभत्स रसका उदय होता है। शृङ्गार रससे हास्य, रौद्र रससे करुण रस, वीर रससे अद्भुत रस तथा बीभत्स रससे भयानक रसकी निष्पत्ति होती है। शृङ्गार, हास्य, करुण, रौद्र, वीर, भयानक, बीभत्स, अद्भुत और शान्त ये नौ रस माने गये हैं। वैसे सहज रस तो चार (शृङ्गार, रौद्र, वीर एवं बीभत्स) ही हैं। जैसे बिना त्यागके धनकी शोभा नहीं होती, वैसे ही रसहीन वाणीकी भी शोभा नहीं होती। अपार काव्यसंसारमें कवि ही प्रजापति है। उसको संसारका जैसा स्वरूप रुचिकर जान पड़ता है, उसके काव्यमें यह जगत् वैसे ही रूपमें परिवर्तित होता है। यदि कवि शृङ्गाररसका प्रेमी है, तो उसके काव्यमें रसमय जगत्का प्राकट्य होता है। यदि कवि शृङ्गारी न हो तो निश्चय ही काव्य नीरस होगा। 'रस' भावहीन नहीं है और 'भाव' भी रससे रहित नहीं है; क्योंकि इन भावोंसे रसकी भावना (अभिव्यक्ति) होती है। 'भाव्यन्ते रसा एभिः।' (भावित होते हैं रस इनके द्वारा)- इस व्युत्पत्तिके अनुसार वे 'भाव' कहे गये हैं। ॥ ६-१२ ॥
'रति' आदि आठ स्थायी भाव होते हैं तथा 'स्तम्भ' आदि आठ सात्विक भाव माने जाते हैं। सुखके मनोऽनुकूल अनुभव (आनन्दकी मनोरम अनुभूति) को 'रति' कहा जाता है। हर्ष आदिके द्वारा चित्तके विकासको 'हास' कहा जाता है। अभीष्ट वस्तुके नाश आदिसे उत्पन्न मनकी विकलताको 'शोक' कहते हैं। अपने प्रतिकूल आचरण करनेवालेपर कठोरताके उदयको 'क्रोध' कहते हैं। पुरुषार्थके अनुकूल मनोभावका नाम 'उत्साह' है॥ १३-१५ ॥
चित्र आदिके दर्शनसे जनित मानसिक विकलताको 'भय' कहते हैं। दुर्भाग्यवाही पदार्थोंकी निन्दा 'जुगुप्सा' कहलाती है। किसी वस्तुके दर्शनसे चित्तका अतिशय आश्चर्यसे पूरित हो जाना 'विस्मय' कहलाता है। 'स्तम्भ' आदि आठ सात्त्विक भाव हैं, जो रजोगुण और तमोगुणसे परे हैं। भय या रागादि उपाधियोंसे चेष्टाका अवरोध हो जाना 'स्तम्भ' कहलाता है। श्रम एवं राग आदिसे युक्त अन्तःकरणके क्षोभसे शरीरमें उत्पन्न जलको 'स्वेद' कहते हैं। हर्षादिसे शरीरका उच्छ्वसित होना और उसमें रोंगटे खड़े हो जाना 'रोमाञ्च' कहा गया है। हर्ष आदि तथा भय आदिके कारण वाणीका स्पष्ट उच्चारण न होना (गद्गद हो जाना) 'स्वरभेद' कहा गया है। चित्तके क्षोभसे उत्पन्न कम्पनको 'वेपथु' कहा गया है। विषाद आदिसे शरीरकी कान्तिका परिवर्तन 'वैवर्ण्य' कहा गया है। दुःख अथवा आनन्द आदिसे उद्धृत नेत्रजलको 'अश्रु' कहते हैं। उपवास आदिसे इन्द्रियोंकी संज्ञाहीनताको 'प्रलय' कहा जाता है॥ १६-२१ ॥
वैराग्य आदिसे उत्पन्न मानसिक खेदको 'निर्वेद' कहा जाता है। मानसिक पीड़ा आदि से जनित शैथिल्यको 'ग्लानि' कहते हैं; वह शरीरमें ही व्याप्त होती है। अनिष्टप्राप्तिकी सम्भावनाको 'शङ्का' और मत्सर (दूसरेका उत्कर्ष सहन न करने) को 'असूया' कहा जाता है। मदिरा आदिके उपयोगसे उत्पन्न मानसिक मोह 'मद' कहलाता है। अधिक कार्य करनेसे शरीरके भीतर उत्पन्न क्लान्तिको 'श्रम' कहते हैं। शृङ्गार आदि धारण करनेमें चित्तकी उदासीनताको 'आलस्य' कहते हैं। धैर्यसे भ्रष्ट हो जाना 'दैन्य' तथा अभीष्ट वस्तुकी प्राप्ति न होनेसे जो बार-बार उसकी ओर ध्यान जाता है, उसे 'चिन्ता' कहते हैं। किसी कार्य (भयसे छूटने या इष्टवस्तुको पाने आदि) के लिये उपाय न सूझना 'मोह' कहलाता है ॥ २२-२५ ॥
