अग्नि पुराण तीन सौ बीसवाँ अध्याय ! Agni Purana 320 Chapter !
अग्नि पुराण तीन सौ बीसवाँ अध्याय ! 'मण्डलविधानका वर्णन'
मण्डलानि
सर्व्वतो भद्रकान्यष्टमण्डलानि वदे गुह ।
शक्तिमासाधयेत् प्राचीमिष्टायां विषुवे सुधीः ।। १ ।।
चित्रास्वात्यन्तरेणाथ दृष्टसूत्रेण वा पुनः ।
पूर्व्वापरायतं सूत्रमास्फाल्य मद्यतोऽङ्कयेत् ।। २ ।।
कोटचिद्वयन्तु तन्मध्यादङ्कयेद्दक्षिणोत्तरम् ।
मध्ये द्वयं प्रकर्त्तव्यं स्फालयेद्दक्षिणोत्तरम् ।। ३ ।।
शतक्षेत्रार्द्धमानेन कोणसम्पातमादिशेत् ।
एवं सूत्रचतुष्कस्य स्फालनाच्चतुरस्रकम् ।। ४ ।।
जायते तत्र कर्त्तव्यं भद्रस्वेदकरं शुभम् ।
वसुभक्तेन्दुद्विपदे क्षेत्रे वीथी च भागिका ।। ५ ।।
द्वारं द्विपदिकं पद्ममानाद्वै सकपोलकम् ।
कोणबन्धविवित्त्रन्तु द्विपदं तत्र वर्त्तयेत् ।। ६ ।।
शुक्लं पद्मं कर्णिका तु पीता चित्रन्तु केशरम्।
रक्ता वीथी तत्र कल्प्या द्वारं लोकेशरूपकं ।। ७ ।।
रक्तकोणं विधौ नित्ये नैमित्तिकेऽव्जकं श्रृणु ।
असंसक्तन्तु संसक्तं द्विधाव्जं भुक्तिमुक्तिकृत् ।। ८ ।।
असंसक्तं सुमुक्षूणां संसक्तं तत्त्रिधा पृथक् ।
बालो युवा च वृद्धश्च नामतः फलसिद्धिदाः ।। ९ ।।
पद्मक्षेत्रे तु सूत्राणि दिग्विदिशु विनिक्षिपेत् ।
वृत्तानि पञ्चकल्पानि पद्मक्षेत्रसमानि तु ।। १० ।।
प्रथमे कर्णिका तत्र पुष्करैर्न्नवभिर्युता ।
केशराणि चतुर्व्विशद्वितीयेऽथ तृतीयके ।। ११ ।।
दलसन्धिर्गजकुम्भनिभान्तर्यद्दलाग्रकम् ।
पञ्चमे व्योमरूपन्तु संसक्तं कमलं स्मृतं ।। १२ ।।
असंसक्ते दलाग्रे तु दिग्भागैर्विस्तराद्भजेत् ।
भागद्वयपरित्यागाद्वस्वंशैर्वर्त्तयेद्दलम् ।। १३ ।।
सन्धिविस्तरसूत्रेण तन्मूलादञ्जयेद्दलम्
सव्यासव्यक्रमेणैव वृद्धमेतद्भवेत्तथा ।। १४ ।।
अथ वा सन्धिमध्यात्तु भ्रामयेदर्द्धचन्द्रवत् ।
सन्धिद्वयाग्रसूत्रं वा बालपद्मन्तथा भवेत् ।। १५ ।
सन्धिसूत्रार्द्धमानेन पृष्ठतः परिवर्त्तयेत् ।
तीक्ष्णाग्रन्तु सुवातेन कमलं भुक्तिमुक्तिदम् ।। १६ ।।
मुक्तवृद्धौ च वश्यादौ बालं पद्मं समानकं ।
नवनाभंनवहस्तं भागैर्म्मन्त्रात्मकैश्च तत् ।। १७ ।।
मध्येऽव्जं पट्टिकावीजं द्वारेणाब्जस्य मानतः ।
कण्ठोपकण्ठमुक्तानि तद्वाह्ये वीथिका मता ।। १८ ।।
पञ्चभागान्विता सा तु समन्ताद्दशभागिका ।
दिग्विदिक्ष्वष्ट पद्मानि द्वारपद्मं सवीथिकम् ।। १९ ।।
तद्वाह्ये पञ्च पदिका वीथिका यत्र भूषिता ।
पद्मवद्द्वारकण्ठन्तु पदिकञ्चौष्ठकण्ठकं ।। २० ।।
कपोलं पदिकं कार्य्यं दिक्षु द्वारत्रयं स्फुटम् ।
