अग्नि पुराण तीन सौ पैंतीसवाँ अध्याय ! Agni Purana 335 Chapter !

अग्नि पुराण तीन सौ पैंतीसवाँ अध्याय ! Agni Purana 335 Chapter !

अग्नि पुराण तीन सौ पैंतीसवाँ अध्याय - प्रस्तारनिरूपणम्

अग्निरुवाच

छन्दोऽत्र सिद्धं गाथा स्यात् पादे सर्व्वगुरौ तथा ।
प्रस्तार आद्यगाथोनः परतुल्योऽथ पूर्व्वगः ।। १ ।।

नष्टमध्ये समेऽङ्कोनः समेऽर्द्ध विषमे गुरुः ।
प्रतिलोमगुणं नाद्यं द्विरुद्दिष्टग एकनुत् ।। २ ।।

सङ्‌ख्याद्विरर्द्धे रूपे तु शून्यं शून्ये द्विरीरितं ।
तावदर्द्धे तद्‌गुणितं द्वि द्‌व्यूनञ्च तदन्ततः ।। ३ ।।

परे पूर्णं परे पूर्णं मेरुप्रस्तारतो भवेत् ।
नगसंख्या वृत्तसंख्या चाध्वाङ्गुलमधोद्‌र्धतः ।। ४ ।।

सङ्‌ख्यैव द्विगुणैकोना छन्दः सारोऽथमीरितः ।। ५ ।।

इत्यादिमहापुराणे आग्नेये प्रस्तारनिरूपणं नाम पञ्चत्रिंशदधिकत्रिशततमोऽध्यायः ॥

अग्नि पुराण - तीन सौ पैंतीसवाँ अध्याय ! हिन्दी मे -Agni Purana 335 Chapter!-In Hindi

तीन सौ पैंतीसवाँ अध्याय प्रस्तार-निरूपण

अग्निदेव कहते हैं- वसिष्ठ ! इस छन्दः शास्त्रमें जिन छन्दोंका नामतः निर्देश नहीं किया गया है, किंतु जो प्रयोगमें देखे जाते हैं, वे सभी 'गाथा' नामक छन्दके अन्तर्गत हैं। अब 'प्रस्तार' बतलाते हैं। जिसमें सब अक्षर गुरु हों, ऐसे पादमें जो आदिगुरु हो, उसके नीचे लघुका उल्लेख करे। [यह 'एकाक्षर प्रस्तार 'की बात हुई। 'द्वयक्षर- प्रस्तार' में] उसके बाद इसी क्रमसे वर्णोंकी स्थापना करे, अर्थात् पहले गुरु और उसके नीचे लघु ॥१॥(प्रस्तारके अनन्तर अब 'नष्ट' द्वारका वर्णन करते हैं। अर्थात् जब यह जाननेकी इच्छा हो कि गायत्री या अन्य किसी छन्दके समवृत्तोंमेंसे छठा भेद कैसा होगा, तब इसका उत्तर देनेकी प्रणालीपर विचार करते हैं] नष्ट संख्याको आधी करनेपर जब वह दो भागोंमें बराबर बँट जाय, तब एक लघु लिखना चाहिये। यदि आधा करनेपर विषम संख्या हाथ लगे तो उसमें एक जोड़कर सम बना ले और इस प्रकार पुनः आधा करे। ऐसी अवस्थामें एक गुरु अक्षरकी प्राप्ति होती है। 

उसे भी अन्यत्र लिख ले। जितने अक्षरवाले छन्दके भेदको जानना हो, उतने अक्षरोंकी पूर्ति होनेतक पूर्वोक्त प्रणालीसे गुरु लघुका उल्लेख करता रहे। [जैसे गायत्री छन्दके छठे भेदका स्वरूप जानना हो तो छःका आधा करना होगा। इससे एक लघु (।) की प्राप्ति हुई। बाकी रहा तीन; इसमें दोका भाग नहीं लग सकता, अतः एक जोड़कर आधा किया जायगा। इस दशामें एक गुरु (5) की प्राप्ति हुई। इस अवस्थामें चारका आधा करनेपर दो शेष रहा, दोका आधा करनेपर एक शेष रहा तथा एक लघु (।) की प्राप्ति हुई। अब एक समसंख्या न होनेसे उसमें एक और जोड़ना पड़ा; इस दशामें एक गुरु (5) की प्राप्ति हुई। फिर दोका आधा करनेसे एक हुआ और उसमें एक जोड़ा गया। पुनः एक गुरु (5) अक्षरकी प्राप्ति हुई। फिर यही क्रिया करनेसे एक गुरु (3) और उपलब्ध हुआ। गायत्रीका एक पाद छः अक्षरोंका है, अतः छः अक्षर पूरे होनेपर यह प्रक्रिया बंद कर देनी पड़ी। उत्तर हुआ गायत्रीका छठा समवृत्त। 5। ऽऽऽ इस प्रकार है।] [अब 'उद्दिष्ट 'की प्रक्रिया बतलाते हैं। 

