अग्नि पुराण तीन सौ तीसवाँ अध्याय ! Agni Purana 330 Chapter !
अग्नि पुराण तीन सौ तीसवाँ अध्याय - छन्दःसारः
अग्निरुवाच
पाद आपादपूरणे गायत्र्यो वसवः स्मृताः ।
जगत्या आदित्याः पादो विराजो दिश ईरिताः ।। १ ।।
विष्णुतो रुद्राः पादः स्याच्छन्द एकादिपादकं ।
आद्यं चतुष्पाच्चतुर्मिस्त्रिपात् सप्ताक्षरैः क्कचित् ।। २ ।।
सा गायत्री पदे नीवृत् तत्प्रतिष्ठादि षट् त्रिपात् ।
बधँमाना षड़ष्टाष्टा त्रिपात् षड् वसूभूवरैः ।। ३ ।।
गायत्री त्रिपदा नीवृत् नागी नवनवर्त्तुभिः ।
वाराही रसद्विरसा छम्दश्चाथ तृतीयकप् ।। ४ ।।
द्विषाद् द्वादशवस्वन्तैः त्रिपात्तु त्रैष्टभैः स्मृतम् ।
उष्णिक् छन्दोऽष्टवसुकैः पादैर्वेदे प्रकीर्त्तितः ।। ५ ।।
ककुबुष्णिगष्टसूर्य्यवस्वर्णा त्रिभिरेव सः ।
पुनरुष्णिक् सूर्य्यवसुवस्वर्णैश्च त्रिपाद्भवेत् ।। ६ ।।
परोष्णिक् परतस्तस्माच्चतुष्णदात् त्रिभिर्भवेत् ।
साष्टाक्षरैरनुष्टुप् स्यात् चतुष्पाच्च त्रिपात् क्कचित् ।। ७ ।।
अष्टार्कसूर्य्यवर्णैः स्यात् मध्येऽन्ते च क्कचिद्भवेत् ।
वृहतीजगत्यस्त्रवोगायत्र्याः पूर्व्वको यदि ।। ८ ।।
तृतीयः पथ्या भवति द्वितीयान्यं कुसारिणी ।
स्कन्धौ ग्रीवा क्रोष्टुके स्याद् यक्षे स्याद्वो वृहत्यपि ।। ९ ।।
उपरिष्टाद् वृहत्यन्ते पुरस्ताद् वृहती पुनः ।
क्कचिन्नवकाश्चत्वारो दिग्विदिक्ष्वष्टवर्णिकाः ।। १० ।।
महावृहती जागतैः स्यात् त्रिभिः सतो वृहत्यप्रि ।
भण्डिलः पङ्क्तिच्छन्दः स्यात् सूर्य्यार्काष्टाष्टवर्णकैः ।। ११ ।।
पूर्व्वौ वेदयुजौ सतः पङ्क्तिश्च विपरीतकौ ।
प्रस्तारपङक्तिः पुरतः पवादास्तारपङ्क्तिका ।। १२ ।।
अक्षरपङ्क्तिः पञ्चकाश्चत्वारश्चाल्पशो द्वयं ।
पदपङ्क्तिः पञ्च भवेच्चतुषकं षट्ककत्रयेम् ।। १३ ।।
षट्कपञ्चभिर्गायत्रैः षड्भिश्च जगती भवेत् ।
एकेन त्रिष्टुव्ज्योतिष्मती तथैव जगतोरिता ।। १४ ।।
पुरस्ताज्जयोतिः प्रथमे मध्ये ज्योतिश्च मध्यतः ।
उपरिष्टाज्जोतिरन्त्यादेकस्मिन् पञ्चके तथा ।। १५ ।।
भवेच्छन्दः शङ्कुमती षट्के छन्दः ककुद्मती ।
त्रिपादशिशुमध्या स्यात् सा पिपीलिकमध्यमा ।। १६ ।।
विपरीता यवमध्या त्रिवृदेकेन वर्जिता ।
भूमिजैकेनाधिकेन द्विहीना च चिराद्भवेत् ।। १७ ।।
स्वराट्स्याद्द्वाभ्यामधिकं सन्दिग्धो दैवतादितः ।
आदिपादान्निश्चयः स्याच्छन्दसां देवता क्रमात् ।। १८ ।।
अग्निः सूर्य्यः शशी जीवो वरुणश्चन्द्र एव च ।
विश्वेदेवाश्च षड़ जाद्याः स्वराः षड़ जो वृषः क्रमात् ।। १९ ।।
गान्धारो मध्यमश्चैव पञ्चमो धैवतस्तथा ।
