अग्नि पुराण तीन सौ चौंतीसवाँ अध्याय ! Agni Purana 334 Chapter !

अग्नि पुराण तीन सौ चौंतीसवाँ अध्याय ! Agni Purana 334 Chapter !

अग्नि पुराण तीन सौ चौंतीसवाँ अध्याय - समवृत्तनिरूपणम्

अग्निरुवाच

यतिविच्छेद इत्युक्तस्तत्तन्मध्यान्तयौ गणौ ।
यौसः कुमारलालिता तौ गौ चित्रपदा स्मृता ।। १ ।।

विद्युन्माला मममागणैर्भूतगणैर्भवेत् ।
माणवकाक्रीड़ितकं वनौ हलमुखी वसः ।। २ ।।

स्याद्भुजङ्गशिशुसूतानौ मेहनं मरुतं ननौ।
भवेच्छुद्धविराड्वृत्तं प्रतिपादं समौ जगौ ।। ३ ।।

पणवोमलयोमः स्याज्जौ गौ मयूरसारिणी ।
सत्तामभसगा वृत्तं भजताद्युपरिस्थिता ।। ४ ।।

रुक्मवती भससगाविन्द्रावज्रा तजौ जगौ ।
जतौ जगौ गूपपूर्व्वावाद्यन्ताद्युपजातयः ।। ५ ।।

दोधकं भगभागौ स्यात् शालिनी मतभागगौ ।
यतिः समुद्रा ऋषयः वातोर्म्मी मभतागगौ ।। ६ ।।

चतुःस्वरा स्याद्‌भ्रमरी विलासिता मभौनलौ ।
समुद्रा अथ ऋषयो वनौ लौगौ रथोद्धता ।। ७ ।।

सामताधनभागौगोवृत्ताननसमाश्च सः ।
श्येनी वजवनागः स्याद्रम्या नपरगागगः ।। ८ ।।

जगती वंशस्था वृत्तं जतौ जावथ तौ जवौ ।
इन्द्रवंशा तोटकं सैरचतुर्भिः प्रतिपादतः ।। ९ ।।

भवेद्‌द्रुतविलम्बिता नभौ भवावथौ नलौ ।
स्यौ श्रीपुठो वसुवेदा जलोगतिजलौ जमौ ।। १० ।।

जसौ वसर्व्ववश्चाथ ततं ननमराः स्मृतं ।
कुशुमविचित्रान्यौ द्यौ नौ नौ रौ स्याच्चलाम्बिका ।। ११ ।।

भुजङ्गप्र्यातं थैः स्याच्चतुभिः स्राग्विनीभवैः ।
प्रमिताक्षरा गजौ सौ कान्तोत्पीड़ा मतौ समौ ।। १२ ।।

वैश्वदेवी ममयायाः पञ्चाङ्गा नवमालिनी ।
नजौ भयौ प्रतिपादं गणा यदि जगत्यपि ।। १३ ।।

प्रहर्षणी मवजवा गोपतिर्बह्निदिक्षु च ।
रुचिरा जभसजगा च्छिन्ना वेदैर्ग्रहैः स्मृता ।। १४ ।।

मत्तमयूरं मतया सगौ वेदग्रहे यतिः ।
गौरीनलनसागः स्यादसम्बाधा नतौ नगौ ।। १५ ।।

गोग इन्द्रियनवकौ ननौ वसनगाः स्वराः ।
स्वराश्चापराजिता स्यान्ननभाननगाः स्वराः ।। १६ ।।

द्विःप्रहरणकलिता वसन्ततिलका नभौ ।
जौ गौ सिंहोन्नता सा स्यान्मुनेरुद्धर्षणी च सा ।। १७ ।।

चन्द्रावर्त्ता ननौ सोमावर्त्तर्तुनवकः स्मृतः ।
मणिगुणनिकरा सौ मालिनौ नौ मयौ ययः ।। १८ ।।

