अग्नि पुराण तीन सौ सत्रहवाँ अध्याय ! Agni Purana 317 Chapter !
अग्नि पुराण तीन सौ सत्रहवाँ अध्याय - सकलादिमन्त्रोद्धारः
ईश्वर उवाच
सकलं निष्कलं शून्यं कलाढयं स्वमलङ्कृतम् ।
क्षपणं क्षयमन्तस्थं कण्ठोष्ठं चाष्टमं शिवम् ।। १ ।।
प्रासादस्य१ पराख्यस्य स्मृतं रुपं गुहाष्टधा ।
सदाशिवश्य शब्दस्य रूपस्याखिलसिद्धये ।। २ ।।
अमृतश्चांशुमांश्चेन्दुश्चेश्वरश्चोग्र ऊहकः ।
एकपादेन ओजाख्य औषधश्चांशुमान् वशी ।। ३ ।।
अकारादेः क्षकारश्च ककारादेः क्रमादिमे ।
कामदेवः शिखण्डी च गणेशः कालशङ्करौ ।। ४ ।।
एकनेत्रो द्विनेत्रश्च त्रिशिखो दीर्घबाहुकः ।
एकपादर्द्धचन्द्रश्च वलपो योगिनीप्रियः ।। ५ ।।
शक्तीश्वरो महाग्रन्धिस्तर्पकः स्थाणुदन्तुरौ ।
निधीरो नन्दी पद्मश्च तथान्यः शाकिनीप्रियः ।। ६ ।।
मुखविम्वो भीषणश्च कृतान्तः प्राणसंज्ञकः ।
तेजस्वी शक्र उदधिः श्रीकण्ठः सिंह एव च ।। ७ ।
शशङ्गो विश्वरूपश्च क्षश्च स्यान्नरसिहकः ।
सुर्य्यमात्रासमाक्रान्तं विश्वरूपन्तु कारयेत् ।। ८ ।।
अंशुमत्संयुतं कृत्वा शशिवीजं विनायुतम् ।
ईशानमोजसाक्रान्तं प्रथमन्तु समुद्धरेत् ।। ९ ।
तृतीयं पुरुषं विद्धि दक्षिणं पञ्चमं तथा ।
सप्तमं वामदेवन्तु सद्योजातन्ततः परं ।। १० ।।
रसयुक्तन्तु नवमं ब्रह्मपञ्चकमीरितम् ।
ओंकाराद्याश्चतुर्थ्यन्ता नमोन्ताः सर्व्वमन्त्रकाः ।। ११ ।।
सद्योदेवा द्वितीयन्तु हृदयञ्चाङ्गसंयुतम् ।
चतुर्थन्तु शिरो विद्धि ईश्वरन्नामनामतः ।। १२ ।।
ऊहकन्तु शिखा ज्ञेया विश्वरूपसमन्विता ।
तन्मन्त्रमष्टमं ख्यातं नेत्रन्तु दशमं मतम् ।। १३ ।।
अस्त्रं शशी समाख्यातं शिवसंज्ञं शिखिध्वजः ।
नमः स्वाहा तथा वौषट् ह्रँ च फट्कक्रमेण तु ।। १४ ।।
जातिफट्कं हृदादीनां प्रासादं मन्त्रमावदे ।
ईशानाद्रुद्रसंख्यातं प्रोद्धरेच्चांशुरञ्चितम् ।। १५ ।।
औषधाक्रान्तशिरसमूहकस्योपरिस्थितं ।
अर्द्धचन्द्रोर्द्धनादश्च विन्दुद्वितयमध्यगं ।। १६ ।।
तदन्ते विश्वरूपन्तु कृटिलन्तु त्रिधा ततः ।
एवं प्रासादमन्त्रश्च सर्व्वकर्म्मकरो मनुः ।। १७ ।।
शिखाबीजं समुद्धृत्य फट्कारान्तन्तु चैव फट् ।
अर्द्धचन्द्रासनं ज्ञेयं कामदेवं ससर्पकम् ।। १८ ।।
महापाशुपतास्त्रन्तु सर्व्वदुष्टप्रमर्द्दनम् ।
प्रासादः सकलः प्रोक्तो निष्कलः प्रोच्यते ऽधुना ।। १९ ।।
औषधं विश्वरूपन्तु रुद्राख्यं सूर्य्यमण्डलम् ।
चन्द्रार्द्धं नादसंयोगं विसंज्ञं कुटिलन्ततः ।। २० ।।
निष्कलोभुक्तिमुक्तौ स्यात्पञ्चाङ्गोऽयं सदाशिवः ।