कोणबन्धं त्रिपट्टन्तु द्विपट्टं वज्रवद्भवेत् ।। २१ ।।
मध्यन्तु कमलं शुक्लं पीतं रक्तञ्च नीलकम् ।
पीतशुक्लञ्च धूम्रञ्च रक्तं पीतञ्च मुक्तिदम् ।। २२ ।।
पूर्व्वादौ कमलान्यष्ट शिवविष्ण्वादिकंजपेत्
प्रासादमध्यतोऽभ्यर्च्य शक्रादीन्व्जकादिषु ।। २३ ।।
अस्त्राणि वाह्यवीथ्यान्तु विष्ण्वादीनश्वमेधभाक् ।
पवित्रारोहणादौ च महामण्डलमालिखेत् ।। २४ ।।
अष्टहस्तं पुरा क्षेत्रं रसपक्षैर्विवर्त्तयेत् ।
द्विपदं कमलं मध्ये वीथिका पदिका ततः ।। २५ ।।
दिग्विदिक्षु ततोऽष्ठै च नीलाब्जानि विवर्त्तयेत् ।
मध्यपद्मप्रमाणेन त्रिंशत्पद्मानि तानि तु ।। २६ ।
दलसन्धिविहीनानि नीलेन्दीवरकानि च ।
तत्पृष्ठे पदिका वीथी स्वस्तिकानि तदूर्द्धतः ।। २७ ।
द्विपदानि तथा चाष्टौ कृतिभागकृतानि तु
वर्त्तयेत् स्वस्तिकांश्तत्र वीथिका पूर्व्ववद्वहिः ।। २८ ।।
द्वाराणि कमलं यद्वदुपकण्ठयुतानि तु ।
वक्त्तयेत् स्वस्तिकांस्तत्र वीथका पूर्व्ववद्वहिः ।। २९ ।।
स्वस्तिकादि विचित्रञ्च सर्व्वकामपदं गुह ।
पञ्चाब्जं पञ्चहस्तं स्यात् समन्ताद्दशभाजितम् ।। ३० ।।
द्विपदं कमलं वीथी पट्टिका दिक्षु पङ्कजम् ।
चतुष्कं पृष्ठतो वीथी पदिका द्विपदान्यथा ।। ३१ ।।
कण्ठोपकण्ठयुक्तानि द्वारान्यब्जन्तु मध्यतः ।
पञ्चाब्जमण्डले ह्यस्मिन् सितं पीतञ्च पूर्व्वकम् ।। ३२ ।।
वैदूर्य्याभं दक्षिणाब्जं कुन्दाभं वारुणं कजम् ।
उत्तराब्जन्तु शङ्गाभमन्यत् सर्व्वं विचित्रकम् ।। ३३ ।।
सर्व्वकामप्रदं वक्ष्ये दशहस्तन्तु मण्डलम् ।
विकारक्तन्तुर्य्याश्रं द्वारन्तु द्विपदं भवेत् ।। ३४ ।।
मध्ये पद्मं पूर्व्ववच्च विघ्नध्वंसं वदाम्यथ ।
चतुर्हस्तं पुरं कृत्वा वृतञ्चैव करद्वयम् ।। ३५ ।।
वीथिका हस्तमात्रन्तु स्वस्तिकैर्वहुभिर्वृता ।
हस्तमात्राणि द्वाराणि दिशु वृत्तं सपद्मकम् ।। ३६ ।।
पद्मानि पञ्च शुक्लानि मध्ये पूज्यश्च निष्कलः ।
हृदयादीनि पूर्व्वादौ विकदिक्ष्वस्त्राणि वै यजेत् ।। ३७ ।।
प्राग्वच्च पञ्च ब्रह्माणि बुद्ध्याधारमतो वदे
शतभागो तिथिभागे पद्मं लिङ्गाष्टकं दिशि ।। ३८ ।।
मे खलाभागसंयुक्तं कण्ठं द्विपदिकं भवेत् ।
आचार्य्यो बुद्धिमाश्रित्य कल्पयेच्च लतादिकम् ।। ३९ ।।
चतुःपट्पञ्चमाष्टादि खाछिशाद्यादि मण्डलम् ।
खाक्षीन्दुसूर्य्यगं सर्वं खाक्षि चैवेन्दुवर्णनात् ।। ४० ।।
चत्वारिंशदधिकानि चतुर्द्दशसतानि हि ।
मण्डलानि हरेःशम्भोर्देव्याः सूर्य्यस्य सन्ति च ।। ४१ ।।
दशसप्तविभक्ते तु लतालिङ्गोद्भवं श्रृणु ।
