अग्नि पुराण तीन सौ चौबीसवाँ अध्याय ! Agni Purana 324 Chapter !
अग्नि पुराण तीन सौ चौबीसवाँ अध्याय - रुद्रशान्तिः
ईश्वर उवाच
शिवशान्तिं प्रवक्ष्यामि कल्पाघोरप्रपूर्वकम् ।
सप्तकोट्यधिपो घोरो ब्रह्महत्याद्यघार्दनः ॥१
उत्तमाधमसिद्धीनामालयोऽखिलरोगनुत् ।
दिव्यान्तरीक्षभौमानामुत्पातानां विमर्दनः ॥२
विषग्रहपिशाचानां ग्रसनः सर्वकामकृत् ।
प्रायश्चित्तमघौघार्तौ दौर्भाग्यार्तिविनाशनम् ॥३
एकवीरन्तु विन्यस्य ध्येयः पञ्चमुखः सदा ।
शान्तिके पौष्टिके शुक्लो रक्तो वश्येऽथ पीतकः ॥४
स्तम्भने धूम्र उच्चाटमारणे कृष्णवर्णकः ।
कर्षणः कपिलो मोहे द्वात्रिंशद्वर्णमर्चयेत् ॥५
त्रिंशल्लक्षं जपेन्मन्त्रं होमं कुर्याद्दशांशतः ।
गुग्गुलामृतयुक्तेन सिद्धोऽसिद्धोऽथ सर्वकृत् ॥६
अघोरान्नापरो मन्त्रो विद्यते भुक्तिमुक्तिकृत् ।
अब्रह्मचारी ब्रह्मचारी अस्नातः स्नातको भवेत् ॥७
अघोरास्त्रमघोरन्तु द्वाविमौ मन्त्रराजकौ ।
जपहोमार्चनाद्युद्धे शत्रुसैन्यं विमर्दयेत् ॥८
रुद्रशान्तिं प्रवक्ष्यामि शिवां सर्वार्थसाधनीं ।
पुत्रर्थं ग्रहनाशार्थं विषव्याधिविनष्टये ॥९
दुर्भिक्षमारीशान्त्यर्थे दुःस्वप्नहरणाय च ।
बलादिराज्यप्राप्त्यर्थं रिपूणां नाशनाय च ॥१०
अकालफलिते वृक्षे सर्वग्रहविमर्दने ।
पूजने तु नमस्कारः स्वाहान्तो हवने तथा ॥११
आप्यायने वषट्कारं पुष्टौ वौषन्नियोजयेत् ।
चकारद्वितयस्थाने जातियोगन्तु कारयेत् ॥१२
ओं रुद्राय च ते ओं वृषभाय नमः अविमुक्ताय असम्भवाय पुरुषाय च पूज्याय ईशानाय पौरुषाय पञ्च चोत्तरे विश्वरूपाय करालाय विकृतरूपाय अविकृतरूपाय विकृतौ चापरे काले अप्सु माया च नैर्ऋते ।१३
एकापिङ्गलाय श्वेतपिङ्गलाय कृष्णपिङ्गलाय नमः मधुपिङ्गलाय नमः मधुपिङ्गलाय नियतौ अनन्ताय आद्रार्य शुष्काय पयोगणाय । कालतत्त्वे । करालाय विकरालाय द्वौ मायातत्त्वे । सहस्रशीर्षाय सहस्रवक्त्राय सहस्रकरचरणाय सहस्रलिङ्गाय । विद्यातत्त्वे । सहस्राक्षाद्विन्यसेद्दक्षिणे हले । एकजटाय द्विजटाय त्रिजटाय स्वाहा । काराय स्वधाकाराय वषट्काराय वषट्काराय षड्रुद्राय । ईशतत्त्वे तु वह्निपत्रे स्थिता गुह । भूतपतये पशुपतये उमापतये कालाधिपतये । सदाशिवाध्यक्ष्यतत्त्वे षट्पूज्याः पूर्वदले स्थिताः ।
उमायै कुरूपधारिणि ओं कुरु २ रुहिणि २ रुद्रोसि देवानां देवदेवविशाख हन २ दह २ पच २ मथ २ तुरु २ अरु २ सुरु २(१) रुद्रशान्तिमनुस्मर कृष्णपिङ्गल अकालपिशाचाधिपतिविश्वेश्वराय नमः । शिवतत्त्वे कर्णिकायां पूज्यौ ह्युमामहेश्वरौ । ओं व्योमव्यापिने व्योमरूपाय सर्वव्यापिने शिवाय अनन्ताय अनाथाय अनाश्रिताय शिवाय । शिवतत्त्वे नव पदानि व्योमव्याप्यभिधास्यहि । शाश्वताय योगपीठसंस्थिताय नित्यं योगिने ध्यानाहाराय नमः । ओं नमःशिवाय सर्वप्रभवे शिवाय ईशानमूर्धाय तत्पुरुषादिपञ्चवक्त्राय नवपदं पूर्वदले सदाख्ये पूजयेद्गुह ।