निषादवर्णाः श्वेतश्च साहड्गश्च पिसड्गकः ।। २० ।।
कृष्णो नीलो लोहितश्च गौरी गायत्रिमुख्यके ।
गोरोचनाभाः कृतयो ज्योतिश्छन्दो हि श्यामलं ।। २१ ।।
अग्निर्वैश्यः काश्यपश्च गौतमाह्गिरसौ क्रमात् ।
भार्गवः कौशिकश्चैव वाशिष्ठो गोत्रमीरितं ।। २२ ।।
इत्यादिमहापुराणे आग्नेये छन्दःसारो नाम त्रिशदधिकत्रिशततमोऽध्यायः ।।
अग्नि पुराण - तीन सौ तीसवाँ अध्याय ! हिन्दी मे -Agni Purana 330 Chapter!-In Hindi
तीन सौ तीसवाँ अध्याय - 'गायत्री 'से लेकर 'जगती' तक छन्दों के भेद तथा उनके देवता, स्वर, वर्ण और गोत्र का वर्णन
अग्निदेव कहते हैं- इस प्रकरणकी पूर्ति होने तक 'पादः' पदका अधिकार (अनुवर्तन) है। जहाँ गायत्री आदि छन्दों में किसी पादकी अक्षर-संख्या पूरी न हो, वहाँ 'इय्', 'उव्' आदिके द्वारा उसकी पूर्ति की जाती है। (जैसे 'तत्सवितुर्वरेण्यम्' में आठ अक्षरकी पूर्तिके लिये 'वरेण्यम्' के स्थानमें 'वरेणियम्' समझ लिया जाता है। 'स्वः पते' के स्थानमें 'सुवःपते' माना जाता है।) गायत्री छन्दका एक पाद आठ अक्षरों का होता है। अर्थात् जहाँ 'गायत्री के पाद' का कथन हो, वहाँ आठ अक्षर ग्रहण करने चाहिये। [यही बात अन्य छन्दोंके पादोंके सम्बन्धमें भी है।] 'जगती' छन्दका पाद बारह अक्षरोंका होता है। विराट्के पाद दस अक्षरोंके बताये गये हैं। 'त्रिष्टुप् छन्द का चरण ग्यारह अक्षरों का है। जिस छन्दका जैसा पाद बताया गया है, उसीके अनुसार कोई छन्द एक पादका, कोई दो पादका, कोई तीनका और कोई चार पादका माना गया है। [जैसे आठ अक्षरके तीन पादोंका 'गायत्री' छन्द और चार पादोंका 'अनुष्टुप्' होता है।] 'आदि छन्द' अर्थात् 'गायत्री' कहीं छः अक्षरके पादोंसे चार पादोंकी होती है। [जैसे ऋग्वेदमें 'इन्द्रः शचीपतिर्बलेन वीलितः। दुश्च्यवनो वृषा लमत्सु सामहिः ॥'] कहीं-कहीं गायत्री सात अक्षरके पादोंसे तीन पादकी होती है। [जैसे ऋग्वेदमें- 'युवाकु हि शचीनां युवाकु सुमतीनाम्। भूयाम वाजदाम्नाम् ॥' (१।१७।४)] वह सात अक्षरोंवाली गायत्री 'पाद-निवृत्' संज्ञा धारण करती है। यदि गायत्रीका प्रथम पाद आठ अक्षरोंका, द्वितीय पाद सात अक्षरोंका तथा तृतीय पाद छः अक्षरोंका हो तो वह 'प्रतिष्ठा गायत्री' नामक छन्द होता है।