अनुभूत वस्तुका चित्तमें प्रतिबिम्बित होना 'स्मृति' कहलाता है। तत्त्वज्ञानके द्वारा अर्थोंके निश्चयको 'मति' कहते हैं। अनुराग आदिसे होनेवाला जो कोई अकथनीय मानसिक संकोच होता है, उसका नाम 'ब्रीडा' या 'लज्जा' है। चित्तकी अस्थिरताको 'चपलता' और प्रसन्नताको 'हर्ष' कहते हैं। प्रतीकारकी आशासे उद्भुत अन्तःकरणकी विकलताको 'आवेश' कहा जाता है। कर्तव्यके विषयमें कुछ प्रतिभान न होना 'जडता' कही जाती है। अभीष्ट वस्तुकी प्राप्तिसे बढ़े हुए आनन्द या संतोषके अभ्युदयको 'धृति' कहते हैं। दूसरोंमें निकृष्टता और अपनेमें उत्कृष्टताकी भावनाको 'गर्व' कहा जाता है। इच्छित वस्तुके लाभमें दैव आदिसे जनित विघ्नके कारण जो दुःख होता है, उसे 'विषाद' कहते हैं। अभीष्ट पदार्थकी इच्छासे जो मनकी चञ्चल स्थिति होती है, उसका नाम 'उत्कण्ठा' या 'उत्सुकता' है। अस्थिर हो उठना चित्त और इन्द्रियोंका 'अपस्मार' है। युद्धमें बाधाओंके उपस्थित होनेसे स्थिर न रह पाना 'त्रास' माना गया है तथा चित्तके चमत्कृत होनेको 'वीप्सा' कहते हैं। क्रोधके शमन न होनेको 'अमर्ष' तथा चेतनताके उदयको 'प्रबोध' या 'जागरण' कहते हैं। चेष्टा और आकारसे प्रकट होनेवाले भावोंका गोपन 'अवहित्थ' कहलाता है। क्रोधसे गुरुजनोंपर कठोर वाग्दण्डका प्रयोग 'उग्रता' कहलाता है। चित्तके ऊहापोहको 'वितर्क' तथा मानस एवं शरीरकी प्रतिकूल परिस्थितिको 'व्याधि' कहते हैं। काम आदिके कारण असम्बद्ध प्रलाप करनेको 'उन्माद' कहा गया है।
तत्त्वज्ञान होनेपर चित्तगत वासनाको शान्तिको 'शम' कहते हैं। कविजनोंको काव्यादिमें रस एवं भावोंका निवेश करना चाहिये। जिसमें 'रति' आदि स्थायी भावोंकी विभावना हो, अथवा जिसके द्वारा इनकी विभावना हो, वह 'विभाव' कहा गया है; यह 'आलम्बन' और 'उद्दीपन 'के भेदसे दो प्रकारका माना जाता है। 'रति' आदि भावसमूह जिसका आश्रय लेकर निष्पन्न होते हैं, वह 'आलम्बन' नामक विभाव है। यह नायक आदिका आलम्बन लेकर आविर्भूत होता है। धीरोदात्त, धीरोद्धत, धीरललित और धीरप्रशान्त ये चार प्रकारके नायक माने गये हैं। ये धीरोदात्तादि नायक अनुकूल, दक्षिण, शठ एवं धृष्टके भेदसे सोलह प्रकारके कहे जाते हैं। पीठमर्द, विट और विदूषक ये तीनों श्रृङ्गाररसमें नायकके नर्मसचिव- अनुनायक होते हैं। 'पीठमर्द' श्रीमान् एवं 'नायक 'के समान बलशाली (सहायक) होता है। 'विट' (धूर्त) नायकके देशका कोई व्यक्ति होता है। 'विदूषक' प्रहसनसे नायकको प्रसन्न करनेवाला होता है। नायककी नायिकाएँ भी तीन प्रकारकी होती हैं- स्वकीया, परकीया एवं पुनर्भू। 'पुनर्भू' नायिका कौशिकाचार्यके मतसे है। कुछ 'पुनर्भू' नायिकाको न मानकर उसके स्थानपर 'सामान्य 'की गणना करते हैं। इन्हीं नायिकाओंके अनेक भेद होते हैं। 'उद्दीपन विभाव' विविध संस्कारोंके रूपमें स्थित रहते हैं। ये 'आलम्बन विभाव 'में भावोंको उद्दीत करते हैं॥ २६-४२ ॥