अघोरहृदयाय वमदेवगुह्याय सद्योजातमूर्तये । ओं नमो नमः । गुह्यातिगुह्याय गोप्त्रे अनिधनाय सर्वयोगाधिकृताय ज्योतीरूपाय अग्निपत्रे हीशतत्त्वे विद्यातत्त्वे द्वे याम्यगे परमेश्वराय चेतनाचेतन व्योमन व्यपिन प्रथम तेजस्तेजः मायातत्त्वे नैर्ऋते कालतत्त्वे अथ वारुणे । ओं धृ धृ नाना वां वां अनिधान निधनोद्भव शिव सर्वपरमात्मन्महादेव सद्भावेश्वर महातेज योगाधिपते मुञ्च २ प्रमथ २ ओं सर्व २ ओं भव २ ओं भवोद्भव । सर्वभूतसुखप्रद वायुपत्रेऽथ नियतौ पुरुषे चोत्तरेन च । सर्वसान्निध्यकर ब्रह्मविष्णुरुद्रपर अनर्चित अस्तुतस्तु च साक्षिन २ तुरु २ पतङ्ग पिङ्ग २ ज्ञान २ शब्द २ सूक्ष्म २ शिव २ सर्वप्रद २ ओं नमःशिवाय ओं नमो नमः शिवाय ओं नमो नमः
ईशाने प्राकृते तत्त्वे पूजयेज्जुहुयाज्जपेत् ।१३
ग्रहरोगादिमायार्तिशमनी सर्वसिद्धिकृत् ॥१३
इत्यादिमहापुराणे आग्नेये रुद्रशान्तिर्नाम चतुर्विंशत्यधिकत्रिशततमोऽध्यायः ।।
अग्नि पुराण - तीन सौ चौबीसवाँ अध्याय ! हिन्दी मे -Agni Purana 324 Chapter!-In Hindi
तीन सौ चौबीसवाँ अध्याय कल्पाघोर रुद्रशान्ति
महादेवजी कहते हैं- स्कन्ध ! अब मैं 'कल्पाघोर-शिवशान्ति 'का वर्णन करता हूँ। भगवान् अघोर शिव सात करोड़ गणोंके अधिपति हैं तथा ब्रह्महत्या आदि पापोंको नष्ट करनेवाले हैं। उत्तम और अधम-सभी सिद्धियोंके आश्रय तथा सम्पूर्ण रोगोंके निवारक हैं। भौम, दिव्य तथा अन्तरिक्ष- सभी उत्पातोंका मर्दन करनेवाले हैं। विष, ग्रह और पिशाचोंको भी अपना ग्रास बना लेनेवाले तथा सम्पूर्ण मनोरथोंको पूर्ण करनेवाले हैं। पापसमूहको पीड़ा देकर दूर भगानेके लिये वे उस प्रबल प्रायश्चित्तके प्रतीक हैं, जो दुर्भाग्य तथा दुःखका विनाशक है ॥ १-३॥
एकवीर'का सर्वाङ्गमें न्यास करके सदा पञ्चमुख शिवका ध्यान करे। (विभिन्न कर्मोंमें उनके विभिन्न शुक्ल कृष्ण आदि वर्णोंका ध्यान किया जाता है। यथा) शान्ति तथा पुष्टि कर्ममें भगवान् शिवका वर्ण शुक्ल है, ऐसा चिन्तन करे। वशीकरणमें उनके रक्तवर्णका, स्तम्भनकर्ममें पीतवर्णका, उच्चाटन तथा मारणकर्ममें धूम्रवर्णका, आकर्षणमें कृष्णवर्णका तथा मोहन- कर्ममें कपिलवर्णका चिन्तन करना चाहिये। (अघोरमन्त्र बत्तीस अक्षरोंका मन्त्र बताया गया है।) वे बत्तीस अक्षर वेदोक्त अघोरशिवके रूप हैं। अतः उतने अक्षरोंके मन्त्रस्वरूप अघोरशिवकी अर्चना करनी चाहिये। इस मन्त्रका (बत्तीस) या तीस लाख जप करके उसका दशांश होम करे। यह होम गुग्गुलमिश्रित घीसे होना चाहिये। इससे मन्त्र 'सिद्ध' होता और साधक 'सिद्धार्थ' हो जाता है। वह सब कुछ कर सकता है। अघोरसे बढ़कर दूसरा कोई मन्त्र भोग तथा मोक्ष देनेवाला नहीं है। इसके जपसे अब्रह्मचारी ब्रह्मचारी होता तथा अस्नातक स्नातक हो जाता है। अघोरास्त्र तथा अघोर मन्त्र दोनों मन्त्रराज हैं। इनमेंसे कोई भी मन्त्र जप, होम तथा पूजनसे युद्धस्थलमें शत्रुसेनाको रौंद सकता है ॥ ४-८ ॥
अब मैं कल्याणमयी 'रुद्रशान्ति'का वर्णन करता हूँ, जो सम्पूर्ण मनोरथोंको सिद्ध करनेवाली है। पुत्रकी प्राप्ति, ग्रहबाधाके निवारण, विष एवं व्याधिके विनाश, दुर्भिक्ष तथा महामारीकी शान्ति, दुःस्वप्रनिवारण, बल आदि तथा राज्य आदिकी प्राप्ति और शत्रुओंके संहारके लिये इस 'रुद्रशान्ति 'का प्रयोग करना चाहिये। यदि अपने बगीचेके किसी वृक्षमें असमयमें फल लग जाय तो यह भी अनिष्टकारक है; अतः उसकी शान्तिके लिये तथा समस्त ग्रहबाधाओंका नाश करनेके लिये भी उक्त शान्तिका प्रयोग किया जा सकता है। पूजन कर्ममें मन्त्रके अन्तमें 'नमः' बोलना चाहिये तथा हवन कर्ममें 'स्वाहा'। आप्यायन (तृप्ति) में मन्त्रान्तमें 'वषद्' पदका प्रयोग करे और पुष्टि कर्ममें 'वौषट्' पदका। मन्त्रमें जो दो जगह 'च'का प्रयोग है, वहाँ आवश्यकताके अनुसार 'नमः', 'स्वाहा' आदि जातिका योग करना चाहिये ॥ ९-१२॥
रुद्रशान्ति-मन्त्र
ॐ रुद्राय च ते ॐ वृषभाय नमोऽविमुक्ताया सम्भवाय पुरुषाय च पूज्यायेशानाय पौरुषाय पश्च पञ्चोत्तरे विश्वरूपाय करालाय विकृतरूपायाविकृतरूपाय ॥ १३ ॥ उत्तरवर्ती कमलदलमें नियतितत्त्वकी स्थिति है, जल (वरुण) की दिशा पश्चिमके कमलदलमें कालतत्त्व है और नैऋत्यकोणवर्ती दलमें मायातत्त्व अवस्थित है; उन सबमें देवताओंकी पूजा होती है। 'एकपिङ्गलाय श्वेतपिङ्गलाय कृष्णपिङ्गलाय नमः। मधुपिङ्गलाय नमः मधुपिङ्गलाय।' इन सबकी पूजा नियतितत्त्वमें होती है।' अनन्तायार्द्राय शुष्काय पयोगणाय (नमः)।' इनकी पूजा कालतत्त्वमें करे। 'करालाय विकरालाय (नमः)।' इन दोकी पूजा मायातत्त्वमें करे। 'सहस्त्रशीर्षाय सहस्त्रवक्त्राय सहस्रकरचरणाय सहस्रलिङ्गाय (नमः)।' इनकी अर्चना विद्यातत्त्वमें करे। वह इन्द्रसे दक्षिण दिशाके दलमें स्थित है। वहीं छः पदोंसे युक्त षड्विध रुद्रका पूजन करे। यथा- 'एकजटाय द्विजटाय त्रिजटाय स्वाहाकाराय स्वधाकाराय वषट्काराय षड्रुद्राय।' स्कन्द ! अग्रिकोणवर्ती दलमें ईशतत्त्वकी स्थिति है। उसमें क्रमशः 'भूतपतये पशुपतये उमापतये कालाधिपतये (नमः)।' बोलकर भूतपति आदिको पूजा