[जैसे ऋग्वेदमें आपः पृणीत भेषजं वरूथं तन्वे मम। ज्योक् च सूर्य दृशे ॥' (१।२२।२१)] इसके विपरीत यदि गायत्री का प्रथम पाद छः, द्वितीय पाद सात और तृतीय पाद आठ अक्षरोंका हो तो उसे 'वर्धमाना" गायत्री कहते हैं। यदि तीन पादोंवाली गायत्रीका प्रथम पाद छः, द्वितीय पाद आठ और तीसरा पाद सात अक्षरोंका हो तो उसका नाम 'अतिपाद निवृत्' होता है। यदि दो चरण नौ-नौ अक्षरोंके हों और तीसरा चरण छः अक्षरोंका हो तो वह 'नागी' नामकी गायत्री होती है। [जैसे ऋग्वेदमें- 'अग्रे तमद्याश्चं न स्तोमैः क्रतुं न भद्रं हृदिस्पृशम् । ऋध्यामां ओहैः ॥ (४।१०।१)] यदि प्रथम चरण छः अक्षरोंका और द्वितीय तृतीय नौ-नौ अक्षरोंके हों तो 'वाराही गायत्री' नामक छन्द होता है। [जैसे सामवेदमें- 'अग्ने मृड महाँ अस्यय आदेवयुं जनम्। इयेथ बर्हिरासदम् ॥' (२३)] अब तीसरे अर्थात् 'विराट्' नामक भेदको बतलाते हैं। जहाँ दो ही चरणोंका छन्द हो, वहाँ यदि प्रथम चरण बारह और द्वितीय चरण आठ अक्षरका हो तो वह 'द्विपाद् विराद्' नामक गायत्री छन्द है। [जैसे ऋग्वेदमें 'नृभिर्यमानो हर्यतो विचक्षणो। राजा देवः समुद्रियः ॥' (९।१०७।१६)] ग्यारह अक्षरोंके तीन चरण होनेपर 'त्रिपाद् विराट्' नामक गायत्री होती है। [उदाहरण ऋग्वेदमें दुहीयन् मित्रधितये युवाकु राये च नो मिमीतं वाजवत्यै। इषे च नो मिमीतं धेनुमत्यै ॥' (१।१२०।९)॥१-४॥
जब दो चरण आठ-आठ अक्षरोंके और एक चरण बारह अक्षरोंका हो तो वेदमें उसे 'उष्णिक् नाम दिया गया है। प्रथम और तृतीय चरण आठ अक्षरोंके हों और बीचका द्वितीय चरण बारह अक्षरोंका हो तो वह तीन पादोंका 'ककुप् उष्णिक्' नामक छन्द होता है। [जैसे त्रह्मवेदमें- 'सुदेवः समहासति सुवीरो नरो मरुतः स मर्त्यः । यं त्रायध्वेऽस्यासते ॥' (५/५३।१५)] जब प्रथम चरण बारह अक्षरोंका और द्वितीय तृतीय चरण आठ-आठ अक्षरोंके हों तो 'पुर उष्णिक् नामक तीन पादोंवाला छन्द होता है। [जैसे ऋग्वेदमें - ' अफ्वन्तरमृतमप्सु भेषजमपामुत प्रशस्तये। देवा भवत वाजिनः ॥' (१।२३।१९)] जब प्रथम और द्वितीय चरण आठ-आठ अक्षरोंके हों और तृतीय चरण बारह अक्षरोंका हो तो 'परोष्णिक्' छन्द होता है। [जैसे ऋग्वेदमें 'अग्ने वाजस्य गोमत ईशानः सहसो यहो। अस्मे धेहि जातवेदो महि श्रवः ॥' (१।७९।४)] सात-सात अक्षरोंके चार चरण होनेपर भी 'उष्णिक' नामक छन्द होता है। [जैसे ऋग्वेदमें 'नदं व ओदतीनां नदं यो युवतीनाम्। पतिं वो अध्न्यानां धेनूनामिषुध्यसि ॥' (८।६९।२) आठ-आठ अक्षरके चार चरणोंका 'अनुष्टुप्' नामक छन्द होता है। [जैसे यजुर्वेदमें 'सहस्त्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्त्रपात्। स भूमिं सर्वतः स्पृत्वा अत्यतिष्ठद्दशाङ्गुलम् ॥' (३१।१)] अनुष्टुप् छन्द कहीं-कहीं तीन चरणोंका भी होता है। 