अग्नि पुराण तीन सौ सैंतीसवाँ अध्याय ! Agni Purana 337 Chapter !
अग्नि पुराण तीन सौ सैंतीसवाँ अध्याय काव्य आदि के लक्षण
अग्निरुवाच
काव्यस्य नाटकादेश्च अलङ्कारान् वदाम्यऽथ ।
ध्वनिर्व्वर्णाः पदं वाक्यमित्येतद्वाङ्मयं मतं ।। १ ।।
शास्त्रेतिहासवाक्यानां त्रयं यत्र समाप्यते ।
शास्त्रे शब्दप्रधानात्वमितिहासेषु निष्ठता ।। २ ।।
अभिधायाः प्रधानत्वात् काव्यं ताभ्यां विभिद्यते ।
नरत्वं दुर्ल्लभं लोके विद्यातत्र च दुर्ल्लभा ।। ३ ।।
कवित्वं दुर्ल्लभं तत्र शक्तिस्तत्र च दुर्ल्लभा ।
व्युत्पत्तिर्दुर्ल्लभा तत्र विवेकस्तत्र दुर्लभः ।। ४ ।।
सर्व्वं शास्त्रमविद्वद्भिर्मृग्यमाणन्न सिध्यति ।
आदिवर्णा द्वितीयश्च महाप्राणास्तुरीयकः ।। ५ ।।
वर्गेषु वर्णवृन्दं स्यात्पदं सुप्तिङ्प्रभेदतः ।
सङ्क्षेपाद्वाक्यमिष्टार्थव्यवछिन्ना पदाबली ।। ६ ।।
काव्यं स्फटदलङ्कारं गुणवद्दोषवर्जितम् ।
योनिर्व्वेदश्च लोकश्च सिद्धमन्नादयोनिजं ।। ७ ।।
देवादीनां संस्कृतं स्यात् प्राकृतं त्रिविधं नृणां ।
गद्यं पद्यञ्च मिश्रञ्च काव्यादि त्रिविधं स्मृतम् ।। ८ ।।
आपदः पदसन्तानो गद्यन्तदपि गद्यते ।
चूर्णकोत्कलिकागन्धिवृत्तभेदात् त्रिरूपकम् ।। ९ ।।
अल्पाल्पविग्रहं नातिमृदुसन्दर्भनिर्भरं ।
तूर्णकं नामतो दीर्घसमासात् कलिका भवेत् ।। १० ।।
भवेन्मध्यमसन्दर्भन्नातिकुत्सितविग्रहम् ।
वृत्तच्छायाहरं वृत्तं गन्धिनैतत् किलोत्कटम् ।। ११ ।।
आख्यायिका कथा खण्डकथा परिकथा तथा ।
कथानिकेति मन्यन्ते गद्यकाव्यञ्च पञ्चधा ।। १२ ।।
कर्तृवंशप्रशंसा स्याद्यत्र गद्येन विस्तरात् ।
कन्याहरणसंग्रामविप्रलम्भविपत्तयः ।। १३ ।।
भवन्ति यत्र दीप्ताश्च रीतिवृत्तिप्रवृत्तयः ।
उच्छासैश्च चपरिच्छेजो यत्र या चूर्णकोत्तरा ।। १४ ।
वक्त्रं वापरवक्त्रं वा यत्र साख्यायिका स्मृता ।
श्लोकैः स्ववंशं संक्षेपात् कविर्यत्र प्रशंसति ।। १५ ।।
मुख्यस्यार्थावताराय भवेद्यत्र कथान्तरम् ।
परिच्छेदो न यत्र स्याद्भवेद्वालम्भकैः क्कचित् ।। १६ ।।
सा कथा नाम तद्गर्भे निबध्नीयाच्चतुष्पदीं ।
भवेत् खण्डकथा यासौ परिकथा तयोः ।। १७ ।।
अमात्यं सार्थकं वापि द्विजं वा नायकं विदुः ।
