अग्नि पुराण तीन सौ इकतीसवाँ अध्याय ! Agni Purana 331 Chapter !

अग्नि पुराण तीन सौ इकतीसवाँ अध्याय ! Agni Purana 331 Chapter !

अग्नि पुराण तीन सौ इकतीसवाँ अध्याय - छन्दोजातिनिरूपणम्

अग्निरुवाच

चतुःशतमुत्कृतिः स्यादुकृतेश्चतुरस्त्यजेत् ।
अभिसंव्या प्रत्यकृतिस्तानि छन्दांसि वै पृथक् ।। १ ।।

कृतिश्चातिधृतिवृत्ती अत्यष्टिष्चाष्टिरित्यतः ।
अतिशर्क्करी शक्करीति अतिजगती जगत्यपि ।। २ ।।

छन्दोऽत्र लौकिकंस्याच्च आर्षमात्रैष्टुभात् स्मृतम् ।
त्रिष्टुप्पङ्‌क्तिवृहती अनुष्टुवुष्णिगी रितम् ।। ३ ।।

गायत्री स्यात् सुप्रतिष्ठा प्रतिष्ठा मध्यया सह ।
अत्युक्तात्युक्त आदिश्च एकैकाक्षरवर्जितम् ।। ४ ।।

चतुर्भागो भवेत् पादो गण्च्छन्दः प्रदर्श्यते ।
तावन्तः समुद्रा गणा ह्यादिमध्यान्तसर्वगाः ।। ५ ।।

चतुर्णः पञ्च च गणा आर्य्यालक्षणमुच्यते ।
स्वरार्द्धञ्चार्य्यार्द्धं स्यादार्य्यांयां विषमेनजः ।। ६ ।।

षष्ठो जो नलपूर्वा स्याद्‌द्वितीयादिपदं नले ।
सप्तमेऽन्ते प्रथमा च द्वितीये पञ्चमे नले ।। ७ ।।

अर्द्धे पदं प्रथमादि षष्ठ एको लघुर्भवेत् ।
त्रिषु गणेषु पादः स्यादार्य्या पञ्चार्द्धके स्मृता ।। ८ ।।

विपुलान्याथ चपला गुरुमध्यागतौ च जौ ।
द्वितीयचतुर्थौ पूर्वे च चपला मुखपुर्विका ।। ९ ।।

द्वितीथे जघनपूर्व्वा चपलार्य्या प्रकीर्त्तिता ।
उभयोर्महाचपला गीतवाद्यार्द्धतुल्यका ।। १० ।।

अन्त्येनार्द्धेनोपगीतिरुद्‌गीतिश्चोत्क्रमात् स्मृता ।
अर्द्धे रक्षगणा आर्य्या गीतच्छन्दोऽथ मात्रया ।। ११ ।।

वैतालीयं द्विस्वरा स्यादयुष्पादे समे नलः ।
वसवोऽन्ते वनगाश्च गोपुच्छन्दशकं भवेत् ।। १२ ।।

भगणआन्ता पाटलिका शेषे परे च पूर्ववत् ।
साकं षड्वा मिश्रायुक् प्राच्यवृत्तिः प्रदर्श्यते ।। १३ ।।

पञ्चमेन पूर्वसाकं तृतीयेन सहस्रयुक् ।
उदीच्यवृत्तिर्वाच्यां स्याद् युगपच्च प्रवर्त्तकं ।। १४ ।।

अयुक्चारुहासिनी स्याद्‌युगपच्चान्तिका भवेत् ।। १५ ।।

सप्तार्च्चिर्वसवश्चैव मात्रासमकमीरितम् ।
भवेन्नलवमौ लश्च द्वादशो वा नवासिका ।। १६ ।।

विश्वोकः पञ्चमाष्टौ मो चित्र लवमकश्चलः ।
परयुक्तेनोपचित्रा पादाकुलकमित्यतः ।।  १७ ।।

गीतार्य्या लोपश्चेत् सौम्या लः पूर्वः ज्योतिरीरिता ।
स्याच्छिखा विपर्य्यास्तार्द्धा तूलिका समुदाहृता ।। १८ ।।