'त्रिपाद अनुष्टुप्' दो तरहके होते हैं। एक तो वह है, जिसके प्रथम चरणमें आठ तथा द्वितीय और तृतीय चरणोंमें बारह बारह अक्षर होते हैं। दूसरा वह है, जिसका मध्यम अथवा अन्तिम पाद आठ अक्षरका हो तथा शेष दो चरण बारह-बारह अक्षरके हों। आठ अक्षरके मध्यम पादवाले 'त्रिपाद् अनुष्टुप्' का उदाहरण [जैसे ऋग्वेदमें- 'पर्युपु प्र धन्व वाजसातय, परि वृत्राणि सक्षणिः। द्विषस्तरध्या ऋणया न ईयसे ॥' (९।११०।१)] तथा आठ अक्षरके अन्तिम चरणवाले 'त्रिपाद् अनुष्टुप्' का उदाहरण [ऋग्वेदमें- 'मा कस्मै धातमभ्यमित्रिणे नो मा कुत्रा नो गृहेभ्यो धेनवो गुः।
स्तनाभुजो अशिश्वीः ।।' (१।१२०।८)] यदि एक चरण 'जगती'का (अर्थात् बारह अक्षरका) हो और शेष तीन चरण गायत्रीके (अर्थात् आठ-आठ अक्षरके) हों तो यह चार चरणोंका 'बृहती छन्द' होता है। इसमें भी जब पहलेका स्थान तीसरा चरण ले ले अर्थात् वही जगतीका पाद हो और शेष तीन चरण गायत्रीके हों तो उसे 'पथ्या बृहती' कहते हैं। [जैसे सामवेदमें 'मा चिदन्यद् विशंसत सखायो मा रिषण्यत। इन्द्रमित् स्तोता वृषणं सचा सुते मुहुरुक्था च शंसत ॥' (२४२)] जब पहलेवाला 'जगती 'का चरण द्वितीय पाद हो जाय और शेष तीन गायत्रीके चरण हों तो 'न्यङ्गुसारिणी बृहती' नामक छन्द होता है। [जैसे ऋग्वेदमें - 'मत्स्यपायि ते महः पात्रस्येव हरिवो मत्सरो मदः। वृषा ते वृष्ण इन्दुर्वाजीसहस्त्रसातमः ॥' (१।१७५।१)] आचार्य क्रोष्टुकिके मतमें यह (न्यकुसारिणी) 'स्कन्ध' या 'ग्रीवा' नामक छन्द है। यास्काचार्यने इसे ही 'उरोबृहती' नाम दिया है। जब अन्तिम (चतुर्थ) चरण 'जगती'का हो और आरम्भके तीन चरण गायत्रीके हों तो 'उपरिष्टाद् बृहती" नामक छन्द होता है। वही 'जगती 'का चरण जब पहले हो और शेष तीन चरण गायत्री छन्दके हों तो उसे 'पुरस्ताद् बृहती' छन्द कहते हैं। [जैसे ऋग्वेदमें 'महो यस्पतिः शस्वसो असाम्या महो नृम्णस्य ततुजिः। मर्ता वज्रस्य धृष्णोः पिता पुत्रमिव प्रियम् ॥' (१०।२२।३)] वेदमें कहीं- कहीं नौ-नौ अक्षरोंके चार चरण दिखायी देते हैं। वे भी 'बृहती' छन्दके ही अन्तर्गत हैं। [उदाहरणके लिये ऋऋग्वेदमें 'तं त्वा वयं पितो वचोभिर्गावो न हव्या सुषूदिम। देवेभ्यस्त्वा सधमादमस्मभ्यं त्वा सधमादम् ॥ (१।१८७।११)] जहाँ पहले दस अक्षरके दो चरण हों, फिर आठ अक्षरोंके दो चरण हों, उसे भी 'बृहती' छन्द कहते हैं। [जैसे सामवेदमें 'अग्ने विवस्वदुषसञ्चित्रं राधो अमर्त्य। आ दाशुषे जातवेदो वहा त्वमद्या देवाँ उषर्बुधः ॥ (४०)] केवल 'जगती' छन्दके तीन चरण हों तो उसे 'महाबृहती' कहते हैं। [जैसे ऋग्वेदमें 'अजीजनो अमृत मत्र्येष्वों, ऋऋतस्य धर्मन्नमृतस्य चारुणः। सदासरो वाजमच्छासनिष्यदत्' (९।११०।४)] ताण्डी नामक आचार्यके मतमें यही 'सतो बृहती' नामक छन्द है॥५-१० ॥
