अग्नि पुराण तीन सौ अड़तीसवाँ अध्याय ! Agni Purana 338 Chapter !

अग्नि पुराण तीन सौ अड़तीसवाँ अध्याय ! Agni Purana 338 Chapter !

तीन सौ अड़तीसवाँ अध्याय - नाटकनिरूपणम्

अग्निरुवाच

नाटकं सप्रकरणं डिम ईहामृगोऽपि वा ।
ज्ञेयः समवकारश्च भवेत् प्रहसनन्तथा ।। १ ।।

व्यायोगभाणवीथ्यङ्गत्रोटकान्यथ नाटिका ।
सट्टकं शिल्पकः कर्णा एको दुर्म्मल्लिका तथा ।। २ ।।

प्रस्थानं भाणिका भाणी गोष्ठी हल्लीशकानि च ।
काव्यं श्रीगदितं नाट्यरासकं रासकं तथा ।। ३ ।।

उल्लाप्यकं प्रेङ्‌क्षणञ्च सप्तविंशतिरेव तत् ।
सामान्यञ्च विशेषश्च लक्ष्णस्य द्वयी गतिः ।। ४ ।।

सामान्यं सर्व्वविषयं शेषः क्कापि प्रवर्त्तते ।
पूर्व्वरङ्गे निवृते द्वौ देशकालावुभावपि ।। ५ ।।

रसभावमिभावानुभावा अभिनयास्तथा ।
अङ्कः स्थितिश्च सामान्यं सर्व्वत्रैवोपसर्पणात् ।। ६ ।।

विशेषोऽवसरे वाच्यः सामान्यं पूर्व्वमुच्यते ।
त्रिवर्गसाधनन्नाट्यमित्याहुः करणञ्च यत् ।। ७ ।।

इतिकर्त्तव्य्ता तस्य पूर्व्वरङ्गो यथाविधि ।
नान्दीमुखानि द्वात्रिंशदङ्गानि पूर्व्वरङ्गके ।। ८ ।।

देवतानां नमस्कारो गुरूणामपि च स्तुतिः ।
गोब्राह्मणनृपादीनामाशीर्वादादि गीयते ।। ९ ।।

नान्द्यन्ते सूत्रधारोऽसौ रुपकेषु निबध्यते ।
गुरुपूर्वक्रमं वंशप्रशंसा पौरुषं कवेः ।। १० ।।

सम्बम्धार्थौ च काव्य्स्य पञ्चैतानेष निर्द्दिशेत् ।
नटी विदूषको वापि पारिपार्श्विक एव वा ।। ११ ।।

सहिताः सूत्रधारेण संलापं यत्र कुर्व्वते ।
चित्रैर्व्वाक्यैः स्वकार्य्योत्थैः प्रस्तुताक्षेपिभिर्मिथ ।। १२ ।।

आमुखं तत्तु विज्ञेयं बुधैः प्रस्तावनापि सा ।
प्रवृत्तकं कथोद्‌घातः प्रयोगातिशयस्तथा ।। १३ ।।

आमुखस्य त्रयो भेदा वीजांशेषूपजायते ।
कालं प्रवृत्तमाश्रित्य सूत्रधृग्यत्र वर्णयेत् ।। १४ ।।

तदाश्रयश्च पात्रस्य प्रवेशस्तत् प्रवृत्तकं ।
सूत्रधारस्य वाक्यं वा यत्र वाक्यार्थमेव वा ।। १५ ।।

गृहीत्वा प्रविशेत् पात्रं कथोद्‌घातः स उच्यते ।
प्रयोगेषु प्रयोगन्तु सूत्रधृग्यत्र वर्णयेत् ।। १६ ।।

ततश्च प्रविशेत् पात्रं प्रयोगातिशयो हि सः ।
शरीरं नाटकादीनामितिवृत्तं प्रचक्षते ।। १७ ।।

सिद्धमुत्प्रेक्षितञ्चेति तस्य भेदाबुभौ स्मृतौ ।
सिद्धमागमदृष्टञ्च सृष्टमुत्प्रेक्षइतं कवेः ।। १८ ।।

वीजं विन्दुः पताका च प्रकरी कार्य्यमेव च ।
अर्थप्रकृतयः पञ्च पञ्च चेष्टा अपि क्रमात् ।। १९ ।।

प्रारम्भश्च प्रयत्नश्च प्राप्तिः सद्भाव एव च ।
नियता च फलप्राप्तिः फलयोगश्च पञ्चमः ।। २० ।।

मुखं प्रतिमुखं गर्भो विमर्षश्च तथैव च ।
तथा निर्व्वहणञ्चेति क्रमात् पञ्चैव सन्धयः ।। २१ ।।

अल्पमात्रं समुद्दिष्टं बहुधा यत् प्रसर्पति ।
फलावसानं यच्चैव वीजं तदभिधीयते ।। २२ ।।