यतिर्वसुस्वरा भौ वौ नतलमित्रसग्रहाः ।
ऋषभगजविलासितं ज्ञेया शिखरिणी जगौ ।। १९ ।।

रसभालभृगुरुद्राः पृथ्वीजसजसा जनौ ।
गोवसुग्रहविच्छिन्ना पिह्गलेनेरिता पुरा ।। २० ।।

वंशपत्रपतितं स्याद्‌ भवना भौ नगौ सदिक् ।
हरिणी नसमारः सो नगौ रसचतुःस्वराः ।। २१ ।।

मन्दाक्रान्ता नभनतं तगौगछिरसस्वराः ।
कुसुमितलता वेल्लिता मतना यययाः शराः ।। २२ ।।

रथाः स्व्राः प्रतिरथससजाः सततश्च गः ।
शार्दूलविक्रीड़ितं स्यादादित्यमुनयो यतिः ।। २३ ।।

कृतिः सुवदना मोरो भनया भनगाः सुराः ।
यतिर्मुनिरसाश्चाथ इति वृत्तं क्रमात् स्मृतम् ।। २४ ।।

स्रग्ध्रा मरतानोमोयपौ त्रिःसप्तका यतिः ।
समुद्रकं भरजानोवनगा दशभास्कराः ।। २५ ।।

अस्वललितं नजभा जभजा भनमीशतः ।
मत्ताक्रीड़ा ममनना नौनग्नौ गोष्टमातिथिः ।। २६ ।।

तन्वी भनतसाभोभो लयो वाणसुरार्क्ककाः ।
क्रौञ्चपदा भमतता नौ नौ वाण्शराष्टतः ।। २७ ।।

भुजङ्गविजृम्भितं ममतना ननवासनौ ।
गष्टेशमुनिभिश्छेदो ह्युहाराख्यमीदृशम् ।। २८ ।।

मननानतानः सो गगौ ग्रहरसो रसात् ।
नौ सप्तरोदण्डदः स्याच्चण्डवृष्टिप्रघातकं ।। २९ ।।

रेफवृद्ध्या णणवा स्युर्व्यालजीमूतमुख्यकाः ।
शेषे वै प्रचिता ज्ञेया गाथाप्रस्तार उच्यते ।। ३० ।।

इत्यादिमहापुराणे आग्नेये समवृत्तनिरूपणं नाम चतुस्त्रिंशदधिकत्रिशततमोऽध्यायः ।।

अग्नि पुराण - तीन सौ चौंतीसवाँ अध्याय ! हिन्दी मे -Agni Purana 334 Chapter!-In Hindi

तीन सौ चौंतीसवाँ अध्याय - समवृत्तका वर्णन

अग्रिदेव कहते हैं- 'यति' नाम है विच्छेद या विरामका। [ पादके अन्तमें श्लोकार्थ पूरा होनेपर तथा कहीं-कहीं पादके मध्यमें भी 'यति' होती है। जिसके प्रत्येक चरणमें क्रमशः तगण और यगण हों, उसका नाम 'तनुमध्या" है। [यह गायत्री छन्दका वृत्त है। जिसके प्रत्येक चरणमें जगण, सगण और एक गुरु हो, उसे 'कुमारललिता" कहते हैं। [यह उष्णिक् छन्दका वृत्त है। इसमें तीन, चार अक्षरोंपर विराम होता है।] दो भगण और दो गुरुसे जिसके चरण बनते हों, वह 'चित्रपदा" है। [यह अनुष्टुप् छन्दका वृत्त है, इसमें पादान्तमें ही यति होती है। जिसके प्रत्येक पादमें दो मगण और दो गुरु हों, उसका नाम 'विद्युन्माला है। [इसमें चार-चार अक्षरोंपर विराम होता है। यह भी अनुष्टुप्‌का ही वृत्त है।] जिसके प्रत्येक चरणमें भगण, तगण, एक लघु और एक गुरु हो, उसको 'माणवकाक्रीडितक कहते हैं। [इसमें भी चार-चार अक्षरोंपर विराम होता है।] जिसके प्रति चरणमें रगण, नगण और सगण हो, वह 'हलमुखी नामक छन्द है। [इसमें तीन, पाँच, छः अक्षरोंपर विराम होता है, यह बृहती छन्दका वृत्त है।] ॥ १-२ ॥ 