जहाँ दो पाद बारह-बारह अक्षरोंके और दो आठ-आठ अक्षरोंके हों, वहाँ 'पङ्कि' नामक छन्द होता है। यदि विषम पाद अर्थात् प्रथम और तृतीय चरण पूर्वकथनानुसार बारह बारह अक्षरोंके हों और शेष दोनों आठ-आठ अक्षरोंके तो उसे 'सतः पङ्कि' नामक छन्द कहते हैं। [जैसे ऋग्वेदमें- 'यं त्वा देवासो मनवे दधुरिह यजिष्ठं हव्यवाहनः। चं कण्वो मेध्यातिथिर्धनस्पृतं यं वृषा यमुपस्तुतः ॥' (१।३६।१०)] यदि वे ही चरण विपरीत अवस्थामें हों, अर्थात् प्रथम-तृतीय चरण आठ-आठ अक्षरोंके और द्वितीय चतुर्थ बारह बारह अक्षरोंके तो भी वह छन्द 'सतः पङ्कि' ही कहलाता है। [जैसे ऋऋग्वेदमें 'य ऋष्ये आवयत्सखा विश्वेत् स वेद जनिमा पुरुष्टुतः। तं विश्वे मानुषा युगे, इन्द्रं हवन्ते तविषं यतासुचः ॥' (८।४६।१२)] जब पहलेके दोनों चरण बारह बारह अक्षरोंक हों और शेष दोनों आठ-आठ अक्षरोंके, तो उसे 'प्रस्तारपङ्कि' कहते हैं। [ग्यारहवें श्लोकमें बताये हुए 'पनि' छन्दके लक्षणसे ही यह गतार्थ हो जाता है, तथापि विशेष संज्ञा देनेके लिये यहाँ पुनः उपादान किया गया है। मन्त्र-ब्राह्मणमें इसका उदाहरण इस प्रकार है- 'काम वेदते मदो नामासि समानया अमुं सुरा ते अभवत्। परमत्र जन्मा अग्ग्रे तपसा निर्मितोऽसि ॥'] जब अन्तिम दो चरण बारह बारह अक्षरोंके हों और आरम्भके दोनों आठ-आठ अक्षरोंके तो 'आस्तारपङ्कि' नामक छन्द होता है। [जैसे ऋग्वेदमें भद्रं नो अपि वातय, मनो दक्षमुत क्रतुम्। अधा ते सख्य अन्धसो वि वो मदे रणन् गावो न यवसे विवक्षसे ।।' (१०।२५।१)] यदि बारह अक्षरोंवाले दो चरण बीचमें हों और प्रथम एवं चतुर्थ चरण आठ-आठ अक्षरोंक हों तो उसे 'विस्तारपङ्कि' कहते हैं। [जैसे वेदमें- 'अग्ने तव श्रवो वयो, महि भ्राजन्ते अर्धयो विभावसो। बृहद्भानो शवसा वाजमुक्थ्यं दधासि दाशुये कवे॥' (१०।१४०।१)]