अंशुमान् विस्वरुपञ्च आवृतं शून्यरञ्जितम् ।। २१ ।।
ब्रह्माङ्गरहितः शून्यस्तस्य मूर्त्तिरसस्तरुः ।
विघ्ननाशाय भवति पूजितो बालबालिसैः ।। २२ ।।
अंशुमान् विश्वरूपाख्यमूहकस्योपरि स्थितम् ।
कलाढ्यं सकलस्यैव पूजाङ्गादि च सर्व्वतः ।। २३ ।।
नरसिंहं कृतान्तस्थं तेजस्विग्राणमूर्द्धगम् ।
अंशुमानूहकाक्रान्तमधोर्द्धं स्वसलङ्घृतम् ।। २४ ।।
चन्द्रार्द्धनादनादानतं ब्रह्मविष्णुविभूषितम् ।
उदधिं नरसिंहञ्च सूर्य्यमात्राविभेदितम् ।। २५ ।।
यदा कृतं तदा तस्य ब्रह्माण्यङ्गानि पूर्व्ववत् ।
ओजाख्यमंशुमद्युक्तं प्रथमं वर्णमुद्धरेत् ।। २६ ।।
अंशुमच्चांशुनाक्रान्तंक द्वितीयं वर्णनायकम् ।
अंशुमानीश्चरन्तद्वत् तृतीयं मुक्तिदायकम् ।। २७ ।।
ऊहकञ्चांशुनाक्रान्तं वरुणप्राणतैजसम् ।
पद्ममिन्दुसमाक्रान्तं नन्दीशमेकपादधृक् ।। २८ ।।
अंशुमानुदकप्राणः सप्तमं वर्णमुद्धृतम् ।
अस्यार्द्धं तृतीयञ्चैव पञ्चमं सप्तमं तथा ।। २९ ।।
प्रथमञ्चान्ततो योज्यं क्षपणं दशवीजकम् ।
अस्यार्द्धंतृतीयञ्चैव पञ्चैमं सप्तमं तथा ।। ३० ।।
सद्योजातन्तु नवमं द्वितीयाद्धृदयादिकम् ।
दशार्णप्रणवं यत्तु फडन्तञ्चास्त्रमुद्धरेत् ।। ३१ ।।
नमस्कारयुतान्यत्र ब्रह्माङ्गानि तु नान्यथा ।
द्वितीयादष्टमं यावदष्टौ विद्येश्वरा मताः ।। ३२ ।।
अनन्तेशश्च सूक्षमश्च तृतीयश्च शिवोत्तमः ।
एकमूर्त्त्येकरूपस्तु त्रिमूर्त्तिरपस्तथा ।। ३३ ।।
श्रीकण्ठश्च शिखण्डी च अष्टौ वद्येश्वराः स्मृताः ।
शिखिण्डिनोऽप्यनन्तान्तं मन्त्रान्तं मूर्त्तिरीरीता ।। ३४ ।।
इत्यादिमहापुराणे अग्नेये सकलादिमन्त्रोद्धारो नाम सप्तदशाधिकत्रिशततमोऽध्याय ॥
अग्नि पुराण - तीन सौ सत्रहवाँ अध्याय ! हिन्दी मे -Agni Purana 317 Chapter!-In Hindi
तीन सौ सत्रहवाँ अध्याय सकलादि मन्त्रों के उद्धारका क्रम
भगवान् शिव कहते हैं- स्कन्द ! सकल, निष्कल, शून्य, कलाढ्य, समलंकृत, क्षपण, क्षय, अन्तःस्थ, कण्ठोष्ठ तथा आठवाँ शिव 'ये प्रासादपरासंज्ञक मन्त्रके आठ स्वरूप माने गये हैं। ('कलाढ्ध' सकलके और 'शून्य' निष्कलके अन्तर्गत है।) यह शब्दमय मन्त्र साक्षात् सदाशिवरूप है। इसके जपसे सम्पूर्ण सिद्धियोंकी प्राप्ति होती है॥१-२॥