दिक्षु पञ्चत्रयञ्चैकं त्रयं पञ्च च लोमयेत् ।। ४२ ।।
ऊद्र्ध्वगो द्विपदे लिङ्गमन्दिरं पार्श्वकोष्ठयोः ।
मध्येन द्विपदं पद्ममथ चैकञ्च पङ्कजं ।। ४३ ।।
लिङ्गस्य पार्श्वयोर्भद्रेपदद्वारमलोपनात् ।
तत्पार्श्वशोभाः षड्लोप्य लताः शेषास्तथा हरेः ।। ४४ ।।
ऊद्र्ध्वं द्विपदिकं लोप्य हरेर्भद्राष्टकं स्मृतम्
रश्मिमानसमायुक्तवेदलोपाच्च शोभिकम् ।। ४५ ।।
पञ्चविंशतिकं पद्मं ततः पीठमपीठकम् ।
द्वयं द्वयं रक्षयित्वा उपशोभास्तथाष्ट च ।। ४६ ।।
देव्यादिख्यापकं भद्रं बृहन्मध्ये परं लघु ।
मध्ये नवपदं पद्मं कोणे भद्रचतुष्टयम् ।। ४७ ।।
त्रयोदशपदं शेषं बुद्ध्याधारन्तु मण्हलं ।
शतपत्रं षष्ट्यधिकं बुद्ध्याधारं हरादिषु ।। ४८ ।।
इत्यादि महा पुराणे आग्नेये मण्डलानि नाम विंशत्यधिकत्रिशततमोऽध्यायः ।।
अग्नि पुराण - तीन सौ बीसवाँ अध्याय ! हिन्दी मे -Agni Purana 320 Chapter!-In Hindi
तीन सौ बीसवाँ अध्याय सर्वतोभद्र आदि मण्डलों का वर्णन
भगवान् शिव कहते हैं- स्कन्द। अब मैं 'सर्वतोभद्र' नामक आठ प्रकारके मण्डलोंका वर्णन करता हूँ। पहले शङ्कु या कीलसे प्राचीदिशाका साधन करे। इस प्राचीका निश्वय हो जानेपर विद्वान् पुरुष विषुवकालमें चित्रा और स्वाती नक्षत्रके अन्तरसे, अथवा प्रत्यक्ष सूतको लेकर पूर्वसे पश्चिमतक उसे फैलाकर मध्यमें दो कोटियोंको अङ्कित करे। उन दोनोंके मध्यभागसे उत्तर-दक्षिणकी लंबी रेखा खींचे। दो मत्स्योंका निर्माण करे तथा उन्हें दक्षिणसे उत्तरकी ओर आस्फालित करे। क्षतपद क्षेत्रके आधे मानसे कोण सम्पात करे। इस तरह चार बार सूत्रके क्षेत्रमें आस्फालनसे एक चौकोर रेखा बनती है। उसमें चार हाथ का शुभ भद्रमण्डल बनाये। आठ पदोंमें सब ओर से विभक्त चौंसठ पदवालेमें से बीस पदवाले क्षेत्र में बाहर की ओर एक वीथी का निर्माण करे। यह वीथी एक मन्त्र की होगी। कमलके मानसे दो पदोंका द्वार बनाये। द्वार कपोल युक्त होना चाहिये। कोणबन्ध के कारण उसकी विचित्र शोभा हो, ऐसा द्विपदका द्वार निर्माणमें उपयोग करे। कमल श्वेतवर्ण का हो, कर्णिका पीतवर्ण से रैगी जाय, केसर चित्रवर्ण का हो, अर्थात् उसके निर्माणमें अनेक रंगोंका उपयोग किया जाय। वीथी को लाल रंग से भरा जाय। द्वार लोकपाल-स्वरूप होता है। नित्य तथा नैमित्तिक विधिमें कोणों का रंग लाल होना चाहिये। अब कमल का वर्णन सुनो। कमलके दो भेद हैं' असंसक्त' तथा 'संसक्त'। 'असंसक्त' मोक्षकी तथा संसक्त भोगकी प्राप्ति कराने वाला है। 'असंसक्त' कमल मुमुक्षुओंके लिये उपयुक्त है। संसक्त कमल के तीन भेद हैं- बाल, युवा तथा वृद्ध। वे अपने नामके अनुसार फलसिद्धि प्रदान करनेवाले हैं ॥ १-९॥