यदि बारह अक्षरोंवाले दो चरण बारह हों, अर्थात् प्रथम एवं चतुर्थ चरणके रूपमें हों और बौचके द्वितीय तृतीय चरण आठ-आठ अक्षरोंके हों तो वह 'संस्तारपङ्कि' नामक छन्द होता है। [जैसे ऋग्वेदमें- 'पितुभृतो न तन्तुमित् सुदानवः प्रतिद्ध्यो यजामसि। उपा अप स्वसुस्तमः संवर्तयति वर्तनि सुजातता ।।' (१०।१७२।३)] पाँच-पाँच अक्षरोंके चार पाद होनेपर 'अक्षरपङ्कि' नामक छन्द होता है। [जैसे ऋग्वेदमें- 'प्र शुकैतु देवी मनीषा। अस्मत् सुतष्टो रथो न वाजी ॥' (७।३४।१)] पाँच अक्षरोंके दो ही चरण होनेपर 'अल्पशः पङ्गि' नामक छन्द कहलाता है। जहाँ पाँच-पाँच अक्षरंकि पाँच पाद हों, वहाँ 'पदपङ्कि' नामक छन्द जानना चाहिये। [जैसे ऋऋवेदमें- 'घृतं न पूर्त तनूररेपाः शुचि हिरण्यं तत्ते रुक्मो न रोचत स्वधावः ॥ (४।१०।६)] जब पहला चरण चार अक्षरोंका, दूसरा छः अक्षरोंका तथा शेष तीन पाद पाँच पाँच अक्षरोंके हों तो भी 'पद-पक्ङ्कि' छन्द ही होता है। आठ-आठ अक्षरोंके पाँच पादोंका 'पथ्यापङ्कि' नामक छन्द कहा गया है। [जैसे ऋग्वेदमें- 'अक्षन्नमीमदन्त हाव प्रिया अधूषत। अस्तोषत स्वभानवो विप्रा नविष्ट्या यती योजान्विन्द्र ते हरी ॥' (१।८२।२)] आठ-आठ अक्षरोंके छः चरण होनेपर 'जगतीपङ्कि' नामक छन्द होता है। [जैसे मन्त्रब्राह्मणमें- 'येन स्त्रियमकृणुतं येनापामृषतं सुराम्ः येनाक्षामभ्यषिञ्चतम्। येनेमां पृथ्वीं महीं यद्वां तदश्विना यशस्तेन मामभिषिञ्चतम् ॥' ] ॥ ११-१४॥
'त्रिष्टुप्' अर्थात् ग्यारह अक्षरोंका एक पाद हो और आठ-आठ अक्षरोंके चार पाद हों तो पाँच पादोंका 'त्रिष्टुब्योतिष्मती' नामक छन्द होता है। इसी प्रकार जब एक चरण 'जगती' का अर्थात् बारह अक्षरोंका हो और चार चरण 'गायत्री 'के (आठ-आठ अक्षरोंके) हों तो उस छन्दका नाम 'जगतीज्योतिष्मती' होता है। यदि पहला ही चरण ग्यारह अक्षरोंका हो और शेष चार चरण आठ-आठ अक्षरोंके हों तो 'पुरस्ताज्योति' नामक त्रिष्टुप् छन्द होता है और यदि पहला ही चरण बारह अक्षरोंका तथा शेष चार चरण आठ-आठके हों तो 'पुरस्ताज्योति' नामक जगती छन्द होता है। जब मध्यम चरण ग्यारह अक्षरों और आगे-पीछेके दो-दो चरण आठ-आठके हों तो 'मध्ये ज्योति" नामक त्रिष्टुप् छन्द होता है; इसी प्रकार जब मध्यम चरण बारहका तथा आदि-अन्तके दो-दो चरण आठ-आठके हों तो 'मध्ये ज्योति" नामक जगती छन्द होता है। जब आरम्भके चार चरण आठ-आठ अक्षरोंके हों तथा अन्तिम चरण ग्यारह अक्षरोंका हो तो उसे 'उपरिष्टाज्योसि" नामक त्रिष्टुप् छन्द कहते हैं। इसी प्रकार जब आदिके चार चरण पूर्ववत् आठ-आठके हों और अन्तिम पाद बारह अक्षरोंका हो तो उसका नाम 'उपरिष्टाज्योति जगती छन्द होता है॥ १५ ॥