यत्र वीजसमुत्पत्तिर्नानार्थरससम्भवा ।
काव्ये शरीरानुगतं तन्मुखं परिकीर्त्तितं ।। २३ ।।

इष्टस्यार्थस्य रचना वृत्तान्तस्यानुपक्षयः ।
रागप्राप्तिः प्रयोगस्य गुह्यानाञ्चैव गूहनम् ।। २४ ।।

आस्चर्य्यवदभिख्यातं प्रकाशानां प्रकाशनम् ।
अङ्गहीनं नरो यद्वन्न श्रेष्ठं काव्यमेच च ।। २५ ।।

देशकालौ विना किञ्चिन्नेतिवृत्तं प्रवर्त्तते ।
अतस्तयोरुपादाननियमात् पदभुच्यते ।। २६ ।।

देशेषु भारतं वर्षं काले कृतयुगत्रयं ।
नर्त्ते ताम्यां प्राणभृतां सुखदुःखोदयः क्कचित् ।। २७ ।।

सर्गे सार्गादिवार्त्ता च प्रसज्जन्ती न दुष्यति ।। २८ ।।

इत्यादिमहापुराणे आग्नेये अलङ्कारे नाटकादिनिरूपणं नामाष्टत्रिंशदधिकत्रिशततमोऽध्यायः ।।

अग्नि पुराण - तीन सौ अड़तीसवाँ अध्याय ! हिन्दी मे -Agni Purana 338 Chapter In Hindi

तीन सौ अड़तीसवाँ अध्याय - नाटक-निरूपण

अग्निदेव कहते हैं- वसिष्ठ! 'रूपक 'के सत्ताईस भेद माने गये हैं'- नाटक, प्रकरण, डिम, ईहामृग, समवकार, प्रहसन, व्यायोग, भाण, वीथी, अङ्क, त्रोटक, नाटिका, सट्टक, शिल्पक, कर्णा, दुर्मल्लिका, प्रस्थान, भाणिका, भाणी, गोष्ठी, हल्लीशक, काव्य, श्रीगदित, नाट्यरासक, रासक, उल्लाप्य तथा प्रेक्षण। लक्षण दो प्रकारके होते हैं- सामान्य और विशेष। सामान्य लक्षण रूपकके सभी भेदोंमें व्याप्त होते हैं और विशेष लक्षण किसी-किसीमें दृष्टिगोचर होते हैं। रूपकके सभी भेदोंमें पूर्वरङ्गके' निवृत्त हो जानेपर देश-काल, रस, भाव, विभाव अनुभाव, अभिनय, अङ्क और स्थिति- ये उनके सामान्य लक्षण हैं; क्योंकि इनका सर्वत्र उपसर्पण देखा जाता है। विशेष लक्षण यथावसर बताया जायगा। यहाँ पहले सामान्य लक्षण कहा जाता है; 'नाटक'को धर्म, अर्थ और कामका साधन माना गया है; क्योंकि वह करण है। उसकी इतिकर्तव्यता (कार्यारम्भकी विधि) यह है कि 'पूर्वरङ्ग 'का विधिवत् सम्पादन किया जाय। 'पूर्वरङ्ग 'के नान्दी आदि बाईस अङ्ग होते हैं ॥ १-८॥

देवताओंको नमस्कार, गुरुजनकी प्रशस्ति तथा गौ, ब्राह्मण और राजा आदिके आशीर्वाद 'नान्दी' कहलाते हैं। रूपकोंमें 'नान्दीपाठ 'के पश्चात् यह लिखा जाता है कि 'नान्द्यन्ते' सूत्रधारः' (नान्दीपाठके अनन्तर सूत्रधारका प्रवेश)। इसमें कविकी पूर्व गुरुपरम्पराका, वंशप्रशंसा, पौरुष तथा काव्यके सम्बन्ध और प्रयोजन-इन पाँच विषयोंका निर्देश करे। नटी, विदूषक और पारिपार्श्वक- ये सूत्रधारके साथ जहाँ अपने कार्यसे सम्बद्ध, प्रस्तुत विषयको उपस्थित करनेवाले विचित्र वाक्योंद्वारा परस्पर संलाप करते हैं, पण्डितजन उसको 'आमुख' जानें। उसको 'प्रस्तावना' भी कहा जाता है॥ ९-१२॥