स्यात्तयोः करुणं विद्धि विप्रलम्भश्च तुर्व्विधः ।। १८ ।
समाप्यते तयोर्न्नाद्या सा कथामनुधावति ।
कथाख्याथिकयोर्म्मिश्रमावात् परिकथा स्मृता ।। १९ ।।
भयानकं सुखपरं गर्बे च करुणो रसः ।
अद्भुतोऽन्ते सुक्लृप्तार्थो नोदात्ता सा कथानिका ।। २० ।।
पद्यं चतुष्पदी तच्च वृत्तं जातिरितित्रिधा ।
वृत्तमक्षरसंख्येयमुक्थं तत् कृतिशेषजम् ।। २१ ।।
मात्राभिर्गणना यत्र सा जातिरिति काश्यपः ।
सममर्द्धसमं वृत्तं विषमं पैङ्गलं त्रिधा ।। २२ ।।
सा विद्या नौस्तितीर्षूणां गभीरं काव्यसागरं ।
महाकाव्यं कलापश्च पर्य्याबन्धो विशेषकम् ।। २३ ।।
कुलकं मुक्तक कोष इति पद्यकुटुम्बकम्
सर्गबन्धो महाकाव्यमारब्धं संस्कृतेन यत् ।। २४ ।।
तादात्म्यमजहत्तत्र तत्समं नाति दुष्यति ।
इतिहासकथोद्भूतमितरद्वा सदाश्रयं ।। २५ ।।
मन्त्र्दूतप्रयाणाजिनियतं नातिविस्तरम् ।
शक्कर्य्यातिजगत्यातिशक्कर्य्या त्रिष्टुभा तथा ।। २६ ।।
पुष्पिताग्रादिभिर्व्वक्राभिजनैश्चारुभिः समैः ।
मुक्ता तु भिम्नवृत्तान्ता नातिसंक्षिप्तस्र्गकम् ।। २७ ।।
अतिशक्वरिकाष्टिभ्यामेकसङ्कीर्णकैः पररः ।
मात्रयाप्यपरः सर्गः प्राशस्त्येषु च पश्चिमः ।। २८ ।।
कल्पोऽतिनिन्दितस्तस्मिन्विशेषानादरः सतां ।
नगरार्णवशैलर्त्तु चन्द्रार्काश्रमपादपैः ।। २९ ।।
उद्यानसलिलक्रीड़ामधुपानरतोत्सवैः ।
दूतीवचनविन्यासैरसतीचरिताद्भुतैः ।। ३० ।।
तमसा मरुताप्यन्यैविभावैरतिनिर्भरैः ।
सर्व्ववृत्तिप्रवृत्तञ्च सर्व्वभावप्रभावितम् ।। ३१ ।।
सर्व्वरीतिरसैः पुष्टं पुष्टङ्गुणविभूणैः ।
अत एव महाकाव्यं तत्कर्त्ता च महाकविः ।। ३२ ।।
वाग्वैदग्ध्यप्रधानेपि रस एवात्र जीवितम् ।
पृथक्प्रयत्ननिर्व्वर्त्यं वाग्वक्रिम्नि रसाद्वपुः ।। ३३ ।।
चतुर्व्वर्गफलं विश्वग्व्याख्यातं नायकाख्यया ।
समानवृत्तिनिर्व्यूढः कौशिकीवृत्तिकोमलः ।। ३४ ।।
कलापोऽत्र प्रवासः प्रागनुरागाह्वयो रसः ।
सविशेषकञ्च प्राप्त्यादि संस्कृतेनेतरेण च ।। ३५ ।।
श्लोकैरनेकैः कुलकं स्यात् सन्दानितकानि तत्।
मुक्तकं श्लोक एकैकश्चमत्कारक्षमः सतां ।। ३६ ।।
सूक्तिभिः कविसिंहानां सुन्दरीभिः समन्वितः .