गायत्री आदि सभी छन्दोंके एक पादमें यदि पाँच अक्षर हों तथा अन्य पादोंमें पहलेके अनुसार नियत अक्षर ही हों तो उस छन्दका नाम 'शङ्कुमती' होता है। [जैसे प्रथम पाद पाँच अक्षरका और तीन चरण छः- अक्षरोंका होनेपर उसे 'शङ्कुमती गायत्री' कह सकते हैं।] जब एक चरण छः अक्षरोंका हो और अन्य चरणोंमें पहले बताये अनुसार नियत अक्षर ही हों तो उसका नाम 'ककुदमती' होगा। जहाँ तीन पादवाले छन्दके पहले और दूसरे चरणमें अधिक अक्षर हों और बीचवालेमें बहुत ही कम हों, वहाँ उस छन्दका नाम 'पिपीलिकमध्या' होगा। [जैसे त्रिपदा गायत्रीके आदि और अन्त चरण आठ-आठ अक्षरके हों तथा बीचवाला चरण तीन, चार या पाँच अक्षरका हो तो उसे 'पिपीलिकमध्या' कहेंगे। इसके विपरीत जब आदि और अन्तवाले पादोंके अक्षर कम हों और बीचवाला पाद अधिक अक्षरोंका हो तो उस 'त्रिपाद् गायत्री' आदि छन्दको 'बवमध्या' कहते हैं। यदि 'गायत्री' या 'उष्णिक्' आदि छन्दोंमें केवल एक अक्षरकी कमी हो, उसकी 'निवृत्' यह विशेष संज्ञा होती है। एक अक्षरकी अधिकता होनेपर वह छन्द 'भूरिक्' नाम धारण करता है। इस प्रकार दो अक्षरोंकी कमी रहनेपर 'विराट्' और दो अक्षर अधिक होने पर 'स्वराट्' संज्ञा होती है। संदिग्ध अवस्थामें आदि पादके अनुसार छन्दका निर्णय करना चाहिये। [जैसे कोई मन्त्र छब्बीस अक्षरका है, उसमें गायत्रीसे दो अक्षर अधिक हैं और उष्णिक्से दो अक्षर कम-ऐसी दशामें वह 'स्वराड् गायत्री' छन्द है या 'विराड् उष्णिक्'?- ऐसे संदेहयुक्त स्थलोंमें यदि मन्त्रका पहला चरण 'गायत्री' से मिलता हो तो उसे 'स्वराड् गायत्री' कहेंगे और यदि प्रथम पाद 'उष्णिक्' से मिलता हो तो उसे 'विराड् उष्णिक्' कह सकते हैं। इसी तरह अन्यत्र भी समझना चाहिये। इसी प्रकार देवता, स्वर, वर्ण तथा गोत्र आदिके द्वारा संदिग्धस्थलमें छन्दका निर्णय हो सकता है। गायत्री आदि छन्दोंके देवता क्रमशः इस प्रकार हैं- अग्नि, सूर्य, चन्द्रमा, बृहस्पति, मित्रावरुण, इन्द्र तथा विश्वेदेव। उक्त छन्दोंके स्वर हैं- 'षड्ज' आदि। उनके नाम क्रमशः ये हैं षड्ज, ऋषभ, गान्धार, मध्यम, पञ्चम, धैवत और निषाद। क्षेत, सारंग, पिशङ्ग, कृष्ण, नील, लोहित (लाल) तथा गौर-ये क्रमशः गायत्री आदि छन्दोंक वर्ण हैं। 'कृति' नामवाले छन्दोंका वर्ण गोरोचनके समान है और अतिच्छन्दोंका वर्ण श्यामल है। अग्निवेश्य, काश्यप, गौतम, अङ्गिरा, भार्गव, कौशिक तथा वसिष्ठ- ये क्रमशः उक्त सात छन्दोंके गोत्र बताये गये हैं॥ १६-२३॥
इस प्रकार आदि आग्रेय महापुराणमें 'छन्दस्स्सारका कथन' नामक तीन सौ तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३३०॥
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