अर्थात् जब कोई यह पूछे कि अमुक छन्द प्रस्तारगत किस संख्याका है, तो उसके गुरु-लघु आदिका एक जगह उल्लेख कर ले। इनमें जो अन्तिम लघु हो, उसके नीचे १ लिखे। फिर विपरीतक्रमसे, अर्थात् उसके पहलेके अक्षरोंके नीचे क्रमशः दूनी संख्या लिखता जाय। जब यह संख्या अन्तिम अक्षरपर पहुँच जाय तो उस द्विगुणित संख्यामेंसे एक निकाल दे। फिर सबको जोड़नेसे जो संख्या हो, वही उत्तर होगा। अथवा यदि वह संख्या गुरु अक्षरके स्थानमें जाती हो तो पूर्वस्थानकी संख्याको दूनी करके उसमेंसे एक निकालकर रखे। फिर सबको जोड़नेसे अभीष्ट संख्या निकलेगी। उद्दिष्टकी संख्या बतलानेका सबसे अच्छा उपाय यह है कि उस छन्दके गुरु-लघु वर्णोंको क्रमशः एक पङ्गिमें लिख ले और उनके ऊपर क्रमशः एकसे लेकर दूने दूने अङ्क रखता जाय; अर्थात् प्रथमपर एक, द्वितीयपर दो, तृतीयपर चार इस क्रमसे संख्या बैठाये। फिर केवल लघु अक्षरोंके अङ्कोंको जोड़ ले और उसमें एक और मिला दे तो वही उत्तर होगा। जैसे 'तनुमध्या' छन्द गायत्रीका किस संख्याका वृत्त है, यह जाननेके लिये तनुमध्याके गुरु-लघु वर्षों-तगण, यगणको ऽऽ।। ऽऽ इस प्रकार लिखना होगा। 

फिर क्रमशः अङ्क बिछानेपर १  २४८ १६ ३२ इस प्रकार होगा। इनमें केवल लघु अक्षरके अङ्क ४ ।८ जोड़नेपर १२ होगा। उसमें एक और मिला देनेसे १३ होगा, यही उत्तर है। तात्पर्य यह है कि 'तनुमध्या' छन्द गायत्रीका तेरहवाँ समवृत्त है। [अब बिना प्रस्तारके ही वृत्तसंख्या जाननेका उपाय बतलाते हैं। इस उपायका नाम 'संख्यान' है। जैसे कोई पूछे छः अक्षरवाले छन्दकी समवृत्त-संख्या कितनी होगी? इसका उत्तर] जितने अक्षरके छन्दकी संख्या जाननी हो, उसका आधा भाग निकाल दिया जायगा। इस क्रियासे दोकी उपलब्धि होगी, [जैसे छः अक्षरोंमेंसे आधा निकालनेसे ३ बचा, किंतु इस क्रियासे जो दोकी प्राप्ति हुई] उसे अलग रखेंगे। विषम संख्यामेंसे एक घटा दिया जायगा। इससे शून्यकी प्राप्ति होगी। उसे दोके नीचे रख दें। [जैसे ३ से एक निकालनेपर दो बचा, किंतु इस क्रियासे जो शून्यको प्राप्ति हुई, उसे २ के नीचे रखा गया। तीनसे एक निकालनेपर जो दो बचा था, उसे भी दो भागोंमें विभक्त करके आधा निकाल दिया गया। इस क्रियासे पूर्ववत् दोकी प्राप्ति हुई और उसे शून्यके नीचे रख दिया गया। अब एक बचा। यह विषम संख्या है-इसमेंसे एक बाद देनेपर शून्य शेष रहा। 