कमलके क्षेत्रमें दिशा तथा कोणदिशाको ओर सूत-चालन करे तथा कमलके समान पाँच वृत्त निर्माण करे। प्रथम वृत्तमें नौ पुष्करोंसे युक्त कर्णिका होगी, दूसरेमें चौबीस केसर रहेंगे, तीसरेमें दलोंकी संधि होगी, जिसकी आकृति हाथीके कुम्भस्थलके सदृश होगी, चौथे वृत्तमें दलोंके अग्रभाग होंगे तथा पाँचवें वृत्तमें आकाशमात्र 'शून्य' रहेगा। इसे 'संसक्त कमल' कहा गया है। 'असंसक्त कमल 'में दलाग्रभागपर जो दिशाओंके भाग हैं, उनके विस्तारके अनुसार दो भाग छोड़कर आठ भागोंसे दल बनाये। संधि- विस्तारसूत्रसे उसके मानके अनुसार दलकी रचना करे। इसमें बायेंसे दक्षिणके क्रमसे प्रवृत्त होना चाहिये। इस तरह यह 'वृद्ध संसक्त कमल' बनता है॥ १०-१४॥ अथवा संधिके बीचसे सूतको अर्धचन्द्राकार घुमाये या दो संधियोंके अग्रवर्ती सूतको (अर्धचन्द्राकार) घुमाये। ऐसा करनेसे 'बालपा' बनता है। संधिसूत्रके अग्रभागसे पृष्ठभागकी ओर सूत घुमाये। वह तीक्ष्ण अग्रभागवाला 'युवा' संज्ञक है। ऐसे कमलसे भोग और मोक्षकी उपलब्धि होती है। सम (छः) मुखवाले स्कन्द ! मुक्तिके उद्देश्यसे किये जानेवाले आराधनात्मक कर्ममें 'वृद्ध कमल'का उपयोग करना चाहिये तथा वशीकरण आदिमें 'बालपद्म 'का। 'नवनाभ' कमलचक्र नौ हाथोंका होता है। उसमें मन्त्रात्मक नौ भाग होते हैं। उसके मध्यभागमें कमल होता है। उस कमलके ही मानके अनुसार उसमें पट्टिका, वीथी और द्वारके साथ कण्ठ एवं उपकण्ठके निर्माणकी बात भी कही गयी है। उसके बाह्यभागमें वीथीको स्थिति मानी गयी है।
पाँच भाग में तो वीथी होती है और अपने चारों ओर वह दस भागका स्थान लिये रहती है। उसके आठ दिशाओंमें आठ कमल होते हैं तथा वीथीसहित एक द्वारपद्म भी होता है। उसके बाह्यभागमें पाँच पदोंकी वीथी होती है, जो लता आदिसे विभूषित हुआ करती है। द्वारके कण्ठमें कमल होता है। द्वारका ओष्ठ और कण्ठभाग एक-एक पदका होता है। कपोल भाग एक पदका बनाना चाहिये। तीन दिशाओंमें तीन द्वार स्पष्ट होते हैं। कोणबन्ध तीन पट्टियों, दो पद तथा वज्र-चिह्नसे युक्त होता है। मध्यकमल शुक्लवर्णका होता है तथा शेष दिशाओंके कमल पूर्वादिक्रमसे पीत, रक्त, नील, पीत, शुक्ल, धूम्र, रक्त तथा पीतवर्णके होते हैं। यह कमलचक्र मुक्तिदायक है ॥ १५-२२॥