अमृत, अंशुमान्, इन्द्र, ईश्वर, उग्र, ऊहक्, एकपाद, ऐल, ओज, औषध, अंशुमान् और वशी- ये क्रमशः अकार आदि बारह स्वरोंके वाचक हैं (यथा-अ आ इ ई उ ऊ ए ऐ ओ औ अं अः)। तथा आगे जो शब्द दिये जा रहे हैं, ये ककार आदि अक्षरोंके सूचक हैं। कामदेव, शिखण्डी, गणेश, काल, शंकर, एकनेत्र, द्विनेत्र, त्रिशिख, दीर्घबाहु, एकपाद, अर्धचन्द्र, वलय, योगिनीप्रिय, शक्तीश्वर, महाग्रन्थि, तर्पक, स्थाणु, दन्तुर, निधीश, नन्दि, पद्म, शाकिनीप्रिय, मुखबिम्ब, भीषण, कृतान्त (यम), प्राण, तेजस्वी, शक्र, उदधि, श्रीकण्ठ, सिंह, शशाङ्क, विश्वरूप तथा नारसिंह (क्ष)। विश्वरूप अर्थात् हकारको बारह मात्राओंसे युक्त करके लिखे। (इस प्रकार ये बारह बीज होते हैं, जो अङ्गन्यास एवं करन्यासके उपयोगमें आते हैं।) ॥३-८॥
विश्वरूप (ह) को अंशुमान् (अनुस्वार) तथा ओज (ओकार) से युक्त करके रखा जाय; उसमें शशिबीज (स) का योग न किया जाय तो 'हों'- यह प्रथम बीज उद्धृत होता है, जो 'ईशान' से सम्बद्ध है। उपर्युक्त बारह बीजोंमें पाँच हस्वयुक्त बीज माने जाते हैं और छः दीर्घ बीज। पहली और ग्यारहवीं मात्रामें एक ही 'है' बीज बनता है। 'हं हिं हूं हैं हों'- ये पाँच हस्वयुक्त बोज हैं तथा शेष दीर्घयुक्त। ह्रस्व बीजोंमें विलोम गणनासे (हों) प्रथम है। शेष क्रमशः तृतीय, पञ्चम, सप्तम और नवम कहे गये हैं। द्वितीय आदि दीर्घ हैं। तृतीय बीज है- 'हैं'। यह तत्पुरुष-सम्बन्धी बीज है, ऐसा जानो। पाँचवाँ बीज 'हूं' है, जो दक्षिणदिशावर्ती मुख 'अघोर'का बीज है। सातवाँ बीज है 'हिं'। इसे 'वामदेवका बीज' जानना चाहिये। इसके बाद रस (अमृत) संज्ञक मात्रा (अकार) से युक्त सानुस्वार हकार अर्थात् 'हे' बीज है; वह उपर्युक्त गणनाक्रमसे नवाँ है और 'सद्योजात 'से सम्बद्ध है। इस प्रकार उक्त पाँच बीजोंसे युक्त 'ईशान' आदि मुखोंको 'ब्रह्मपञ्चक' कहा गया है। इनके आदिमें 'प्रणव' तथा अन्तमें 'नमः' जोड़ दे। 'ईशान' आदि नामोंका चतुर्थ्यन्त प्रयोग करे तो सभी उनके लिये पूजोपयुक्त मन्त्र हो जाते हैं। यथाॐ हों ईशानाय नमः।' इत्यादि। इसी प्रकार 'ॐ हं सद्योजाताय नमः।' यह सद्योजात-देवताका मन्त्र है।
द्वितीय, चतुर्थ आदि मात्राएँ दीर्घ हैं, अतः उनका हृदयादि अङ्गोंमें न्यास किया जाता है। द्वितीय बीजको बोलकर हृदय और अङ्ग-मन्त्र (नमः) बोलकर हृदयमें न्यास करे। यथा 'हां हृदयाय नमः, हृदि।' चतुर्थ बीज 'शिरोमन्त्र' है, जो हकारमें ईश्वर तथा अंशुमान् ( ं) जोड़नेसे सम्पन्न होता है। यथा- 'ह्रीं शिरसे स्वाहा, शिरसि।' विश्वरूप (ह) में ऊहक (ऊ) तथा अनुस्वार जोड्नेपर छठा बीज 'हूं' बनता है। उसे 'शिखामन्त्र' जानना चाहिये। यथा- 'हूं शिखायै वषट्, शिखायां हुम्।' अर्थात् कवचका मन्त्र आठवाँ बीज 'हैं' है। यथा- 'है कवचाय