जिसके प्रत्येक चरणमें दो नगण और एक मगण हो, वह 'भुजङ्गशिशुभृता" नामक छन्द है। [इसमें सात और दो अक्षरोंपर विराम है। यह भी बृहतीमें ही है।] मगण, नगण और दो गुरुसे युक्त पादवाले छन्दको 'हंसरुत कहते हैं। जिसके प्रत्येक चरणमें मगण, सगण, जगण और एक गुरु हों, वह 'शुद्धविराट् नामक छन्द कहा गया है। [यहाँसे इन्द्रवज्राके पहलेतकके छन्द पड्डि छन्दके अन्तर्गत हैं; इसमें पादान्तमें विराम होता है।] जिसके प्रत्येक पादमें मगण, नगण, यगण और एक गुरु हों, वह 'पणव" नामक छन्द है। [इसमें पाँच-पाँचपर विराम होता है। रगण, जगण, रगण और एक गुरुयुक्त चरणवाले छन्दका नाम 'मयूरसारिणी है। [इसमें पादान्तमें विराम होता है। मगण, भगण, सगण और एक गुरुयुक्त चरणवाला छन्द 'मत्ता कहलाता है। [इसमें चार-छः पर विराम होता है। जिसके प्रत्येक पादमें तगण, दो जगण और एक गुरु हो, उसका नाम 'उपस्थिता है। [इसमें दो-आठपर विराम होता है। भगण, मगण, सगण और एक गुरुसे युक्त पादवाला छन्द 'रुक्मवती कहलाता है। [इसमें पादान्तमें विराम होता है। जिसके प्रत्येक चरणमें दो तगण, एक जगण और दो गुरु हों उसका नाम 'इन्द्रवज्रा है। [इसमें पादान्तमें विराम होता है। यहाँसे 'वंशस्थ के पहलेतकके छन्द बृहतीके अन्तर्गत हैं।] जगण, तगण, जगण और दो गुरुसे युक्त पादोंवाला छन्द 'उपेन्द्रवज्रा" कहलाता है। [इसमें भी पादान्तमें विराम होता है।] जब एक ही छन्दमें इन्द्रवज्रा और उपेन्द्रवज्रा- दोनोंके चरण लक्षित हों, तब उस छन्दका नाम 'उपजाति" होता है। [इन दोनोंके मेलसे जो उपजाति बनती है, उसके प्रस्तारसे चौदह भेद होते हैं। इसी प्रकार 'वंशस्थ' और 'इन्द्रवज्रा' तथा 'शालिनी' और 'वातोर्मी 'के मेलसे भी उपजाति छन्द होता है।] ॥ ३-५ ॥

तीन भगण और दो गुरुसे युक्त पादवाले वृत्तका नाम 'दोधक" है। [इसमें पादान्तमें विराम होता है। जिसके प्रत्येक चरणमें भगण, तगण, तगण और दो गुरु हों, उसका नाम 'शालिनी" है। इसमें चार और सात अक्षरोंपर विराम होता है। जिसके प्रत्येक पादमें मगण, भगण, तगण एवं दो गुरु हों, उसे 'वातोर्मी छन्द नाम दिया गया है। इसमें भी चार-सातपर विराम होता है। प्रत्येक चरणमें मगण, भगण, तगण, नगण, एक लघु और एक गुरु होनेसे 'भ्रमरीविलसिता (या भ्रमरविलसिता) नामक छन्द होता है। इसमें भी चार और सात अक्षरोंपर ही विराम होता है। जिसके प्रति पादमें रगण, नगण, रगण, एक लघु और गुरु हों, उसे 'रथोद्धता" कहते हैं। इसमें भी पूर्ववत् चार और सात अक्षरोंपर विराम होता है। रगण, नगण, भगण और दो गुरुसे युक्त पादवाले छन्दको 'स्वागता कहते हैं। [इसमें पादान्तमें विराम होता है। जिसके प्रत्येक पादमें दो नगण, सगण और दो गुरु हों, उसे 'वृत्ता (या 'वृन्ता') कहते हैं। [इसमें चार-सातपर विराम होता है।] जिसके चरण रगण, जगण, रगण, एक लघु और एक गुरुसे युक्त हों, उसे 'श्येनी" नामक छन्द कहा गया है। [इसमें पादान्तमें विराम होता है।] जगण, रगण, जगण एवं दो गुरुसे युक्त चरणवाले छन्दका नाम 'रम्या" एवं 'विलासिनी' है। [यहाँ पादान्तमें ही विराम होता है।] ॥ ६-८ ॥  

