अग्नि पुराण तीन सौ छब्बीसवाँ अध्याय ! Agni Purana 326 Chapter !
अग्नि पुराण तीन सौ छब्बीसवाँ अध्याय ! - गौर्य्यादिपूजा
ईश्वर उवाच
सौभाग्यादेरुमापूजां वक्ष्येऽहं भुक्तिमुक्तिदां ।
मन्त्रध्यानं मण्डलञ्च मुद्रां होमादिसाधनम् ।। १ ।।
चित्रभानुं शिवं कालं महाशक्तिसमन्वितम् ।
इडाद्यं परतोहृत्य सदेवः सविकारणम् ।। २ ।।
द्वितायं द्वारकाक्रान्तं गौरीप्रीतिपदान्वितं ।
चतुर्थ्यन्तं प्रकर्त्तव्यं गौर्य्या वै मूलवाचकं ।। ३ ।।
ओं ह्रीँ सः शौँ गौर्य्यै नमः ।
तत्रार्णत्रितयेनैव जातियुक्तं षड़ङ्गुलम् ।
आसनं प्रणवेनैव पूर्त्तिं वै हृदयेन् तु ।। ४ ।।
उदकञ्च तथा कालं शिववीजं समुद्धरेत् ।
प्राणं दीर्घस्वराक्रान्तं षडङ्गं जातिसंयुतम् ।। ५ ।।
आसनं प्रणवेनात्र मूर्त्तिन्यासं हृदाचरेत् ।
यामलं कथितं वत्स एकवीरं वदाम्यऽथ ।। ६ ।।
व्यापकं सृष्टिसंयुक्तं वह्निमायाकृशानुभिः ।
शिवशक्तिमयं वीजं हृदयादिविवर्ज्जितं ।। ७ ।।
गौरीं यजेद्धेमरूप्यां काष्ठनां शौलजादिकां ।
पञ्चपिण्डां तथाऽव्यक्तां कोणे मध्ये तु पञ्चमं ।। ८ ।।
ललिता सुभगा गौरी क्षोभणी चाग्नितः क्रमात् ।
वामा ज्येष्ठा क्रिया ज्ञाना वृत्ते पूर्व्वादितो यजेत् ।। ९ ।।
सपीठे वामभागो तु शिवस्याव्यक्तरूपकम् ।
व्यक्ता द्विनेत्रा त्र्यक्षरा शुद्धा वा शङ्करान्विता ।। १० ।।
पीठपद्मद्वयं तारा द्विभुजा वा चतुर्भजा ।
सिंहस्था वा वृकस्था वा अष्टाष्टादशसत्करा ।। ११ ।।
स्रगक्षसूत्रकलिका गलकोत्पलपिण्डिका ।
शरं धनुर्व्वा सव्येन पाणिनान्यतमं वहत् ।। १२ ।।
वामेन पुस्तताम्बूलदण्डाभयकमण्डलुम् ।
गणेशदर्पणेष्वासान्दद्यादेकैकशः क्रमात् ।। १३ ।।
व्यक्ताऽथवाकार्य्या षद्ममुद्रा स्मृतासने ।
तिङ्गमुद्रा शिवस्योक्ता मुदा चावाहनी द्वयोः ।। १४ ।।
शक्तिमुद्रा तु योन्याख्या चतुरस्रन्तु मण्डलं ।
चतुरस्रं त्रिपत्राब्जं मध्यकोष्ठचतुष्टये ।। १५ ।।
त्र्यश्रोर्द्धे चार्द्धेचन्द्रस्तु द्विपदं द्विगुणं क्रमात् ।
द्विगुणं द्वारकण्ठन्तु द्विगुणादुपकण्ठतः ।। १६ ।।
द्वारत्रयं त्रयं दिक्षु अथ वा भद्रके यजेत् ।
स्थण्डिले वाथ संस्थाप्य पञ्चगव्यामृतादिना ।। १७ ।।
रक्तपुष्पाणि देयानि पूजयित्वा ह्युदङ्मुखः ।
शतं हुत्वामृताज्यञ्च चपूर्णादः सर्व्वसिद्धिभाक् ।। १८
बलिन्दत्वा कुमारीश्च तिस्रो वा चाष्ट भोजयेत् ।
नैवह्यं शिवभक्तेषु दद्यान्न स्वयमाचरेत् ।। १९ ।।
कन्यार्थी लभते कन्यां अपुत्रः पुत्रमाप्नुयात् ।
दुर्भगा चैव सौभाग्यं राजा राज्यं जयं रणे ।। २० ।।
अष्टलक्षैश्च वाक्सिद्धिर्देवाद्या वश्माप्नुयुः ।
न निवेद्य न चास्नीयाद्वामहस्तेन चार्च्चयेत् ।। २१ ।।
अष्टम्याञ्च चतुर्दश्यां तृतीयायां विशेषतः ।
मृत्युञ्जयार्च्चनं वक्ष्ये पूजयेत् कलसोदरे ।। २२ ।।
हूयमानञ्च प्रणवो मूर्त्तिरोजस ईदृशं ।
