अग्नि पुराण तीन सौ उन्नीसवाँ अध्याय ! Agni Purana 319 Chapter !

अग्नि पुराण तीन सौ उन्नीसवाँ अध्याय ! Agni Purana 319 Chapter !

अग्नि पुराण तीन सौ उन्नीसवाँ अध्याय - वागीश्वरीपूजा

ईश्वर उवाच

वागीश्वरीपूजनञ्च प्रवदामि समण्डलम् ।
ऊहकं कालसंयुक्तं मनुं वर्णसमायुतम्।। १ ।।

निषाद ईश्वरं कार्य्यं मनुना चन्द्रसूर्यवत् ।
अक्षरन्न हिदेयं स्यात् ध्यायेत् कुन्देन्दुसन्निभां ।। २ ।।

पञ्चाशद्वर्णमालान्तु मुक्तास्रग्दामभूषिताम् ।
वरदाभयाक्षसूत्रपुस्तकाढ्यां त्रिलोचनां ।। ३ ।।

लक्षं जपेन्मस्तकान्तं स्कन्धान्तं वर्णमालिकां ।
अकारादिक्षकारान्तां विशन्तीं मानवत् स्मरेत् ।। ४ ।।

कुर्य्याद् गुरुश्च दीक्षार्थं मन्त्रग्राहे तु मण्डलम् ।
सूर्य्याग्रमिन्दुभक्तन्तु भागाभ्यां कमलं हितं ।। ५ ।।

वीथिका पदिका कार्य्या पद्मान्यष्टौ चतुष्पदे ।
वीथिका पदिका वाह्ये द्वाराणि द्विपदानि तु ।। ६ ।।

उपद्वाराणि तद्वच्च कोणवान्धं द्विपट्टिकम् ।
सितानि नव पद्मानि कर्णिका कनकप्रभा ।। ७ ।।

केशराणि विचित्राणि कोणात्रक्तेन पूरयेत् ।
व्योमरेखान्तरं कृष्णं द्वाराणीन्द्रेभमानतः ।। ८ ।।

मध्ये सरस्वतीं पद्मेवागीशी पूर्व्वपद्मके ।
हृत्लेखा चित्रवागीशी गायत्री विश्वरुपया ।। ९ ।।

शाङ्करी मतिर्धुतिश्च पूर्व्वाद्या ह्रीँ स्ववीजकाः ।
ध्येया सरस्वतीवच्च कपिलाज्येन होमकः । १०।।

संस्कृतप्राकृतकविः काव्यशास्त्रादिविद्भवेत् ।। ११ ।।

इत्यादिमहापुराणे आग्नेये वागीश्वरीपूजा नामोनविशत्यधिकत्रिशततमोऽध्यायः ॥

अग्नि पुराण - तीन सौ उन्नीसवाँ अध्याय ! हिन्दी मे -Agni Purana 319 Chapter!-In Hindi

तीन सौ उन्नीसवाँ अध्याय - वागीश्वरी की पूजा एवं मन्त्र आदि

भगवान् शिव कहते हैं- स्कन्द! अब मैं मण्डलसहित 'वागीश्वरी-पूजन' की विधि बता रहा हूँ। ऊहक (ऊ) को काल (घ) से संयुक्त करके उसका चन्द्रमा (अनुस्वार) से योग करें तो वह एकाक्षर मन्त्र बनेगा (घूं)। निषादपर ईश्वर (ई) का योग करके उसे बिन्दु-विसर्गसे समन्वित करे। इस एकाक्षर मन्त्रका उपदेश सबको नहीं देना चाहिये। वागीश्वरीदेवीका ध्यान इस प्रकार करे- 'देवीकी अङ्गकान्ति कुन्दकुसुम तथा चन्द्रमाके समान उज्ज्वल है। वे पचास वर्षोंका मालामय रूप धारण करती हैं। मुक्ताकी माला तथा श्वेतपुष्पके हारोंसे सुशोभित हैं। उनके चार हाथोंमें क्रमशः वरद, अभय, अक्षमाला तथा पुस्तक शोभा पाते हैं। वे तीन नेत्रोंसे युक्त हैं।' इस प्रकार ध्यान करके उक्त एकाक्षर-मन्त्रका एक लाख जप करे। 'देवी पैरोंसे लेकर मस्तकपर्यन्त अथवा कंधोंतक ककारसे लेकर क्षकारतककी वर्णमाला धारण करती हैं' इस प्रकार उनके स्वरूपका स्मरण करे ॥ १-४॥ 

गुरु दीक्षा देने या मन्त्रोपदेश करनेके लिये एक मण्डल बनाये। वह सूर्याग्र हो और इन्दुसे विभक्त हो। दो भागोंमें कमल बनाये। वह कमल साधकके लिये हितकर होता है। फिर वीथी और पाया बनाये। चार पदोंमें आठ कमल बनाये। उनके बाह्यभागमें वीथी और पदिकाका निर्माण करे। दो-दो पदोंद्वारा प्रत्येक दिशामें द्वार बनाये। इसी तरह उपद्वारोंका भी निर्माण करे। कोणोंमें दो-दो पट्टिकाएँ निर्मित करे। अब नौ कमल (वर्णाब्ज तथा दिशाओंसे सम्बद्ध कमल) श्वेतवर्णके रखे। कर्णिकापर सोनेके रंगका चूर्ण गिराकर उसे पीली कर दे। केसरोंको अनेक रंगोंसे रंगकर कोणोंको लाल रंगसे भरे। व्योमरेखान्तर काला रखे द्वारोंका मान इन्द्रके हाथीके मानके अनुसार रखे। 

मध्यकमलमें सरस्वतीको, पूर्वगत कमल में वागीशी को, फिर अग्रि आदि कोणों के क्रम से हल्लेखा, चित्रवागीशी, गायत्री, विश्वरूपा, शाङ्करी, मति और धृतिको स्थापित करके उन सबका पूजन करे। नामके आदिमें 'ह्रीं' तथा नामके आदि अक्षरको बीज- रूपोंमें बोलकर पूजा करनी चाहिये। यथा- पूर्वमें 'ह्रीं वां वागीश्यै नमः' इत्यादि। सरस्वती ही वागीश्वरीके रूपमें ध्येय हैं। जप पूरा करके कपिला गायके घीसे हवन करे। ऐसा करनेवाला साधक संस्कृत तथा प्राकृत भाषाओंमें काव्य- रचना करनेवाला कवि होता है और काव्यशास्त्र आदिका विद्वान् हो जाता है॥५-११॥
इस प्रकार आदि आग्रेय महापुराणमें 'वागीश्वरी पूजा' नामक तीन सौ उन्नीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३१९॥

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