यहाँ से 'जगती' छन्दका अधिकार आरम्भ होता है [और 'प्रहर्षिणी' के पहलेतक रहता है]। जिसके प्रत्येक चरणमें जगण, तगण, जगण और रगण हों, उस छन्दका नाम 'वंशस्था है। [यहाँ पादान्तमें विराम होता है। दो तगण, जगण तथा रगणसे युक्त चरणोंवाले छन्दको 'इन्द्रवंशी" कहते हैं। [यहाँ भी पादान्तमें ही विराम होता है। जिसके प्रत्येक पादमें चार सगण हों, उसका नाम 'तोटक बताया गया है। जिसके प्रत्येक पादमें नगण, भगण, भगण और रगण हों, उसका नाम 'द्रुतविलम्बित है। ['तोटक' और 'द्रुतविलम्बित' दोनोंमें पादान्त विराम ही माना गया है। जिसके सभी चरणोंमें दो-दो नगण, एक-एक मगण तथा एक-एक यगण हों, उस छन्दका नाम 'श्रीपुट है। इसमें आठ और चार अक्षरोंपर विराम होता है। जगण, सगण, जगण, सगणसे युक्त पादोंवाले छन्दको 'जलोद्धतगति" कहते है। इसमें छः-छः अक्षरोंपर विराम होता है। दो नगण, एक मगण तथा एक रगणसे युक्त चरणवाले छन्दका नाम 'तत' है। नगण, यगण, नगण, यगणसे युक्त पादवाला छन्द 'कुसुमविचित्रा" कहलाता है। 

[इसमें भी छः- छः अक्षरोंपर विराम होता है। जिसके प्रत्येक चरणमें दो नगण और दो रगण हों, उसका नाम 'चञ्चलाक्षिका" है। [इसके भीतर सात पाँचपर विराम होता है।] प्रत्येक पादमें चार यगण होनेसे 'भुजंगप्रयात और चार रगण होनेसे 'स्रग्विणी" नामक छन्द होता है। [इन दोनों में पादान्तविराम माना गया है। जिसके प्रत्येक चरणमें सगण, जगण तथा दो सगण हों, उसकी 'प्रमिताक्षरा" संज्ञा होती है। [इसमें भी पादान्तविराम ही अभीष्ट है। भगण, मगण, सगण, मगणसे युक्त चरणोंवाले छन्दको 'कान्तोत्पीडा कहते हैं। [इसमें भी पादान्त-विराम माना गया है।] दो मगण और दो यगणयुक्त चरणवाले छन्दको 'वैश्वदेवी' नाम दिया गया है। इसमें पाँच-सात अक्षरोंपर विराम होता है। यदि प्रत्येक पादमें नगण, जगण, भगण और यगण हों तो उस छन्दका नाम 'नवमालिनी होता है। यहाँतक 'जगती' छन्दका अधिकार है ॥ ९-१३॥

[अब 'अतिजगती' छन्दके अवान्तर भेद बतलाते हैं] जिसके प्रत्येक चरणमें मगण, नगण, जगण, रगण तथा एक गुरु हों, उसकी 'प्रहर्षिणी संज्ञा है। इसमें तीन और दस अक्षरोंपर विराम होता है। जगण, भगण, सगण, जगण तथा एक गुरुसे युक्त चरणवाले छन्दका नाम 'रुचिरा है। इसमें चार तथा नौ अक्षरोंपर विराम माना गया है। मगण, तगण, यगण, सगण और एक गुरुयुक्त पादवाले छन्दको 'मत्तमयूर" कहते हैं। इसमें चार और नौ अक्षरोंपर विराम होता है। तीन नगण, एक सगण और एक गुरुसे युक्त पादवाले छन्दकी 'गौरी" संज्ञा है।