कोषो ब्रह्मापरिच्छिन्नः स विदग्धाय रोचते ।। ३७ ।।
आभासोपमशक्तिश्च सर्गे यद्भिन्नवृत्तता ।
मिश्रं वपुरिति ख्यातं प्रकीर्णमिति च द्विधा ।। ३८ ।।
श्रव्यञ्चैवाबिनेयञ्च प्रकीर्णं सकलोक्तिभिः ।। ३९ ।।
इत्यादिमहापुराणे आग्नेये काव्यादिलक्षणं नाम सप्तत्रिंशदधिकत्रिशततमोऽध्यायः ।।
अग्नि पुराण - तीन सौ सैंतीसवाँ अध्याय ! हिन्दी मे -Agni Purana 337 Chapter!-In Hindi
तीन सौ सैंतीसवाँ अध्याय काव्य आदिके लक्षण
अग्निदेव कहते हैं- वसिष्ठ ! अब मैं 'काव्य' और 'नाटक' आदिके स्वरूप तथा 'अलंकारों का वर्णन करता हूँ। ध्वनि, वर्ण, पद और वाक्य यही सम्पूर्ण वाङ्मय माना गया है। शास्त्र, इतिहास तथा काव्य-इन तीनोंकी समाप्ति इसी वाङ्मयमें होती है। वेदादि शास्त्रोंमें शब्दकी प्रधानता है और इतिहास-पुराणोंमें अर्थकी। इन दोनोंमें 'अभिधा-शक्ति' (वाच्यार्थ) की ही मुख्यता होती है; अतः 'काव्य' इन दोनोंसे भिन्न है। [क्योंकि उसमें व्यङ्गश्य अर्थको प्रधानता दी जाती है'। संसारमें मनुष्य जीवन दुर्लभ है; उसमें भी विद्या तो और भी दुर्लभ है। विद्या होनेपर भी कवित्वका गुण आना कठिन है; उसमें भी काव्य-रचनाकी पूर्ण शक्तिका होना अत्यन्त कठिन है'। शक्तिके साथ बोध एवं प्रतिभा हो, यह और भी कठिन है; इन सबके होते हुए विवेकका होना तो परम दुर्लभ है। कोई भी शास्त्र क्यों न हो, अविद्वान् पुरुषोंके द्वारा उसका अनुसंधान किया जाय तो उससे कुछ भी सिद्ध नहीं होता। 'श' आदि वर्ण, अर्थात् 'श ष स ह' तथा वर्गोंके द्वितीय एवं चतुर्थ अक्षर 'महाप्राण' कहलाते हैं'। वर्णोंके समुदायको 'पद' कहते हैं। इसके दो भेद हैं- 'सुबन्त' और 'तिङन्त'। अभीष्ट अर्थसे व्यवच्छिन्न संक्षिप्त पदावलीका नाम 'वाक्य' है ॥ १-६ ॥
जिसमें अलंकार भासित होता हो, गुण विद्यमान हो तथा दोषका अभाव हो, ऐसे वाक्यको 'काव्य कहते हैं। लोक-व्यवहार तथा वेद (शास्त्र) का ज्ञान- ये काव्यप्रतिभाकी योनि हैं। सिद्ध किये मन्त्रके प्रभावसे जो काव्य निर्मित होता है, वह अयोनिज है। देवता आदिके लिये संस्कृत भाषाका और मनुष्योंके लिये तीन प्रकारकी प्राकृत भाषाका प्रयोग करना चाहिये। काव्य आदि तीन प्रकारके होते हैं- गद्य, पद्म और मिश्रः। पादविभागसे रहित पदोंका प्रवाह 'गद्य' कहलाता है। वह भी चूर्णक, उत्कलिका और वृत्तगन्धि भेदसे तीन प्रकारका होता है। छोटी-छोटी कोमल पदावलीसे युक्त और अत्यन्त मृदु संदर्भसे पूर्ण गद्यको 'चूर्णक' कहते हैं। जिसमें बड़े-बड़े समासयुक्त पद हों, उसका नाम 'उत्कलिका' है'। जो मध्यम श्रेणीके संदर्भसे युक्त हो तथा जिसका विग्रह अत्यन्त कुत्सित (क्लिष्ट) न हो, जिसमें पद्मकी छायाका आभास मिलता हो- जिसकी पदावली किसी पद्य या छन्दके खण्ड-सी जान पड़े, उस गद्यको 'वृत्तगन्धि' कहते हैं। यह सुननेमें अधिक उत्कट नहीं होता। गद्य-काव्यके पाँच भेद माने जाते हैं-आख्यायिका, कथा, खण्डकथा, परिकथा एवं कथानिका।