मूलञ्च वौषडन्तेन कुम्भमुद्रां प्रदर्शयेत् ।। २३ ।।
होमयेत् क्षीरदूर्वाज्यममृताञ्च पुनर्नवाम् ।
पायसञ्च पुरोडासमयुतन्तु पजेन्मनुं ।। २४ ।।
चतुर्मुखं चतुर्वाहुं द्वाभ्याञ्च कलसन्दधत् ।
वरदाभयकं द्वाभ्यां स्नायाद्वै कुम्भमुद्रया ।। २५ ।।
आरोग्यैश्वर्य्यदीर्घायुरौषधं मन्त्रितं शुभम् ।
अपमृत्युहरो ध्यातः पूजितोऽद्भुत एव सः ।। २६ ।।
इत्यादिमहापुराणे आग्नेये गौर्यादिपूजा नाम षड्विंशत्यधिकत्रिशततमोऽध्यायः ।।
अग्नि पुराण - तीन सौ छब्बीसवाँ अध्याय ! हिन्दी मे -Agni Purana 326 Chapter!-In Hindi
तीन सौ छब्बीसवाँ अध्याय - गौरी आदि देवियों तथा मृत्युं जय की पूजा का विधान
महादेवजी कहते हैं- स्कन्द! अब मैं सौभाग्य आदिके निमित्त उमाकी पूजाका विधान बताऊँगा। उनके मन्त्र, ध्यान, आवरणमण्डल, मुद्रा तथा होमविधिका भी प्रतिपादन करूँगा ॥ १॥
'गी गौरीमूर्तये नमः ।'- यह गौरीदेवीका वाचक मूल मन्त्र है। 'ॐ ह्रीं सः शी गौर्यै नमः ।' तीन अक्षरसे ही 'नमः' आदिके योगपूर्वक षडङ्गन्यास करना चाहिये। प्रणवसे आसन और हृदय-मन्त्रसे मूर्तिकी उपकल्पना करे। 'क' कालबीज तथा शिवबीजका उद्धार करे। दीर्घस्वरसे आक्रान्त प्राण 'यां यीं' इत्यादिसे जातियुक्त षडङ्गन्यास करे। प्रणवसे आसन तथा हृदय- मन्त्रसे मूर्तिन्यास करे। यह मैंने 'यामल-मन्त्र' कहा है। अब 'एकवीर' का वर्णन करता हूँ। सृष्टिन्याससे युक्त व्यापकन्यास अग्नि, माया तथा कृशानुद्वारा करे। शिव-शक्तिमय बीज हृदयादिसे वर्जित है। गौरीकी सोने, चाँदी, लकड़ी अथवा पत्थर आदिकी प्रतिमा बनाकर उसकी पूजा करे। अथवा पाँच पिण्डीवाली मृण्मयी प्रतिमा बनाये। चारों कोणोंमें अव्यक्त प्रतिमा रहे और मध्यभागमें पाँचवीं व्यक्त प्रतिमा स्थापित करे। आवरण-देवताओंके रूपमें क्रमशः ललिता आदि शक्तियोंकी पूजा करनी चाहिये। पहले वृत्ताकार अष्टदल कमल बनाकर आग्रेय आदि कोणवर्ती दलोंमें क्रमशः ललिता, सुभगा, गौरी और क्षोभणीकी पूजा करे। फिर पूर्वादि दलोंमें वामा, ज्येष्ठा, क्रिया और ज्ञानाका यजन करे। पीठयुक्त वामभागमें शिवके अव्यक्त रूपकी पूजा करनी चाहिये। देवीका व्यक्त रूप दो या तीन नेत्रोंवाला है। वह शुद्ध रूप भगवान् शंकरके साथ पूजित होता है। वे देवी दो पीठ या दो कमलोंपर स्थित होती हैं। वहाँ देवी दो, चार, आठ अथवा अठारह भुजाओंसे युक्त हैं, ऐसा चिन्तन करे। वे सिंह अथवा भेड़ियेको भी अपना वाहन बनाती हैं। अष्टादशभुजाके दायें नौ हाथोंमें नौ आयुध हैं, जिनके नाम यों हैं- स्रक् (हन्), अक्ष, सूत्र (पाश), कलिका, मुण्ड, उत्पल, पिण्डिका, बाण और धनुष। इनमेंसे एक-एक महान् वस्तु उनके एक-एक हाथकी शोभा बढ़ाते हैं। वामभागके नौ हाथोंमें भी प्रत्येकमें एक-एक करके क्रमशः नौ वस्तुएँ हैं। यथा पुस्तक, ताम्बूल, दण्ड, अभय, कमण्डलु, गणेशजी, दर्पण, बाण और धनुष ॥ २-१४॥