[अब शक्करीके अन्तर्गत विविध छन्दोंका वर्णन किया जाता है- जिसके प्रत्येक पादमें मगण, तगण, नगण, सगण तथा दो गुरु हों और पाँच एवं नौ अक्षरोंपर विराम होता हो, उसका नाम 'असम्बाधा है। जिसके प्रतिपादमें दो नगण, रगण, सगण और एक लघु और एक गुरु हों तथा सात-सात अक्षरोंपर विराम होता हो, वह 'अपराजिता" नामक छन्द है। दो नगण, भगण, नगण, एक लघु और एक गुरुसे युक्त पादवाले छन्दको 'प्रहरणकलिता कहते हैं। इसमें सात-सातपर विराम होता है। तगण, भगण, दो जगण और दो गुरुसे युक्त पादवाले छन्दकी 'वसन्ततिलका" संज्ञा है। [इसमें पादान्तमें विराम होता है। किसी-किसी मुनिके मतमें इसका नाम 'सिंहोन्नता' और 'उद्धर्षिणी' भी है ॥ १४-१७ ॥ 

[इसके आगे 'अतिशक्करी' का अधिकार है। जिसके प्रत्येक पादमें चार नगण और एक सगण हों, उसका नाम 'चन्द्रावती" है। [इसमें सात आठपर विराम होता है। इसीमें जब छः और नौ अक्षरोंपर विराम हो तो इसका नाम 'माला' होता है। आठ और सातपर विराम होनेसे यह छन्द 'मणिगणनिकर कहलाता है। दो नगण, मगण और दो यगणसे युक्त चरणोंवाले छन्दको 'मालिनी कहते हैं। इसमें भी आठ और सात अक्षरोंपर ही विराम होता है। भगण, रगण, तीन नगण और एक गुरुसे युक्त चरणवाले छन्दको 'ऋषभगजविलसित नाम दिया गया है। इसमें सात-नौ अक्षरोंपर विराम होता है। [यह 'अष्टि' छन्दके अन्तर्गत है। यगण, मगण, नगण, सगण, भगण, एक लघु तथा एक गुरुसे युक्त चरणोंवाले छन्दको 'शिखरिणी कहते हैं। इसमें छः तथा ग्यारह अक्षरोंपर विराम होता है। जिसके प्रत्येक चरणमें जगण, सगण, जगण, सगण, यगण, एक लघु और एक गुरु हों तथा आठ-नौ अक्षरोंपर विराम हो उसका नाम 'पृथ्वी है- यह पूर्वकालमें आचार्य पिङ्गलने कहा है। 

मगण, रगण, नगण, भगण, नगण, एक लघु तथा एक गुरुसे युक्त पदवाले छन्दको 'वंशपत्रपतित" कहते हैं। इसमें दस-सातपर विराम होता है। जिसके प्रत्येक चरणमें नगण, सगण, मगण, रगण, सगण, एक लघु तथा एक गुरु हों और छः, चार एवं सात अक्षरोंपर विराम हो, उसका नाम 'हरिणी है। [शिखरिणीसे मन्दाक्रान्तातकका छन्द 'अत्यष्टि' के अन्तर्गत है। मगण, भगण, नगण, दो तगण तथा दो गुरुसे युक्त पादोंवाले छन्दको 'मन्दाक्रान्ता" कहते हैं। इसमें चार, छः और सात अक्षरोंपर विराम होता है। जिसके पादोंमें मगण, तगण, नगण तथा तीन यगण हों, वह 'कुसुमितलतावेल्लिता छन्द है। [यह 'धृति' छन्दके अन्तर्गत है। इसमें पाँच, छः तथा सात अक्षरोंपर विराम होता है। जिसके प्रत्येक चरणमें मगण, सगण, जगण, भगण, दो तगण और एक गुरु हों, उसका नाम 'शार्दूलविक्रीडित है। इसमें बारह तथा सात अक्षरोंपर विराम होता है। [यह छन्द 'अतिधृति के अन्तर्गत है] ॥ १८-२३ ॥