एकोनत्रिंशदन्ते गः स्याज्ज्ञेजनसमावला ।
गु इत्येकगुरुं संख्यावर्णाद्दशविपर्य्ययात् ।। १९ ।।

इत्यादिमहापुराणे आग्नेये छन्दोजातिनिरूपणं नामैकत्रिंशदधिकत्रिशततमोऽध्यायः ।।

अग्नि पुराण - तीन सौ इकतीसवाँ अध्याय ! हिन्दी मे -Agni Purana 331 Chapter In Hindi

तीन सौ इकतीसवाँ अध्याय - उत्कृति आदि छन्द, गण छन्द और मात्रा-छन्दोंका निरूपण

अग्निदेव कहते हैं- वसिष्ठजी! एक सौ चार अक्षरोंका 'उत्कृति' छन्द होता है। [जैसे यजुर्वेदमें 'होता यक्षदश्विनी छागस्य०' इत्यादि (२१।४१)] 'उत्कृति' छन्दमेंसे चार-चार घटाते जायें तो क्रमशः निम्नाङ्कित छन्द होते हैं-सौ अक्षरोंकी 'अभिकृति", छानबे अक्षरोंकी 'संस्कृति", बानबे अक्षरोंकी 'विकृति", अठासी अक्षरोंको 'आकृति", चौरासी अक्षरोंकी 'प्रकृति, अस्सी अक्षरोंकी 'कृति", छिहत्तर अक्षरोंकी 'अधिकृति", बहत्तर अक्षरोंकी 'धृति", अड़सठ अक्षरोंकी 'अत्यष्टि", चौसठ अक्षरोंकी 'अष्टि, साठ अक्षरोंकी 'अतिशक्करी", छप्पन अक्षरोंकी 'शक्करी", बावन अक्षरोंकी 'अतिजगती' तथा अड़तालीस अक्षरोंकी 'जगती" होती है। यहाँतक केवल वैदिक छन्द हैं। यहाँसे आगे लौकिक छन्दका अधिकार है। 'गायत्री 'से लेकर 'त्रिष्टुप्' तक जो आर्षछन्द वैदिक छन्दोंमें गिनाये गये हैं, वे लौकिक छन्द भी हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं-त्रिष्टुप्, पङ्कि, बृहती, अनुष्टुप्, उष्णिक् और गायत्री। गायत्री छन्दमें क्रमशः एक-एक अक्षरकी कमी होनेपर 'सुप्रतिष्ठा', 'प्रतिष्ठा', 'मध्या', 'अत्युक्तात्युक्त' तथा 'आदि' नामक छन्द होते है॥१-४॥ छन्दके चौथाई भागको 'पाद' या 'चरण' कहते हैं। 

[छन्द तीन प्रकारके हैं- गणच्छन्द, मात्रा-छन्द और अक्षरच्छन्द]। पहले 'गणच्छन्द' दिखलाया जाता है। चार लघु अक्षरोंकी 'गण' संज्ञा होती है। ['आर्या' के लक्षणोंकी सिद्धि ही इस संज्ञाका प्रयोजन है।] ये गण पाँच हैं। कहीं आदि गुरु (511), कहीं मध्य गुरु (151), कहीं अन्त्य गुरु (॥5), कहीं सर्वगुरु (55) और कहीं चारों अक्षर लघु (।। ।।) होते हैं। [एक 'गुरु' दो 'लघु' अक्षरोंके बराबर होता है; अतः जहाँ सब लघु हैं, वहाँ चार अक्षर तथा जहाँ सब गुरु हैं, वहाँ दो अक्षर दिखाये गये हैं।] अब 'आर्या'का लक्षण बताया जाता है। साढ़े सात गणोंकी, अर्थात् तीस मात्राओं या तीस लघु अक्षरोंकी आधी 'आर्या' होती है। [आर्यामें गुरुवर्णको दो मात्रा या दो लघु मानकर गिनना चाहिये।] 'आर्या' छन्दके विषय गणोंमें जगण (151) का प्रयोग नहीं होता। किंतु छठा गण अवश्य जगण (151) होना चाहिये। अथवा वह नगण और लघु यानी सब-का-सब लघु भी हो सकता है। जब छठा गण सब-का-सब लघु हो तो उस गणके द्वितीय अक्षरसे सुबन्त या तिडन्तलक्षण पदसंज्ञाकी प्रवृत्ति होती है। यदि छठा गण मध्य गुरु (151) अथवा सर्वलघु (।।।।) हो और सातवाँ गण भी सर्वलघु ही हो, तो सातवें गणके प्रथम अक्षरसे 'पद' संज्ञाकी प्रवृत्ति होती है। इसी प्रकार जब आर्याके उत्तरार्ध-भागमें पाँचवाँ गण सर्वलघु हो तो उसके प्रथम अक्षरसे ही पदका आरम्भ होता है। आयकि उत्तरार्ध भागमें छठा गण एकमात्र लघु अक्षरका (1) होता है। जिस आर्याक पूर्वार्ध और उत्तरार्धमें तीन-तीन गणोंके बाद पहले पादका विराम होता है, उसे 'पथ्या' माना गया है।॥५-८॥

