अग्नि पुराण तीन सौ बत्तीसवाँ अध्याय ! Agni Purana 332 Chapter !
अग्नि पुराण तीन सौ बत्तीसवाँ अध्याय - विषम कथ नम्
अग्निरुवाच
वृत्तं समञ्चार्द्धसमं विषमञ्च त्रिधा वदे ।
समन्तावत् कृत्वकृतमर्द्धसमञ्च कारयेत् ।। १ ।।
पिषमञ्चैव वास्यूनमतिवृत्तं समान्यपि ।
ग्लौचतुःप्रमाणी स्यादाभ्यामन्यद्वितानकं ।। २ ।।
पादस्याद्यन्तु वक्रं स्यात् शनौ न प्रथमास्मृतौ ।
बाल्यमुश्चतुर्थाद्वर्णात् पथ्या वर्णं युजेयतः ।। ३ ।।
विपरीतपथ्यान्या साच्चपला वा युजस्वनः ।
विपुलायुग्नसप्तमः सर्व्वं तस्यैव तस्य च ।। ४ ।।
तौन्तौ वा विपुलानेका चक्रजातिः समीरिता ।
भवेन् पदचतुरूद्र्ध्वं चतुर्वृद्ध्या पदेषु च ।। ५ ।।
गुरुद्वयान्त आपीडः प्रत्यापीडो गणादिकः ।
प्रथमस्य विपर्य्यासे मञ्जरी लवणी क्रमात् ।। ६ ।।
भवेदमृतधाराख्या उद्धताद्य्चयतेऽधुना ।
एकतः ससजसानः स्युर्न सौ जो गोऽथ भौनजौ ।। ७ ।।
नोगोऽथ सजसा गोगस्तृतीयचरणस्य च ।
सौरभे केचनभगा ललितञ्च नमौ जसौ ।। ८ ।।
उपस्थितं प्रचुपितं प्रथमाद्यं समौ जसौ ।
गोगथां मलजा रोगः समो नगरजयाः पदे ।। ९ ।।
वर्द्धमानं मलौ स्वौ नसौ अथो भोजोव इरिता ।
शुद्धविराड़ार्षभाख्यं वक्ष्ये चार्द्धसमन्ततः ।। १० ।।
इत्यादिमहापुराणे आग्नेये विषमकथनं नाम द्वात्रिंशदधिकत्रिशततमोऽध्यायः ।।
अग्नि पुराण - तीन सौ बत्तीसवाँ अध्याय ! हिन्दी मे -Agni Purana 332 Chapter!-In Hindi
तीन सौ बत्तीसवाँ अध्याय - विषमवृत्त का वर्णन
अग्निदेव कहते हैं- [छन्द या पद्य दो प्रकारके हैं- 'जाति' और 'वृत्त'। यहाँतक 'जाति' छन्दोंका निरूपण किया गया, अब 'वृत्त'का वर्णन करते हैं] वृत्तके तीन भेद हैं-सम, अर्धसम तथा विषम। इन तीनोंका प्रतिपादन करता हूँ। 'समवृत्त 'की संख्यामें उतनी ही संख्यासे गुणा करे। इससे जो गुणनफल हो, उसे अर्धसमवृत्तकी संख्या समझनी चाहिये। इसी प्रकार 'अर्थसमवृत्त' की संख्यामें भी उसी संख्यासे गुणा करनेपर जो अङ्क उपलब्ध हो, वह 'विषमवृत्त' की संख्या है। विषमवृत्त और अर्धसमवृत्तकी संख्यार्मेसे मूलराशि घटा देनी चाहिये। इससे शुद्ध विषम और शुद्ध अर्धसमवृत्तकी संख्याका ज्ञान होगा। [केवल गुणनसे जो संख्या ज्ञात होती है, वह मिश्रित होती है; उसमें अर्धसमके साथ सम और विषमके साथ अर्धसमकी संख्या भी सम्मिलित रहती है'।] जो अनुष्टुप् छन्द प्रत्येक चरणमें गुरु और लघु अक्षरोंद्वारा समाप्त होता है, अर्थात् जिसके प्रत्येक पादमें अन्तिम दो वर्ण क्रमशः गुरु-लघु होते हैं, उसे 'समानी" नाम दिया गया है। जिसके चारों चरणोंके अन्तिम वर्ण क्रमशः लघु और गुरु हों, उसकी 'प्रमाणी संज्ञा है। इन दोनोंसे भिन्न स्थितिवाला छन्द 'वितान" कहलाता है।
[इसके अन्तिम दो वर्ण केवल लघु अथवा केवल गुरु भी हो सकते हैं।] यहाँसे तीन अध्यायोंतक 'पादस्य' इस पदका अधिकार है तथा 'पदचतुरूर्ध्व' छन्दके पहलेतक 'अनुष्टुव्वक्त्रम् 'का अधिकार है। तात्पर्य यह कि आगे बताये जानेवाले कुछ अनुष्टुप् छन्द 'वक्त्र' संज्ञा धारण करते हैं। 'वक्त्र' जातिके छन्दमें पादके प्रथम अक्षरके पश्चात् सगण (115) और नगण (111) नहीं प्रयुक्त होने चाहिये। इन दोनोंके अतिरिक्त मगण आदि छः गणोंमेंसे किसी एक गणका प्रयोग हो सकता है। पादके चौथे अक्षरके बाद भगण (511) का प्रयोग करना उचित है। जिस 'वक्त्र' जातिके छन्दमें द्वितीय और चतुर्थ पादके चौथे अक्षरके बाद जगण (151) का प्रयोग हो, उसे 'पथ्या वक्त्र" कहते हैं। किसी-किसीके मतमें इसके विपरीत न्यास करनेसे, अर्थात् प्रथम एवं तृतीय पादके बाद जगण (151) का प्रयोग करनेसे 'पथ्या संज्ञा होती है। जब विषम पादोंके चतुर्थ अक्षरके बाद नगण (।।।) हों