हुम्- बाहुमूलयोः।' दसवाँ बीज 'हाँ' नेत्र मन्त्र कहा गया है। यथा-'हीँ नेत्रत्रयाय वौषट्, नेत्रयोः।' अस्त्र-मन्त्र वशी (विसर्गयुक्त) है। शिखिध्वज! इसे शिवसंज्ञक माना गया है। यथा- 'हः अस्त्राय फट्।' (इससे चारों ओर तर्जनी और अङ्गुष्ठद्वारा ताली बजाये।) हृदयादि अङ्गोंकी छः जातियाँ क्रमशः इस प्रकार हैं- नमः, स्वाहा, वषट्, हुम्, वौषट् तथा फट् । अब मैं 'प्रासाद-मन्त्र' बताता हूँ। 'हीं हीं हूं'- ये प्रासादमन्त्रके तीन बीज हैं। इसे 'कुटिल' संज्ञा दी गयी है। इस प्रकार यह प्रासाद-मन्त्र समस्त कार्योंको सिद्ध करनेवाला है। हृदय- शिखा आदि बीजोंका पूर्वोक्त रीतिसे उद्धार करके फट्कारपर्यन्त सब अङ्गोंका न्यास करना चाहिये। अर्धचन्द्राकार आसन दे। 'भगवान् पशुपति कामपूरक देवता हैं तथा सर्पोंसे विभूषित हैं।' इस प्रकार ध्यान करके महापाशुपतास्त्र मन्त्रका जप करे। यह समस्त शत्रुओंका मर्दन करनेवाला है। यह 'सकल (कलासहित) प्रासाद मन्त्र'का वर्णन किया गया। अब 'निष्कल मन्त्र' कहा जाता है ॥ ९-१९ ॥
औषध (औ), विश्वरूप (ह), ग्यारहवीं मात्रा, सूर्यमण्डल (अनुस्वार) इनसे युक्त अर्धचन्द्र (अनुनासिक) एवं नादसे युक्त जो 'हौं' मन्त्र है। यह 'निष्कल प्रासाद मन्त्र' है; इसे संज्ञाविहीन 'कुटिल' भी कहते हैं। 'निष्कल प्रासाद-मन्त्र' भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाला है। सदाशिवस्वरूप 'प्रासाद-मन्त्र' ईशानादि पाँच ब्रह्ममूर्तियोंसे युक्त होता है; अतः वह 'पञ्चाङ्ग' या 'साङ्ग' कहा गया है'। अंशुमान् (अनुस्वार), विश्वरूप (ह) तथा अमृत (अ) इन तीनोंके योगसे व्यक्त हुआ 'हे' बीज 'शून्य' नामसे अभिहित होता है। (यह 'हिं हूं हैं हों'- इन सबका उपलक्षण है।) ईशान आदि ब्रह्मात्मक अङ्गों (मुखों) से रहित होनेपर ही उसकी शून्य संज्ञा होती है। ईशानादि मूर्तियाँ इन बीजोंके अमृततरु हैं। इनका पूजन समस्त विघ्नोंका नाश करनेवाला है॥ २०-२२॥
अंशुमान् (अनुस्वार) युक्त विश्वरूप (ह) यदि ऊहक (ऊ) के ऊपर अधिष्ठित हो तो वह 'हूं' बीज 'कलाढ्य' कहा गया है। वह 'सकल' के ही अन्तर्गत है। सकलके ही पूजन और अङ्गन्यास आदि सदा होते हैं। (इसी तरह जो 'शून्य' कहा गया है, वह 'निष्कल' के ही अन्तर्गत है।) नरसिंह यमराजके ऊपर बैठे हों, अर्थात् क्षकार मकारके ऊपर चढ़ा हो, साथ ही तेजस्वी (२) तथा प्राण (य) का भी योग हो, फिर ऊपर अंशुमान् (अनुस्वार) हो तथा नीचे ऊहक (दीर्घ ऊकार) हो तो 