उनको 'व्यक्त' अथवा 'अव्यक्त' मुद्रा दिखानी चाहिये। आसन समर्पणके लिये 'पद्म-मुद्रा' कही गयी है। भगवान् शिवकी पूजामें 'लिङ्ग मुद्रा' का विधान है। यही 'शिवमुद्रा' है। 'आवाहनीमुद्रा' दोनोंके लिये है। शक्ति-मुद्रा 'योनि' नामसे कही गयी है। इनका मण्डल या मन्त्र चौकोर है। यह चार हाथ लंबा-चौड़ा हुआ करता है। मध्यवर्ती चार कोष्ठों में त्रिदल कमल अङ्कित करना चाहिये। तीनों कोणोंके ऊर्ध्वभागमें अर्धचन्द्र रहे। उसे दो पदों (कोष्ठों) को लेकर बनाया जाय। एकसे दूसरा दुगुना होना चाहिये। द्वारोंका कण्ठभाग दो-दो पदोंका हो; किंतु उपकण्ठ उससे दुगुना रहना चाहिये। एक-एक दिशामें तीन-तीन द्वार रखने चाहिये अथवा 'सर्वतोभद्र' मण्डल बनाकर उसमें पूजन करना चाहिये। अथवा किसी चबूतरे या वेदीपर देवताकी स्थापना करके पञ्चगव्य तथा पञ्चामृत आदिसे पूजन करे ॥ १५-१८॥
पूजन करके उत्तराभिमुख हो उन्हें लाल रंगके फूल अर्पण करने चाहिये। घृत आदिकी सौ आहुतियाँ देकर पूर्णाहुति प्रदान करनेवाला साधक सम्पूर्ण सिद्धियोंका भागी होता है। फिर बलि अर्पित करके तीन या आठ कुमारियोंको भोजन करावे। पूजाका नैवेद्य शिवभक्तोंको दे, स्वयं अपने उपयोगमें न ले। इस प्रकार अनुष्ठान करके कन्या चाहनेवालेको कन्या और पुत्रहीनको पुत्रकी प्राप्ति होती है। दुर्भाग्यवाली स्त्री सौभाग्यशालिनी होती है। राजाको युद्धमें विजय तथा राज्यकी प्राप्ति होती है। आठ लाख जप करनेसे वाक्सिद्धि प्राप्त होती है तथा देवगण वशमें हो जाते हैं। इष्टदेवको निवेदन किये बिना भोजन न करे। बायें हाथसे भी अर्चना कर सकते हैं। विशेषतः अष्टमी, चतुर्दशी तथा तृतीयाको ऐसा करनेकी विधि है॥ १९-२२ ॥
अब मैं मृत्युंजयकी पूजाका वर्णन करूँगा। कलशमें उनकी पूजा करे। हवनमें प्रणव मृत्युंजयकी मूर्ति है और 'ओं जूं सः।'- इस प्रकार मूलमन्त्र है। 'ओं जूं सः वौषट्।'- ऐसा कहकर अर्चनीय देवता मृत्युंजयको कुम्भमुद्रा दिखावे। इस मन्त्रका दस हजार बार जप करे तथा खीर, दूर्वा, घृत, अमृता (गुडुची), पुनर्नवा (गदहपूर्ना), पायस (पयः पक्व वस्तु) और पुरोडाशका हवन करे। भगवान् मृत्युंजयके चार मुख और चार भुजाएँ हैं। वे अपने दो हाथोंमें कलश और दो हाथोंमें वरद एवं अभयमुद्रा धारण करते हैं। कुम्भमुद्रासे उन्हें स्नान कराना चाहिये। इससे आरोग्य, ऐश्वर्य तथा दीर्घायुकी प्राप्ति होती है। इस मन्त्रसे अभिमन्त्रित औषध शुभकारक होता है। भगवान् मृत्युंजय ध्यान किये जानेपर दुर्मृत्युको दूर करनेवाले हैं, इसलिये उनकी सदा पूजा होती है ॥ २३-२७॥
इस प्रकार आदि आग्रेय महापुराणमें 'गौरी आदिको पूजाका वर्णन' नामक तीन सौ छब्बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३२६ ॥
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