जहाँ गद्यके द्वारा विस्तारपूर्वक ग्रन्थ-निर्माता कविके वंशकी प्रशंसा की गयी हो, जिसमें कन्याहरण, संग्राम, विप्रलम्भ (वियोग) और विपत्ति (मरणादि) प्रसङ्गोंका वर्णन हो, जहाँ वैदर्भी आदि रीतियों तथा भारती आदि वृत्तियोंकी प्रवृत्तियोंपर विशेषरूपसे प्रकाश पड़ता हो, जिसमें 'उच्छास 'के नामसे परिच्छेद (खण्ड) किये गये हों, जो 'चूर्णक' नामक गद्यशैलीके कारण अधिक उत्कृष्ट जान पड़ती हो, अथवा जिसमें 'वक्त्र' या 'अपरवक्त्र' नामक छन्दका प्रयोग हुआ हो, उसका नाम 'आख्यायिका' है (जैसे 'कादम्बरी' आदि)। जिस काव्यमें कवि श्लोकोंद्वारा संक्षेपसे अपने वंशका गुणगान करता हो, जिसमें मुख्य अर्थको उपस्थित करनेके लिये कथान्तरका संनिवेश किया गया हो, जहाँ परिच्छेद हो ही नहीं, अथवा यदि हो भी तो कहीं लम्बकोंद्वारा ही हो, उसका नाम 'कथा' है (जैसे 'कथा-सरित्सागर' आदि)। उसके मध्यभागमें चतुष्पदी (पद्य) द्वारा बन्ध-रचना करे। जिसमें कथा खण्डमात्र हो, उसे 'खण्डकथा' कहते हैं। खण्डकथा और परिकथा-इन दोनों प्रकारकी कथाओंमें मन्त्री, सार्थवाह (वैश्य) अथवा ब्राह्मणको ही नायक मानते हैं। उन दोनोंका ही प्रधान रस 'करुण' जानना चाहिये। उसमें चार प्रकारका 'विप्रलम्भ' (विरह) वर्णित होता है। (प्रवास, शाप, मान एवं करुण-भेदसे विप्रलम्भके चार प्रकार हो जाते हैं।) उन दोनोंमें ही ग्रन्थके भीतर कथाकी समाप्ति नहीं होती। अथवा 'खण्डकथा' कथाशैलीका ही अनुसरण करती है। कथा एवं आख्यायिका दोनोंके लक्षणंकि मेलसे जो कथावस्तु प्रस्तुत होती है, उसे 'परिकथा' नाम दिया गया है। जिसमें आरम्भमें भयानक, मध्यमें करुण तथा अन्तमें अद्भुत रसको प्रकट करनेवाली रचना होती है, वह 'कथानिका' (कहानी) है। उसे उत्तम श्रेणीका काव्य नहीं माना गया है॥ ७-२०॥
चतुष्पदी नाम है-पद्यका [चार पादोंसे युक्त होनेसे उसे 'चतुष्पदी' कहते हैं। उसके दो भेद हैं, 'वृत्त' और 'जाति"। जो अक्षरोंकी गणनासे जाना जाय, उसे 'वृत्त' कहते हैं। यह भी दो प्रकारका है- 'उक्थ' (वैदिकस्तोत्र आदि) और 'कृतिशेषज' (लौकिक)। जहाँ मात्राओंद्वारा गणना हो, वह पद्य 'जाति' कहलाता है। यह काश्यपका मत है। वर्षोंकी गणनाके अनुसार व्यवस्थित छन्दको 'वृत्त' कहते हैं। पिङ्गलमुनिने वृत्तके तीन भेद माने हैं, सम, अर्धसम तथा विषम। जो लोग गम्भीर काव्य-समुद्रके पार जाना चाहते हैं, उनके लिये छन्दोविद्या नौकाके समान है। महाकाव्य, कलाप, पर्यायबन्ध, विशेषक, कुलक, मुक्तक तथा कोष-ये सभी पद्योंके समुदाय हैं। अनेक साँमें रचा हुआ संस्कृतभाषाद्वारा निर्मित काव्य 'महाकाव्य' कहलाता है ॥ २१-२३॥
सगंबद्ध रचनाको, जो संस्कृत भाषामें अथवा विशुद्ध एवं परिमार्जित भाषामें लिखी गयी हो, 'महाकाव्य कहते हैं। महाकाव्यके स्वरूपका त्याग न करते हुए उसके समान अन्य रचना भी हो तो वह दूषित नहीं मानी जाती। 