जिस आर्याके पूर्वार्धमें या उत्तरार्धमें अथवा दोनोंमें तीन गणोंपर पादविराम नहीं होता, उसका नाम 'विपुला' होता है। [इस प्रकार इसके तीन भेद होते हैं-१-आदिविपुला, २- अन्त्यविपुला तथा ३-उभयविपुला। इनमें पहलीका नाम 'मुख-विपुला' दूसरी का 'जघनविपुला' तथा तीसरी का 'महाविपुला' है। इनके उदाहरण क्रमशः इस प्रकार हैं-

१- स्त्रिग्धच्छायालावण्यलेपिनी किंचिदवनतवीणा। 
मुखविपुला सौभाग्यं लभते स्वीत्याह माण्डव्यः ॥

२- चित्तं हरन्ति हरिणीदीर्घदृशः कामिनां कलालापैः।
नौवीविमोचनव्याजकथितजधना जघनविपुला 

३- या स्त्री कुचकलशनितम्बमण्डले जायते महाविपुला।
गम्भीरनाभिरतिदीर्घलोचना भवति सा सुभगा ॥ 

पहले पद्ममें पूर्वार्ध में, दूसरे में उत्तरार्धमें तथा तीसरे में दोनों जगह पाद-विराम तीन गणोंसे आगे होता है। जिस आर्या-छन्दमें द्वितीय तथा चतुर्थ गण गुरु अक्षरोंके बीचमें होनेके साथ ही जगण अर्थात् मध्यगुरु (131) हों, उसका नाम 'चपला' है। तात्पर्य यह है कि 'चपला' नामक आर्यामें प्रथम गण अन्त्यगुरु (115), तृतीय गण दो गुरु (55) तथा पञ्चम गण आदिगुरु (511) होता है। शेष गण पूर्ववत् रहते हैं। पूर्वार्धमें 'चपला 'का लक्षण हो तो उस आर्याका नाम 'मुखचपला होता है। परार्धमें चपलाका लक्षण होने पर उसे 'जघनचपला" कहते हैं। पूर्वार्ध और परार्ध- दोनोंमें चपलाका लक्षण संघटित होता हो तो उस का नाम 'महाचपला" है।

जहाँ आर्याके पूर्वार्धके समान ही उत्तरार्ध भी हो, उसे 'गीति" नाम दिया गया है। तात्पर्य यह कि उसके उत्तरार्धमें भी छठा गण मध्यगुरु (151) अथवा सर्वलघु (।।।।) करना चाहिये। इसी प्रकार जहाँ आयर्याके उत्तरार्धके समान ही पूर्वार्ध भी हो, उसे 'उपगीति कहते हैं। आर्याके पूर्वोक्त क्रमको विपरीत कर देनेपर 'उद्‌गीति" नाम पड़ता है। सारांश यह कि उसमें पूर्वार्धको उत्तरार्धमें और उत्तरार्धको पूर्वार्धमें रखा जाता है। यदि पूर्वार्ध में आठ गण हों तो 'आर्यागीति नामक छन्द होता है। कोई विशेषता न होनेसे इसका उत्तरार्ध भी ऐसा ही समझना चाहिये। यहाँ भी छठे गणमें मध्यगुरु और सर्वलघु-इन दोनों विकल्पोंकी प्राप्ति थी, उसके स्थानमें केवल एक 'लघु'का विधान है ॥ ९-१० ॥ 