साथ ही इस क्रियासे शून्यकी प्राप्ति हुई, इसे पूर्ववत् २ के नीचे रख दिया गया। शून्यके स्थानमें दुगुना करे। [इस नियमके पालनके लिये निचले शून्यको एक मानकर उसका दूना किया गया। इससे प्राप्त हुए अङ्कको ऊपरके अर्धस्थानमें रखे और उसे उतनेसे ही गुणा करे। [जैसे शून्यस्थानको एक मानकर दूना करने और उसको अर्धस्थानमें रखकर उतनेसे ही गुणा करनेपर ४ संख्या होगी। फिर शून्यस्थानमें उसे ले जाकर पूर्ववत् दूना करनेसे ८ संख्या हुई; पुनः इसे अर्थस्थानमें ले जाकर उतनी ही संख्यासे गुणा करनेपर ६४ संख्या हुई। यही पूर्वोक्त प्रश्नका उत्तर है। इसी नियमसे 'उष्णिक् के १२८ और 'अनुष्टुप् 'के २५६ समवृत्त होते हैं।] इस प्रश्नको इस प्रकार लिखकर हल करें-
  • अर्धस्थान   २, ८ ८ ८  ६४
  • शून्यस्थान  ०, ४०  २  ८
  • अर्धस्थान   २, २०२   ४
  • शून्यस्थान  ०, १०२   २
गायत्री आदि छन्दोंकी संख्याको दूनी करके उसमेंसे दो घटा देनेपर जो संख्या हो, वह वहाँतकके छन्दोंकी संयुक्त संख्या होती है। जैसे गायत्रीकी वृत्त संख्या ६४ को दूना करके २ घटानेसे १२६ हुआ। यह एकाक्षरसे लेकर षडक्षरपर्यन्त सभी अक्षरोंके छन्दोंकी संयुक्त संख्या हुई। जब छन्दके वृत्तोंकी संख्याको द्विगुणित करके उसे पूर्ण ज्यों-का-त्यों रहने दिया जाय, दो घटाया न जाय, तो वह अङ्क बादके छन्दकी वृत्तसंख्याका ज्ञापक होता है। गायत्रीकी वृत्तसंख्या ६४ को दूना करनेसे १२८ हुआ। 

यह 'उष्णिक्' की वृत्त संख्याका योग हुआ। [अब एकद्वयादि लग क्रियाकी सिद्धिके लिये 'मेरु प्रस्तार' बताते हैं-] अमुक छन्दमें कितने लघु, कितने गुरु तथा कितने वृत्त होते हैं, इसका ज्ञान 'मेरु-प्रस्तार 'से होता है। सबसे ऊपर एक चौकोर कोष्ठ बनाये। उसके नीचे दो कोष्ठ, उसके नीचे तीन कोष्ठ, उसके नीचे चार कोष्ठ आदि जितने अभीष्ट हों, बनाये। पहले कोष्ठमें एक संख्या रखे, दूसरी पङ्गिके दोनों कोष्ठोंमें एक-एक संख्या रखे, फिर तीसरी पङ्गिमें किनारेके दो कोष्ठोंमें एक-एक लिखे और बीचमें ऊपरके कोष्ठोंके अङ्क जोड़कर पूरे पूरे लिख दे। चौथी पङ्गिमें किनारेके कोष्ठोंमें एक-एक लिखे और बीचके दो कोष्ठोंमें ऊपरके दो-दो कोष्ठोंके अङ्क जोड़कर लिखे। नीचेके कोष्ठोंमें भी यही रीति बरतनी चाहिये। उदाहरणके लिये देखिये-
  • एकाक्षर प्रस्तार
  • द्वयक्षर प्रस्तार 
  • त्र्यक्षर प्रस्तार 
  • चतुरक्षर प्रस्तार
  • पञ्चाक्षर प्रस्तार
  • षडक्षर प्रस्तार 
  • सप्ताक्षर
  • अष्टाक्षर
इसमें चौथी पङ्गिमें १ सर्वगुरु, ३ एक लघु, तीन दो लघु और १ सर्वलघु अक्षर है। इसी प्रकार अन्य प‌ङ्क्तियोंमें भी जानना चाहिये। इस प्रकार इसके द्वारा छन्दके लघु- गुरु अक्षरोंकी तथा एकाक्षरादि छन्दोंकी वृत्त-संख्या जानी जाती है। मेरु-प्रस्तारमें नीचेसे ऊपरकी ओर आधा-आधा अंगुल विस्तार कम होता जाता है। छन्दकी संख्याको दूनी करके एक-एक घटा दिया जाय तो उतने ही अङ्कुलका उसका अध्वा (प्रस्तारदेश) होता है। इस प्रकार यहाँ छन्दः शास्त्रका सार बताया गया ॥ ४-५ ॥

इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें 'प्रस्तार-निरूपण' नामक तीन सौ पैतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३३५ ॥

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