'महाकाव्य' इतिहासकी कथाको लेकर निर्मित होता है अथवा उसके अतिरिक्त किसी उत्तम आधारको लेकर भी उसकी अवतारणा की जाती है। उसमें यथास्थान गुप्तमन्त्रणा, दूतप्रेषण', अभियान और युद्ध आदिके वर्णनका समावेश होता है। वह अधिक विस्तृत नहीं होता। शक्करी, अतिजगती, अतिशक्करी, त्रिष्टुप् और पुष्पिताग्रा आदि तथा वक्त्र आदि मनोहर एवं समवृत्तवाले छन्दोंमें महाकाव्यकी रचना की जाती है। प्रत्येक सर्गके अन्तमें छन्द बदल देना उचित है। सर्ग अत्यन्त संक्षिप्त नहीं होना चाहिये। 'अतिशक्करी' और 'अष्टि' इन दो छन्दोंसे एक सर्ग संकीर्ण होना चाहिये तथा दूसरा सर्ग मात्रिक छन्दोंसे संकीर्ण होना चाहिये। अगला सर्ग पूर्वसर्गकी अपेक्षा अधिकाधिक उत्तम होना चाहिये। 'कल्प' अत्यन्त निन्दित माना गया है।
उसमें सत्पुरुषोंका विशेष आदर नहीं होता। नगर, समुद्र, पर्वत, ऋतु, चन्द्रमा, सूर्य, आश्रम, वृक्ष, उद्यान, जलक्रीड़ा, मधुपान, सुरतोत्सव, दूती-वचन-विन्यास तथा कुलटाके चरित्र आदि अद्भुत वर्णनोंसे महाकाव्य पूर्ण होता है। अन्धकार, वायु तथा रतिको व्यक्त करनेवाले अन्य उद्दीपन विभावोंसे भी वह अलंकृत होता है। उसमें सब प्रकारकी वृत्तियोंकी प्रवृत्ति होती है। वह सब प्रकारके भावोंसे प्रभावित होता है तथा सब प्रकारकी रीतियों तथा सभी रसोंसे उसका संस्पर्श होता है। सभी गुणों और अलंकारोंसे भी महाकाव्यको परिपुष्ट किया जाता है। इन सब विशेषताओंके कारण ही उस रचनाको 'महाकाव्य' कहते हैं तथा उसका निर्माता 'महाकवि' कहलाता है॥ २४-३२॥
महाकाव्यमें उक्ति-वैचित्र्यकी प्रधानता होते हुए भी रस ही उसका जीवन है। उसकी स्वरूप-सिद्धि अपृथग्यत्नसे (अर्थात् सहजभावसे) साध्य वाग्वक्रिमा (वचनवैचित्र्य अथवा वक्रोक्ति)- विषयक रससे होती है। महाकाव्यका फल है- चारों पुरुषार्थोंकी प्राप्ति'। वह नायकके नामसे ही सर्वत्र विख्यात होता है। प्रायः समान छन्दों अथवा वृत्तियोंमें महाकाव्यका निर्वाह किया जाता है। कौशिकी वृत्तिकी प्रधानता होने से काव्य-प्रबन्धमें कोमलता आती है। जिसमें प्रवासका वर्णन हो, उस रचनाको 'कलाप' कहते हैं। उसमें 'पूर्वानुराग' नामक शृङ्गाररसकी प्रधानता होती है। संस्कृत अथवा प्राकृतके द्वारा प्राप्ति आदिका वर्णन 'विशेषक' कहलाता है। जहाँ अनेक श्लोकोंका एक साथ अन्वय हो, उसे 'कुलक' कहते हैं। उसीका नाम 'संदानितक' भी है।
एक-एक श्लोककी स्वतन्त्र रचनाको 'मुक्तक' कहते हैं। उसे सहृदयोंके हृदयमें चमत्कार उत्पन्न करनेमें समर्थ होना चाहिये। श्रेष्ठ कवियोंकी सुन्दर उक्तियोंसे सम्पन्न ग्रन्थको 'कोष' कहा गया है। वह ब्रह्मकी भाँति अपरिच्छिन्न रससे युक्त होता है तथा सहृदय पुरुषोंको रुचिकर प्रतीत होता है। सर्गमें जो भिन्न-भिन्न छन्दोंकी रचना होती है, वह आभासोपम शक्ति है। उसके दो भेद हैं- 'मिश्र' तथा 'प्रकीर्ण'। जिसमें 'श्रव्य' और 'अभिनेय' दोनोंके लक्षण हों, वह 'मिश्र' और सकल उक्तियोंसे युक्त काव्य 'प्रकीर्ण' कहलाता है॥ ३३-३९ ॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें 'काव्य आदिके लक्षण' नामक तीन सौ सैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३३७॥
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