पूर्व आदि दिशाओं में आठ कमलोंका तथा शिव-विष्णु आदि देवताओंका यजन करे। विष्णु आदिका पूजन प्रासादके मध्यवर्ती कमलमें करके पूर्वादि कमलोंमें इन्द्र आदि लोकपालोंकी पूजा करे। इनकी बाह्यवीथीकी पूर्वादि दिशामें उन उन इन्द्र आदि देवताओंके वज्र आदि आयुधोंकी पूजा करे। वहाँ विष्णु आदिकी पूजा करके साधक अश्वमेधयज्ञके फलका भागी होता है। पवित्रारोपण आदिमें महान् मण्डलकी रचना करे। आठ हाथ लंबे क्षेत्रका छब्बीससे विवर्तन (विभाजन) करे। मध्यवर्ती दो पदोंमें कमल निर्माण करे। तदनन्तर एक पदकी वीथी हो। तत्पश्चात् दिशाओं तथा विदिशाओंमें आठ नीलकमलोंका निर्माण करे। मध्यवर्ती कमलके ही मानसे उसमें कुल तीस पद्म निर्मित किये जायें। वे सब दलसंधिसे रहित हों तथा नीलवर्णके 'इन्दीवर' संज्ञक कमल हों। उसके पृष्ठभागमें एक पदक वीथी हो। उसके ऊपर स्वस्तिकचिह्न बने हों। तात्पर्य यह कि वीथीके ऊपरी भाग या बाह्यभागमें दो-दो पदोंके विभक्त स्थानोंमें कुल आठ स्वस्तिक लिखे जायें। तदनन्तर पूर्ववत् बाह्यभागमें वीथिका रहे। द्वार, कमल तथा उपकण्ठ सब कुछ रहने चाहिये। कोणका रंग लाल और वीथीका पीला होना चाहिये। मण्डलके बीचका कमल नीलवर्णका होगा। कार्तिकेय ! विचित्र रंगोंसे युक्त स्वस्तिक आदि मण्डल सम्पूर्ण कामनाओंको देनेवाला है ॥ २३-२९॥
'पञ्चाब्ज मण्डल' पाँच हाथ के क्षेत्रको सब ओरसे दससे विभाजित करके बनाया जाता है। इस में दो पदोंका कमल, उसके बाह्यभागमें वीथी, फिर पट्टिका, फिर चार दिशाओंमें चार कमल होते हैं। इन चारोंके बाद पृष्ठभागमें वीथी हो, जो एक पद अथवा दो पदोंके स्थानमें बनायी गयी हो। कण्ठ और उपकण्ठसे युक्त द्वार हों और द्वारके मध्यभागमें कमल हो। इस पञ्चाब्ज मण्डलमें पूर्ववर्ती कमल श्वेत और पीतवर्णका होता है। दक्षिणदिग्वर्ती कमल वैदूर्यमणिके रंगका, पश्चिमवर्ती कमल कुन्दके समान श्वेतवर्णका तथा उत्तरदिशाका कमल शङ्खके सदृश उज्वल होता है। शेष सब विचित्र वर्णक होते हैं ॥ ३०-३३॥
अब मैं दस हाथके मण्डलका वर्णन करता हूँ, जो सम्पूर्ण कामनाओंको देनेवाला है। उसको विकार संख्या (२४) द्वारा सब ओर विभक्त करके चौकोर क्षेत्र बना ले। इसमें दो-दो पदोंका द्वार होगा। पूर्वोक्त चक्रोंकी भाँति इसके भी मध्यभागमें कमल होगा। अब मैं 'विघ्नध्वंस- चक्र'का वर्णन करता हूँ। चार हाथका पुर (चौकोर क्षेत्र) बनाकर उसके मध्यभागमें दो हाथके घेरेमें वृत्त (गोलाकर चक्र) बनाये। एक हाथकी वीथी होगी, जो सब ओरसे स्वस्तिक- चिह्नोंद्वारा घिरी रहेगी। एक-एक हाथमें चारों ओर