अब 'मात्रा-छन्द' बतलाया जाता है। जहाँ विषम, अर्थात् प्रथम और तृतीय चरणमें चौदह लघु (मात्राएँ) हों और सम-द्वितीय, चतुर्थ चरणोंमें सोलह लघु हों तथा इनमेंसे प्रत्येक चरणके अन्तमें रगण (515), एक लघु और एक गुरु हो तो 'वैतालीय" नामक छन्द होता है। [रगण, लघु और गुरु मिलाकर आठ मात्राएँ होती हैं, इनके सिवा प्रथम-तृतीय पादोंमें छः-छः मात्राएँ और द्वितीय-चतुर्थ चरणोंमें आठ-आठ मात्राएँ ही शेष रहती हैं। इन्हें जोड़कर ही चौदह-सोलह मात्राओंकी व्यवस्था की गयी है। वैतालीय छन्दके अन्तमें एक गुरु और बढ़ जाय तो उसका नाम 'औपच्छन्दसक" होता है ॥ ११-१२ ॥

पूर्वोक्त वैतालीय छन्दके प्रत्येक चरणके अन्तमें जो रगण, लघु और गुरुकी व्यवस्था की गयी है, उसकी जगह यदि भगण और दो गुरु हो जायें तो उस छन्दका नाम 'आपातलिका" होता है। उपर्युक्त वैतालीय छन्दके अधिकारोंमें जो रगण आदिके द्वारा प्रत्येक चरणके अन्तमें आठ लकारों (मात्राओं) का नियम किया गया है, उनको छोड़कर प्रत्येक चरणमें जो 'लकार' शेष रहते हैं, उनमेंसे सम लकार विषम लकारके साथ मिल नहीं सकता। अर्थात् दूसरा तीसरेके और चौथा पाँचवेंके साथ संयुक्त नहीं हो सकता; उसे पृथक् ही रखना चाहिये। इससे विषम लकारोंका सम लकारोंके साथ मेल अनुमोदित होता है। द्वितीय और चतुर्थ चरणोंमें लगातार छः लकार पृथक् पृथक् नहीं प्रयुक्त होने चाहिये। प्रथम और तृतीय चरणोंमें रुचिके अनुसार किया जा सकता है। अब 'प्राच्यवृत्ति' नामक वैतालीय छन्दका दिग्दर्शन कराया जाता है। जब दूसरे और चौथे चरणमें चतुर्थ लकार (मात्रा) पञ्चम लकारके साथ संयुक्त हो तो उसका नाम 'प्राच्यवृत्ति होता है। [यद्यपि सम लकारका विषम लकारके साथ मिलना निषिद्ध किया गया है, तथापि वह सामान्य नियम है; प्राच्यवृत्ति आदि विशेष स्थलोंमें उस नियमका अपवाद होता है।] शेष लकार पूर्वोक्त प्रकारसे ही रहेंगे। जब प्रथम और तृतीय चरणमें दूसरा लकार तीसरेके साथ मिश्रित होता है, तब 'उदीच्यवृत्ति नामक वैतालीय कहलाता है। शेष लकार पूर्वोक्त रूपमें ही रहते हैं। जब दोनों लक्षणोंकी एक साथ ही प्रवृत्ति हो, अर्थात् द्वितीय और चतुर्थ पादोंमें पञ्चम लकार के साथ चौथा मिल जाय और प्रथम एवं तृतीय चरणोंमें तृतीय के साथ द्वितीय लकार संयुक्त हो जाय तो 'प्रवृत्तिक" नामक छन्द होता है। 