तथा सम पादोंमें चतुर्थ अक्षरके बाद यगण (155) की ही स्थिति हो तो उस 'अनुष्टुब्वक्त्र 'का नाम 'चपला होता है। जब सम पादोंमें सातवाँ अक्षर लघु हो, अर्थात् चौथे अक्षरके बाद जगण (151) हो तो उसका नाम 'विपुला होता है। [यहाँ सम पादोंमें तो सप्तम लघु होगा ही, विषम पादोंमें भी यगणको बाधितकर अन्य गण हो सकते हैं- यही 'विपुला' और 'पथ्या'का भेद है।] सैतव आचार्यके मतमें विपुलाके सम और विषम सभी पादोंमें सातवाँ अक्षर लघु होना चाहिये। जब प्रथम और तृतीय पादोंमें चतुर्थ अक्षरके बाद यगणको बाध कर विकल्पसे भगण (511), रगण (515), नगण (111) और तगण (351) आदि हों तो 'विपुला छन्द होता है।
इस प्रकार 'विपुला' अनेक प्रकारकी होती है। यहाँतक 'वक्त्र' जातिके छन्दोंका वर्णन किया गया। अनुष्टुप् छन्दके प्रथम पादके पश्चात् जब प्रत्येक चरणमें क्रमशः चार-चार अक्षर बढ़ते जायें तो 'पदचतुरूवं" नामक छन्द होता है। [तात्पर्य यह कि इसके प्रथम पादमें आठ अक्षर, द्वितीय पादमें बारह, तृतीय पादमें सोलह और चतुर्थ पादमें बीस अक्षर होते हैं। उक्त छन्दके चारों चरणोंमें अन्तिम दो अक्षर गुरु हों तो उसकी 'आपीड़" संज्ञा होती है। [यहाँ अन्तिम अक्षरोंको गुरु बतलानेका यह अभिप्राय जान पड़ता है कि शेष लघु ही होते हैं।] जब आदिके दो अक्षर गुरु और शेष सभी लघु हों तो उसका नाम 'प्रत्यापीड" होता है। 'पदचतुरूर्ध्व' नामक छन्दके प्रथम पादका द्वितीय आदि पादोंके साथ परिवर्तन होनेपर क्रमशः 'मञ्जरी" 'लवली' तथा 'अमृतधारा' नामक छन्द होते हैं। (अर्थात् जब प्रथम पादके स्थानमें द्वितीय पाद और द्वितीय पादके स्थानमें प्रथम पाद हों तो 'मञ्जरी' छन्द होता है। जब प्रथम पादके स्थानमें तृतीय पाद और तृतीय पादके स्थानमें प्रथम पाद हो तो 'लवली' छन्द होता है और जब प्रथम पादके स्थानमें चतुर्थ पाद और चतुर्थ पादके स्थानमें प्रथम पाद हो तो 'अमृतधारा' नामक छन्द होता है।) अब 'उद्गता' छन्दका प्रतिपादन किया जाता है। जहाँ प्रथम चरणमें सगण (।। 5), जगण (151), सगण (115) और एक लघु- ये दस अक्षर हों, द्वितीय पादमें भी नगण (111), सगण (115), जगण (151) और एक गुरु- ये दस ही अक्षर हों, तृतीय पादमें भगण (511), नगण (111), जगण (151), एक लघु तथा एक गुरु-ये ग्यारह अक्षर हों तथा चतुर्थ चरणमें सगण (115), जगण (151), सगण (115), जगण (151) और एक गुरु- ये तेरह अक्षर हों, वह 'उद्गता" नामवाला छन्द है। उद्गताके तृतीय चरणमें जब रगण (515), नगण (111), भगण (511) और एक गुरु-ये दस अक्षर हों तथा शेष तीन पाद पूर्ववत् ही रहें तो उसका नाम 'सौरभ' होता है।
उद्गताके तृतीय पादमें जब दो नगण और दो सगण हों और शेष चरण ज्यों-के-त्यों रहें तो उसकी 'ललित' संज्ञा होती है। जिसके प्रथम चरणमें यगण, सगण, जगण, भगण और दो गुरु (अठारह अक्षर) हों, द्वितीय चरणमें सगण, नगण, जगण रगण और एक गुरु (तेरह अक्षर) हों, तृतीय चरणमें दो नगण और एक सगण (नौ अक्षर) हों तथा चतुर्थ चरणमें तीन नगण, एक जगण और एक भगण (पंद्रह अक्षर) हों, वह उपस्थित 'प्रचुपित" नामक छन्द होता है। उक्त छन्दके तृतीय चरणमें जब क्रमशः दो नगण, एक सगण फिर दो नगण और एक सगण (अठारह अक्षर) हों तो वह 'वर्धमान छन्द नाम धारण करता है। उसी छन्दमें तृतीय चरणके स्थानमें जब तगण, जगण और रगण (ये नौ अक्षर) हों तो वह 'शुद्ध विराषभ छन्द कहलाता है। अब अर्धसमवृत्तका वर्णन करूँगा ॥ १-१०॥
इस प्रकार आदि आग्रेय महापुराणमें 'विषमवृत्तका वर्णन' नामक तीन सौ बत्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३३२॥
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