द्वार बनेंगे। चारों दिशाओंमें वृत्त होंगे, जिनमें कमल अङ्कित रहेंगे। इस प्रकार इस चक्रमें पाँच कमल होंगे, जिनका वर्ण श्वेत होगा। मध्यवर्ती कमलमें निष्कल (निराकार परमात्मा) का पूजन करना चाहिये। पूर्वादि दिशाओंमें हृदय आदि अङ्गोंकी तथा विदिशाओंमें अस्त्रोंकी पूजा होनी चाहिये। पूर्ववत् 'सद्योजात' आदि पाँच ब्रहामय मुखोंका भी पूजन आवश्यक है ॥ ३४-३७ ॥
अब मैं 'बुद्धधाधार-चक्र' का वर्णन करता हूँ। सौ पदोंके क्षेत्र में से मध्यवर्ती पंद्रह पदों में एक कमल अङ्कित करे। फिर आठ दिशाओंमें एक एक करके आठ शिवलिङ्गोंकी रचना करे। मेखलाभागसहित कण्ठकी रचना दो पदोंमें होगी। आचार्य अपनी बुद्धिका सहारा लेकर यथास्थान लता आदिकी कल्पना करे। चार, छः, पाँच और आठ आदि कमलोंसे युक्त मण्डल होता है। बीस-तीस आदि कमलोंवाला भी मण्डल होता है। १२१२० कमलोंसे युक्त भी सम्पूर्ण मण्डल हुआ करता है। १२० कमलों के मण्डल का भी वर्णन दृष्टिगोचर होता है। श्रीहरि, शिव, देवी तथा सूर्यदेवके १४४० मण्डल हैं। १७ पदोंद्वारा सत्रह पदोंका विभाग करनेपर २८९ पद होते हैं।
उक्त पदोंके मण्डलमें लतालिङ्गका उद्भव कैसे होता है, यह सुनो। प्रत्येक दिशामें पाँच, तीन, एक, तीन और पाँच पदोंको मिटा दे। ऊपरके दो पदोंसे लिङ्ग तथा पार्श्ववर्ती दो-दो कोष्ठकोंसे मन्दिर बनेगा। मध्यवर्ती दो पदोंका कमल हो। फिर एक कमल और होगा। लिङ्गके पार्श्वभागोंमें दो 'भद्र' बनेंगे। एक पदका द्वार होगा; उसका लोप नहीं किया जायगा। उस द्वारके पार्श्वभागोंमें छः-छः पदोंका लोप करनेसे द्वारशोभा बनेगी। शेष पदोंमें श्रीहरिके लिये लहलहाती लताएँ होंगी। ऊपरके दो पदोंका लोप करनेसे श्रीहरिके लिये 'भद्राष्टक' बनेंगे। फिर चार पदोंका लोप करनेसे रश्मिमालाओंसे युक्त शोभास्थान बनेगा। पचीस पदोंसे कमल, फिर पीठ, अपीठ तथा दो-दो पदोंको रखकर (एकत्र करके) आठ उपशोभाएँ बनेंगी। देवी आदिका सूचक 'भद्रमण्डल' बीचमें विस्तृत और प्रान्तभागमें लघु होता है। बीचमें नौ पदोंका कमल बनता है तथा चारों कोणोंमें चार 'भद्रमण्डल' बनते हैं। शेष त्रयोदश पदोंका 'बुद्धयाधार-मण्डल' है। इसमें एक सौ साठ पद होते हैं। 'बुद्धयाधार- मण्डल' भगवान् शिव आदिकी आराधनाके लिये प्रशस्त है ॥ ३८-४८ ॥
इस प्रकार आदि आग्रेय महापुराणमें 'मण्डलविधानका वर्णन' नामक तीन सौ बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३२०॥
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