'आमुख 'के तीन भेद' होते हैं- प्रवृत्तक, कथोद्धात और प्रयोगातिशय। जब सूत्रधार उपस्थित काल (ऋतु आदि) का वर्णन करता है, तब उसका आश्रयभूत पात्र प्रवेश 'प्रवृत्तक' कहलाता है। इसका बीजांशोंमें ही प्रादुर्भाव होता है। जब पात्र सूत्रधारके वाक्य अथवा वाक्यार्थको ग्रहण करके प्रवेश करता है, तब उसको 'कथोद्धात' कहा जाता है। जिस समय सूत्रधार एक प्रयोगमें दूसरे प्रयोगका वर्णन करे, उस समय यदि पात्र वहाँ प्रवेश करे, तो वह 'प्रयोगातिशय' होता है। 'इतिवृत्त' (इतिहास) को नाटक आदिका शरीर कहा जाता है। उसके दो भेद माने गये हैं- 'सिद्ध' और 'उत्प्रेक्षित'। शास्त्रोंमें वर्णित इतिवृत्त 'सिद्ध' और कविकी कल्पनासे निर्मित 'उत्प्रेक्षित' कहा जाता है। बीज, बिन्दु, पताका, प्रकरी और कार्य-ये पाँच अर्थप्रकृतियाँ (प्रयोजनसिद्धिकी हेतुभूता) हैं। चेष्टा (कार्यावस्थाएँ) भी पाँच ही मानी गयी हैं। इनके नाम क्रमशः इस प्रकार हैं- प्रारम्भ, प्रयत्न, प्राप्ति-सद्भाव, नियतफलप्राप्ति और पाँचवाँ फलयोग। रूपकमें मुख, प्रतिमुख, गर्भ, विमर्श और निर्वहण ये क्रमशः पाँच संधियाँ हैं। 

जो अल्पमात्र वर्णित होनेपर भी बहुधा विसर्पण- अनेक अवान्तर कार्योंको उत्पन्न करता है, फलकी हेतुभूत उस अर्थप्रकृतिको 'बीज' कहा जाता है। जिसमें विविध वृत्तान्तों और रससे बीजकी उत्पत्ति होती है, काव्यके शरीरमें अनुगत उस संधिको 'मुख' कहते हैं। अभीष्ट अर्थकी रचना, कथावस्तुको अखण्डता, प्रयोगमें अनुराग, गोपनीय विषयोंका गोपन, अद्भुत वर्णन, प्रकाश्य विषयोंका प्रकाशन- ये काव्याङ्गोंक छः फल हैं। जैसे अङ्गहीन मनुष्य किसी कार्यमें समर्थ नहीं होता, उसी प्रकार अङ्गहीन काव्य भी प्रयोगके योग्य नहीं माना जाता। देश-कालके बिना किसी भी इतिवृत्तकी प्रवृत्ति नहीं होती, अतः नियमपूर्वक उन दोनोंका उपादान 'पद' कहलाता है। देशोंमें भारतवर्ष और कालमें सत्ययुग, त्रेता और द्वापरयुगको ग्रहण करना चाहिये। देश-कालके बिना कहीं भी प्राणियोंके सुख-दुःखका उदय नहीं होता। सृष्टिके आदिकालकी वार्ता अथवा सृष्टिपालन आदिकी वार्ता प्राप्त हो तो वह वर्णनीय है। ऐसा करनेमें कोई दोष नहीं है ॥ १३-२७॥

इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें 'नाटकका निरूपण' नामक तीन सौ अड़तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥ ३३८॥

click to read 👇👇

अग्नि पुराण अध्यायः ३२१ ]  [ अग्नि पुराण अध्यायः ३२२ ]  [ अग्नि पुराण अध्यायः ३२३ ]

अग्नि पुराण अध्यायः ३२४ ]  [ अग्नि पुराण अध्यायः ३२५ ]  [ अग्नि पुराण अध्यायः ३२६ ]

अग्नि पुराण अध्यायः ३२७ ]  [ अग्नि पुराण अध्यायः ३२८ ]  [ अग्नि पुराण अध्यायः ३२९ ]

अग्नि पुराण अध्यायः ३३० ]  [ अग्नि पुराण अध्यायः ३३१ ]  [ अग्नि पुराण अध्यायः ३३२ ]

अग्नि पुराण अध्यायः ३३३ ]  [ अग्नि पुराण अध्यायः ३३४ ]  [ अग्नि पुराण अध्यायः ३३५ ]

अग्नि पुराण अध्यायः ३३६ ]  [ अग्नि पुराण अध्यायः ३३७ ]  [ अग्नि पुराण अध्यायः ३३८ ]

अग्नि पुराण अध्यायः ३३९ ]  [ अग्नि पुराण अध्यायः ३४० ]  [ अग्नि पुराण अध्यायः ३४१ ]

अग्नि पुराण अध्यायः ३४२ ]  [ अग्नि पुराण अध्यायः ३४३ ]  [ अग्नि पुराण अध्यायः ३४४ ]

अग्नि पुराण अध्यायः ३४५ ]  [ अग्नि पुराण अध्यायः ३४६ ]  [ अग्नि पुराण अध्यायः ३४७ ]

अग्नि पुराण अध्यायः ३४८ ]  [ अग्नि पुराण अध्यायः ३४९ ]  [ अग्नि पुराण अध्यायः ३५० ]

टिप्पणियाँ