'क्ष्प्रयूं'- यह बीज उद्धृत होता है। इसकी 'समलंकृत' संज्ञा है। यह ऊपर और नीचे भी मात्रासे अलंकृत होनेके कारण 'समलंकृत' कहा गया है। यह भी 'प्रासादपर' नामक मन्त्रका एक भेद है। चन्द्रार्धाकार बिन्दु और नादसे युक्त ब्रह्मा एवं विष्णुके नामोंसे विभूषित क्रमशः उदधि (व) और नरसिंह (क्ष) को बारह मात्राओंसे भेदित करे। ऐसा करनेपर पूर्ववत् हस्वस्वरोंसे युक्त बीज ईशानादि ब्रह्मात्मक अङ्ग होंगे तथा दीर्घस्वरोंसे युक्त बीजसहित मन्त्र हृदयादि अङ्गोंमें विन्यस्त किये जायेंगे ॥ २३-२५ ॥
अब दस बीजरूप प्रणव बताये जाते हैं- ओजको अनुस्वारसे युक्त करके 'ओम्' इस प्रथम वर्णका उद्धार करे। अंशुमान् और अंशुका योग 'आं' यह नायकस्वरूप द्वितीय वर्ण है। अंशुमान् और ईश्वर 'ई'- यह तृतीय वर्ण है, जो मुक्ति प्रदान करनेवाला है। अंशु (अनुस्वार)- से आक्रान्त ऊहक अर्थात् 'ॐ' यह चतुर्थ वर्ण है। सानुस्वार वरुण (व्), प्राण (यू) और तेजस् (र)- अर्थात् 'व्यूं' इसे पञ्चम बीजाक्षर बताया गया है। तत्पश्चात् सानुस्वार कृतान्त (मकार) अर्थात् 'में' यह षष्ठ बीज है। सानुस्वार उदक और प्राण (व्यं) सप्तम बीजके रूपमें उद्धृत हुआ है। इन्दुयुक्त पद्म 'पं' आठवाँ तथा एकपादयुक्त नन्दीश 'में' नवाँ बीज है। अन्तमें प्रथम बीज 'ओम्'का ही उल्लेख किया जाता है। इस प्रकार जो दशबीजात्मक मन्त्र है, इसे 'क्षपण' कहा गया है। इसका पहला, तीसरा, पाँचवाँ, सातवाँ तथा नवाँ बीज क्रमशः ईशान, तत्पुरुष, अघोर, वामदेव और सद्योजातस्वरूप है।
द्वितीय आदि बीज हृदयादि अङ्गन्यासमें उपयुक्त होते हैं। दसों प्रणवात्मक बीजोंक एक साथ उच्चारणपूर्वक 'अस्त्राय फट्' बोलकर अस्वन्यास करे। ईशानादि मूर्तियोंक अन्तमें 'नमः' जोड़कर ही बोलना चाहिये, अन्यथा नहीं। द्वितीय बीजसे लेकर नवम बीजतकके जो आठ बीज हैं, वे आठ विद्येश्वररूप हैं। उनके नाम ये हैं- अनन्तेश, सूक्ष्म, शिवोत्तम, एकमूर्ति, एकरूप, त्रिमूर्ति, श्रीकण्ठ तथा शिखण्डी- ये आठ विद्येश्वर कहे गये हैं। शिखण्डीसे लेकर अनन्तेशपर्यन्त विलोम क्रमसे बीजमन्त्रोंका सम्बन्ध जोड़ना चाहियें'। (यही प्रासाद मन्त्रका 'क्षय' नामक भेद है।) इस तरह यहाँ मूर्ति विद्या बतायी गयी ॥ २६-३४॥
इस प्रकार आदि आग्रेय महापुराणमें 'सकलादि मन्त्रोंक उद्धार का वर्णन' नामक तीन सौ सत्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥ ३१७ ॥
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