'सुवदना" छन्द 'कृति 'के अन्तर्गत है। इसके प्रत्येक पादमें मगण, रगण, भगण, नगण, यगण, भगण, एक लघु और एक गुरु होते हैं। इसमें सात, सात, छःपर विराम होता है। जब कृतिके प्रत्येक पादमें क्रमशः गुरु और लघु अक्षर हों तो उसे 'वृत्त छन्द कहते हैं। मगण, रगण, भगण, नगण और तीन यगणसे युक्त चरणोंवाले छन्दका नाम 'स्रग्धरा है। इसमें सात-सातके तीन विराम होते हैं। [यह 'प्रकृति' छन्दके अन्तर्गत है। जिसके प्रत्येक चरणमें भगण, रगण, नगण, रगण, नगण, रगण, नगण तथा एक गुरु हों और दस-बारह अक्षरोंपर विराम होता हो, उसे 'सुभद्रक छन्द कहते हैं। [यह 'आकृति' छन्दके अन्तर्गत है। नगण, जगण, भगण, जगण, भगण, जगण, भगण, एक लघु और एक गुरुसे युक्त पादवाले छन्दकी 'अश्वललिता संज्ञा है। इसमें ग्यारह बारहपर विराम होता है। [यह 'विकृति' के अन्तर्गत है] ॥ २४-२५॥

जिसके प्रत्येक चरणमें दो मगण, एक तगण, चार नगण, एक लघु और एक गुरु हों तथा आठ और पंद्रहपर विराम हो, उसे 'मत्तक्रीडा [या मत्ताक्रीडा] कहते हैं। [यह भी 'विकृति 'में ही है। जिसके पृथक् पृथक् सभी पादोंमें भगण, तगण, नगण, सगण, फिर दो भगण, नगण और यगण हों तथा पाँच, सात, बारहपर विराम होता हो, उसकी 'तन्वी संज्ञा है। [यह 'संस्कृति' छन्दके अन्तर्गत है। जिसके प्रत्येक चरणमें भगण, मगण, सगण, भगण, चार नगण और एक गुरु हों तथा पाँच-पाँच, आठ और सातपर विराम होता हो, उस छन्दका नाम 'क्रौञ्चपदा है। [यह 'अभिकृति'के अन्तर्गत है। जिसके प्रतिपादमें दो मगण, तगण, तीन नगण, रगण, सगण, एक लघु और एक गुरु हों तथा आठ, ग्यारह और सातपर विराम होता हो, उस छन्दको 'भुजंगविजृम्भित" कहते हैं। [यह 'उत्कृति' छन्दके अन्तर्गत है। जिसके प्रत्येक पादमें एक मगण, छः नगण, एक सगण और दो गुरु हों तथा नौ, छः-छः एवं पाँच अक्षरोंपर विराम होता हो, उसको 'अपहाव' या 'उपहाव' नाम दिया गया है। [यह भी 'उत्कृति' में ही है] ॥ २६-२८ ॥ 

[अब 'दण्डक' जातिका वर्णन किया जाता है- जिसके प्रत्येक चरणमें दो नगण और सात रगण हों, उसका नाम 'दण्डक" है; इसीको 'चण्डवृष्टिप्रपात' भी कहते हैं। [इसमें पादान्तमें विराम होता है। उक्त छन्दमें दो नगणके सिवा रगणमें वृद्धि करनेपर 'व्याल', 'जीमूत' आदि नामवाले 'दण्डक' बनते हैं। 'चण्डप्रपात 'के बाद अन्य जितने भी भेद होते हैं, वे सभी दण्डक- प्रस्तार 'प्रचित कहलाते हैं। अब 'गाथा- प्रस्तार'का वर्णन करते हैं॥ २९-३०॥

इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें 'समवृत्तनिरूपण' नामक तीन सौ चौंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३३४॥

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