करे। पूर्ववर्ती दल सदाशिव-तत्त्वमें छः पूजनीयोंकी स्थिति है, जिनका निम्नाङ्कित मन्त्रमें नामोल्लेख है। यथा 'उमायै कुरूपधारिणि ॐ कुरु कुरु रुहिणि रुहिणि रुद्रोऽसि देवानां देवदेव विशाख हन हन दह दह पच पच मथ मथ तुरु तुरु अरु अरु मुरु मुरु रुद्रशान्तिमनुस्मर कृष्यापिङ्गल अकाल- पिशाचाधिपति विद्येश्वराय नमः।' कमलकी कर्णिकामें शिवतत्त्वकी स्थिति है। उसमें भगवान् उमा-महेश्वर पूजनीय हैं। मन्त्र इस प्रकार है- 'ॐ व्योमव्यापिने व्योमरूपाय सर्वव्यापिने शिवायानन्ताय नाथायानाश्रिताय शिवाय' (प्रणवको अलग गिननेपर इस मन्त्रमें कुल नौ पद हैं)- शिवतत्त्वमें व्योमव्यापी नामवाले शिवके नौ पदोंका पूजन करना चाहिये ॥ १४-२४॥ तदनन्तर योगपीठपर विराजमान शिवका नौ पदोंसे युक्त नाम बोलकर पूजन करे। मन्त्र इस प्रकार है- 'शाश्वताय योगपीठसंस्थिताय नित्ययोगिने ध्यानाहाराय नमः। ॐ नमः शिवाय सर्वप्रभवे शिवाय ईशानमूर्धांय तत्पुरुषाय पञ्चवक्त्राय।' स्कन्द ! तत्पश्चात् 'सद्' नामक पूर्वदलमें नौ पदोंसे युक्त शिवका पूजन करे ॥ २५-२६॥ 'अघोरहृदयाय वामदेवगुह्याय सद्योजातमूर्तये ॐ नमो नमः। गुह्यातिगुह्याय गोप्वेऽनिधनाय सर्व योगाधिकृताय ज्योतीरूपाय ' ॥ २७। १ ॥
अग्निकोणवर्ती ईशतत्त्व में तथा दक्षिणदिशावर्ती विद्यातत्त्व में 'परमेश्वराय अचेतनाचेतन व्योमन् व्यापिन्नरूपिन् प्रमथतेजस्तेजः।' इस मन्त्रसे परमेश्वर शिवकी अर्चना करे ॥ २७।२॥ नैर्ऋत्यकोणवर्ती मायातत्त्व तथा पश्चिमदिग्वर्ती कालतत्त्वमें निम्नाङ्कित मन्त्रद्वारा पूजन करे 'ॐ धृ धृ वां वां अनिधान निधनोद्भव शिव सर्व परमात्मन् महादेव सद्भावेश्वर महातेज योगाधिपते मुञ्च मुञ्च प्रमथ प्रमथ ॐ सर्व सर्व ॐ भव भव ॐ भवोद्भव सर्वभूतसुखप्रद ।' २८- ३० ॥
वायुकोण तथा उत्तरवर्ती दलोंमें स्थित नियति एवं पुरुष इन दोनों तत्त्वोंमें निम्नाङ्कित नौकी पूजा करे- 'सर्वासांनिध्यकर ब्रह्मविष्णुरुद्रपरानचिंतास्तुत स्तुत साक्षिन् साक्षिन् तुरु तुरु पतङ्ग पतङ्ग पिङ्ग पिङ्ग ज्ञान ज्ञान। शब्द शब्द सूक्ष्म सूक्ष्म शिव शिव सर्वप्रद सर्वप्रद ॐ नमः शिवाय ॐ नमो नमः शिवाय ॐ नमो नमः ॥ ३१ ॥
ईशानवर्ती प्राकृततत्त्वमें 'शब्द 'से लेकर 'नमः' तकका मन्त्र पढ़कर पूजन, जप और होम करे। यह 'रुद्रशान्ति' ग्रहबाधा, रोग आदि तथा त्रिविध पौडाका शमन करनेवाली तथा सम्पूर्ण मनोरथोंकी साधिका है॥ ३२ ॥
इस प्रकार आदि आग्रेय महापुराणमें 'रुद्रशान्ति विधान-कथन' नामक तीन सौ चौबीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३२४ ॥
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