जिस वैतालीय छन्द के चारों चरण विषम पादोंके ही अनुसार हों, अर्थात् प्रत्येक पाद चौदह लकारों से युक्त हो तथा द्वितीय लकार तृतीयसे मिला हो, उसे 'चारुहासिनी" कहते हैं। जब चारों चरण सम पादोंके लक्षणसे युक्त हों अर्थात् सबमें सोलह लकार (मात्राएँ) हों और चतुर्थ लकार पञ्चम से मिला हो तो उसका नाम 'अपरान्तिका है। जिसके प्रत्येक पादमें सोलह लकार हों, किंतु पादके अन्तिम अक्षर गुरु ही हों, उसे 'मात्रासमक" नामक छन्द कहा गया है। साथ ही इस छन्दमें नवम लकार किसीसे मिला नहीं रहता। जिस 'मात्रासमक 'के चरण में बारहवाँ लकार अपने स्वरूपमें ही स्थित रहता है, किसीसे मिलता नहीं, उसका नाम 'वानवासिका है। जिसके चारों चरणोंमें पाँचवाँ और आठवाँ लकार लघुरूपमें ही स्थित रहता है, उसका नाम 'विश्लोक है। जहाँ नवाँ भी लघु हो, वह 'चित्रा" नामक छन्द कहलाता है। जहाँ नवाँ लकार दसवेंके साथ मिलकर गुरु हो गया हो, वहाँ 'उपचित्रा" नामक छन्द होता है। मात्रासमक, विश्लोक, वानवासिका, चित्रा और उपचित्रा- इन पाँचोंमें जिस किसी भी छन्दके एक-एक पादको लेकर जब चार चरणोंका छन्द बनाया जाय, तब उसे 'पादाकुवक कहते हैं। जिसके प्रत्येक चरणमें सोलह लघु स्वरूपसे ही स्थित हों, किसीसे मिलकर गुरु न हो गये हों, उस छन्दका नाम 'गीत्यार्या" है। इसी गीत्यार्यामें जब आधे भागको सभी मात्राएँ गुरुरूपमें हों और आधे भागकी मात्राएँ लघुरूपमें तो उसका नाम 'शिखा' होता है। 

इसीके दो भेद हैं- पूर्वार्धभागमें लघु- ही लघु और उत्तरार्धमें गुरु-ही-गुरु हों तो उसका नाम 'ज्योति बताया गया है। इसके विपरीत पूर्वार्धभागमें सब गुरु और उत्तरार्धमें सब लघु हों तो 'सौम्या" नामक छन्द होता है। जब पूर्वार्धभागमें उन्तीस लकार और उत्तरार्धमें इकतीस लकार हों एवं अन्तिम दो लकारोंके स्थानमें एक-एक गुरु हो तो उसका नाम 'चूलिका होता है। छन्दकी मात्राओंसे उसके अक्षरोंमें जितनी कमी हो, उतनी गुरुकी संख्या और अक्षरोंसे जितनी कमी गुरुकी संख्यामें हो, उतनी लघुकी संख्या मानी गयी है। तात्पर्य यह है कि यदि कोई पूछे, इस आर्यामें कितने लघु और कितने गुरु हैं तो उस आर्याको लिखकर उसकी सभी मात्राओंकी गणना करके कहीं लिख ले फिर अक्षरोंकी संख्या लिख ले। मात्राके अङ्कॉमेंसे अक्षरोंके अङ्क घटा दे; जितना बचे, वह गुरुकी संख्या हुई। इसी प्रकार अक्षरसंख्यामें गुरुकी संख्या घटा देनेपर जो बचे, वह लघु अक्षरोंकी संख्या होगी। इस प्रकार वर्ण आदिके अन्तरसे गुरु-लघु आदिका ज्ञान प्राप्त करना चाहिये ॥ १३-१८ ॥

इस प्रकार आदि आग्रेय महापुराणमें 'छन्दोजातिका निरूपण' नामक तीन सी इकतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३३१॥

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