चौंसठ कलाएँ कर्मादि एवं गीतिकादिके भेदसे दो प्रकारकी होती हैं। 'कुहक' और 'स्मृति' प्रायः हासोपहारक हैं। आलम्बन विभावके उद्बुद्ध संस्कारयुक्त भावोंके द्वारा स्मृति, इच्छा, द्वेष और प्रयत्नके संयोगसे किये हुए मन, वाणी, बुद्धि तथा शरीरके कार्यको विद्वज्जन 'अनुभाव' मानते हैं- 'स अत्र अनुभूयते उत अनुभवति।' (आलम्बनमें जो अनुभूयमान है, अथवा आलम्बनमें जो दर्शनके बाद प्रकट होता है) इस प्रकार 'अनुभाव' शब्दकी निरुक्ति (व्युत्पत्ति) की जाती है। मानसिक व्यापारकी बहुलतासे युक्त कार्य 'मनका कार्य' कहा जाता है। वह 'पौरुष' (पुरुष सम्बन्धी) एवं 'स्वैण' (स्त्री-सम्बन्धी)- दो प्रकारका होता है। वह इस प्रकार भी प्रसिद्ध है- ॥ ४३-४६ ॥ शोभा, विलास, माधुर्य, स्थैर्य, गाम्भीर्य, ललित, औदार्य तथा तेज-ये आठ 'पौरुष कर्म' हैं। नीच जनोंकी निन्दा, उत्तम पुरुषोंसे स्पर्धा, शौर्य और चातुर्य- इनके कारण मानसिक कार्यके रूपमें शोभाका आविर्भाव होता है। जैसे- 'भवनकी शोभा होती है' ॥ ४७-४८ ॥
भाव, हाव, हेला, शोभा, कान्ति, दीप्ति, माधुर्य, शौर्य, प्रगल्भता, उदारता, स्थिरता एवं गम्भीरता ये बारह 'स्त्रियोंके विभाव' कहे गये हैं। विलास और हावको 'भाव' कहते हैं। यह 'भाव' किंचित् हर्षसे प्रादुर्भूत होता है। वाणीके योगको 'वागारम्भ' कहते हैं। उसके भी बारह भेद होते हैं। उनमें भाषणको 'आलाप', अधिक भाषणको 'प्रलाप', दुःखपूर्ण वचनको 'विलाप', बारंबार कथनको 'अनुलाप', कथोपकथनको 'संलाप', निरर्थक भाषणको 'अपलाप', वार्ताके परिवहनको 'संदेश' और विषयके प्रतिपादनको 'निर्देश' कहते हैं। तत्त्वकथनको 'अतिदेश' एवं निस्सार वस्तुके वर्णनको 'अपदेश' कहा जाता है। शिक्षापूर्ण वचनको 'उपदेश' और व्याजोक्तिको 'व्यपदेश' कहते हैं। दूसरोंको अभीष्ट अर्थका ज्ञान करानेके लिये उत्तम बुद्धिका आश्रय लेकर वागारम्भका व्यापार होता है। उसके भी रीति, वृत्ति और प्रवृत्ति- ये तीन भेद होते हैं॥ ४९-५४॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें 'भृङ्गारादि रस, भाव तथा नायक आदिका निरूपण' नामक तीन सौ उनतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३३९ ॥
click to read 👇👇
[ अग्नि पुराण अध्यायः ३२१ ] [ अग्नि पुराण अध्यायः ३२२ ] [ अग्नि पुराण अध्यायः ३२३ ]
[ अग्नि पुराण अध्यायः ३२४ ] [ अग्नि पुराण अध्यायः ३२५ ] [ अग्नि पुराण अध्यायः ३२६ ]
[ अग्नि पुराण अध्यायः ३२७ ] [ अग्नि पुराण अध्यायः ३२८ ] [ अग्नि पुराण अध्यायः ३२९ ]
[ अग्नि पुराण अध्यायः ३३० ] [ अग्नि पुराण अध्यायः ३३१ ] [ अग्नि पुराण अध्यायः ३३२ ]
[ अग्नि पुराण अध्यायः ३३३ ] [ अग्नि पुराण अध्यायः ३३४ ] [ अग्नि पुराण अध्यायः ३३५ ]
[ अग्नि पुराण अध्यायः ३३६ ] [ अग्नि पुराण अध्यायः ३३७ ] [ अग्नि पुराण अध्यायः ३३८ ]
[ अग्नि पुराण अध्यायः ३३९ ] [ अग्नि पुराण अध्यायः ३४० ] [ अग्नि पुराण अध्यायः ३४१ ]
[ अग्नि पुराण अध्यायः ३४२ ] [ अग्नि पुराण अध्यायः ३४३ ] [ अग्नि पुराण अध्यायः ३४४ ]
[ अग्नि पुराण अध्यायः ३४५ ] [ अग्नि पुराण अध्यायः ३४६ ] [ अग्नि पुराण अध्यायः ३४७ ]
[ अग्नि पुराण अध्यायः ३४८ ] [ अग्नि पुराण अध्यायः ३४९ ] [ अग्नि पुराण अध्यायः ३५० ]
टिप्पणियाँ